डॉ. हंसा दीप
संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ कथा कहानी ☆ सोविनियर ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
एना गिलबर्ट फ्रेंच पढ़ाती है।
सख्त और अनुशासित। उसके छात्र उसकी आँखों से डरते हैं। उन आँखों की ताकत किसी तीर जैसी तीखी और नुकीली है। एक नजर से ही घायल कर दे। यूँ तो वह कम बोलती है मगर अपनी आँखों से बहुत कुछ कह जाती है। जब आँखों की भाषा काम नहीं करती, तब उसकी जबान बोलती है। कड़कते तेल में तली हरी तीखी मिर्ची की तरह।
कल ही की बात है। उसका लेक्चर जारी था। एक छात्र अपने साथी से कुछ खुसुर-पुसुर करने लगा। एना ने उसे चुप रहने के लिए नहीं कहा, तुरंत उसका नाम बोर्ड पर लिख दिया। यह कहते हुए कि इस छात्र की अगले एक सप्ताह तक अनुपस्थिति दर्ज की जाएगी।
“मुझे माफ कर दीजिए मिस एना।”
“नहीं, बिल्कुल नहीं। गलती की सजा तो मिलनी ही चाहिए।”
और उसकी माफी पर ध्यान दिए बगैर एना ने पढ़ाना शुरू कर दिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। छात्र कक्षा में जरा-सी देर से आए या फिर गृह-कार्य समय पर न दे पाए तो वह बहुत ज़्यादा गुस्सा हो जाती। छात्रों के चेहरों से लगता कि वे आहत हुए हैं। उनकी आक्रोश भरी चुप्पी चिंगारी की तरह सुलगते हुए भी जैसे राख में कहीं दब जाती थी। कभी आग न पकड़ पाती। छात्र खौफ में जीने के बावजूद आवाज न उठाते। इसकी ठोस वजह थी उनकी परीक्षाएँ। अंकों का पिटारा तो मिस एना के पास था। किसी भी खिलाफत का अंजाम खराब रिज़ल्ट हो सकता था। इसलिए सब चुप रहते थे।
आज भी ऐसा ही हुआ कि उस छात्र के माफी माँगने के बावजूद एना के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। पूरी कक्षा हैरान थी। कई छात्रों ने सिर झुका लिए थे ताकि उनके मन के भावों को मिस एना पढ़ न सके। कक्षा में ऐसा सन्नाटा था कि सुई भी गिरती तो आवाज आती। वैसे भी अपनी पढ़ाई और आगे के भविष्य पर केन्द्रित छात्रों के पास ऐसी बातों के लिए समय नहीं था। बाहर निकलकर थोड़ी सुगबुगाहट होती पर जल्द ही माहौल सामान्य होने लग जाता।
आज भी वही हुआ। कक्षा खत्म होने बाद बाहर निकलते ही आवाजें तेज हो गयीं।
“ये अजीब नहीं है!”
“हाँ, ये भी एक नमूना ही है।”
“इतने गुस्से में क्यों रहती है हमेशा?”
“शायद अपने घर में परेशान होगी।”
“अरे तो क्या घर की परेशानियों का बदला हमसे लेगी?”
“बहुत अच्छी तरह पढ़ाती है। यही खास बात है। बहुत जल्दी समझ में आता है।”
“सचमुच, अगर व्यवहार ठीक हो जाए तो हमारी यूनिवर्सिटी की बेस्ट टीचर है।”
छात्रों का यह मूल्यांकन एना के लिए सकारात्मक साबित होता। अंत भला तो सब भला। मिस एना की पढ़ाने की शैली नयी भाषा को अच्छे से समझाती। कक्षा में फ्रेंच के अलावा कोई भाषा स्वीकार्य नहीं थी। मिस एना के कड़े अनुशासन में भाषा की जटिलताओं को ग्रहण करते छात्र, गलत-सही की परवाह किए बगैर कक्षा में फ्रेंच ही बोलते। इस वजह से उनके सीखने की प्रक्रिया तेज हो जाती और इसका परिणाम उनके अच्छे रिजल्ट के रूप में साफ दिखाई देता। तब वे कक्षा की इन छोटी-मोटी बातों को भूल जाते और एना को एक अच्छी मगर सख्त शिक्षक के रूप में ही देखते।
