(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “कम्बल…”।)
☆ तन्मय साहित्य #212 ☆
☆ लघुकथा – कम्बल…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
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जनवरी की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से बेमौसम की बरसात। आँधी-पानी व ओलों के हाड़ कँपाने वाले मौसम में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए घर के पीछे निर्माणाधीन अधूरे मकान में आसरा लिए कुछ मजदूरों के बारे में चिंतित हो रहा था रामदीन।
“ये मजदूर जो बिना खिड़की-दरवाजों के इस मकान में नीचे सीमेंट की बोरियाँ बिछाये सोते हैं, इस ठंड को कैसे सह पाएँगे। इन परिवारों से यदा-कदा एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती है।”
ये सभी लोग एन सुबह थोड़ी दूरी पर बन रहे मकान पर काम करने चले जाते हैं और शाम को आसपास से लकड़ियाँ बीनते हुए अपने इस आसरे में लौट आते हैं। अधिकतर शाम को ही इनकी आवाजें सुनाई पड़ती है।
स्वावभाववश रामदीन उस मजदूर बच्चे के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो रहा था, इस मौसम को कैसे झेल पायेगा वह नन्हा बच्चा!
शाम को बेटे के ऑफिस से लौटने पर रामदीन ने उसे पीछे रह रहे मजदूरों को घर में पड़े कम्बल व अनुपयोगी हो चुके कुछ गरम कपड़े देने की बात कही।
“कोई जरूरत नहीं है पापाजी, उन्हें कुछ देने की”
पता नहीं किस मानसिकता में उसने रामदीन को यह रूखा सा जवाब दे दिया।
आहत मन लिए रामदीन बहु को रात का खाना नहीं खाने का कह कर अपने कमरे में आ गया। न जाने कब बिना कुछ ओढ़े, सोचते-सोचते बिस्तर पर नींद के आगोश में पहुँच गया पता ही नहीं चला।
सुबह नींद खुली तो अपने को रजाई और कम्बल ओढ़े पाया। बहु से चाय की प्याली लेते हुए पूछा-
“बेटा उठ गया क्या?”
“हाँ उठ गए हैं और कुछ कम्बल व कपड़े लेकर पीछे मजदूरों को देने गए हैं, साथ ही मुझे कह गए हैं कि, पिताजी को बता देना की समय से खाना खा लें और सोते समय कम्बल-रजाई जरूर ओढ़ लिया करें।”
यह सुनकर रामदीन की आज की चाय की मिठास और उसके स्वाद का आनंद कुछ और ही अधिक बढ़ गया।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – श्राद्ध।)
दरवाजे पर लगातार जोर-जोर से थप-थप की आवाज आ रही थी उसकी थपथपाहट में बेचैनी का एहसास हो रहा था। दरवाजा खुलते ही खुलते ही एक युवक की शक्ल दिखाई दी, उसे देखते ही चतुर्वेदी जी ने कहा अरे तुम तो जाने पहचाने लग रहे? बेटा तुम मेरे मित्र के बेटे हो तुम्हारी शक्ल में मुझे मेरा मित्र दिखाई दे रहा है।
अंकल प्रणाम आपने मुझे पहचाना मैं पांडे जी का बेटा हूं।
खुश रहो बेटा ।
मैं तुम्हें खूब पहचानता हूँ, तुम्हें देखकर मेरी आत्मा तृप्त हो गई। बुरा मत मानना बेटा तुम तो मुंबई भाग गये थे, अपने बूढ़े लाचार पिता को छोड़कर। अकेले हम दोस्तों के सहारा छोड़ दिया था, तू तो घर भी बेचने वाला था। यदि हम लोग पांडे का साथ ना देते तो क्या होता क्या तूने कभी सोचा?
मेरे मित्र पंडित बेचारा तेरी याद में मर गये ।
हम लोगों के खबर देने पर ही तो तू आया था उनके क्रिया कर्म करने को।
अरे अंकल गुस्सा क्यों होते हो?
हां मैं समझ रहा हूं तुम्हें मेरी बात बुरी लग रही है?
आपने भी तो पिताजी की तरह भाषण देना शुरू कर दिया। पिताजी की बरसी है मंदिर में पूजा पाठ रखा है और भंडारा भी रखा है आपको बुलाने आया हूं आप सब मित्र को लेकर आ जाइएगा?
सब व्यवस्था मैंने कर ली है। गया जी जहां पर पितृ लोगों का तर्पण पंडित जी लोग करते हैं। उनका तर्पण भी कर दिया, परसों ही लौटा हूं।
चतुर्वेदी जी ने कहा -चलो अच्छा किया!
