हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लिखना-पढ़ना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लिखना-पढ़ना ??

…कैसा चल रहा है लिखना-पढ़ना?

…कुछ अपना लिखता हूँ, बहुत कुछ अपना बाँचता हूँ।

…अपना लिखना अच्छी बात है पर अपना ही लिखा बाँचना…?

आज नयी कविता या कथा लिखता हूँ, मित्रों के साथ साझा करता हूँ। अगले दिन से मित्रों के लेखन में अपनी ही रचना के अलग-अलग संस्करण बाँचता हूँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भाग कोरोना भाग ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘‘भाग कोरोना भाग’’)

☆ लघुकथा – भाग कोरोना भाग ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

सुबह-सुबह पार्क पहुंचा तो हतप्रभ रह गया। पार्क पूरी तरह जनशून्य था, भुतहा लग रहा था। मैं सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ।

बाजार की तरफ रुख किया तो बाजार बंद मिला। पुलिस वाले डंडा ठोक रहे थे। एक पुलिस वाला बोला-चल भाग यहां से, मरना है क्या?

मैं सीधा घर आकर रुका।

जनशून्य सड़कें भयावहता पैदा कर रही थी। मुर्धनी सी छाई हुई थी। मौत का तांडव चल रहा था। कब कहां रुकेगा पता नहीं था।

बुरा समय दरवाजे पर दस्तक दे रहा था। जान बचाने की उम्मीद कम बिल्कुल कम प्रतीत हो रही थी।

मेरी निराशा में इजाफा होता चला गया। मुझे लगा कि कोरोना मेरे गले से लिपट गया है। मर्मान्तक पीड़ा हो रही है।

बाहर से घंटा घड़ियाल की आवाजें आ रही थी, शंख बज रहे थे। बूढ़े बच्चे स्त्रियां सभी मिलकर कोरोना को भगाने का प्रयत्न कर रहे थे।

यह दृश्य चौकानेवाला था। मुझे उन पर हंसी आ रही थी। मैं अपना डर भूल चुका था और जोर-जोर से हंसने लगा था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “यह घर किसका है ?” ☆ श्री कमलेश भारतीय

(जिस लघुकथा को पढ़कर मित्र डॉ रामकुमार घोटड़ ने पूरा लघुकथा संग्रह संपादित कर डाला – विभाजन को लघुकथाएं, वही लघुकथा – यह घर किसका है ? – कमलेश भारतीय)

अपनी धरती , अपने लोग थे । यहां तक कि बरसों पहले छूटा हुआ घर भी वही था । वह औरत बड़ी हसरत से अपने पुरखों के मकान को देख रही थी । ईंट ईंट को , ज़र्रे ज़र्रे को आंखों ही आंखों में चूम रही थी । दुआएं मांग रही थी कि पुरखों का घर इसी तरह सीना ताने , सिर उठाये , शान से खड़ा रहे ।

उसके ज़हन में घर का नक्शा एक प्रकार से खुदा हुआ था । बरसों की धूल भी उस नक्शे पर जम नहीं पाई थी । कदम कदम रखते रखते जैसे वह बरसों पहले के हालात में पहुंच गयी । यहां बच्चे किलकारियां भरते थे । किलकारियों की आवाज साफ सुनाई देने लगीं । वह भी मुस्करा दी । फिर एकाएक चीख पुकार मच उठी । जन्नत जैसा घर जहन्नुम में बदल गया ।परेशान हाल औरत ने अपने कानों पर हाथ धर लिए और आसमान की ओर मुंह उठा कर बोली-या अल्लाह रहम कर । साथ खडी घर की औरत ने सहम कर पूछा-क्या हुआ ?

– कुछ नहीं।

– कुछ तो है। आप फरमाइए।

– इस घर से बंटवारे की बदबू फिर उठ रही है। कहीं फिर नफरत की आग सुलग रही है। अफवाहों का धुआं छाया हुआ है। कभी यह घर मेरा था। एक मुसलमान औरत का। आज तुम्हारा है। कल… कल यह घर किसका होगा ? इस घर में कभी हिंदू रहते हैं तो कभी मुसलमान। अंधेर साईं का, कहर खुदा का।  इस घर में इंसान कब बसेंगे???

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – रोटी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘‘रोटी’’)

☆ लघुकथा – रोटी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल 

एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग रोटी चालीसा पढ़ रहे थे। पास ही में एक मलंग अपनी ढपली पर अपना राग सुना रहा था।

एक व्यक्ति बोला – जब से रोटी बनी है तब से वह अपने ही मूल स्वरूप में है, आकार प्रकार, लंबाई चौड़ाई, व्यास त्रिज्या, लगभग वही, थोड़ी बहुत ज्यादा थोड़ी बहुत कम।

दूसरा व्यक्ति बोला – स्पष्ट है कि उस लघु आकार रोटी में भूख है, वहशीपन, दरिंदगी है ,पागलपन गहरे बहुत गहरे तक छुपा है।

तीसरा व्यक्ति बोला-वही रोटी जब पेट में चली जाती है तब उमंग, सरलता, सौजन्यता, बुद्धि चातुर्य, साहित्य, कला, आनंद उत्सव ले आती है। रोटी जीवन है यार, इस असार संसार में रोटी वह नाव है जिससे जीवन नैया पार लगती है।

चौथा बोला – हां भाइयों, कितने रूप स्वरूप है रोटी के, जिसके भाग्य में जैसा रूप हासिल हो जाए, बड़ी कातिल होती है रोटी, इसने राजा हरिश्चंद्र को भी डोम की नौकरी करा दी थी।

सबकी बातें सुनकर मलंग बोला – बच्चों जरा मेरी और देखो, मेरे पास कुछ नहीं है। बिल्कुल फक्कड़ हूं, पर मुझे रोटी की कमी नहीं है। उस तरफ देखो एक महिला पत्तल में रोटी दाल लिए चली आ रही है।

उन लोगों को रोटी का गणित समझ के परे था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #132 – लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “चोर !”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अविराम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

 बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अविराम ??

