(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ लघुकथा – “कागज़ का आदमी” ☆ श्री कमलेश भारतीय☆
(मित्रो, मेरी यह लघुकथा सन् 1971 में प्रयास में प्रकाशित हुई थी । मेरी पहली तीन लघुकथाएं प्रयास में ही आई थीं, जो मैंने ही संपादित -प्रकाशित किया था । इसी में सबसे पहली लघुकथा किसान और फिर सरकार का दिन प्रकाशित हुईं । मेरी पुरानी या कहिए सबसे पहली लघुकथाओं में से एक का स्वाद लीजिए। – कमलेश भारतीय)
कलम चल रही थी । लाला पैसे खाते में डाल रहा था । उसके दिल पर कहीं कीड़ा रेंग रहा था । छाती पर कोई मूंग दल रहा था ।
मेज पर उसका दिया हुआ सौ का नोट पड़ा था । यह पांचवीं बार था । उसकी निगाहों में एक आग प्रज्जवलित हो रही थी । दीवार पर टंगी तस्वीर में शेर पिंजरे में जकड़ा हुआ था । उसके अंतर्मन की रेखा उस तस्वीर के शेर से जा मिली । मकड़ी के जाले में कोई कीड़ा तड़फडा रहा था ।
– पांच सौ आ गये । लाला ने कलम रोक कर पूछा -पांच सौ ब्याज के कब दोगे ?
– जी मां कहती है कि ब्याज से छूट दी थी आपने ।
-देख लो । कागज़ हाथ में है और कचहरी बड़ी लम्बी होती है ।
-कोई छूट नहीं देंगे?
-मूल से ब्याज प्यारा होता है ।
वह चुपचाप उठ गया । मन ही मन अगले पांच सौ के ब्याज का हिसाब लगा रहा था । सोच रहा था कि इसी प्रकार चुकाते चुकाते मूल उतरता जायेगा पर ब्याज का भूत पिंड नहीं छोड़ेगा । ब्याज पर ब्याज चढ़ेगा और जिस तरह वह अपने बापू का बेटा था ठीक उसी तरह बापू के कागज़ का बेटा बन कर कागज़ के साथ कागज़ हो जायेगा ।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत है। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम लघुकथा “घटना चक्र”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – घटना चक्र – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मनुष्य, पशु – पक्षी सब को आश्चर्य होता होगा ब्रह्मांड के किसी कोने से यहाँ भेजे गए हैं या अपने जन्म का प्रथम बीज इसी धरती से है?
सुबह सूर्य के प्रकाश से धरती अंगडाई लेते जागती थी। रातों को आकाश में चाँद अपना दमकता चेहरा लिये प्रकट होता था। तारे आकाश में टिम टिम करते थे। मानो वहाँ संगीत थिरकता हो और धरती पर लोग उसे वरण करते हों। धरती पर पानी होने से लोगों की प्यास बुझती थी। इसी धरती से लोगों के लिए अन्न था। मनुष्य के अपने गाँव थे। पशु जंगलों से अपनी पहचान रखते थे। पेड़ पौधों के लिए प्रकृति थी। चर – अचर जो जहाँ से हो उसका बंधन और मुक्ति उसके स्वयं से था। इस कोण से कोई किसी के लिए बाधा होता नहीं था। हवा मंद – मंद बहती थी जो सृष्टि कर्ता की ओर से सब की उसाँसों के लिए अनुपम वरदान था। सच में यह गति की एक शाश्वत धड़कन थी।
धरती और आकाश से इतना पाने पर जीव अथवा जड़ सब के सब स्वयं इसकी अधीनता में रहना अपना सौभाग्य मानते थे।
एक दिन एक विशाल नदी के पानी में रक्त का सम्मिश्रण देखने पर धरती दहल गई थी। अब धरती को याद आया था भगवान ने कभी किसी पावन काल में लिख कर उसे थमाया था —
“विद्रूपता के ऐसे दिन आ सकते हैं, अत: दिल थामे रहना!”
वही धरती का पहला अनुभव था, कहीं हत्या हुई थी और नदी को रक्त रंजित होना पड़ा था !
कहानी संग्रह “अथवा” रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा म.प्र., “नो पार्किंग” दिशा प्रकाशन दिल्ली, नवजात शिशुओं के दस हजार से अधिक नामों का द्विभाषी कोष “नामायन” सुबोध प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित. ऑनलाइन कहानी संग्रह “ इंदु की स्लाइड” अमेजन पर अपलोडेड . कहानी संग्रहों “बीसवीं सदी की महिला कथाकार”, “जमीन अपनी अपनी”, “मैं हारी नहीं” और ‘कथा मध्य प्रदेश” में कहानियाँ चयनित व प्रकाशित. आकाशवाणी इंदौर से कहानियाँ प्रसारित.
