(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक एवं प्रेरक कहानी – “एक रिकवरी ऐसी भी”।)
☆ कहानी – “एक रिकवरी ऐसी भी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
बैंकों में बढ़ते एनपीए जैसे समाचार पढ़ते हुए उस ईमानदार मृतात्मा की याद आ गई, जिसने अपने बेटे को सपना देकर अपने पुराने लोन को पटाने हेतु प्रेरणा दी।
किसी ने ठीक ही कहा है कि कर्ज, फर्ज और मर्ज को कभी नहीं भूलना चाहिए, लेकिन इस आदर्श वाक्य को लोग पढकर टाल देते है। कर्ज लेते समय तो उनका व्यवहार अत्यंत मृदु होता है, लेकिन मतलब निकलने के बाद वे नजरें चुराने लगते है, कई ऐसे लोग है जो बैंक से काफी लोन लेकर उसे पचा जाते है, लेकिन ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जो कर्ज, फर्ज और मर्ज का बराबर ख्याल रखते है।
एक बैंक की शाखा के एक कर्जदार ने अपनी मृत्यु के बाद भी बैंक से लिए कर्ज को चुकाने सपने में अपने परिजन को प्रेरित किया जिससे उसके द्वारा २० साल पहले लिया कर्ज पट गया।जब लोगों को इस बात का पता चला तो लोगों ने दातों तले उगलियाँ दबा कर हतप्रद रह गए।
बात सोलह साल पुरानी है जब हम स्टेट बैंक की एक शाखा में शाखा प्रबन्धक के रूप में पदस्थ थे। इस मामले का खुलासा करने में हमें भी तनिक हिचक और आश्चर्य के साथ सहज रूप से विश्वास नहीं हो रहा था, इसीलिए हमने कुछ अपनों को यह बात बताई,साथ ही अपनों को यह भी सलाह दी कि ”किसी से बताना नहीं ….. पर कुछ दिन पहले एक रिकवरी ऐसी भी आई।……..यह बात फैलते – फैलते खबरनबीसों तक पहुच गई, फिर इस बात को खबर बनाकर स्थानीय संवाददाता ने खबर को प्रमुखता से अपने पत्र में प्रकाशित करवा दिया। खबर यह थी कि २० साल पहले एक ग्राहक ने बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन कर्ज चुकाने के पहले ही वह परलोक सिधार गया …………। उसके बेटे ने एक दिन बैंक में आकर अपने पिता द्वारा लिए गए कर्ज की जानकारी ली, बेटे ने बताया कि उसके पिता बार-बार सपने में आते है और बार-बार यही कहते है कि बेटा बैंक का कर्ज चुका दो,पहले तो शाखा के स्टाफ को आश्चर्य हुआ और बात पर भरोसा नहीं हुआ, लेकिन उसके बेटे के चेहरे पर उभर आई चिंता और उसके संवेदनशील मन पर गौर करते हुए अपलेखित खातों की सूची में उसके पिता का नाम मिल ही गया,उसकी बात पर कुछ यकीन भी हुआ, फिर उसने बताया कि पिता जी की बहुत पहले मृत्यु हो गई थी,पर कुछ दिनों से हर रात को पिता जी सपने में आकर पूछते है की कर्ज का क्या हुआ ? और मेरी नींद खुल जाती है फिर सो नहीं पता, लगातार २० दिनों से नहीं सो पाया हूँ,आज किसी भी हालत में पिता जी का कर्ज चुका कर ही घर जाना हो पायेगा। अधिक नहीं मात्र १६५००/ का हिसाब ब्याज सहित बना, उसने हँसते -हँसते चुकाया और बोला – आज तो सच में गंगा नहए जैसा लग रहा है।
अगले दो-तीन दिनों तक उसकी खोज -खबर ली गई उसने बताया की कर्ज चुकने के बाद पिता जी बिलकुल भी नहीं दिखे, उस दिन से उसे खूब नीदं आ रही है। जिन लोगों ने इस बात को सुना उन्हें भले इस खबर पर अंधविश्वास की बू आयी है,पर उस पवित्र आत्मा की प्रेरणा से जहाँ बैंक की वसूली हो गई वहीँ एक पुत्र पितृ-लोन से मुक्त हो गया,इस खबर को तमाम जगहों पढ़ा गया और हो सकता है कि कई दूर-दराज शाखाओं की पुरानी अपलेखित खातों में इस खबर से वसूली हुई हो। पर ये सच है कि पहले के जमाने में स्टेट बैंक का ग्राहक होना गर्व और इज्जत का विषय होता था। तभी तो लोग कहते थे कि स्टेट बैंक में ऐसे ईमानदार कर्जदार भी होते थे जो मरकर भी अपने कर्ज को चुकवाते हुए बैंक की वसूली का माहौल भी बनाते थे…