सुनो, बहुत हो गया यह लिखना-लिखाना। मन उचट-सा गया है। यों भी पढ़ता कौन है आजकल?….अब कुछ दिनों के लिए विराम। इस दौरान कलम को छूऊँगा भी नहीं।

फिर…?

कुछ अलग करते हैं। कहीं लाँग ड्राइव पर निकलते हैं। जी भरके प्रकृति को निहारेंगे। शाम को पंडित जी का सुगम संगीत का कार्यक्रम है। लौटते हुए उसे भी सुनने चलेंगे।

उस रात उसने प्रकृति के वर्णन और सुगम संगीत के श्रवण पर दो संस्मरण लिखे।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कुंठा ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कथा-कहानी ☆ कुंठा ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

(पर्यावरण – प्रदूषण एवं उसके दूरगामी परिणामों पर आधारित एक विचारोत्तेजक कथा।) 

अमर को इस शहर में आए दो माह हो गए थे । ट्रांसफ़र के बाद हुए  डिस्टर्बेंस से अब निजात मिलने लगी थी। जीवन धीरे-धीरे व्यवस्थित हो चला था। बच्चों का स्कूल चालू हो गया था। मिनी और पिंटू क्रमशः आठ और ग्यारह साल के दो बच्चे थे आम बच्चों की ही तरह थोड़े नटखट, थोड़े होशियार । राखी उन्हें अपनी पलकों की छाँव में रखती ।  उनके हर क्रियाकलाप पर नज़र रखती। यूँ तो बाजार से कुछ भी लाना होता तो वह अमर को फोन कर देती थी। अगर वह फोन न भी करे और बच्चों की कोई मांग न भी हो तो भी अमर कभी ऑफिस से खाली हाथ नहीं आता था । एक पिता को शाम को खाली हाथ घर नहीं जाना चाहिए, खास कर जब घर में छोटे बच्चे हों। इस बात का अमर को एहसास था । नन्हीं मिनी तो पापा के चक्कर लगाने लगती थी। शायद पीछे कुछ छुपाया हो।  पिंटू भी प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखता। अमर को इस सब की इतनीं आदत हो गई थी कि वह शाम को घर पहुँचता तो एक पॉलिथीन का कैरीबैग हमेशा उसके हाथ में होता जिसमें कभी आइसक्रीम, कभी चिप्स – बिस्किट तो कभी फल या कुछ और होता । आज भी यही होने वाला था, लेकिन घटनाक्रम कुछ बदल गया। पिछले एक साल से वह मंगलवार को व्रत रखने लगा था। लंच ब्रेक में सिर्फ चाय पीता । आज उसने चाय पीते हुए एक पत्रिका हाथ मे ले ली। सभी साथी इधर-उधर निकल चुके थे। उपवास के कारण थोड़ी ऊर्जा कम लग रही थी इसलिए वह बाहर नहीं गया। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उसकी आँखें पृष्ठ पर बाएं से दाएं फिसलने लगीं । ।एक तस्वीर देख कर वे ठहर गईं  ..जैसे कि बहती नदी के बीच कोई चट्टान आ जाए। चित्र में समुद्र के बीच एक द्वीप दिख रहा था  जो रंग बिरंगा था। जितने टॉफी, बिस्किट, आइसक्रीम और चिप्स आदि के पैकिट उसने अब तक खरीदे थे उन सबके रंगीन आकर्षक लाल, नीले, काले रैपरों और पन्नियों से बना  यह द्वीप जहाज़ की तरह पानी की सतह पर बहा जाता था। । इस चित्र में वह इस तरह खो गया कि चित्र, चित्र न रहा चलचित्र हो गया … नीचे लिखी इबारत पढ़ कर उसके कान खड़े हो गए। प्रतिदिन सैकड़ों लोग समुद्र किनारे…बीच पर सैर-सपाटा करने जाते हैं। वहीं खाते-पीते हैं और पॉलिथीन के खाली पैकिट वहीं छोड़ आते हैं। समुद्र में जब ज्वार आता है तो ये सारा कचरा लहरों के साथ समुद्र में चला जाता है।  इस तरह की पन्नियों का यह कचरा एक साथ एक जगह पर  द्वीप की शक्ल में समंदर की सतह पर तैरते रहता है।  रंग बिरंगी पन्नियों से बना द्वीप…..क्या हैरानी की बात है! ये मुंबई वासी भी कितने लापरवाह हैं।अभी पिछली बारिश में बाढ़ की विभीषिका भुगत चुके हैं । जबकि बारिश थोड़ी ही हुई थी लेकिन इतने में ही शहर पानी-पानी हो गया था। महानगर का जल निकासी तंत्र अर्थात ड्रेनेज सिस्टम , जगह-जगह पॉलिथीन फंसी होने से  बाधित हो गया था।