भगवान ने तुझे अकल तो दी जो तूने कुछ काम किया?
चलो ! मैं अपने मित्र मंडली के साथ तुमसे मिलाता हूं।
तुम्हारा भंडारा देखता हूं ?
जीते जी तो नहीं कुछ किया तुमने?
आज की युवा पीढ़ी अच्छी नौटंकी कर लेती हैं, वृद्धावस्था तो सभी को आती है उम्र के इस पड़ाव में आज मैं हूं कल तुम होंगे मेरी यह बात को गांठ बांध लेना।
उसे युवक ने बड़ी शीघ्रता से हाथ जोड़कर कहा अंकल तो मैं मंदिर में आपका इंतजार करूंगा?
चतुर्वेदी जी जब शाम के 4:00 बजे मंदिर में अपने मित्र मंडली के साथ पहुंचते हैं। सभी लोग बहुत खुश थे और कह रहे थे बाबा पांडे जी का बेटे ने एक काम तो अच्छा किया है। तभी अचानक उनकी दृष्टि मंदिर के आंगन में पड़ती है और वह सभी भौंचक्का रह जाते हैं।
वहां पर पंचायत बैठी थी और उनका बेटा घर बेचने की तैयारी में लगा था कि कौन ज्यादा पैसे देगा उसे ही वह घर बेचेगा।
वाह बेटा बहुत अच्छा काम किया शाबाश!
अब मैं समझ गया तुम्हारा प्रेम का कारण?
अंकल जी आपको तो पता है कि बिना कारण कुछ काम नहीं होता भगवान ने भी तो यही सिखाया है हमें कि हर मनुष्य को काम करना चाहिये।
मैं तो कहता हूं अंकल आप भी मेरे साथ शहर चलो?
आपका भी घर बेच देता हूं, इस भावुकता में कुछ नहीं रखा है मैं आपके रहने की व्यवस्था हरे राम कृष्ण मंदिर में कर देता हूं आराम हरि भजन करना। रोज खाना बनाने की कोई टेंशन नहीं रहेगी वहां आपको योग कराएंगे और सात्विक भोजन भी मिलेगा और महीने में एक बार डॉक्टर आपका चेकअप भी करेगा।
मेरी चिंता तो छोड़ तो अपनी चिंता कर और यह बात बता बेटा हरे राम कृष्ण मंदिर में कितने लोगों को तूने उनकी जायदाद बेचकर रखा है क्या अब वहां से भी तुझे कुछ मिलने लगा क्या कमीशन?
मेरी एक बात को ध्यान से सुन तू कमाता है तो क्या अपनी कमाई का सारा हिस्सा तू ही खाता है प्रकृति और पशु पक्षी से तूने कुछ नहीं सीखा तुझसे अच्छे तो वे है।
मेरा मित्र तो अब इस दुनिया से चला गया जाने किस रूप में अब वह है उसकी यादें यहां है खैर तेरे पिताजी हैं तुम जैसा चाहो वैसे उनका श्राद्ध करो तुम्हारा उनसे खून का रिश्ता है पर मुझे ऐसा श्रद्धा नहीं करना है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “उतारा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 177 ☆
☆ लघुकथा – 🌹 उतारा 🌹☆
अपने घर में सदैव मकर संक्रांति पर्व पर तिल गुड़ की मिठास, लिए पूरनचंद और कुसुम सदा दान धर्म करते तिल लड्डू खिचड़ी बाँटते, कभी कपड़ों का दान, कभी जरूरत का सामान, घर के सामने पंक्ति बनाये लोग खड़े रहते थे।
कहते हैं समय बड़ा बलवान और शरीर नश्वर होता है। बुढ़ापा शरीर, बेटे बहू का घर परिवार बड़ा होना, खुशी से आँखें चमकती तो रहती थी, परंतु कहीं ना कहीं, बहू जो दूसरे घर की थी… अपने सास ससुर को ज्यादा महत्व नहीं देती। उसे लगता वह सिर्फ अपने पति और दो बच्चों के साथ ही रहती तो ज्यादा अच्छा होता।
धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ने लगी और एक कमरे में सिमट कर रह गए पुरनचंद और कुसुम। ठंड अपनी चरम सीमा पर, मकर संक्रांति का पर्व और चारों तरफ हर्ष उल्लास का वातावरण। कई दिनों से पूरनचंद बहू को अपने ओढ़ने के लिए कंबल मांग रहा था।
शायद पुराने कंबलों से ठंड नहीं जा रही थी। बढ़ती ठंड में पुराने कंबल काम नहीं आ रहे थे। आज पति को साथ लेकर बहू बाजार गई। उसने कहा… आपका स्वास्थ्य और कारोबार दिनों दिन खराब होते जा रहा है। मुझे किसी ने बताया है.. कि शरीर से उतारा करके किसी गरीब या जरुरतमंद को कंबल या गर्म कपड़े दान कर देना।