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा “यह झूठ, वह झूठ”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ – यह झूठ, वह झूठ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
वयोवृद्ध सरयू ने कहानियाँ सुनाने में धूम मचा रखी थी। बूढ़े लोग हों तो सरयू उनकी उम्र को ध्यान में रखते हुए कहानियाँ सुनाता था। जवान हों तो सरयू के ओठों से उनके लिए कहानियाँ तो मानो सर – सर करती बहती जाती थीं। बच्चों की उम्र के हिसाब से सरयू के पास कहानियों का खजाना हुआ। तभी तो बच्चे उसे देखने पर कहानियाँ सुनने के लिए उसे घेर लेते थे। इसी तरह बेटियों – माताओं के लिए भी सरयू के कंठ में कहानियों का भंडार था।
कहानियों की धूम मचाने वाले सरयू का समाचार राजा तक पहुँचाने वाला उसका सारथि हुआ। राजा को रथ पर बैठ कर हवाखोरी के लिए बाहर जाना था, लेकिन सारथि वक्त पर पहुँच न पाया था। राजा के डाँटने पर उसने रास्ते पर भीड़ होने के कारण अटक जाने का अपना कष्ट सुनाया। सरयू की कहानियों के दीवाने विस्तृत संख्या में उसे घेर कर उससे कहानियाँ सुन रहे थे।
राजा को सरयू विस्मयकारी लगा। उसे इस बात की जिज्ञासा हुई कि सरयू अपनी कहानियों में सुनाता क्या है? उसने पता लगाने पर जाना सरजू की कहानियाँ सत्य पर आधारित होती नहीं हैं। तो भी उसकी कहानियाँ अद्भुत होती हैं। पर उसकी कहानियाँ अद्भुत होना राजा के लिए मिथ्या हुआ। उसने इस पक्ष को लिया कि सरयू की कहानियाँ सरासर झूठी होती हैं।
राजा के आदेश पर सरयू को राज दरबार में लाया गया। राजा ने कहा, “मुझे मालूम हो गया है तुम्हारी कहानियाँ झूठी होती हैं। इसका मतलब हुआ तुम प्रजा में झूठ की आदत डाल रहे हो।”
सरजू ने अपना तर्क रखा वह तो मनोरंजन के लिए कहानियों का आश्रय लेता है। लोग उसकी कहानियों से आनन्दित होते हैं तो उसे लगता है अपना जन्म सार्थक हुआ। पर राजा ने उसे न मान कर उस पर कहानियाँ सुनाने की पाबंदी लगा दी। इस वर्जन से सरयू काँप पड़ा। उसने हाथ जोड़ कर कहा, “राजन, कहानियाँ तो मेरे खून में हैं। कहानियों के रूप में मैं अपने खून का कतरा बाँटता हूँ। मेरा यह आधार मुझसे छीना न जाए।”
उसके बहुत कहने पर भी राजा की ओर से उसे कहानियाँ सुनाने की आज्ञा नहीं मिली। राजा ने क्रोध में उसे झूठा कह कर दरबार से बाहर निकलवा दिया। राजा के न्याय में यह भी आया कि सरयू अब भी झूठी कहानियाँ सुनाने का हठ करे तो उसे देश से निष्कासित कर दिया जाएगा।
सरयू वहाँ से रो कर गया।
राज दरबार में राजकवि भी उपस्थित था। वह अपनी कविताओं के बारे में सोचने लगा था। यदि सरयू बोलने में झूठा था तो राजकवि लिखने में झूठा हुआ। उसने कब किसी औरत को नदी में नंगी देह नहाते देखा, लेकिन राजा उसकी ऐसी कविताओं से खुश हो कर उसे शाबाशी देता था। राजा एक बार शत्रु राजा से लड़ाई में पराजित हो कर लौटा था। राजकवि ने उसकी पराजय को शब्दबद्ध न कर के लिखा था राजा की तलवार की झनझनाहट सुनने पर शत्रु राजा की सेना में भगदड़ मच जाती थी।
राजकवि ने राजा को विश्व सम्राट जैसे महान झूठों का नायक बना कर उस पर आधारित जो महाकाव्य लिखा था इसके बल पर उसे आजीवन राजकवि का पद प्राप्त हुआ था।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “पत्नी यानी/तीखा व्यंग“.)