अमर ने मेज़ पर मुक्का मरते हुए कहा ये पन्नियाँ हमें बर्बाद कर देंगीं । लेकिन किया भी क्या जाए ?  ये इतनीं सुविधाजनक जो हैं। हर जगह उपलब्ध हैं।

उसने आराम करने की गरज से कुर्सी के टिकने वाले हिस्से पर दोनों हाथ रखे फिर उन पर सिर टिका लिया। सहज ही ऊपर दृष्टि ऊपर की ओर चली गई और दीवार पर लगी एक पेंटिंग पर जा कर स्थिर हो गई। पेंटिंग में किसी आदर्श ग्रामीण परिवेश को चित्रित किया गया था । अमर उस सुरम्य ग्राम में मानसिक प्रवेश कर गया । वाह! वे  भी क्या दिन थे । सामान लेने के उद्देश्य से घर से निकलो तो  थैला हाथ में लो। पुरानी पेंट के बने थैले , जो अम्मां के हाथों के कौशल से मजबूत और डिजाइनदार बन जाते थे।  वैसे बाबू जी जूट या सूती कपड़े से बने थैले भी बाजार से लाते ही थे । पहले इत्मिनान से सामान की सूची बनती। अम्मां रसोई का सामान लिखवातीं, फिर हम बच्चे अपनी आवश्यकताएँ गिनाते। अधिक समान होने पर एक से अधिक थैले ले जाने पड़ते। तब एक थैले में बाकी थैलों को तहा कर रख लिया जाता।।तेल – घी के लिये खाली डिब्बा या कैन ले जाना होता। अम्माँ की बाबू जी को, खास हिदायत होती आंखें बंद कर के मत उठा लाना , सब सामान देख-भाल कर लाना । बाबू जी हाथ पर मल कर ,फिर सूंघ कर देखते कि घी नकली है या असली। ।आसपास के गांव से छोटे किसान और पशुपालक अपना घी व्यापारियों को बेच जाते थे। यह घी दुकानों से फिर घरों तक पहुंचता था।  अब तो हमें पता ही नही होता हम जो रैपर में सजा हुआ खाद्य पदार्थ घर ले कर जा रहे हैं उसका कच्चा माल किस गाँव से आया होगा।  सिर्फ उत्पादक की निर्माता कंपनी या ब्रांड का नाम ही पढ़ने में आता है।

“हा हा हा एक किलो भिंडी होती ही कितनी है शर्मा जी । ख़ाँमख़ाँ भाभी जी को परेशान करते हो , आप ही लेते जाना।” ये मनोहर जी थे जो अमर के सहकर्मी थे और एक दूसरे साथी परेश कुमार शर्मा जी को अपनी बेशकीमती सलाह दे रहे थे।

“लेकिन मैं सब्जी के लिए थैला-वैला कुछ नहीं लाया घर से।“ परेश बाबू ने अपनी मजबूरी बताई। उनके स्कूटर की डिग्गी में एक थैला हमेशा पड़ा रहता था।

“पॉलीथीन के कैरीबैग में  लेते जाइये। शर्मा जी ! ज़माना कहीं का कहीं पहुँच गया और आप अभी तक थैले-थैलियों में ही अटके हैं।” मनोहर जी , शर्मा जी का मज़ाक उड़ा रहे थे।

बातचीत के इस शोर ने अमर को वास्तविकता के धरातल पर लाने का काम किया। तस्वीर से उतर कर उसकी दृष्टि पुनः पत्रिका के चित्र पर ठहर गई जो कि अब पहले से भी ज्यादा भयानक लग रहा था। शाम को जब अमर घर पहुंच तो उसके हाथ मे थोड़े से फल थे बच्चे फल खाने में उतनी रुचि नहीं दिख रहे थे जितनी चिप्स खाने में दिखाते हैं। इसीलिए बेमन से मिनी रसोई में जा कर माँ के पास खड़ी हो गई। मञ लौकी छिल रही थीं । छिलके और कुछ बचा हुआ भोजन माँ ने एक पॉलीथिन में डाला और बोलीं, “मिनी ज़रा इसे डस्टबिन में डाल आओ।”

मिनी ठुनक कर बोली, “मुझ से कचरा फिंकवाती हो?”

माँ ने बड़े प्यार से कहा,” नहीं मेरी प्यारी गुड़िया, इसमें कचरा नहीं है।ये तो छिलके हैं और थोड़ा तुम्हारे टिफिन का बचा हुआ खाना है।”

मिनी ने देखा डस्टबिन के चारों ओर कचरा फैला हुआ था।लोग दूर से ही कचरा फैंका करते जो थोड़ा बहुत बाहर भी गिर जाता था।मिनी को भी पास जाने में घिन आ रही थी ।उसने भी दूर से ही पन्नी फेंकी । मगर वह डस्टबिन में न जा कर बाहर ही गिर गई।अमर बालकनी में खड़ा ये दृश्य देख रहा था। वह तुरन्त राखी पर चिल्लाया, “ बच्ची को कचरा फैंकने मत भेजा करो।”

राखी ने फिर उसी तरह सफाई दी, “कचरा नहीं है, छिलके और कुछ बचा हुआ खाना है ।बस।”

अमर के मन में आज एक नई चेतना उमंग रही थी । उसने और तेज़ हो कर कहा, “ये तुमने क्या किया? खाने – पीने की चीज़ तो पन्नी में डाल कर नहीं फिकवाना थी।”

“तुमको लगता है गाय पन्नी सहित खाना निगल जाएगी?”