बेटा भी खुश था.. चलो इसके मन में दान धर्म जैसी कोई भावना आई तो सही। घर आने पर पत्नी ने अपने पति के शरीर, सिर से उतारा करके कंबल पर काली तीली रख के एक किनारे रख दिया।
पतिदेव काम में फिर से चले गए। शाम को आते ही देखा। पिताजी और माँ नए कंबल को ओढ़े बैठे मुस्कुरा रहे थे। इसके पहले वह कुछ बोलता।
पत्नी हाथ पकड़ कर कमरे में ले गई और बोली… अब उतारा तो करना ही था और किसी जरूरतमंद को देना था।
इस समय तुम्हारे माँ- पिताजी को कंबल की जरूरत थी। मुझे इससे अच्छा और कुछ नहीं सूझा। अब जो भी हो हमारी बला से। हमने तो उतारा दे दिया।
कानों में माँ की लोरी की आवाज आ रही थी। मकर संक्रांति, आई मकर संक्रांति आई।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी – ‘इलाज’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 224 ☆
☆ कहानी – इलाज ☆
डा. प्रकाश शहर के नामचीन चिकित्सक हैं। दिन में एक अस्पताल में बैठते हैं। शाम को अपने क्लिनिक में बैठते हैं। उम्र ज़्यादा नहीं है लेकिन शोहरत खूब है। कहते हैं कुछ लोगों के हाथ में ‘जस’ होता है। कुछ वजह उनके अच्छे स्वभाव की भी है। शायद माँ-बाप ने क्रूरता से पैसा खींचने की कला नहीं सिखायी। इंसान बने रहने की अहमियत सिखायी। इसीलिए उनके क्लिनिक में अमीर गरीब, बली और निर्बल सब बेझिझक चले आते हैं।
डा. प्रकाश ने अपने क्लिनिक में तीस मरीज़ों की सीमा रखी है। उससे ज़्यादा न देखने की कोशिश करते हैं। उनका सोच है कि मरीज़ों की भीड़ लगाने से उनके साथ न्याय नहीं हो पाता। लेकिन सीमा का निर्वाह हमेशा नहीं हो पाता। सीमा तोड़कर आने वाले बहुत होते हैं। पुराने परिचय की दुहाई देने वाले, शहर में अपने महत्त्व के बूते कहीं भी ठँस जाने वाले, और इन सब के ऊपर नेताओं के छुटभैये। घुटनों तक कुर्ता, कान पर चिपका मोबाइल, और साथ में दो चार खुशामदे। डा. प्रकाश ने व्यवस्था के लिए दरवाज़े पर एक सहायक ज़रूर बैठा रखा है लेकिन धमकाते और रोब झाड़ते चमकदार लोगों के सामने तीन हज़ार रुपल्ली पाने वाले सहायक की क्या औकात? वह धमकी सुनते ही घबराकर डाक्टर साहब की तरफ भागता है। डाक्टर साहब इन छोटी बातों को विवाद नहीं बनने देते। ऐसे लोगों को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं। डाक्टरों का मरीज़ों के घर ‘विज़िट’ करने का रिवाज़ अब कम हो गया है। पहले दवाख़ाने जाने से पहले डाक्टर ज़रूरतमन्द मरीज़ों के घर का चक्कर लगा लेते थे। लेकिन पैसे वाले और सामर्थ्यवान लोग अब भी ज़रूरत पड़ने पर अच्छे डाक्टर को बुला ही लेते हैं। पैसा और सामर्थ्य हो तो दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ आपको मुहैया हो जाएँगीं। अपने उसूलों के बावजूद डा. प्रकाश भी जब तब शहर के रसूखदार लोगों के द्वारा पकड़ लिये जाते हैं।
एक दिन एक नेतानुमा युवक डाक्टर साहब के क्लिनिक में आकर बैठ गया। हाथ में मोबाइल और मुँह में पान मसाला। नाटकीय विनम्रता से बोला, ‘डाक्टर साहब, आपको मेरे पिताजी को देखने चलना है। एक दिन थोड़ा समय निकालिए।’
डाक्टर साहब बोले, ‘कहाँ हैं पिताजी? उन्हें ले आइए।’
युवक दाँत निकालकर बोला, ‘यही तो समस्या है। वे डेढ़ सौ किलोमीटर दूर गाँव में हैं। यहाँ नहीं आ सकते।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘कहीं जाने का सवाल ही नहीं है। यहाँ तो दम मारने की फुरसत नहीं है। आप व्यवस्था करके यहीं ले आओ। आजकल तो सब इन्तज़ाम हो जाता है।’