साहित्यिक पत्रिकाओं यथा ज्ञानोदय, कथादेश, कथन दिल्ली; कथाक्रम, लखनऊ, समावर्तन उज्जेन; अक्षरा, प्रबुद्ध भारती भोपाल; अक्षर पर्व रायपुर, मसिकागद रोहतक और समाचार पत्रों आदि में कहानियाँ, पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, विज्ञान पत्रिकाओं यथा विज्ञान प्रकाश, विज्ञान प्रगति दिल्ली, साइंस इण्डिया भोपाल आदि में विज्ञान गल्प प्रकाशित . मराठी व गुजराती साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों में कहानियाँ अनुदित. कहानियों पर टेली फ़िल्में निर्मित. कहानियों के नाट्य रूपान्तर मंचित, कहानियाँ अनेक ऑनलाइन प्लेटफार्म पर उपस्थिति.
कादम्बिनी, कथाक्रम, कथादेश, कथाबिम्ब, कथा समवेत, अहा जिंदगी अमेज़न पेन टू पब्लिश आदि से रचनाएं पुरस्कृत.
☆ कथा-कहानी ☆ पंगत और ‘चाँद-थाली’ ☆ डा. किसलय पंचोली ☆
मैं अनुमान लगा रही हूँ इस बार जन्मदिन पर अनुराग मुझे क्या गिफ्ट देगा? अं… शायद गोल्ड के इयरिंग…? यूनिट की पिछली कपल पार्टी में जब मैं मिसेज नाइक के इअरिंग की भूरी-भूरी प्रशंसा करते नहीं अघा रही थी तब उसकी आँखों में उन्हें खरीदने की ललक सोने से भी ज्यादा चमक रही थी।… पर ऐसी ही फीलिंग खूबसूरत हैदराबादी मोती-नेकलेस… के साथ भी मैंने पढ़ी थी। मुझे याद है मैं एक मेले में मोतियों के स्टाल पर ठिठक गई थी। उसने कहा था ‘सारिका, ये मोती रियल होंगे या नहीं आई डाउट?’ और हम आगे बढ़ गए थे।…हो सकता है वह इस बार मैसूर सिल्क की साड़ी…खरीद लाए। अनुराग को मुझे सिल्क साड़ी में देखना बहुत ही पसंद जो है। मैंने लपेटी कि वह दीवाना सा हो जाता है।… या संभव है वह मेरे लिए फेंटास्टिक पश्चिमी परिधान गिफ्ट में देना पसंद करे। …उसे पता है कि मुझे वेस्टर्न कपड़े कितने भाते हैं।… कुल जमा बात यह बन रही है कि संभावित भेंट का हर ख़याल मुझमें ढेर सारी पुलक भर रहा है। खूब रोमांचित कर रहा है। और क्यों न करे? शादी उपरान्त मुझे पति कैप्टन अनुराग से हमेशा ख़ास उपहार जो मिलते रहे हैं। तभी घंटी बजी।
“तुम आ गए। व्हाट अ प्लीसेन्ट सरप्राइस!” कह मैं अनुराग से लिपट गई।
“कैसे न आता? आज तुम्हारा जन्मदिन है।” उसने मुझे प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया। आलिंगन, जिसमें एक दूसरे के प्रति सकारात्मक भावनाऐं, ऊर्जाऐं तरंगित हो उठीं। हम तरंगों की सवारी पर निकल पड़े। ऐसी सवारी, जब समय स्वयं ठिठककर प्यार की जादूगरी निहारता है। लगता है हम दो जन हैं ही नहीं। एकमेव हो चुके हैं। सुख और संतुष्टि के अदृश्य रेशमी बंधन हमें सहला रहे हैं। पूरी दुनिया में हम सबसे भाग्यशाली हैं। तरंगों के मद्धिम पड़ने पर कुछ समय बाद उसने कहा।
“सारिका, आँखें बंद करो।” मैंने कुछ बंद की। कुछ-कुछ खुली रखी।
“ आई से नो चीटिंग, पूरी बंद करो।”
मैंने समीप की टेबल पर पड़े स्कार्फ से आँखों पर पट्टी बांधी और कुर्सी पर स्थिर बैठ गई।
“ओ के बाबा, लो पूरी बंद कर ली।” मेरी बंद आँखों के सामने तन चुके गहरे भूरे चिदाकाश के परदे पर रह-रहकर गोल्ड इयरिंग, हैदराबादी नेकलेस, सिल्क साड़ी, पश्चिमी परिधान दिप-दिपकर चमकने लगे। एक दूसरे से बार-बार प्रतिस्पर्धा सी करते, प्रकाश की गति से आने जाने लगे। गोल्ड इयरिंग की एक में एक फंसते छल्लों की डिजाइन हो या हैदराबादी नेकलेस की तीन लड़ों के मोतियों की क्रमश घटती साइज या सिल्क साड़ी का सुआपंखी रंग या हाफ शोल्डर वाला क्रीम कलर का पश्चिमी परिधान! कल्पना उनकी डीटेलिंग का काम पूरे मनोयोग से करने लगी।
अनुराग ने बहुत प्यार भरे स्पर्श से मेरे दोनों हाथ थामे। और गिफ्ट बॉक्स के ऊपर रखते हुए कहा।
“बूझो, इस बार तुम्हारी बर्थडे गिफ्ट क्या है?”