यही स्थिति एना के विभाग में भी थी। उसका व्यक्तित्व उसे औरों से अलग कर देता। हालाँकि अपने सहकर्मियों से न उसकी मित्रता थी, न शत्रुता। वह किसी से ज्यादा बात न करती बल्कि उसका पूरा ध्यान सिर्फ अपने काम पर ही रहता। काम पूरा कर वह समय से घर निकल जाती। मीटिंग में कई बार ऐसा होता कि उसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति को नजर अंदाज न किया जाता। उसके व्यक्तित्व पर कनखियों से बातें की जातीं। ऐसा भी नहीं था कि इन निगाहों से एना अनभिज्ञ थी लेकिन उसे अपने इसी रवैये से तुष्टि मिलती। अपने सम्पर्क में आए हर व्यक्ति को वह कई कोणों से देखती फिर चाहे उसके छात्र हों, उसके सहकर्मी या कोई और।
विश्व के अनेक देशों के छात्र उसकी कक्षा में हैं। कई रंग, कई भाषाएँ और कई चेहरे। एशियन और साउथ एशियन छात्रों की भरमार है। उसकी कक्षा में चीन, जापान, इंडोनेशिया, कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और भारत जैसे विभिन्न देशों से आए छात्र हैं। शायद इसीलिए उसकी परेशानियाँ भी वैश्विक पटल की तरह व्यापक हैं। कई बार ऐसा लगता है कि अपने-अपने देशों का प्रतिनिधित्त्व करते ये सारे छात्र सोविनियर हैं। जब वह किसी छात्र से बातचीत करती है तो दरअसल वह उस छात्र से ही नहीं बल्कि उसके मुल्क से भी बात कर रही होती है। यही वजह है कि हर देश की समस्याएँ एक साथ मिलकर उस पर हमला करती हैं। उसके कंधे हमेशा यूँ झुके रहते हैं जैसे दुनिया के हर देश के बोझ से लदे हुए हों। वह आज तक टोरंटो के बाहर नहीं गयी। टोरंटो के बाहर की पूरी दुनिया स्वयं उसकी कक्षा में आती रही है।
इन छात्रों के निबंधों में, गृह-कार्य में, इनके देशों और घरों की ऐसी जानकारियाँ मिलती रही हैं, जो शायद किसी किताब में नहीं मिल सकतीं। इसीलिए बड़े-बड़े देशों की बारीक से बारीक नस को एना पहचान लेती है। कलेजे को ठंडक मिलती कि वह अकेली नहीं है जिसका बचपन कटुता में बीता है। छात्रों के लिखे गए वाक्यों में उनकी अपनी पीड़ा व्यक्त होती और वही एना के लिए राहत का सबब हो जाता।
उसके बचपन का भी एक शापित इतिहास है। वह एक ऐसे घर में पली-बढ़ी थी जो घर नहीं, यातना घर था। आम तौर पर माँ के नाम से लोगों के चेहरों पर मुस्कान चली आती है पर उसके चेहरे पर आती थी घृणा और नफरत। पिता के बारे में कभी तय नहीं कर पायी कि वे अच्छे थे या खराब। बहुत पहले घर छोड़ कर चले गए थे वे। समाजसेवी संस्थाओं ने नशे में डूबी माँ से बच्ची को लेकर उसे अनाथालय भेज दिया था। उसने जैसे तैसे हाई स्कूल पास करके काम करना शुरू कर दिया था। काम करते हुए ही फ्रेंच में ग्रेजुएट हुई। दिन में काम और शाम को पढ़ाई। सुना था कष्टों से आदमी निखरता है, उसने भी अपना भविष्य निखारा। बस अपने व्यक्तित्व को नहीं निखार पायी। जीवन की कटुताओं को झेलते-झेलते वह क्रूर होती चली गयी।
अब फ्रेंच भाषा है और वह है। वही उसकी जिंदगी है। वह अपनी मेहनत से जिंदगी के अभावों को दूर करती और संकीर्णताओं में बँधती चली गयी। काम बहुत अच्छे से करती लेकिन उसकी जबान कड़वी हो चली थी। वह कड़वाहट उसकी मेहनत पर पानी फेर देती। एक बगावत बस गयी थी उसके मन में। वह कभी यह न समझ पाई कि डाँट डपट का उसका यह तरीका गलत है। भीतर की नफरत का बीज उम्र के साथ बढ़ते हुए अब पेड़ बन चुका था। हर व्यक्ति उसे एक साजिश लगता। अपने चेहरे को जितना बिगाड़ कर रख सकती, रखती। एक कान में बड़ा इअरिंग तो दूसरे में कुछ नहीं। गले में अलग-अलग आकार-प्रकार की आठ-दस मालाएँ लंबी लटकती रहतीं। बाल ऐसे बनाती कि पढ़ाते समय छात्र उसके बालों पर अधिक ध्यान दें। कई बार उसकी आँखें उसके बालों में छुपी रह जातीं। आँखों की वह बरसती आग तब अंदर ही रह जाती, कहीं निकल न पाती। खुद उसी आग में झुलसती रहती।
ऐसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनती जैसे किसी पोशाक में हर रंग का होना जरूरी हो। उससे दूर रह गया जीवन का हर रंग उसके परिधान में शामिल होता गया। पर रंगों की यह बहार बाहर तक ही रहती, अंदर न घुस पाती। वहाँ तो ऐसी कालिमा थी, जो हर रंग को अपने में सोख लेती। शायद वह यही चाहती भी थी कि उसकी बेतरतीबी को लोग उसकी खासियत समझें।
वह अपने मन की मर्जी से चलती। बोलती तो एक-एक शब्द चबाकर। ऐसा लगता कि सुनने वाले ने उसकी बात न समझी तो वह इसी तरह उसे चबा जाएगी। उसका मानना था कि सामने वाले की दो नहीं, हजारों आँखें हैं। हर एक आँख उसे अलग आँख से देख रही है। वह इन आँखों को पढ़ने के बजाय कुचल देना चाहती। पल-पल में उसकी नजर बदल जाती।
उसका यह भी मानना था कि लोग नकली होते हैं। जैसे हैं, वैसे दिखते नहीं। वह भी वैसी नहीं है, जैसी दिखती है। हर किसी को चीख-चीख कर कहना चाहती- “देखो मैं एक अजूबा हूँ।”
जब वह बहुत छोटी थी तो नशे में इधर-उधर लुढ़कती रहती माँ। भूखी बच्ची को खाना न मिल पाता। भूख से रोती तो थप्पड़ों से उसके गाल लाल कर दिए जाते। कई बार माँ उसे छोड़कर कहीं चली जाया करती थी। उन पलों का वह सारा डर अब उसके गुस्से में उतर आया था। उसके समूचे व्यक्तित्व को अतीत की काली छाया ने डँस लिया था। कक्षा में आक्रोशित होती तो उसे ये ध्यान न रहता कि वह क्या कह रही है। लेकिन एक बात का ध्यान उसे अवश्य रहता कि वह स्वयं को कोई दु:ख नहीं देना चाहती। मनमानी करके उसे एक अजीब-सी राहत मिलती। लगता कि दुनिया उसके कदमों में है और वह हर किसी पर राज कर रही है।
अनाथालय को घर तो मान लिया था पर उसे घर की तरह अनुभव करना कहाँ सम्भव था। किसी आदमी को देखते ही उसके अंदर की असलियत पहचानने की उसकी सनक तभी से है। वह पूरी तरह पारदर्शी है, अपनी जिंदगी से नाटक नहीं करती।
वे सारे दु:ख जो उसे अब तक कचोटते रहे, वह उन्हें खुशियों में बदल देना चाहती है। सच का सामना तब भी किया था, अब भी करती है। बस उसका नजरिया अब बदल गया है। शिक्षक बहुत अच्छी है पर उतनी अच्छी इंसान नहीं। कक्षा दर कक्षा उसकी शुरुआत अच्छी होती; अंत तक सारे छात्र उसकी कटुता को पीने की आदत डाल लेते।
एक दिन कुछ ऐसी घटना घटी जब एना, एना न रही। अभी कक्षा शुरू भी नहीं हुई थी कि सामने से आते एक छात्र डेविस के मस्ती भरे ‘हलो’ ने उसे नाराज कर दिया- “मैं आपकी दोस्त नहीं हूँ। ठीक से हलो कहा कीजिए।”
“जी?”
“क्या आपको याद दिलाना होगा कि यह अंग्रेजी नहीं फ्रेंच की कक्षा है! बोनशूर कहिए।”
डेविस को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने प्रश्नवाचक निगाह से उसे देखा। यह कोई इतनी बड़ी गलती तो नहीं थी कि गुस्से की वजह बन जाए। उस सवालिया नज़र को सहन करना एना के स्वभाव के खिलाफ था। वह डाँटने लगी- “फ्रेंच की कक्षा में हलो भी अंग्रेजी में कहा जाए तो भाषा सीखने का मतलब ही क्या रहा।”
“लेकिन…”
“तुम्हें इतना शऊर नहीं कि टीचर से बोनशूर कैसे कहा जाए।”
“मैंने सॉरी कहा मिस…!”