युवक हाथ उठाकर बोला, ‘आप चलें तो हम बड़ी झंझट से बच जाएँगे। इतवार को वक्त निकाल लीजिए। मैं गाड़ी लेकर आ जाऊँगा। दस ग्यारह बजे निकलेंगे, शाम तक आराम से वापस आ जाएँगे। आप जो फीस कहेंगे हम नज़र करेंगे।’
फिर डाक्टर साहब के चेहरे की तरफ देख कर बोला, ‘कलेक्टर साहब कह रहे थे कि हम डाक्टर साहब को फोन कर देंगे, लेकिन मैंने सोचा इतने छोटे काम के लिए क्या कलेक्टर साहब से फोन कराएँ। इतनी तो हमारी ही सुन ली जाएगी।’
डाक्टर साहब थोड़ा रुखाई से बोले, ‘किसी और डाक्टर को देख लीजिए। मेरा जाना नहीं हो पाएगा।’
युवक खड़ा हो गया। ठंडी साँस लेकर बोला, ‘और डाक्टर और ही हैं। आपकी बात और है। खैर, आप सोचिएगा। मैं फिर संपर्क करूँगा।’
वह चला गया। पौन घंटे में क्षेत्र के टी.आई. साहब का फोन आ गया। सकुचते हुए बोले, ‘डाक्टर साहब, अनिल राय आपसे मिला होगा।’
डाक्टर साहब ने पूछा, ‘कौन अनिल राय?’
टी.आई. बोले, ‘वही जिसने थोड़ी देर पहले अपने पिताजी को दिखाने के लिए आपको गाँव ले जाने की बात की थी।’
डाक्टर साहब बोले, ‘हाँ, याद आया। कहिए।’
टी.आई. बोले, ‘अगर हो सके तो हो आइए, डाक्टर साहब। संडे को टाइम निकाल लीजिए। आपका भी मन बहल जाएगा। यहाँ तो कहीं न कहीं फँसे ही रहेंगे। जब तक आप नहीं जाएँगे, न आप को चैन लेने देगा न मुझे। बड़ा बवाली आदमी है।’
डाक्टर साहब ने ‘ठीक है, देखते हैं’ कहकर फोन रख दिया।
अगले इतवार को अनिल एक सफारी गाड़ी लेकर एक और युवक के साथ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, ‘मेरी प्रार्थना स्वीकार करके आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, डाक्टर साहब। आपका उपकार जिन्दगी भर याद रखूँगा।’
गाड़ी में वे दोनों ड्राइवर के बगल में बैठे और डाक्टर साहब पीछे। पूरे वक्त अनिल राय के कान से मोबाइल चिपका रहा। वह खासा बातूनी था।डाक्टर साहब ने सुना वह किसी से कह रहा था, ‘बड़ी मुश्किल से राजी हुए। पहुँचेंगे तो चार लोगों को समझ में आएगा कि हम बाबूजी का कितना खयाल रखते हैं। इत्ते बड़े डाक्टर का आना मामूली बात थोड़इ है। हमें पता है कि बाबूजी का आखिरी टैम है, कुछ होना नहीं है। लेकिन चार लोग देख तो लें कि हम क्या कर सकते हैं। सब जगह खबर कर देना। हमने भी फोन कर दिया। आकर सब लोग देखें। सब लोग इकट्ठे होंगे तो डाक्टर साहब को भी अच्छा लगेगा।’
शहर से बाहर निकले तो आसपास विशाल वृक्ष और हरयाली देखकर डाक्टर साहब को अच्छा लगा। सोचा, अच्छा हुआ कि कुछ देर को निकल आये। आँखों और मन को थोड़ा आराम मिलेगा। शहर में तो चकरघिन्नी बने रहना है।
लेकिन गाड़ी शहर से बाहर निकलकर हिचकोले खा रही थी। सड़क की हालत खस्ता थी। शहर से बाहर निकलते ही बहु- प्रचारित विकास की कलई खुल गयी थी। अनिल ने रास्ते में दो-तीन जगह गाड़ी रोककर भक्तिभाव से डाक्टर साहब को चाय-पान पेश किया। रास्ते में जहाँ भी रुका वहाँ उपस्थित लोगों को बताना नहीं भूला कि शहर से बहुत बड़े डाक्टर साहब को ले जा रहा है, पिताजी को दिखाने। ‘अपना करतब्ब करना चाहिए, बाकी भगवान के हाथ में है। अपने करतब्ब में कसर नहीं छोड़ना चाहिए।’
डाक्टर साहब का मोबाइल बराबर बज रहा था। जिस अस्पताल में वे बैठते थे वहाँ से बार-बार मरीज़ों को लेकर उनसे निर्देश लिये जा रहे थे। अच्छा डाक्टर कहीं भी जाए, दुखी और पीड़ित संसार उसका पीछा करता रहता है।