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा करनी का फल…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 216 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – करनी का फल… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆
जीवन के रंग कितने निराले हैं। आज जैसे ही लल्लन ने सूचना दी कि …”बड़ी चाची नहीं रही।”
हमने कहा …”ठीक है हम थोड़ी देर में पहुंचते हैं।”
लल्लन ने कहा.. “कोई बात नहीं हमने बहुत पहले ही फॉर्म भर दिया था देहदान के लिए।”
इसका मतलब तो यह हुआ जब देहदान कर ही दिया है तो घर जाने का क्या अर्थ?
तब सारी परतें खुलने लगी वह क्षण याद आने लगा जब 4 महीने के बच्चे को छोड़कर फूफा जी नहीं रहे थे। तब बुआ ने मुश्किल से लल्लन का पालन पोषण किया था और उसे कलेक्टर बनाया लेकिन वह अपनी बेवकूफी में कलेक्ट्री हाथ से धो बैठा और गलत संगत में पड़ गया इस कारण पत्नी बच्चे भी छोड़ कर चले गए केवल मां ही उसके लिए एक सहारा बची थीं मां जानते हुए भी कि बच्चा अपनी राह से भटक चुका है फिर भी उसे कई बार राह पर लाने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें जो जीवन में कभी नहीं सोचा था वह हुआ, बच्चे के हाथ से मार भी खानी पड़ेगी तिल तिल कर के उस बच्चे ने जाने किस जन्म का बदला लिया। वह सिर्फ अपनी अय्याशी अपनी मनमर्जी करना चाहता था उसे जब जब चाची ने रोका टोका तब तब उसने उस बात की अवहेलना की। और 3 दिन पहले ही पता चला कि चाची घर पर गिर पड़ी है और वह कोमा में चली गई ।आज जैसे ही देह दान का पता चला अंतर्मन से सिर्फ एक ही आवाज निकली लल्लन को उसकी करनी का फल जरुर मिलेगा।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पचास पार की औरत’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 134 ☆
☆ लघुकथा – पचास पार की औरत☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी-सी हो रही थी। क्यों? यह उसे भी नहीं पता।बस मन कुछ उचट रहा था। रह-रहकर निराशा और अकेलापन उसे घेर लेता। बेटी की शादी के बाद से अक्सर ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। कहीं पढ़ा था कि पैंतालीस-पचास की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं, तो यह मूड स्विंग है? मेरे साथ भी यही हो रहा है क्या? अपने में ही उलझी हुई थी कि फोन की घंटी बजी। बेटी का फोन था– ‘क्या कर रही हो मम्माँ! बर्थ डे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब ? ‘
‘अरे, कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थ डे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा चालीस-पैंतालीस के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा! विदेश में कहते हैं कि जीवन चालीस में शुरू होता है। हमारे देश में तो इस उम्र तक आते-आते महिलाएं चुक जाती हैं। ‘वह सोचने लगी अब पति कहते हैं– ‘तुम्हें आराम के लिए समय नहीं मिलता था ना, अब जितना आराम करना है करो।‘ बेटी समझाती है- ‘घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। ‘वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको ?
‘हैलो मम्माँ कहाँ खो गईं ?’ बेटी फोन पर फिर बोली ।
‘अरे यहीं हूँ, बोल ना।‘
‘बताया नहीं आपने, क्या करेंगी बर्थ डे पर?‘
अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ। मुँह धोकर वह शीशे के सामने खड़ी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। वह मुस्कुराने लगी, सुना था ऐसा करने से मन खुशी से भर जाता है। हाँ कुछ कह रहा है मन ‘-अब भी अपने लिए नहीं जीऊँगी तो कब? निकलना ही होगा अपने बनाए इस घेरे से। ‘उसने कपड़े बदले, रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “कम्बल…”।)
☆ तन्मय साहित्य #212 ☆
☆ लघुकथा – कम्बल…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
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जनवरी की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से बेमौसम की बरसात। आँधी-पानी व ओलों के हाड़ कँपाने वाले मौसम में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए घर के पीछे निर्माणाधीन अधूरे मकान में आसरा लिए कुछ मजदूरों के बारे में चिंतित हो रहा था रामदीन।
“ये मजदूर जो बिना खिड़की-दरवाजों के इस मकान में नीचे सीमेंट की बोरियाँ बिछाये सोते हैं, इस ठंड को कैसे सह पाएँगे। इन परिवारों से यदा-कदा एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती है।”
ये सभी लोग एन सुबह थोड़ी दूरी पर बन रहे मकान पर काम करने चले जाते हैं और शाम को आसपास से लकड़ियाँ बीनते हुए अपने इस आसरे में लौट आते हैं। अधिकतर शाम को ही इनकी आवाजें सुनाई पड़ती है।
स्वावभाववश रामदीन उस मजदूर बच्चे के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो रहा था, इस मौसम को कैसे झेल पायेगा वह नन्हा बच्चा!