“तो क्या गांठ खोल कर खाना निकालेगी फिर खाएगी?”

“ऐसा कुछ नहीं होगा।मैंने पन्नी में सिर्फ एक अंटा लगाया है जो फेंकते ही खुल गया होगा। वैसे भी यहां गाय कम ही आती है।” राखी ने अमर को आश्वस्त करने की कोशिश की।

अमर ने पुनः गर्दन घुमाई तो देखा मिनी नाक दबा कर वहाँ से भागी आ रही है। अगले दिन रविवार था।हफ्ते भर की थकान मिटा कर सोमवार को जब अमर ऑफिस के लिए तैयार हुआ तो एकदम तरोताज़ा था। दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे। राखी ने चम्मच प्लेट की खटपट के बीच मेज़ पर नष्ट लगाया और दोनों खाने बैठ गए।

अमर, “मैंने एक प्रण किया है, यानी रिसोल्यूशन.””

राखी, “ कैसा रिसोल्यूशन?”

अमर, “ यही की आज से हम लोग बाजार से पॉलिथीन के बने कैरीबैग में कुछ भी नहीं लाएँगे।”

राखी की हंसी निकल गई। मुख से निवाला गिरते- गिराए बचा। बोली, “ तो कैसे लाएँगे।”

“ घर से थैला ले कर निकलेंगे।

“ और अगर अचानक याद आए कि कुछ लेना है तो?”

“ उसका भी तोड़ है । मैं हमेशा गाड़ी की डिग्गी में एक थैला रखूँगा । तुम ऐसा करने में मेरी मदद करोगी।”

राखी को अमर की आंखों में भावुकता नज़र आई । उसका लहज़ा ऐसा था कि हाँ कहना पड़ा ।  इन्हीं बातों के साथ अमर ने नष्ट खत्म किया और ऑफिस के निकल पड़ा। अभी कुछ ही दूर निकला था कि लोगों का झुंड दिखाई दिया। अमर गाड़ी छोड़, वहां पहुंच गया।  उसने देखा एक गाय मरी पड़ी थी । उसका पेट फूला हुआ था । मुंह से झाग निकल रहा था।  गर्दन और शरीर  अकड़ा हुआ था मानो असहनीय पीड़ा भोग कर मरी हो । लोग सवाल-जवाब में उलझे थे ।

“ ये यहाँ आई कैसे?”

“मौत ले आई !”

“ठीक कहते हो भाई । यहीं कचरे के आस;पास डोलते देखा था मैंने इसे।”

“ भूखी होगी।”

“ ऐसे निर्दयी लोग हैं । मवेशियों के खाना-खुराक का ध्यान नहीं रखते बस दुहना जानते हैं ।”

“ हो न हो जूठन- छिलका आदि के साथ-साथ गाय पन्नी भी खा गई। पन्नी इसकी आँतों में  फंस कर रह गई होगी । पेट दर्द से तड़पी होगी। देखो…. इसकी देह पर कितनी धूल- मिट्टी चिपकी है ।”

“नगरनिगम वालों को फोन करो।”

“ हाँ हाँ फोन करो, आ कर उठा ले जाएं ।”

अमर अब घर की ओर लौट रहा था। लुटा हुआ सा।उदास….आत्मग्लानि से भरा हुआ … जैसे गाय को उसीने मार डाला हो। जाने क्यों उसे लग रहा था गाय ने वही पॉलिथीन खाई होगी जो उस दिन मिनी ने लौकी के छिलके और टिफिन का बचा हुआ खाना रख कर फेंकी थी….और जिसमें राखी ने सिर्फ एक अंटा लगाया …. और जो फेंकते ही खुल जानी थी मगर मिनी ने बजाय फैंकने के उसे सड़क पर ही छोड़ दिया। हाँ…. शायद… नहीं- नहीं पक्का….ये वही पॉलीथिन है।

तो क्या उसे गऊ-हत्या का पाप लगेगा? उनको नहीं लगेगा जो पन्नी में समान बेचते हैं? इनको भी नहीं जो पॉलीथिन बनाते हैं? विचारों की यह श्रृंखला जन्म ही न लेती अगर वह आज फिर पन्नी में फल न लाया होता। वह स्वयं को एक हत्यारा मानने लगा …इतना बड़ा पातक! बचना कितना आसान। पॉलिथीन का बहिष्कार।

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी, टीकमगढ़ म प्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 149 – विशाल भंडारा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  जीवन में आनंद एवं सुमधुर आयोजन के महत्व को दर्शाती एक भावप्रवण लघुकथा विशाल भंडारा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 149 ☆

🌺 लघुकथा 🌺 विशाल भंडारा 🌺

भंडारा कहते ही सभी का मन भोजन की ओर सोचने लगता है।

सभी प्रकार से सुरक्षित, साधन संपन्न, शहर के एक बहुत बड़े हाई स्कूल जहाँ पर छात्र-छात्राएं एक साथ (कोएड) पढ़ते थे।