मैं उपहार बाक्स के चिकने रेपर पर ऊपर से नीचे उँगलियाँ फेरती गई। अगल से बगल घुमाती गई। अच्छा ….काफी बड़ा है।… क्या हो सकता है?… मेरी झिलमिलाती ज्वेलरी और सिल्की या साटनी कपड़ों की संभावित गिफ्टस की पेकिंग इतनी बड़ी तो हो ही नहीं सकती।… हूँ… कहीं फुट विअर के डब्बे तो नहीं? यस, मेरे मुँह से एक बार निकला था ‘जूते चप्पल पुराने हो गए हैं।’ क्या पता… नया लैपटॉप हो?…हाँ मैंने यह भी कहा था ‘मेरा लैपटॉप बार-बार हेंग हो जाता है।’… उहूँ छोटा माइक्रोवेव ओवन भी हो सकता है। मुझे कढाई में पेन केक बनाने की खट-खट करते देख अनुराग ने कहा था ‘अपन जल्दी ही माइक्रोवेव ओवन ले लेंगे।’..काफी भारी है गिफ्ट …? कहीं किताबें तो नहीं …? मैंने जिओग्राफी में पी.जी. करने की इच्छा भी जताई थी। आकार और वजन से जितने कयास लग सकते थे, मैंने सब लगा लिए। हर बार अनुराग हँसता गया और ना कहता गया। फिर मेरा सब्र जवाब देने लगा। मैं आँख की पट्टी खोल उसे दूर फेंकते हुए बोली।
“ बस बहुत हुआ। मेरा बर्थ डे है। तुमने मुझे गिफ्ट दी है। मैं ओपन कर रही हूँ।” और मैंने आनन-फानन में गिफ्ट बॉक्स का चिकना रेपर फाड़ फेंका। अलबत्ता मैं हमेशा इत्मीनान से उस पर चिपके सेलोटेप निकालती हूँ ताकि रेपर का रीयूस किया जा सके। और फिर दनाक से बॉक्स भी खोल डाला।
ओह …गिफ्ट बॉक्स क्या खुला?.. मानो समय तेजी से पीछे दौड़ पड़ा!.. मेरा बचपन फिर से जी उठा!.. स्मृतियाँ सेल्फी लेने को आतुर हो उठीं ।…जैसे ख़ुशी और आँसू दोस्त बन बैठे।… पल भर में मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गई!