शाम को बेटे के ऑफिस से लौटने पर रामदीन ने उसे पीछे रह रहे मजदूरों को घर में पड़े कम्बल व अनुपयोगी हो चुके कुछ गरम कपड़े देने की बात कही।
“कोई जरूरत नहीं है पापाजी, उन्हें कुछ देने की”
पता नहीं किस मानसिकता में उसने रामदीन को यह रूखा सा जवाब दे दिया।
आहत मन लिए रामदीन बहु को रात का खाना नहीं खाने का कह कर अपने कमरे में आ गया। न जाने कब बिना कुछ ओढ़े, सोचते-सोचते बिस्तर पर नींद के आगोश में पहुँच गया पता ही नहीं चला।
सुबह नींद खुली तो अपने को रजाई और कम्बल ओढ़े पाया। बहु से चाय की प्याली लेते हुए पूछा-
“बेटा उठ गया क्या?”
“हाँ उठ गए हैं और कुछ कम्बल व कपड़े लेकर पीछे मजदूरों को देने गए हैं, साथ ही मुझे कह गए हैं कि, पिताजी को बता देना की समय से खाना खा लें और सोते समय कम्बल-रजाई जरूर ओढ़ लिया करें।”
यह सुनकर रामदीन की आज की चाय की मिठास और उसके स्वाद का आनंद कुछ और ही अधिक बढ़ गया।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – श्राद्ध।)
दरवाजे पर लगातार जोर-जोर से थप-थप की आवाज आ रही थी उसकी थपथपाहट में बेचैनी का एहसास हो रहा था। दरवाजा खुलते ही खुलते ही एक युवक की शक्ल दिखाई दी, उसे देखते ही चतुर्वेदी जी ने कहा अरे तुम तो जाने पहचाने लग रहे? बेटा तुम मेरे मित्र के बेटे हो तुम्हारी शक्ल में मुझे मेरा मित्र दिखाई दे रहा है।
अंकल प्रणाम आपने मुझे पहचाना मैं पांडे जी का बेटा हूं।
खुश रहो बेटा ।
मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ, तुम्हें देखकर मेरी आत्मा तृप्त हो गई। बुरा मत मानना बेटा तुम तो मुंबई भाग गये थे, अपने बूढ़े लाचार पिता को छोड़कर। अकेले हम दोस्तों के सहारा छोड़ दिया था, तू तो घर भी बेचने वाला था। यदि हम लोग पांडे का साथ ना देते तो क्या होता क्या तूने कभी सोचा?
मेरे मित्र पंडित बेचारा तेरी याद में मर गये ।
हम लोगों के खबर देने पर ही तो तू आया था उनके क्रिया कर्म करने को।
अरे अंकल गुस्सा क्यों होते हो?
हां मैं समझ रहा हूं तुम्हें मेरी बात बुरी लग रही है?
आपने भी तो पिताजी की तरह भाषण देना शुरू कर दिया। पिताजी की बरसी है मंदिर में पूजा पाठ रखा है और भंडारा भी रखा है आपको बुलाने आया हूं आप सब मित्र को लेकर आ जाइएगा?
सब व्यवस्था मैंने कर ली है। गया जी जहां पर पितृ लोगों का तर्पण पंडित जी लोग करते हैं। उनका तर्पण भी कर दिया, परसों ही लौटा हूं।
चतुर्वेदी जी ने कहा -चलो अच्छा किया!
भगवान ने तुझे अकल तो दी जो तूने कुछ काम किया?
चलो ! मैं अपने मित्र मंडली के साथ तुमसे मिलाता हूं।
तुम्हारा भंडारा देखता हूं ?
जीते जी तो नहीं कुछ किया तुमने?
आज की युवा पीढ़ी अच्छी नौटंकी कर लेती हैं, वृद्धावस्था तो सभी को आती है उम्र के इस पड़ाव में आज मैं हूं कल तुम होंगे मेरी यह बात को गांठ बांध लेना।
उसे युवक ने बड़ी शीघ्रता से हाथ जोड़कर कहा अंकल तो मैं मंदिर में आपका इंतजार करूंगा?