जैसे तैसे अनिल राय के गाँव पहुँचे। अनिल की इच्छा के अनुरूप घर के सामने अच्छी खासी भीड़ थी। सब डाक्टर साहब के दर्शनार्थी। कच्चा पक्का मिलाकर घर काफी लंबा चौड़ा था।
अनिल भीड़ को देखकर प्रमुदित था। तत्परता से भीड़ के बीच रास्ता बनाता, वह डाक्टर साहब को मरीज़ के पास ले गया। वहाँ डाक्टर साहब के पास ज़्यादा कुछ करने को नहीं था। छः सात माह पहले गिर जाने के कारण वृद्ध की कमर की हड्डी टूट गयी थी। तब से लेटे ही थे। हड्डी तो जुड़ गयी थी,लेकिन अब वे उठने के लिए तैयार नहीं थे। जीवन-शक्ति शेष हो गयी थी। वे अर्ध-चेतना की अवस्था में थे।
डाक्टर साहब ने उन्हें देखा परखा, कहा, ‘हालत ठीक नहीं है। अब इन्हें सेवा की ही ज़रूरत है। कुछ दवाएँ लिख देता हूँ। इन्हें रोज़ देते रहिए।’
सुनकर अनिल के चेहरे पर कोई विषाद उत्पन्न नहीं हुआ। वह डाक्टर की बातों पर सिर हिलाता, उनके निर्देश लेता रहा। फिर हाथ जोड़कर उन्हें बाहर बैठक में ले आया। वहाँ काफी लोग डाक्टर साहब के दर्शन के लिए जमे थे। इतने बड़े डाक्टर को अपने बीच पा वे खासे रोब में थे। गाँव में रोगों का डेरा था। छोटे-छोटे रोग भी मुसीबत बन जाते थे। लेकिन इतने बड़े डाक्टर के सामने अपने छोटे रोगों की बात करना उन्हें कमअक्ली की बात लग रही थी।
उन्हीं के बीच बातचीत करते डाक्टर साहब का चाय-नाश्ता हुआ। वहीं सबके सामने अनिल ने डाक्टर साहब को लिफाफा पकड़ाया, कहा, ‘डाक्टर साहब, आपकी फीस। वैसे हम आपको कुछ देने लायक नहीं हैं।’ वह इसी बात में मगन था कि वह इतने बड़े डाक्टर को अपने घर तक लाने में सफल हुआ था। पिताजी की तबियत फिलहाल उसके लिए ज़्यादा अहमियत नहीं रखती थी।
चाय-नाश्ते के बाद अनिल बोला,’एकाध घंटे आराम कर लीजिए। थक गये होंगे।’
डाक्टर साहब ने कहा, ‘नहीं, वहाँ मरीज़ों को देखना है। कई फोन आ गये। अभी निकलना पड़ेगा।’
चलते वक्त अनिल डाक्टर साहब से हाथ जोड़कर बोला, ‘डाक्टर साहब, माफ करें, मैं तो आपके साथ नहीं जा पाऊँगा, लेकिन दो आदमी आपके साथ भेज रहा हूँ।’
डाक्टर साहब ने तत्काल जवाब दिया, ‘किसी की ज़रूरत नहीं है। मैं ड्राइवर के साथ आराम से चला जाऊँगा। आप अपना काम देखिए।’
भीड़ ने डाक्टर साहब को विदा किया। अनिल पुलकित था। उसकी खुशी और गर्व देखते ही बनता था।
डाक्टर साहब ने गाड़ी में बैठ कर आँखें मूँद लीं। ऐसे ही ज़्यादातर रास्ता कट गया। दूर तक सन्नाटे में गाड़ी चलती रही, फिर शहर की रोशनियाँ जुगजुगाने लगीं। डाक्टर साहब के ज़ेहन पर फिर उनकी ज़िम्मेदारियाँ हावी हो गयीं।
घर पहुँचे तो पता चला दो तीन सीरियस मरीज़ों के रिश्तेदार कई बार उन्हें ढूँढ़ते हुए भटके, कि वे आयें तो उन्हें ले जाकर कुछ ढाढ़स प्राप्त करें। अभी शायद फिर आएँगे।
सुनकर डाक्टर साहब ‘ठीक है’ कह कर हाथ-मुँह धोने चल दिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम
“सुबह का धुँधलका, गुलाबी ठंड, मंद बयार, उसकी दूधिया अंगुलियों की कंपकंपाहट, उमनगोट-सा पारदर्शी उसका मन, उसकी आँखों में दिखती अपनेपन की झील, उसके शब्दों से झंकृत होते बाँसुरी के सुर, उसके मौन में बसते अतल सागर, उसके चेहरे पर उजलती भोर की लाली, उसके स्मित में अबूझ-सा आकर्षण, उसकी…”
“.. पहला प्रेम याद हो आया क्या?” किसीने पूछा।
“…दूसरा, तीसरा, चौथा प्रेम भी होता है क्या?” उत्तर मिला।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – खूब तरक्की ।)
अमित शारदा को ऐसी नजरों से देखा रहा था जाने वह क्या करेगा?