वह एक ठीक ठाक बड़ा-सा हाल था, जिसके दरवाजे के बाहर जूते चप्पलों का अव्यवस्थित ढेर लगा था। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं जिनमें ग्रिल नहीं लगी थी। नीला आसमान और हरा नीम मजे से हाल का जायजा ले रहे थे। अन्दर चार कतार में मेहरून पर दो पीले पट्टों वाली टाटपट्टियाँ बिछी थीं। बहुत से सांवले और काले, आदमी ही आदमी नंगे पैर खड़े-खड़े बातें कर रहे थे। बातचीत का ख़ासा शोर था क्योंकि सभी का सुर ऊँचे तरफ ही था। ज्यादातर लोगों के सिर पर टोपी या पगड़ी थी। और बदन पर सफेद या मटमैले सफेद कुरते पजामें या धोती। कई पान या गुटका चबा रहे थे या मुँह में भरे हुए थे। मेरे सिवा वहाँ कोई लड़की थी ही नहीं। सिवाए जामुनी रंग और पतली लाल किनोर की लांग वाली धोती बांधे, नाक के दोनों तरफ बड़े-बड़े कांटे पहने, दोनों हाथों से झाड़ू की मूठ पकड़े कोने में ऊँकडू बैठी सफाईकर्मी बुढ़िया के अलावा। लोग, मेरे मामाजी के पास आ-आकर हाथ जोड़ रहे थे। गर्मजोशी से मिल रहे थे। हर कोई आते-जाते मेरे भी पैर छू रहा था क्योंकि मैं वहाँ सबकी भान्जी थी।
हुआ यह था कि मैं माँ के साथ नानी के घर आई थी। गुमसुम-सी एक तरफ अकेली बैठी थी। मामा ने कहा था ‘चल बिट्टो, तुझे घुमा लाऊँ। और वे मुझे अपने साथ यहाँ ले आए थे। इस बड़े से हाल में। दरअसल मेरे ये दाढ़ीवाले बड़े मामाजी जिन सेठ करोड़ीमल के यहाँ मुनीम थे, उन्होंने परिचितों और स्टाफ के लिए, पुत्र प्राप्ति पर भोज रखा था। मामा उनके दाहिने हाथ थे।
“सरु आ यहाँ बैठ।” मामा ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा। कुछ ही देर में हमारे सहित सभी लोग महरून टाटपट्टियों पर बैठ गए।
“तूने कभी पंगत खाई है?” मामा ने मुझसे प्रश्न किया।
“ पंगत? पंगत क्या कोई मिठाई होती है?” मैंने मासूमियत से पूछा था। जिसे सुन मामा ठठा के हँस पड़े थे। और अगल-बगल में बैठे लोगों को मेरा जवाबी प्रश्न सुना रहे थे। वे सब भी हँस रहे थे। ‘बताओ बच्ची को पता ही नहीं पंगत क्या होती है। हो.. हो…क्या जमाना आ गया है।’
तभी हमारे सामने पन्नियों की पेकिंग से जल्दी से निकाल-निकालकर बेहद चमचमाती थालियाँ, कटोरियाँ, गिलास और चम्मच फटाफट रख दिए गए। मैं देख रही थी पन्नियों को कहीं भी बेतरतीबी से फेंका जा रहा था … जो मुझे अजीब लग रहा था। वह बुढ़िया उन्हें गुडी-मुड़ी कर बटोर रही थी। हमारे सामने रखे गए बर्तनों की अनोखी चमक ने मुझे चमत्कृत कर दिया। और उनसे परावर्तित होते बिम्बों ने जैसे मेरा मन मोह लिया।… खिड़की से आते प्रकाश के नीचे रखाती थाली पर पड़ने से यदा कदा चमचमा उठते चमकीले खिंचते गोलाकारी बिम्ब, कमरे की दीवालों और छत पर जगर मगर, छोटा-मोटा तिलिस्म सा रच रहे थे। मैं उन्हें भौचक सी देखती रह गई।.. मुझे लगा मानो चाँद थाली बन गया हो। और वह भी इतनी बार… मैं थालियों से अभिभूत थी।… और अचंभित भी।.. ‘क्या ये काँच की हैं?’ सोचते हुए मैं थाली को बार-बार उठा-उठा कर, घुमा-घुमाकर, उलटने-पुलटने लगी।.. फिर झुक-झुककर उसमें अपना चेहरा निहारने लगी।.. मुझे यह बहुत अच्छा लगा था।…
बहुत से युवा लडके धड़-धडकर डोंगों और धामों में पूरी, सब्जी, लोंजी, रायता, मिठाई, परोसने आते तो मैं उनसे कहती ‘बीच में मत डालो’। मैं चाहती थी कि में प्रिय चाँद थाली में अपना चेहरा और देर तक देखती रह सकूँ ।..पहली क्लास में पढ़ने वाली मुझ आठ साल की बच्ची के लिए कितने, कितने अनमोल ख़ुशी के पल थे वे।… फिर सब लोगों ने संस्कृत में मंत्रोचार किया और एक साथ खाना शुरू हुआ। मामाजी थाली में से चुग्गा भर खाना बाहर की तरफ रखते और भोजन को पूजा-भाव से देखते हुए मुझे बता रहे थे ‘ये जो हम यूँ आलथी-पालथी बनाकर पंक्तियों में जमीन पर नीचे बैठकर भोजन कर रहे हैं न, इसे ही पंगत कहते हैं बिटिया’। पर मैं पंगत से ज्यादा चमचमाती थाली की दीवानी हो चुकी थी। मुझे लग रहा था खाने का इतना अच्छा स्वाद इस चमकीली थाली के कारण ही आ रहा है। मैंने उस दिन खूब छककर भोजन किया था। न सिर्फ थाली, कटोरियों को भी उँगलियों से चाट-चाट कर साफ़ कर दिया था। मेरा मन कर रहा था मामाजी से कहूँ ‘अपन ये थाली घर ले चलें ?’