चतुर्वेदी जी जब शाम के 4:00 बजे मंदिर में अपने मित्र मंडली के साथ पहुंचते हैं। सभी लोग बहुत खुश थे और कह रहे थे बाबा पांडे जी का बेटे ने एक काम तो अच्छा किया है। तभी अचानक उनकी दृष्टि मंदिर के आंगन में पड़ती है और वह सभी भौंचक्का रह जाते हैं।
वहां पर पंचायत बैठी थी और उनका बेटा घर बेचने की तैयारी में लगा था कि कौन ज्यादा पैसे देगा उसे ही वह घर बेचेगा।
वाह बेटा बहुत अच्छा काम किया शाबाश!
अब मैं समझ गया तुम्हारा प्रेम का कारण?
अंकल जी आपको तो पता है कि बिना कारण कुछ काम नहीं होता भगवान ने भी तो यही सिखाया है हमें कि हर मनुष्य को काम करना चाहिये।
मैं तो कहता हूं अंकल आप भी मेरे साथ शहर चलो?
आपका भी घर बेच देता हूं, इस भावुकता में कुछ नहीं रखा है मैं आपके रहने की व्यवस्था हरे राम कृष्ण मंदिर में कर देता हूं आराम हरि भजन करना। रोज खाना बनाने की कोई टेंशन नहीं रहेगी वहां आपको योग कराएंगे और सात्विक भोजन भी मिलेगा और महीने में एक बार डॉक्टर आपका चेकअप भी करेगा।
मेरी चिंता तो छोड़ तो अपनी चिंता कर और यह बात बता बेटा हरे राम कृष्ण मंदिर में कितने लोगों को तूने उनकी जायदाद बेचकर रखा है क्या अब वहां से भी तुझे कुछ मिलने लगा क्या कमीशन?
मेरी एक बात को ध्यान से सुन तू कमाता है तो क्या अपनी कमाई का सारा हिस्सा तू ही खाता है प्रकृति और पशु पक्षी से तूने कुछ नहीं सीखा तुझसे अच्छे तो वे है।
मेरा मित्र तो अब इस दुनिया से चला गया जाने किस रूप में अब वह है उसकी यादें यहां है खैर तेरे पिताजी हैं तुम जैसा चाहो वैसे उनका श्राद्ध करो तुम्हारा उनसे खून का रिश्ता है पर मुझे ऐसा श्रद्धा नहीं करना है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “उतारा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 177 ☆
☆ लघुकथा – 🌹 उतारा 🌹☆
अपने घर में सदैव मकर संक्रांति पर्व पर तिल गुड़ की मिठास, लिए पूरनचंद और कुसुम सदा दान धर्म करते तिल लड्डू खिचड़ी बाँटते, कभी कपड़ों का दान, कभी जरूरत का सामान, घर के सामने पंक्ति बनाये लोग खड़े रहते थे।
कहते हैं समय बड़ा बलवान और शरीर नश्वर होता है। बुढ़ापा शरीर, बेटे बहू का घर परिवार बड़ा होना, खुशी से आँखें चमकती तो रहती थी, परंतु कहीं ना कहीं, बहू जो दूसरे घर की थी… अपने सास ससुर को ज्यादा महत्व नहीं देती। उसे लगता वह सिर्फ अपने पति और दो बच्चों के साथ ही रहती तो ज्यादा अच्छा होता।
धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ने लगी और एक कमरे में सिमट कर रह गए पुरनचंद और कुसुम। ठंड अपनी चरम सीमा पर, मकर संक्रांति का पर्व और चारों तरफ हर्ष उल्लास का वातावरण। कई दिनों से पूरनचंद बहू को अपने ओढ़ने के लिए कंबल मांग रहा था।
शायद पुराने कंबलों से ठंड नहीं जा रही थी। बढ़ती ठंड में पुराने कंबल काम नहीं आ रहे थे। आज पति को साथ लेकर बहू बाजार गई। उसने कहा… आपका स्वास्थ्य और कारोबार दिनों दिन खराब होते जा रहा है। मुझे किसी ने बताया है.. कि शरीर से उतारा करके किसी गरीब या जरुरतमंद को कंबल या गर्म कपड़े दान कर देना।
बेटा भी खुश था.. चलो इसके मन में दान धर्म जैसी कोई भावना आई तो सही। घर आने पर पत्नी ने अपने पति के शरीर, सिर से उतारा करके कंबल पर काली तीली रख के एक किनारे रख दिया।
पतिदेव काम में फिर से चले गए। शाम को आते ही देखा। पिताजी और माँ नए कंबल को ओढ़े बैठे मुस्कुरा रहे थे। इसके पहले वह कुछ बोलता।
पत्नी हाथ पकड़ कर कमरे में ले गई और बोली… अब उतारा तो करना ही था और किसी जरूरतमंद को देना था।
इस समय तुम्हारे माँ- पिताजी को कंबल की जरूरत थी। मुझे इससे अच्छा और कुछ नहीं सूझा। अब जो भी हो हमारी बला से। हमने तो उतारा दे दिया।