“बाहर जाओ अभी इसी वक्त।”
डेविस ने सकपकाते हुए एक भरपूर नजर से देखा और कहा- “इतना गुस्सा करने की कोई जरूरत नहीं मिस एना।”
“आउट”
“जी, जा रहा हूँ। ऐसे डर के साए में मैं भी भाषा नहीं सीख पाऊँगा।”
एना उसके तेवर देखकर स्तब्ध थी। डेविस शायद जान गया था कि इसका परिणाम उसे भुगतना पड़ेगा। जाते हुए एक बार पलट कर उसने देखा और कहा- “आप चाहें तो अपनी कक्षा सूची से मेरा नाम काट दें।”
और वह चला गया। पूरी कक्षा यूँ सन्न थी, जैसे साँप सूँघ गया हो। एना आपा खो बैठी- “आप सभी बाहर जाइए। आज कोई कक्षा नहीं होगी।”
सारे छात्र जितनी तेजी से निकल सकते थे, निकल गए। बाहर से लगातार एक आवाज आ रही थी- “यह टीचर हमारी यूनिवर्सिटी का सोविनियर है।”
एना थर-थर काँप रही थी। गुस्से का आवेग ऐसा था कि खाली कक्षा में अपना सिर बोर्ड से टकराने का मन कर रहा था। सोविनियर शब्द कक्षा की हर चीज से टकराता हुआ उस पर हमला कर रहा था। उसी की लाठी से, उसी पर वार किया गया था और हैरानी इस बात की थी कि वार सही जगह लगा था। कक्षा का पूरा समय उसने वहीं चक्कर लगा-लगा कर काटा। छात्र डेविस का साहसी चेहरा सामने से हट नहीं रहा था। खाली क्लास जैसे चीख रही थी। हर तरफ़ से छात्रों की अलग-अलग आवाजें मुँह चिढ़ा रही थीं। कक्षा से सीधे घर के लिए निकल गयी वह। न भूख का एहसास रहा, न प्यास का। उस रात वह सो नहीं पायी। उस असामान्य घटना ने जैसे झिंझोड़ कर रख दिया था उसे। कक्षा के सारे छात्र मानो अलग-अलग देशों के लहराते झंडों के साथ बारी-बारी से उसकी आँखों के सामने आ-आकर चिल्ला रहे थे- सोविनियर! सोविनियर! एना के हाथ में भी कैनेडा का झंडा था। सब मार्च-पास्ट करते हुए उसकी कक्षा की तरफ़ बढ़े चले आ रहे थे। इन झंडों पर उन सबके चेहरे थे। मेपल लीफ के ऊपर एना का बड़ा-सा चेहरा था।
आखिरकार उस लंबी रात की सुबह हुई।
आज उसने अपने बाल तरतीब से कंघी किए। काला ब्लैज़र डाला। जूते भी रोज की अपेक्षा अच्छे पहने। अपना रोज वाला थैला नहीं, एक अच्छा सा बैग लिया और कक्षा की तरफ चल दी। कक्षा में प्रवेश किया तो देखा कि सारे छात्र आश्चर्य से उसे ही देख रहे थे। उसकी आँखों की भाषा कोमल और मीठी थी। वह मुस्कुरायी। ऐसी मुस्कान जो सबके लिए नयी थी। सामने वह छात्र डेविस था जो आज अपनी सजा की प्रतीक्षा कर रहा था। एना की नज़रें उससे ऐसे मिलीं जैसे धन्यवाद कह रही हों। आज एना को कक्षा के सारे चेहरे और सारे देश अच्छे लग रहे थे। पढ़ाते हुए वह खुलकर हँस रही थी। अब पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं थी। आज की कक्षा में पढ़ाने का जो सुकून उसे मिला था उसे उसने हर छात्र की आँखों में महसूस किया था।
कक्षा खत्म करके जाते-जाते एक पल के लिए वह रुकी और कहा- “डेविस, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।” उसके हाथों ने जैसे ही ताली बजायी, पूरी कक्षा ताली की गड़गड़ाहट से गूँज उठी।
डेविस नाम के उस छात्र ने एना के जीवन में एक खुशनुमा इतिहास रच दिया था, जिसमें सिर्फ आज था।
कक्षा के बाद अपने ऑफिस में घुसते ही उसने देखा, मेज पर रखा उसका बनाया हुआ कैनेडा का सोविनियर मुस्कुरा रहा था। न जाने वह मुस्कान एना के चेहरे से होते हुए उसके भीतर जाकर समा उठी थी। एना ने प्यार से उसे उठा लिया और देखती रही एकटक! मानो एक बुत शिल्पकार में जीवंतता भरने की सफल कोशिश कर रहा हो।
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