“क्या हुआ सारिका कहाँ खो गई? क्या गिफ्ट पसंद नहीं आई?” मेरे हाथ में कसकर पकड़ी हुई गिफ्ट में मिले सलेम स्टेनलेस स्टील के डिनर सेट की ‘चाँद-थाली’ को छुड़ाते हुए अनुराग ने पूछा।
“नहीं, मुझे गिफ्ट बहुत-बहुत पसंद आई है अनुराग। यह अब तक की दि बेस्ट गिफ्ट है। सबसे कीमती और अनोखी गिफ्ट। कहते हैं समय कभी लौट के नहीं आता। पर तुम तो मेरे लिए ऐसी गिफ्ट लाए हो जिसमें स्वयं समय ही पैक है। …कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।… सचमुच तुमने मुझे बीते हुए दिन की सौगात लौटाई है।… वो बचपन की कश्ती वो बारिश का पानी की तरह… वो ‘पंगत का भोजन वो चमचमाती चाँद थाली’ दे दी है। अहा! अद्भुत और कभी न भूलने वाली है यह गिफ्ट।” कह मैं उससे फिर लिपट गई।
ख़ुशी की तरंगो की पुन: हुई सवारी। मेरे मन के चिदाकाश से एक एक कर सभी अनुमानित गिफ्ट विदा हो गईं।… गोल्ड इयरिंग के छल्ले गायब हो गए।… हैदराबादी नेकलेस की तीन लड़ों के मोती बिखर कर तिरोहित हो गए।… सिल्क साड़ी का सुआपंखी रंग धुंधला गया।… पश्चिमी परिधान तो ध्यान ही नही आया।… रह गई तो बस बचपने में विशुद्ध निखालिस चमचमाहट वाली ‘चाँद-थाली’ में खाई पंगत की याद!
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा –“चप्पल के दिन फिरे”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 129 ☆
☆ बाल कथा – “चप्पल के दिन फिरे” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
पीली चप्पल ने कहा, “बहुत दिनों से भंडार कक्ष में पड़े-पड़े दम घुट रहा था। कम से कम अब तो हम कार में घूम रहे हैं।”
“हां सही कहती हो,” नीली बोली, श्रेयांश बाबा ने हमें कुछ ही दिन पहना था और बाद में भंडार कक्ष में डाल दिया था।”
“मगर हम एक कहां-कहां घूम कर आ गए हैं? कोई बता सकता है?” भूरी कब से चुपचाप थी। तभी श्रेयांश की मम्मी की आवाज आई, ” श्रेयांश जल्दी से गाड़ी में बैठो। हम वापस चलते हैं।”
यह सुनकर सभी चप्पलों का ध्यान उधर चला गया। श्रेयांश, उसकी मम्मी और पापा कार में बैठ चुके थे। कहां चल दी। तभी उसकी मम्मी ने पूछा, “ताजमहल कैसा लगा है श्रेयांश?”
जैसे ही श्रेयांश ने कहा, “बहुत बढ़िया! शाहजहां के सपनों की तरह,” वैसे ही उसके पापा बोले, “अच्छा! यानी तुम्हें पता है ताजमहल शाहजहां ने बनाया है।”
“हां पापाजी,” श्रेयांश ने कहा, “मुझे आगरा के ताजमहल पर प्रोजेक्ट बनाना था। इसलिए ताजमहल की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थीं।”
तभी उनकी गाड़ी का ब्रेक लगा। कार जाम में फस गई थी। उनकी बातें रुक गई।
“वाह!” तभी नीली चप्पल ने श्रेयांश की बातें सुनकर कहा, ” हमें भी ताजमहल की जानकारी मिल जाएगी।”
“हां यह बात तो ठीक है,” तभी लाली बोली, “मगर हमें कार में क्यों लाया गया है? कोई बता सकता है।”
“यह तो हमें भी नहीं मालूम है,” कहते चुपचाप बैठी नारंगी चप्पल बोली, ” श्रेयांश की मम्मी ने भी है पूछा था तब उसने कहा था- बाद में बताऊंगा मम्मी जी।”
तभी जाम खुल चुका था। कार चल दी। तभी पापा ने पूछा, “अब बताओ, ताजमहल के बारे में क्या जानते हो?”