कानों में माँ की लोरी की आवाज आ रही थी। मकर संक्रांति, आई मकर संक्रांति आई।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी – ‘इलाज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 224 ☆
☆ कहानी – इलाज ☆
डा. प्रकाश शहर के नामचीन चिकित्सक हैं। दिन में एक अस्पताल में बैठते हैं। शाम को अपने क्लिनिक में बैठते हैं। उम्र ज़्यादा नहीं है लेकिन शोहरत खूब है। कहते हैं कुछ लोगों के हाथ में ‘जस’ होता है। कुछ वजह उनके अच्छे स्वभाव की भी है। शायद माँ-बाप ने क्रूरता से पैसा खींचने की कला नहीं सिखायी। इंसान बने रहने की अहमियत सिखायी। इसीलिए उनके क्लिनिक में अमीर गरीब, बली और निर्बल सब बेझिझक चले आते हैं।
डा. प्रकाश ने अपने क्लिनिक में तीस मरीज़ों की सीमा रखी है। उससे ज़्यादा न देखने की कोशिश करते हैं। उनका सोच है कि मरीज़ों की भीड़ लगाने से उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। लेकिन सीमा का निर्वाह हमेशा नहीं हो पाता। सीमा तोड़कर आने वाले बहुत होते हैं। पुराने परिचय की दुहाई देने वाले, शहर में अपने महत्त्व के बूते कहीं भी ठँस जाने वाले, और इन सब के ऊपर नेताओं के छुटभैये। घुटनों तक कुर्ता, कान पर चिपका मोबाइल, और साथ में दो चार खुशामदे। डा. प्रकाश ने व्यवस्था के लिए दरवाज़े पर एक सहायक ज़रूर बैठा रखा है लेकिन धमकाते और रोब झाड़ते चमकदार लोगों के सामने तीन हज़ार रुपल्ली पाने वाले सहायक की क्या औकात? वह धमकी सुनते ही घबराकर डाक्टर साहब की तरफ भागता है। डाक्टर साहब इन छोटी बातों को विवाद नहीं बनने देते। ऐसे लोगों को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं। डाक्टरों का मरीज़ों के घर ‘विज़िट’ करने का रिवाज़ अब कम हो गया है। पहले दवाख़ाने जाने से पहले डाक्टर ज़रूरतमन्द मरीज़ों के घर का चक्कर लगा लेते थे। लेकिन पैसे वाले और सामर्थ्यवान लोग अब भी ज़रूरत पड़ने पर अच्छे डाक्टर को बुला ही लेते हैं। पैसा और सामर्थ्य हो तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ आपको मुहैया हो जाएँगीं। अपने उसूलों के बावजूद डा. प्रकाश भी जब तब शहर के रसूखदार लोगों के द्वारा पकड़ लिये जाते हैं।
एक दिन एक नेतानुमा युवक डाक्टर साहब के क्लिनिक में आकर बैठ गया। हाथ में मोबाइल और मुँह में पान मसाला। नाटकीय विनम्रता से बोला, ‘डाक्टर साहब, आपको मेरे पिताजी को देखने चलना है। एक दिन थोड़ा समय निकालिए।’
डाक्टर साहब बोले, ‘कहाँ हैं पिताजी? उन्हें ले आइए।’
युवक दाँत निकालकर बोला, ‘यही तो समस्या है। वे डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गाँव में हैं। यहाँ नहीं आ सकते।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘कहीं जाने का सवाल ही नहीं है। यहाँ तो दम मारने की फुरसत नहीं है। आप व्यवस्था करके यहीं ले आओ। आजकल तो सब इन्तज़ाम हो जाता है।’
युवक हाथ उठाकर बोला, ‘आप चलें तो हम बड़ी झंझट से बच जाएँगे। इतवार को वक्त निकाल लीजिए। मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा। दस ग्यारह बजे निकलेंगे, शाम तक आराम से वापस आ जाएँगे। आप जो फीस कहेंगे हम नज़र करेंगे।’
फिर डाक्टर साहब के चेहरे की तरफ देख कर बोला, ‘कलेक्टर साहब कह रहे थे कि हम डाक्टर साहब को फोन कर देंगे, लेकिन मैंने सोचा इतने छोटे काम के लिए क्या कलेक्टर साहब से फोन कराएँ। इतनी तो हमारी ही सुन ली जाएगी।’
डाक्टर साहब थोड़ा रुखाई से बोले, ‘किसी और डाक्टर को देख लीजिए। मेरा जाना नहीं हो पाएगा।’
युवक खड़ा हो गया। ठंडी साँस लेकर बोला, ‘और डाक्टर और ही हैं। आपकी बात और है। खैर, आप सोचिएगा। मैं फिर संपर्क करूँगा।’
वह चला गया। पौन घंटे में क्षेत्र के टी.आई. साहब का फोन आ गया। सकुचते हुए बोले, ‘डाक्टर साहब, अनिल राय आपसे मिला होगा।’
डाक्टर साहब ने पूछा, ‘कौन अनिल राय?’