परंतु शारदा इग्नोर करती हुई, अपने किचन के कामों में भोजन बनाने के लिए जुट जाती है। अमित को बर्दाश्त नहीं होता और वह जोर जोर से गाली देने लगता है, बेटे आकाश को अपशब्द बोलने लगता है।
शारदा ने गंभीर स्वर में कहा-
“आप स्वयं जिम्मेदार पद पर हो और जब बेटा ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा है तो उसे अपशब्द बोल रहे हो।”
” असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी।”
तभी आकाश अपने कमरे से बाहर आता है।
माँ कहाँ हो?
जल्दी करो मुझे एयरपोर्ट जाना है, फ्लाइट पकड़नी है।
अपने आंसू को जल्दी से पल्लू से छुपाती हूई मुस्कुराते हुए कहती है,हां मुझे पता है इसीलिए तुम्हारा नाम मैंने आकाश रखा है, तुम गगन में उड़ो।
मैं चाहती थी कि तुम एयर फोर्स में जाओ । तुम्हारे पिताजी, दादाजी और नाना जी बरसों से देश की सेवा करते रहे है। बस तुम्हारे पिताजी को ही सरकारी नौकरी करनी थी।
तुम इतना सब कुछ जानने के बाद भी क्यों रोती रहती हो? सुबह से मेरे लिए इतना नाश्ता खाना क्यों बना रही हो?
बेटा तू एक मां के दिल को नहीं समझेगा कि उसके दिल पर क्या बीतती है, तू चला जाएगा तो यह सब मैं कहां बनाती हूं, तेरे बहाने मैं भी खा लेती हूँ।
रोते हुए नम आंखों से उसका सामान पैक करती है और कहती है कि बेटा क्या करूं?
मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो तुम मुझे भगा दोगी, अब जा रहा हूं तो उदास हो।
क्या करूं बेटा? तुम्हारे भविष्य के लिए मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा । बेटा तुम बारिश की एक बूंद की तरह रहना जो हर जगह गिरकर सबको तृप्ति करती है। आकाश चरण स्पर्श करते हुए बोलता है – मां मुस्कुराते हुए विदा करो, अपना सामान उठाकर टैक्सी की ओर जाता है।
शारदा उसे मन ही मन ढेर सारा आशीर्वाद देती है और कहती है बेटा जीवन में हमेशा आगे बढ़ो कभी अपने कदम पीछे की ओर मत रखना खूब तरक्की करो।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “तपिश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 176 ☆
☆ लघुकथा – 🎪 तपिश 🎪☆
घर की छत पर हमेशा की तरह माही– आज भी बैठी अपनी माँ के साथ पढ़ाई कर रही थी, परंतु आज पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। जो बात उसके दिलों दिमाग पर बढ़ते जा रही थी। वह अपनी माँ का अकेलापन, हमेशा देखती और उन्हें कामों में लगी देख माही आज पूछ बैठी – – “माँ मुझे आपसे एक बात पूछनी थी?” माँ ने कहा– “पूछो।” माही ने माँ की आंखों को झांकते हुए कही– “मेरे स्कूल के कार्यकाल में या कोई और भी मौके पर कभी भी मैंने पिताजी को हस्ताक्षर करते नहीं देखा। हमेशा आप ही मुझे प्रोत्साहन देकर पढ़ाती रही और आगे बढ़ने के नियम सिखाती रही।
माँ क्या सच में पिताजी मुझे अपनी बेटी नहीं मानते?” सीने में दबाये सामने अपने मासुम सवाल आज पूछ कर माही ने माँ को सोचने पर मजबूर कर दिया।
तार पर कपड़ा सुखाते अचानक माँ ने माही बिटिया की ओर देखकर बोली – – -” बेटा आज अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो???” माही ने बड़े ही धीर गंभीर से अपनी माँ का आँचल हाथों से लेकर अपने सिर पर ढाँकती हुई बोली— “मैं जानती हूँ मेरे इस सवाल का जवाब आप नहीं दे सकेंगी।