“पापाजी जैसा हमने देखा है आगरा का ताजमहल यमुना नदी के दक्षिणी तट पर बना हुआ है। यह संगमरमर के पत्थर से बना मुगल वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है।”
“हां, यह बात तो ठीक है,” पापा ने कहा तो श्रेयांश बोला, “मुगल सम्राट शाहजहां ने सन 1628 से 1658 तक शासन किया था। इसी शासन के दौरान 1632 में ताजमहल बनाने का काम शुरू हुआ था।”
” अच्छा!” मम्मी ने कहा।
“हां मम्मीजी,” श्रेयांश ने कहना जारी रखा,”शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल के लिए आगरे का ताजमहल बनवाया था। जिसका निर्माण 1642 में पुर्ण हुआ था।”
“यानी ताजमहल को बनवाने में 10 वर्ष लगे थे,” पापा बोले तो श्रेयांश ने कहा, “हां पापाजी, इस विश्व प्रसिद्ध इमारत को 1983 में यूनेस्को ने विश्व विरासत की सूची में शामिल किया था।”
“सही कहा बेटा,” मम्मी ने कहा, “यह समृद्ध भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है।”
“आप ठीक कहती है मम्मीजी,” श्रेयांश ने अपनी बात को कहना जारी रखा,” इस विरासत को 2007 में विश्व के सात अजूबों में पहला स्थान मिला था।”
“कब? यह तो हमें पता नहीं है,” पापा जी ने पूछा।
“सन 2000 से 2007 तक ताजमहल विश्व विरासत में नंबर वन पर बना रहा,” श्रेयांश ने कहा। तभी उसकी निगाह कांच के बाहर गई।
“पापाजी गाड़ी रोकना जरा!” उसने कार के बाहर इशारा करके कहा तो मम्मी ने पूछा, “क्यों भाई? यहां क्या काम है?”
“उस लड़की को देखो,” करते हुए श्रेयांश ने कार का दरवाजा खोल दिया।
सामने सड़क पर एक लड़की खड़ी थी। उसके कपड़े गंदे थे। हाथ में एक बच्चा उठा रखा था। उसके पैर में चप्पल नहीं थी। वह तपती दुपहरी में सड़क पर नंगे पैर खड़ी थी।
श्रेयांश ने सीट से हरी चप्पल उठाई। उस लड़की की और हाथ बढ़ा दिया, “यह तुम्हारे लिए!”
“मेरे लिए!” कहते हुए उसने चुपचाप हाथ बढ़ा दिया। उसकी आंखों में चमक आ गई थ श्रेयांश में ने उसे चप्पल दे दी। पापा को इशारा किया। उन्होंने कार आगे बढ़ा दी।
“ओह! इसीलिए तुम पुरानी चपले लेकर आए थे। मैंने पूछा तो कह दिया-कुछ काम करूंगा। यह तो बहुत अच्छी काम किया है।” मम्मी खुश होकर बोली।
“हां मम्मीजी, उस लड़की का तपती दुपहरी में पैर जल रहे थे। उसे चप्पल की ज्यादा जरूरत थी। मेरी चप्पल भंडार कक्ष में पड़ी-पड़ी बेकार हो रही थी। इसलिए।”
“शाबाश बेटा! यह बहुत अच्छा काम किया है,” कहते हुए पापाजी ने फिर गाड़ी रोक दी।
तभी कब से चुपचाप बैठी नीली चप्पल बोली, “इसीलिए श्रेयांश हमें भंडार का खेल निकाल कर लाया है। हमारा भी सहयोग होगा। हम भी बाहर की दुनिया की सैर कर सकेंगे।”
“हां नीली तुम सही कह रही हो,” पीली चप्पल ने कहा, “कब से हम भंडार कक्ष में पड़े-पड़े बोर हो रही थी। हमारा भी कब उपयोग होगा?”