हाई स्कूल का माहौल और  बच्चों का प्ले स्कूल सभी के मन को भाता था। गणतंत्र दिवस की तैयारियां चल रही थी। सभी स्कूल के टीचर स्टाफ अपने अपने कामों में व्यस्त थे।

गीत – संगीत का अलग सेक्शन था वहाँ भी बैंड और राष्ट्रीय गान को अंतिम रूप से दिया जा रहा था।

स्कूल में एक कैंटीन थी, जहाँ पर बच्चे और टीचर /स्टाफ सभी को पर्याप्त रूप से नाश्ते में खरीद कर खाने का सामान मिल जाता था।

स्कूल का वातावरण बड़ा ही रोचक और मनोरम था। किसी टीचर का जन्मदिन या शादी की सालगिरह या कोई अन्य कार्यक्रम होता।उस दिन  कैंटीन पर वह जाकर कह देते और पेमेंट कर सभी 150 से 200  टीचर / स्टाफ आकर अपना नाश्ता ले लेते और बदले में बधाईयों का ढेर लग जाता। शुभकामनाओं की बरसात होती। मौज मस्ती का माहौल बन जाता।

स्कूल में भंडारा कहने से बात हवा की तरह फैल गई। सभी खुश थे आज भंडारा खाने को मिलेगा। यही हुआ आज स्कूल स्टाफ के संगीत टीचर विशाल का जन्मदिन था।

विशाल शांत, सौम्य और संकोची स्वभाव का था। अपने काम के प्रति निष्ठा स्कूल के आयोजन को पूर्णता प्रदान करने में अग्रणी योगदान देता था।

विशाल का युवा मन कहीं कोई कुछ कह न  दे या किसी को मेरे कारण किसी बात से ठेस न पहुँचे, इस भावना से वह चुपचाप जाकर कैंटीन पर धीरे से वहां की आंटी को बोला…. “ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, आज मेरा जन्मदिन है। सभी स्टाफ को मेरी तरफ से नाश्ता देना है।”

शांत, मधुर मुस्कान लिए विशाल ने जब यह बात कही। कैंटीन वाली आंटी ने पहले सोचा इसे सरप्राइज देना चाहिए। विशाल के वहाँ से निकलने के बाद वह सभी से कहने लगी भंडारा भंडारा भंडारा विशाल भंडारा सभी बड़े खुश हो गए।

किसी का ध्यान विशाल के जन्मदिन की ओर नहीं गया। बस यह था कि स्कूल से भरपूर भंडारा खाने का मजा आएगा। जो सुन रहा था वह खुशी से एक दूसरे को बता रहे थे।

पर कारण किसी को पता नहीं था। अपने कामों में व्यस्त विशाल के पास उसका अपना दोस्त दौड़ते आया और कहने लगा… “सुना तुमने आज विशाल भंडारा होने वाला है।” जैसे ही विशाल ने सुना पियानो पर हाथ रखे उंगलियां एक साथ बज उठी और तुरंत वहाँ से उठकर चल पड़ा। ‘चल चल चल’ दूसरी मंजिल से जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरते विशाल ने देखा आंटी सभी को खुश होकर नाश्ता बांट रही थी, और कह रही थी विशाल का भंडारा है जन्मदिन की बधाइयाँ। सभी के हाथों पर नाश्ते की प्लेट और चेहरे पर मुस्कान थी।

अपने जन्मदिन का इतना सुंदर तोहफा, आयोजन पर विशाल गदगद हो गया। तभी बैंड धुन बजाने लगे हैप्पी बर्थडे टू यू। सारे स्टाफ के बीच विशाल अपना जन्मदिन मनाते सचमुच विशाल प्रतीत हो रहे थे। विशाल भंडारा सोच कर वह मुस्कुरा उठा। जन्मदिन की खुशियां दुगुनी हो उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #176 ☆ कहानी – आलोक बाबू का दुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुन्दर एवं प्रेरणास्पद कहानी  ‘आलोक बाबू का दुख ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 176 ☆

☆ कहानी ☆ आलोक बाबू का दुख 

आलोक बाबू क्रोध और बेबसी के आवेग में घर से निकल पड़े। किस तरफ चले, यह खुद उन्हें भी पता नहीं चला। बिना सोचे समझे सड़क पर दूर तक निकल गये। शायद मन में उम्मीद रही हो कि पीछे से प्रकाश या बहू उन्हें आवाज़ देकर रोक लेंगे या पीछे पीछे दौड़ते आएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे लंबी फैलती सड़कों पर, जैसे पहली बार, किसी अदृश्य शक्ति के ढकेले आगे बढ़ते गये। निकलते वक्त उनका नाम लेकर पुकारता पत्नी का क्षीण स्वर ज़रूर सुनायी पड़ा था, लेकिन उन्होंने उसे अनसुना कर दिया था।

शाम हो चली थी। पता नहीं चला कब वे चलते चलते बस अड्डे पहुँच गये। सब तरफ चिल्ल-पों मची थी। थोड़ी दूरी पर टेंपो का समूह इकट्ठा था। वहाँ से इंजन के घुरघुराने की कानफोड़ू आवाज़ें फैल रही थीं। लेकिन आलोक बाबू के कान में ये आवाज़ें नहीं पहुँच रही थीं। उनके दिमाग में कोई और ही फिल्म चल रही थी जिसने उनके सोच को पूरी तरह जकड़ रखा था।