अक्सर इस सवाल को लेकर मेरे स्कूल में अध्यापिका और प्रिंसिपल को बातें करते मैंने सुना है।”
आज माँ ने देखा माही बहुत समझदार और उस मानसिक वेदना से झुलस रही है जिसे वह बरसों से अपने सीने में दबाये हुए है।
समय आ गया है उसे सच बता दिया जाए। बड़े हिम्मत से उसने कहा — ” माही तुम मेरे प्यार की वह अमिट निशानी हो। जो देश सेवा के लिए अपनी जान निछावर कर सदा – सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए।
समाज और परिवार की तानों को सुनते- सुनते तुम्हारी माँ एक जिंदा लाश बन चुकी थी।
परंतु उस समय तुम्हारे पिताजी जो अभी है, उन्होंने हाथ थामा। रिश्ते में तुम्हारे बड़े पिताजी लगते हैं। जिन्होंने अपनी शादी कभी नहीं की।
उन्होंने अपने भाई की अमानत को दुनिया की नजरों से बचा कर रखा है।”
दरवाजे के कोने में खड़े पिताजी सब सुन रहे थे। माही के सवाल ने आज उन्हें अंदर तक हिला दिया।
स्कूल में नए साल का आयोजन था। सभी अभिभावक खड़े थे। अपने-अपने बच्चों के साथ जाने के लिए। माही का नाम जैसे ही पुकारा गया। माँ उठती इसके पहले ही पिताजी ने इशारे से जो भी कहा, आज माँ बहुत प्रसन्नता से भर उठी। और पिताजी- माँ का हाथ थामे बीच में किसी मजबूत बंधन के साथ अपने परिवार के साथ जाते दिखे।
बरसों की तपिश आज भरी ठंडक में सुखद एहसास दे रही थी।
राजा तक खबर पहुँची कि नगर में एक गरीब आदमी के पास आईना है, जो बोलता है।सवालों के जवाब भी देता है।
राजा ने आनन फानन में सिपाहियों को बुलाकर कहा –तुम गरीब से वो आईना लेकर आओ।वह जितनी भी मोहरें माँगे उसे दे देना पर आईना जरूर ले आना।
–गरीब ने धन लेने से इंकार कर दिया ये कहकर कि — ले जाओ पर इतना याद रखना , ये केवल सच बोलता है।ऐसा सच जो बर्दाश्त की हद से बाहर होता है ।नग्न सत्य।वो तो हम गरीबों के बस की बात है।
–सिपाही आईना ले आये। राजा परम प्रसन्न। उसने तोते से पूछकर बातचीत का मुहूर्त निकलवाया और बन ठन कर आईने के सामने बैठ गया।
—बोल आईने ! लोग मुझे कामदेव कहते हैं। महिलाएं आहें भरती हैं। मुझे सपनों का राजकुमार समझती हैं जो सफेद घोड़े पर बैठकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा।
—यह सच नहीं है।तुम्हारे मयूरासन का प्रताप है।
—मैं जहां भी जाता हूं लोग फूलों की पाँखुरियां बिछा देते हैं। जमीन पर चलने ही नहीं देते।
—झूठ। तुम्हें जमीन की एलर्जी है।
—मेरी तस्वीर की घर घर में पूजा की जाती है। मेरे लिये स्वतंत्र देवालय बनवा रखे हैं लोगों ने।
—‘झूठ। पता है पूजा उसी की करते हैं लोग जिससे खौफ़ खाते हैं।
—देख आईने। मुझे लगा था तू केवल सच बोलेगा पर तू तो मक्कार निकला।
—मैं मक्कार नहीं हूं। जब सारी दुनिया झूठ को सच और सच को झूठ समझ रही हो, तब अकेले तुम अपवाद कैसे हो सकते हो।
–राजा ने क्रोध में फुफकारते हुये आईना जमीन पर पटक दिया।
उसने देखा कि आईने के हजार हजार टुकड़े उसे देखकर ठठाकर हँस रहे हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘ईश्वर का शृंगार…’।)
☆ लघुकथा – ईश्वर का शृंगार… ☆