तभी श्रेयांश ने भूरी, लाल और नारंगी को उठाकर एक-एक लड़के को दे दिया। पीली को उठाया साथ खेले रही लड़की को बुलाकर उसे भी दे दिया। सभी लड़के-लड़कियां चप्पल पाकर खुश हो गए।
अब कार में केवल नीली चप्पल बची थी। उसे देखकर श्रेयांश बोला, “मम्मीजी इसे किसी को नहीं दूंगा। क्यों यह अच्छी चप्पल है। इसका फैशन वापस आ गया है। इसे तो मैं ही पहनूंगा,” करते हुए श्रेयांश ने पापाजी को कहा, “आप सीधे कार घर ले चलिए।”
“ठीक है बेटा।”
“चलो इन चप्पलों के भी दिन फिरें।” मम्मी ने मुस्कुरा कर कहा तो श्रेयांश को कुछ समझ में नहीं आया कि मम्मी क्या कह रही है? इसलिए उसने पूछा, “आप क्या कह रही है मम्मीजी? चप्पलों के दिन भी फिरें।”
“हां, इनके भी अच्छे दिन आए है।” मम्मी जी ने कहा तो श्रेयांश मुस्कुरा दिया, “हां मम्मीजी।”
नीली चप्पल अकेली हो गई थी इसलिए वह किसी से बोल नहीं पा रही थी। इसलिए चुपचाप हो गई।
☆ हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बोलते चित्र… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆
” आपको याद है, वहाँ..उस कोने पर एक बड़ा-सा कार्टूूून लगा करता था। ” – अखबार के पन्ने पलटते हुए उसने दुकानदार से पूछा।
मोतीझील चौक पर कपड़ों की वह सबसे बड़ी दुकान थी। पच्चीस-तीस साल बाद एक बार फिर इस शहर में आना हुआ, तो इस जगह आने से वह खुद को रोक नहीं पाया था।
” हाँ, मगर वो तो पच्चीस-तीस साल पहले की बात है साहब। ” – दुकानदार ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
” सही कहा। मैं उसी समय की बात कर रहा हूँ ।तब हम जिला स्कूल में पढ़ा करते थे। रविवार को शाम में जब हमें हॉस्टल से छुट्टी मिलती थी, तो हम सीधे यहाँ चले आते थे, बस उस कार्टून को देखने …। ” – स्कूली दिनों की उसकी स्मृतियाँँ सहसा ताजा हो आई थीं।
नजर सामने वाले चौक की ओर गयी। बाप रे ! कितनी भीड़ रहने लगी है अब यहाँ। ऊँचे-ऊँचे जगमगाते मॉल, बड़ी-बड़ी दुकानें और शोरूम्स की लंबी और अंतहीन श्रृंखला। आधुनिकीकरण की आँधी ने शहर के अधिकांश पुरातन अवशेषों को या तो मिटा दिया है, या नयेपन की चादर से ढँक लिया है।
” हाँ बिल्कुल। मुझे भी याद आ रहा है।” – दुकानदार ने बातचीत का क्रम जारी रखा।
” जानते हैं, हॉस्टल में पूरे हफ्ते हमारी चर्चा का एक विषय यह भी हुआ करता था कि इस हफ्ते कल्याणी चौक पर किस राजनीतिक और सामाजिक विषय पर कार्टून लगेगा। ” – दुकानदार से वह अब कुछ ज्यादा ही औपचारिक हो चला था और स्कूली दिनों की भूली-बिसरी यादों में खो गया था…।
” हम्म…! “
” बड़े सटीक, चुटीले और मारक होते थे वे कार्टून। “
” हाँ बिल्कुल। “
” अच्छा, क्या नाम था उस कार्टूनिस्ट का ? ” – नाम उसे याद नहीं आ रहा था, इसलिए वह दुकानदार से पूछ बैठा।
” मथुरा जी नाम था उनका। वहाँ सामने पान की एक दुकान थी उनकी। उसी की छत पर वे कार्टून बनाकर लगाया करते थे। कमाल के कलाकार थे। कमाल का प्रेजेंस ऑफ माइंड था। मगर दुर्भाग्य है कि उनकी अगली पीढ़ी ने उनकी विरासत को नहीं सँभाला। वरना आज भी वहाँ….। ” – बोलते-बोलते दुकानदार संजीदा हो गया और उधर ही देखने लगा, जहाँ कभी मथुरा जी के कार्टून लगा करते थे।
वहाँ आज एक बड़ा-सा फ्लेक्स बोर्ड टँगा था, जिसमें रंग-बिरंगे डिजाइनर कपड़े पहने हुए लड़के और लड़कियों के मुस्कुराते चेहरे थे। लोगों की भूख और माँग अब पूरी तरह बदल चुकी थी।
” असल में, जो सच हमें नहीं दीखता या जो हम देखना नहीं चाहते, उसे हमारी आँखों में उँगली डालकर दिखाने का काम करते हैं ये कार्टून। ” – आज अखबार में छपे एक कार्टून की ओर देखते हुए उसने दुकानदार से कहा।
” सही कहा भाई साहब। मीडिया और अखबारों की हालत तो आप देख ही रहे हैं। ये अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं।आज हमें मथुरा जी और आर के लक्ष्मण जैसे लोगों की ही जरूरत है, जो आँखों में उँगली डालकर नहीं, बल्कि कान उमेठकर लोगों को सच दिखा सकें। ” – समाज के चौथे स्तंभ की भहराती स्थिति पर दुकानदार की चिंता स्वाभाविक थी।
” बिल्कुल, आज जरूरत है ऐसे लोगों की, जो हमारी सुन्न होती जा रही चेतना को जगा सकें। वैसे भी, जब शब्द अपना अर्थ और असर खोने लगें, तो कार्टूनों और चित्रों के सहारे एक पीढ़ी को मानसिक रूप से अपाहिज होने से तो बचाया ही जा सकता है। ” उसने कहा।
उसकी नजरें अभी भी सामने वाली छत पर मथुरा जी के कार्टूनों को तलाश रही थीं..।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा –“भ्रष्टाचार की सजा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆
☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।
“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”
“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”
“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “
“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”
“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।
यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”।
यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है।
अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र
बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।
अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘‘हताशा’’।)
☆ लघुकथा – हताशा☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
‘अरे देखो तो, यह आदमी क्या कर रहा है?’