ये सब टेंपो नर्मदा के घाट जाने वाले थे। एक टेंपो सवारियों से भरा, रवाना होने की तैयारी में घुरघुरा रहा था। आलोक बाबू उसी में अँट गये। जेब छू कर देख ली। पर्स जेब में था, अन्यथा अभी उतर कर पैदल लौटना पड़ता।

दरअसल सारा फसाद उनके छोटे बेटे प्रकाश ने पैदा किया था। साल भर पहले उन्होंने बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। सोचा था, अच्छा खासा पैसा लेकर सुकून से ज़िन्दगी बिताएंगे। लेकिन बैंक से बाहर आते ही वे ज़मीन पर आ गये। बिना काम के वे फालतू और बेकार हो गये। समझ में आ गया कि सक्रिय और व्यस्त रहना ज़िन्दगी के लिए ज़्यादा ज़रूरी है, पैसा सामने रखकर उसे निहारते रहना एक बीमारी पालने से बेहतर कुछ नहीं है।

पैसा हाथ में आने के बाद से नाते- रिश्तेदारों की आँखों में कुछ बदलाव आ गया था—- कुछ ईर्ष्या के कारण और कुछ उम्मीद की वजह से। लोगों को यह लगा कि उनके पास फालतू पैसा पड़ा है और उसे उनसे उधार लेकर किसी काम में लगाना बुद्धिमानी की बात होगी। उनकी बड़ी बेटी अपने पति की हिदायत पर दो तीन बार संदेश भेज चुकी थी कि अगर वे ढाई तीन लाख रुपया दे सकें तो पतिदेव अपना बिज़नेस बढ़ा सकेंगे। तीन-चार साल में पैसा वापस कर दिया जाएगा, और पापा जी ‘चाहें’ तो उचित ब्याज भी ले सकते हैं। आलोक बाबू ने हर बार बात को टाल दिया।

लेकिन इस बार गड़बड़ी इसलिए हुई कि उन्होंने बड़े बेटे दीपक के माँगने पर उसे कार खरीदने के लिए डेढ़ लाख रुपए दे दिये। दोनों बेटे बाहर नौकरी में थे। दीपक के घर में कार आने के पंद्रह दिन के भीतर ही प्रकाश पिता के घर आ धमका। उसका कहना था कि जब बड़े भाई को डेढ़ लाख रुपया दिया है तो उसे भी इतनी ही रकम मिलना चाहिए, भले ही वह कुछ खरीदे या न खरीदे। उसकी नज़र में यह भेदभाव था जिसे बर्दाश्त करना उसके लिए नामुमकिन था।

इसी बात को लेकर उसके चक्कर हर महीने लगने लगे। पिता की तरफ से टालमटोल होते देख वह बदतमीज़ी पर उतरने लगा। धीरे-धीरे हालत यह हो गयी कि उसके आने पर आलोक बाबू को घबराहट होने लगी। वह साफ साफ कहता, ‘दादा को पैसा दिया है तो मुझे भी दीजिए। यह भेदभाव की नीति नहीं चलेगी। हम दोनों आपके बेटे हैं। नहीं तो दादा से कहिए पैसा वापस करें।’

जिस दिन की बात है उस दिन प्रकाश अलमारी से आलोक बाबू की चेकबुक लेकर उनके पीछे पड़ गया था कि तत्काल उसके नाम चेक काट कर दें। आलोक बाबू हर बार चेकबुक को परे धकेल देते थे और प्रकाश हर बार धृष्टता से चेकबुक उनके सामने रखकर उनके हाथ में पेन थमाने की कोशिश करता था। उसी रौ में आलोक बाबू घर से पैदल निकल पड़े थे। मुहल्ले-पड़ोस में कहीं दुखड़ा रोना खुद ही लाज से मरना था।

टेंपो पर बैठकर आलोक बाबू नर्मदा तट पहुँच गये। रास्ते में टेंपो किन किन जगहों से गुज़रा, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। वे अपने ही दुख में डूबे थे। घिरती साँझ में टेंपो ने उन्हें नर्मदा तट से थोड़ी दूर छोड़ दिया। वे अपने में खोये आगे बढ़ गये। आगे जाकर रेलिंग के पास खड़े हो गये, जहाँ नीचे नदी की लहरें गर्जन के साथ पछाड़ खा रही थीं। लहरों के उस उन्माद को देखते देखते आलोक बाबू का दिमाग घूमने लगा। बगल में रखी पत्थर की बेंच पर वे सिर लटका कर बैठ गये।

बैठे-बैठे उन्हें पता ही नहीं चला कब शाम रात में परिवर्तित हो गयी। उनके आसपास अब निर्जन हो गया था। जो लोग अब वहाँ थे वे  खाने-पीने और पत्थर की कलात्मक वस्तुओं की दूकानों में सिमट गए थे। रात के सन्नाटे में लहरों की गरज भयानक लग रही थी।

आलोक बाबू फिर रेलिंग से लगकर खड़े हो गये। क्या करें? कहाँ जाएँ? घर जाकर क्या करेंगे? फिर वही फजीहत। ऐसा पैसा किस काम का जो अनादर और द्वेष पैदा करे! न पैसा किसी काम का, न रिश्ते। फिर जीना किस लिए? बेहतर है इस जीवन का अन्त हो जाए। बस थोड़ी सी हिम्मत की ज़रूरत है और सब कुछ ख़त्म। शायद शरीर भी नहीं मिलेगा। ठीक भी है, अब इस शरीर की ज़रूरत किसे है?