आज ईश्वर बहुत उदास थे, चुपचाप मौन, किसी से कुछ बात ही नहीं कर रहे थे, किसी की हिम्मत भी नहीं थी, उनसे पूछने की, उनसे उदासी का कारण जानने की, कुछ देर बाद पवन ने उनसे पूछा, आज आप उदास क्यों हैं, वह थोड़ी देर शून्य में देखते रहे, और थोड़ी देर बाद बोले, बहुत दिनों से पृथ्वी पर, भारतवर्ष में, वहां के लोगों के कार्य कलाप और हरकतें देख रहा हूं, जिससे मन उदास हो गया।
लोग पार्क में जाते हैं, वहां पौधों पर खिले हुए फूल तोड़ते हैं, बड़ी-बड़ी प्लास्टिक की थैलियों में भरते हैं, कुछ लोग छड़ी या डंडे लेकर जाते हैं उसमें तार का हुक फसा लेते हैं उससे डाली को खींचते हुए डाली को झुकाकर, पुष्प तोड़ लेते हैं, पौधे की तकलीफ नहीं देखते हैं। प्रकृति ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उनका शृंगार करूं, मैंने प्रकृति को विभिन्न प्रकार के फूलों से भर दिया ,जो अपनी सुगंध, फिजाओं में बिखेरते थे,सभी लोग उन्हें देखकर प्रफुल्लित होते थे, परंतु लोग स्वार्थवश फूल तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, सोचते हैं इन सार्वजनिक स्थानों से की गई चोरी के फूलों से मुझे रिझाने का उनका प्रयास सफल हो जाएगा, पर मुझे दुख होता है कि मेरी ही प्रकृति को दी हुई भेंट वह निर्ममता से तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, जबकि मैं चाहता हूं कि वह अपना अहंकार,अपना क्रोध, अपनी वैमनष्यता, अपना लोभ, लालच, मुझको अर्पित करें और अच्छे इंसान बने जो एक दूसरे की मदद करें, अपने कर्मों की सुगंध से, वह संसार में अपनी सुगंध फैलाएं, सार्वजनिक उद्यानों में लगे पौधों के फूलों से मेरा श्रृंगार ना करें, पर्यावरण को बचाने के लिए पौधे लगाऐं और प्रकृति को संवारने में अपना योगदान दें।
☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆
आप सोच रहे होंगे कि ‘अटैची’ किसी देश या शहर का नाम है। अरे नहीं, यह वही ब्रीफकेस है, जिसमें कपड़े आदि रखे रहते हैं। तो जनाब, यह ढाई दशक पहले की बात है, मेरी शादी को एक हफ्ता ही हुआ था कि छुट्टियाँ खत्म हो गईं और मैं कॉलेज-टीचर की ड्यूटी के लिए पटियाला से तलवंडी साबो कॉलेज पहुँच गया। कुछ दिनों तक मैं अपनी पत्नी के साथ अपने माता-पिता के पास पटियाला में रहा।
एक दिन मेरे माता जी, जिन्हें मैं बी-जी कहता था, मेरी पत्नी के साथ तलवंडी साबो आये। मैं बस उन्हें स्टैंड पर लेने गया था। उनके पास मौजूद सामान में एक ब्रीफकेस था, जिसे कभी खोला नहीं गया था। दो-एक दिनों के बाद मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि ब्रीफकेस में क्या है? पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं पता, यह बी-जी का होगा।” मैंने बी-जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि यह तुम्हारी पत्नी का होगा, इसलिए हम इसे ले आए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उन दोनों ने चार घंटे तक बस में एक साथ यात्रा की और एक बार भी एक-दूसरे से नहीं पूछा कि अटैची किसका है! दरअसल अटैची (ब्रीफकेस) मेरा ही था, जिसमें मैंने एक्स्ट्रा कपड़े डाल कर पटियाला रखा हुआ था। खैर… इस तरह अटैची पहले तलवंडी साबो आया फिर बस का सैर-सफ़र करके वापस पटियाला चला गया।
अब हम जब भी कहीं कुछ समान वगैरह लेकर जाते हैं तो एक-दूसरे से पूछते हैं, “यह किसका है भई?… कहीं अटैची जैसी बात न बन जाए…।”