टी.आई. बोले, ‘वही जिसने थोड़ी देर पहले अपने पिताजी को दिखाने के लिए आपको गाँव ले जाने की बात की थी।’
डाक्टर साहब बोले, ‘हाँ, याद आया। कहिए।’
टी.आई. बोले, ‘अगर हो सके तो हो आइए, डाक्टर साहब। संडे को टाइम निकाल लीजिए। आपका भी मन बहल जाएगा। यहाँ तो कहीं न कहीं फँसे ही रहेंगे। जब तक आप नहीं जाएँगे, न आप को चैन लेने देगा न मुझे। बड़ा बवाली आदमी है।’
डाक्टर साहब ने ‘ठीक है, देखते हैं’ कहकर फोन रख दिया।
अगले इतवार को अनिल एक सफारी गाड़ी लेकर एक और युवक के साथ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, ‘मेरी प्रार्थना स्वीकार करके आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, डाक्टर साहब। आपका उपकार जिन्दगी भर याद रखूँगा।’
गाड़ी में वे दोनों ड्राइवर के बगल में बैठे और डाक्टर साहब पीछे। पूरे वक्त अनिल राय के कान से मोबाइल चिपका रहा। वह खासा बातूनी था।डाक्टर साहब ने सुना वह किसी से कह रहा था, ‘बड़ी मुश्किल से राजी हुए। पहुँचेंगे तो चार लोगों को समझ में आएगा कि हम बाबूजी का कितना खयाल रखते हैं। इत्ते बड़े डाक्टर का आना मामूली बात थोड़इ है। हमें पता है कि बाबूजी का आखिरी टैम है, कुछ होना नहीं है। लेकिन चार लोग देख तो लें कि हम क्या कर सकते हैं। सब जगह खबर कर देना। हमने भी फोन कर दिया। आकर सब लोग देखें। सब लोग इकट्ठे होंगे तो डाक्टर साहब को भी अच्छा लगेगा।’
शहर से बाहर निकले तो आसपास विशाल वृक्ष और हरयाली देखकर डाक्टर साहब को अच्छा लगा। सोचा, अच्छा हुआ कि कुछ देर को निकल आये। आँखों और मन को थोड़ा आराम मिलेगा। शहर में तो चकरघिन्नी बने रहना है।
लेकिन गाड़ी शहर से बाहर निकलकर हिचकोले खा रही थी। सड़क की हालत खस्ता थी। शहर से बाहर निकलते ही बहु- प्रचारित विकास की कलई खुल गयी थी। अनिल ने रास्ते में दो-तीन जगह गाड़ी रोककर भक्तिभाव से डाक्टर साहब को चाय-पान पेश किया। रास्ते में जहाँ भी रुका वहाँ उपस्थित लोगों को बताना नहीं भूला कि शहर से बहुत बड़े डाक्टर साहब को ले जा रहा है, पिताजी को दिखाने। ‘अपना करतब्ब करना चाहिए, बाकी भगवान के हाथ में है। अपने करतब्ब में कसर नहीं छोड़ना चाहिए।’
डाक्टर साहब का मोबाइल बराबर बज रहा था। जिस अस्पताल में वे बैठते थे वहाँ से बार-बार मरीज़ों को लेकर उनसे निर्देश लिये जा रहे थे। अच्छा डाक्टर कहीं भी जाए, दुखी और पीड़ित संसार उसका पीछा करता रहता है।
जैसे तैसे अनिल राय के गाँव पहुँचे। अनिल की इच्छा के अनुरूप घर के सामने अच्छी खासी भीड़ थी। सब डाक्टर साहब के दर्शनार्थी। कच्चा पक्का मिलाकर घर काफी लंबा चौड़ा था।
अनिल भीड़ को देखकर प्रमुदित था। तत्परता से भीड़ के बीच रास्ता बनाता, वह डाक्टर साहब को मरीज़ के पास ले गया। वहाँ डाक्टर साहब के पास ज़्यादा कुछ करने को नहीं था। छः सात माह पहले गिर जाने के कारण वृद्ध की कमर की हड्डी टूट गयी थी। तब से लेटे ही थे। हड्डी तो जुड़ गयी थी,लेकिन अब वे उठने के लिए तैयार नहीं थे। जीवन-शक्ति शेष हो गयी थी। वे अर्ध-चेतना की अवस्था में थे।