आलोक बाबू इसी उधेड़बुन में थे कि किसी ने उनकी बाँह कोहनी से ऊपर कसकर पकड़ ली। देखा, एक तगड़ा सा अधेड़ आदमी था, सिर पर छोटे-छोटे खिचड़ी बाल, बदन पर आधी बाँह की कमीज़ और नेकर, और पैरों में रबर की चप्पल। आलोक बाबू ने कौतूहल से उसकी तरफ देखा तो वह बोला, ‘यह क्या कर रहे हैं बाबू साहब? साथ में कौन है?’

आलोक बाबू ने बताया वे अकेले हैं

वह आदमी बोला, ‘इरादे कुछ ठीक नहीं दिखते। इधर आइए।’

उसने बाँह छोड़ कर आलोक बाबू की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ फँसा लीं। चाँद की रोशनी में चट्टानों पर चढ़ता हुआ वह आलोक बाबू को ऊँचाई पर एक खपरैल वाले छोटे से घर में ले आया। वहाँ बिजली की हल्की रोशनी में आलोक बाबू ने एक स्त्री और दो तीन बच्चों को देखा।

वह व्यक्ति बाहर ही एक चट्टान पर आलोक बाबू को लेकर बैठ गया। पत्नी को पानी लाने के लिए आवाज़ देकर बोला, ‘क्या करने जा रहे थे आप ? इस उम्र में खुदकुशी करने का इरादा था क्या?’

आलोक बाबू लज्जित होकर बोले, ‘नहीं, नहीं। ऐसा कुछ नहीं था।’

वह आदमी व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘आप झूठ बोल रहे हैं। हमें तो अब इतना तजुर्बा हो गया है कि आदमी को देखकर जान जाते हैं कि कौन छलाँग लगाने वाला है।’

आलोक बाबू ने पूछा, ‘आप यहाँ क्या करते हैं?’

वह आदमी बोला, ‘हम रामनरेश पांडे हैं। चार साल से दिन-रात यही काम कर रहे हैं— आत्महत्या करने वालों को बचाने का। चार साल में पाँच सौ से ज़्यादा मर्द-औरतों को बचाया। यहाँ सब हमें जानते हैं।’

आलोक बाबू मुँह बाये उसका चेहरा देखते रह गये। बोले, ‘वैसे आप काम क्या करते हैं?’

पांडे जी बोले, ‘अब तो यही करते हैं। पहले एक ठेकेदार के साथ काम करते थे। बचपन से ही तैरने का शौक था। एक बार शाम को यहाँ घूम रहे थे कि एक लड़की झम से कूद पड़ी। प्यार व्यार का लफड़ा था। मैं भी बिना सोचे विचारे उसके पीछे कूदा। बस तब से सिलसिला चल पड़ा। तीन चार बार छोड़ कर भाग गया, लेकिन फिर लौट आया। समझ लिया कि अब यही मेरा काम है। मेरा कोई बस नहीं है। बराबर यहाँ नजर रखता हूँ और शक होते ही दौड़ता हूँ।’

आलोक बाबू अवाक रह गये। उनका अपना दुख शर्मसार होकर कहीं पीछे छिप गया। बोले, ‘गुज़र बसर कैसे होती है?’

पांडे जी बोले, ‘बड़ी मुश्किल से होती है। प्रशासन एक हजार रुपये महीना देता है। यह घर दे दिया है। पत्नी यहाँ स्कूल में चपरासी लग गयी है, इसलिए गाड़ी किसी तरह खिंच रही है। मंत्री आते हैं, पक्की नौकरी देने का भरोसा देकर चले जाते हैं। अभी तक कुछ नहीं हुआ। लेकिन यह काम छोड़कर नहीं जा सकता। आत्मा नहीं मानती। इसीलिए किसी को दोष भी नहीं देता। पत्नी का पूरा सहयोग है, इसलिए कोई पछतावा नहीं होता।’

आलोक बाबू अपनी तरफ नज़र डालकर भारी लज्जा में डूब गये। ऐसी ज़िन्दगी उनकी कल्पना से परे थी।

पांडे जी बोले, ‘अगर मेरा सोचना सही है तो जरूर किसी बिपदा में फँस कर आप जीवन त्यागने की सोच रहे होंगे। लेकिन इतने सयाने आदमी का इस तरह धीरज छोड़ देना ठीक नहीं। अभी रोटी बन जाती है। जो रूखा सूखा है ग्रहण कीजिए और यहीं खुले आसमान के नीचे शांति से सोइए। यह आकाश जो है आपके दुख को छोटा कर देगा। सवेरे तक आपका मन शान्त हो जाएगा।’

आलोक बाबू संकोच में हाथ उठा कर बोले, ‘न न! भोजन की इच्छा बिलकुल नहीं है।’

पांडे जी हँसे, बोले, ‘भोजन नहीं त्यागना चाहिए। भोजन बड़े बड़े दुखों को दबा देता है। खाली पेट से बहुत से भूत-प्रेत पैदा होते हैं। जो थोड़ा बहुत खाना हो खाइए और फिर आराम कीजिए। समझिए कि आज हम आपके डॉक्टर हैं। जीवन को बचाइए। पता नहीं किस के काम आ जाए।’