‘अरे पगला गया है ससुरा, भला ऐसा आचरण कोई करता है, पेड़ों के फूल नोंच-नोंच कर सड़क पर फेंक रहा है, यह पागलपन नहीं है तो क्या है यार!’
लोग देख रहे थे. एक बौखलाया सा आदमी फूलों की डालियों से फूल नोंच-नोंचकर सड़क पर फेंक रहा है. साथ में अपने सिर के बाल भी नोंचता जा रहा है. लोगों ने फिर कानाफूसी की- यह पागलपन का दौर-दौरा है या कुछ और, कितनी मेहनत से इसने फूल उगाए थे और अब…’
अब वह आदमी अपनी बड़ी-बड़ी आंखें निकालकर चिल्लाने लगा- “आप लोग ही मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेवार हैं. आपलोग यदि रोज़-रोज़ इन फूलों को तोड़कर नहीं ले जाते तो मैं कदापि इस अंजाम तक नहीं पहुंचता, मेरी बगिया ही उजाड़ दी आप लोगों ने, अरे फूलों के हत्यारे हो तुम. फूल दरख्तों पर ही अच्छे लगते हैं. तुम्हारी जेबों में ठुसे हुए नहीं…समझे कुछ’
लोग उसकी इस दलील पर भौंचक्के थे.
अब मैं कुल्हाड़ी लेकर इसकी समूची डालियां भी काटूंगा. न रहे बांस न रहे बांसुरी’ आप लोग फूलों के दुश्मन हो तो मेरे भी दुश्मन हो. अरे दुश्मनों इन पेड़ों ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो इनको पुष्पहीन करके हंस रहे हो. लोग उसकी हताशा को पहचान पाते, इसके पहले वह कुल्हाड़ी लेकर पेड़ों पर पिल पड़ा. ठक-ठक करती कुल्हाड़ी चल रही थी. उनकी जेबों में ठुंसे फूल कुम्हला रहे थे.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 ☆
लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈
एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे, वे गुब्बारा ले लेते।
अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।
आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।
आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।
गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।
बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।
सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।
यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।
बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।
थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘क्या था यह ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 106 ☆
☆ लघुकथा – क्या था यह ?— ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अरे ! क्या हो गया है तुझे ? कितने दिनों से अनमयस्क – सा है ? चुप्पी क्यों साध ली है तूने। जग में एक तू ही तो है जो पराई पीर समझता है। जाने – अनजाने सबके दुख टटोलता रहता है। क्या मजाल की तेरी नजरों से कोई बच निकले। तू अक्सर बिन आवाज रो पड़ता है और दूसरों को भी रुला देता है। कभी दिल आए तो बच्चों सा खिलखिला भी उठता है। तू तो कितनों की प्रेरणा बना और ना जाने कितनों के हाथों की धधकती मशाल। अरे! चारण कवियों की आवाज बन तूने ही तो राजाओं को युद्ध में विजय दिलवाई। कभी मीरा के प्रेमी मन की मर्मस्पर्शी आवाज बना, तो कभी वीर सेनानियों के चरणों की धूल। तूने ही सूरदास के वात्सल्य को मनभावन पदों में पिरो दिया और विरहिणी नागमती की पीड़ा को कभी काग, तो कभी भौंरा बन हर स्त्री तक पहुँचाया। समाज में बड़े- बड़े बदलाव, क्रांति कौन कराता है? तू ही ना!
देख ना, आज भी कितना कुछ घट रहा है आसपास तेरे। ऐसे में सब अनदेखा कर मुँह सिल लिया है या गांधारी बन बैठा। मैं जानता हूँ तू ना निराश हो सकता है न संवेदनहीन। तूने ही कहा था ना – ‘नर हो ना निराश करो मन को’। तुझे चलना ही होगा, चल उठ, जल्दी कर। मानों किसी ने कस के झिझोंड़ दिया हो उसे। कवि मन हकबकाया – सा इधर – उधर देख रहा था। क्या था यह ? अंतर्मन की आवाज या सपना?