डाक्टर साहब ने उन्हें देखा परखा, कहा, ‘हालत ठीक नहीं है। अब इन्हें सेवा की ही ज़रूरत है। कुछ दवाएँ लिख देता हूँ। इन्हें रोज़ देते रहिए।’
सुनकर अनिल के चेहरे पर कोई विषाद उत्पन्न नहीं हुआ। वह डाक्टर की बातों पर सिर हिलाता, उनके निर्देश लेता रहा। फिर हाथ जोड़कर उन्हें बाहर बैठक में ले आया। वहाँ काफी लोग डाक्टर साहब के दर्शन के लिए जमे थे। इतने बड़े डाक्टर को अपने बीच पा वे खासे रोब में थे। गाँव में रोगों का डेरा था। छोटे-छोटे रोग भी मुसीबत बन जाते थे। लेकिन इतने बड़े डाक्टर के सामने अपने छोटे रोगों की बात करना उन्हें कमअक्ली की बात लग रही थी।
उन्हीं के बीच बातचीत करते डाक्टर साहब का चाय-नाश्ता हुआ। वहीं सबके सामने अनिल ने डाक्टर साहब को लिफाफा पकड़ाया, कहा, ‘डाक्टर साहब, आपकी फीस। वैसे हम आपको कुछ देने लायक नहीं हैं।’ वह इसी बात में मगन था कि वह इतने बड़े डाक्टर को अपने घर तक लाने में सफल हुआ था। पिताजी की तबियत फिलहाल उसके लिए ज़्यादा अहमियत नहीं रखती थी।
चाय-नाश्ते के बाद अनिल बोला,’एकाध घंटे आराम कर लीजिए। थक गये होंगे।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘नहीं, वहाँ मरीज़ों को देखना है। कई फोन आ गये। अभी निकलना पड़ेगा।’
चलते वक्त अनिल डाक्टर साहब से हाथ जोड़कर बोला, ‘डाक्टर साहब, माफ करें, मैं तो आपके साथ नहीं जा पाऊँगा, लेकिन दो आदमी आपके साथ भेज रहा हूँ।’
डाक्टर साहब ने तत्काल जवाब दिया, ‘किसी की ज़रूरत नहीं है। मैं ड्राइवर के साथ आराम से चला जाऊँगा। आप अपना काम देखिए।’
भीड़ ने डाक्टर साहब को विदा किया। अनिल पुलकित था। उसकी खुशी और गर्व देखते ही बनता था।
डाक्टर साहब ने गाड़ी में बैठ कर आँखें मूँद लीं। ऐसे ही ज़्यादातर रास्ता कट गया। दूर तक सन्नाटे में गाड़ी चलती रही, फिर शहर की रोशनियाँ जुगजुगाने लगीं। डाक्टर साहब के ज़ेहन पर फिर उनकी ज़िम्मेदारियाँ हावी हो गयीं।
घर पहुँचे तो पता चला दो तीन सीरियस मरीज़ों के रिश्तेदार कई बार उन्हें ढूँढ़ते हुए भटके, कि वे आयें तो उन्हें ले जाकर कुछ ढाढ़स प्राप्त करें। अभी शायद फिर आएँगे।
सुनकर डाक्टर साहब ‘ठीक है’ कह कर हाथ-मुँह धोने चल दिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम
“सुबह का धुँधलका, गुलाबी ठंड, मंद बयार, उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट, उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन, उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील, उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर, उसके मौन में बसते अतल सागर, उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली, उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”
“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।
“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