आलोक बाबू चुप हो गये। भोजन करते वक्त उन्हें खयाल आया कि अपनी विपन्नता के बावजूद पांडे जी इसी तरह कितने लोगों को अपने घर लाकर खिला पिला और सुला कर नये रास्ते पर रवाना कर चुके होंगे।

भोजन का ग्रास मुँह में डालते आलोक बाबू को लगा पांडे जी का अन्न उन्हें बहुत भारी पड़ेगा। चौबीस घंटे लोगों की जान बचाने में लगे पांडे का अन्न खाने के बाद आत्महत्या की बात सोचना गुनाह लगेगा। आत्महत्या की बात सोचते ही पांडे जी अपनी तर्जनी उठाये सामने आ खड़े होंगे।

पांडे जी ने आलोक बाबू के लिए एक समतल चट्टान पर मोटी दरी बिछा दी और शारीरिक और मानसिक रूप से थके आलोक बाबू उस पर लंबे लेट गये। अब उनके दिमाग की धुंध साफ हो गयी थी, इसलिए उन्हें ज़ोर की नींद लग रही थी।

तभी एक हाथ में ढिबरी लिये और दूसरे में एक आठ-दस साल की लड़की का हाथ थामे पांडे जी प्रकट हो गये। बोले, ‘बाबू साहब, आप पढ़े-लिखे दिखते हैं। थोड़ा इस लड़की को सवाल समझा दीजिए। हमारा दिमाग खाती है। अपनी गणित हमेशा कमजोर रही। ये सवाल हमारे बस के नहीं हैं।’

आलोक बाबू उत्साह में उठ कर बैठ गये। पढ़ाई में वे हमेशा तेज़ रहे थे। कॉलेज से मास्टर ऑफ कॉमर्स की डिग्री लेकर निकले तो बैंक में चुने जाने में दिक्कत नहीं हुई। अभी अपनी प्रतिभा दिखाने का अच्छा मौका था। एक घंटे तक उनकी क्लास चलती रही,उन सवालों की जो पांडे जी की बेटी जानना चाहती थी, और उनकी भी जो आलोक बाबू ने उसे समझाना ज़रूरी समझा। लड़की खूब खुश हो कर उठी और पांडे जी भी गदगद हो गए।

लड़की की क्लास ख़त्म कर आलोक बाबू उस चट्टान पर बच्चों जैसी गहरी नींद में डूब गये। पूरे वातावरण में अद्भुत शान्ति छायी थी।

सवेरे आलोक बाबू की नींद खुली तो पूर्व में नारंगी सूरज आधा उठ चुका था। उन्हें लगा यह उनकी ज़िन्दगी की नयी सुबह है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – की-बोर्ड ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक प्रेरक एवं विचारणीय लघुकथा  “की-बोर्ड)

☆ लघुकथा – की-बोर्ड ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“सर, आपके पास कोई पुराना की-बोर्ड पड़ा होगा तो दे देंगे मुझे?” ग्रुप ‘डी’ में नए आए दृष्टिबाधित कर्मचारी ने स्टोर-इंचार्ज संजय से कहा।

“क्या करोगे अरुण जी?” संजय ने पूछा।

“सर, टाइपिंग के अभ्यास के लिए चाहिए था। वो क्या है न सर, मुझे कंप्यूटर पर काम करना आता है, परन्तु यहाँ पर अभी ग्रुप ‘डी’ में मैं कंप्यूटर पर काम नहीं कर सकता। कहीं यह न हो कि कल को मेरी पदोन्नति के लिए परीक्षा हो और मैं बिलकुल ही भूल जाऊं, तो उसके अभ्यास करने के लिए एक की-बोर्ड लेना चाहता था आपसे। भले ही पुराना और ख़राब ही दे दीजिये सर, मेरा काम चल जाएगा…,” अरुण ने स्पष्ट किया।

“अरुण जी, अभी तो है नहीं। दरअसल ख़राब की-बोर्ड वगैरह किसी काम नहीं आते तो हम रखते भी नहीं हैं अपने पास”, संजय ने कहा, “आगे कोई आएगा तो मैं दे दूंगा…।”

तभी पास बैठा नीरज बोल उठा, “अरुण जी, मुझसे ले लेना। मेरे पास पड़ा हुआ है एक पीस। कल ला दूंगा…।”

“धन्यवाद सर…,” कह कर अरुण चला गया।

नीरज संजय से कह रहा था, “अभी चार महीने पहले अपना की-बोर्ड बदलवाया था। तेरी भाभी फैंकने लगी थी कूड़े में तो मैंने यूं ही रोक दिया था कि पड़ा रहने दो, शायद काम आ जाए। हालांकि वह नाराज़ भी हो रही थी कि यूं ही कबाड़ इकट्ठा हो जाएगा और मैं भी सोच रहा था कि भला क्या काम आएगा? पर अब मुझे ख़ुशी हो रही है कि यह किसी के काम आ जाएगा, और एक सबक भी मिला है कि हर बेकार चीज़ को हम काम में ला सकते हैं, सिर्फ पता होना चाहिए कि उसका उपयोग कहाँ और कैसे होना है?”

“और यह भी कि कोई चीज़ जो हमारे लिए अनुपयोगी या खराब है, हो सकता है किसी दूसरे के लिए बहुत उपयोगी या काम की हो”, संजय ने भी मुस्कुरा कर सहमति जता दी।

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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