हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 53 – कहानियां – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते. फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे. इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. आप भी खुश और घर वाले भी. 😊😊😊😊😊😊😊

कभी,आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालुम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी.हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गल्ती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी. आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा ,बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करनेवाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं. हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक ” बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी – “एहसासों का दरिया”)  

☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चा -पांच कमरे का सरकारी मकान है। सुबह 10बजे मम्मी को उनके विभाग की सरकारी गाड़ी ले गई, फिर कुछ देर बाद पापा को उनके विभाग की गाड़ी ले गई… मैं हाथ हिलाता रह गया, पीछे मुड़ा तो अचानक गलियारे में लगी बाबूजी की श्वेत श्याम मुस्कुराती हुई तस्वीर ने रोक लिया….। कैसे भूल सकता हूं बाबूजी को…, उनकी प्यारी  गोद जिसमें आराम था, सुकून था और थी प्यार की गर्मी। कैसे भूल सकता हूं बचपन के उन दिनों को जब बाबूजी मुझे गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे…। जीवन में क्या क्या करना है और क्या नहीं, यह सब वे मुझे रास्ते भर बताते चलते थे। बाबूजी का प्यार मेरे लिए पूंजी बन गया। रामायण और महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां… ज्ञान के खजाने की चाबी… शब्दकोश को समृद्ध बनाने की कलाबाजी, सभी कुछ मुझे बाबूजी से मिली। मेरे कदमों ने उन्हीं की उंगली पकड़कर चलना सीखा। जीवन जीने की कला का पाठ स्कूल में कम पर बाबूजी ने मुझे ज्यादा पढ़ाया। स्कूल आते जाते रास्ते में मेरी फरमाइश लालीपाप की रहती और बाबूजी को उतनी ही याद रहती।

पांचवीं की परीक्षा के रिजल्ट ने पापा -मम्मी की महात्वाकांक्षा बढ़ा दी थी। पापा -मम्मी ने मुझे बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के हॉस्टल में पहुंचा दिया था। मुझे याद है बड़े शहर भेजते हुए बाबूजी तुम मुस्कराने का नाटक बखूबी निभा रहे थे। बाबूजी, न तुम मुझसे जुदा होना चाहते थे और न ही मैं तुमसे अलग होना चाहता था….

फिर हॉस्टल में ऊब और अकेलापन, मेरे अंदर अवसाद ले आया। कभी कभी पापा -मम्मी मिलने आते तो खीज सी उठती,तब बाबूजी तुम मुझे फोन पर समझाते और उन परिंदों की कहानी सुनाते जिसमें परिंदे जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाते तो धक्का दे देते और पेड़ पर बैठे देखते कि उनके बच्चे कैसे उड़ना सीखते हैं,तब बाबूजी तुम कहते कि विपरीत परिस्थिति हो, परेशानी हो या कितना भी अकेलापन हो, ये सब एक नई उड़ान का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे समय समय के साथ नई उड़ानों में बाबूजी तुम मेरे साथ होते थे।समय पंख लगाकर उड़ता रहा और मैंने कालेज में दाखिला ले लिया…तब खबरें आतीं…

बाबूजी चिड़चिड़े हो गये हैं, बात बात में पापा -मम्मी से झगड़ते रहते हैं और पापा -मम्मी ने बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज दिया है। घर की आया ने फोन पर बताया कि बाबूजी वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहते थे पर मम्मी ने जबरदस्ती लड़ झगड़ कर उन्हें वहां भेज दिया और उनकी श्वेत श्याम तस्वीर घर के पीछे बाथरूम की तरफ जाने वाले गलियारे में लगा दी गई है।

आजीविका के चक्कर और बड़ा आदमी बनने की मृगतृष्णा में हम परिवार से दूर बड़े शहरों में अकेलेपन की पीड़ा झेलते हुए टूटते परिवार की तस्वीरों को देखते हुए खामोश जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं, तभी तो बाबूजी के बारे में मैंने पापा -मम्मी से कभी भी चर्चा नहीं की। उनके वृद्धाश्रम भेजे जाने पर मैं हमेशा चुप रहता आया।

जिंदगी सिर्फ मौज मस्ती और खुशी नहीं है इसमें दुःख और मायूसी भी है। इसमें ऐसी घटनाएं भी हो जातीं हैं जो कभी सोची न गई हों, की बार सब कुछ उलट -पलट हो जाता है और ऐसा ही कुछ घर की आया के फोन से मालुम हुआ कि पापा आजकल देर रात से घर पहुंचते हैं, मम्मी और पापा की अक्सर झड़पें होती रहती हैं, कभी कभी शराब के नशे में घर लौटते हैं, कुछ अनमने से रहते हैं। दौरे का बहाना बनाकर किसी महिला मित्र के साथ बाहर चले जाते हैं, मम्मी का ब्लड प्रेशर आजकल बढ़ता ही रहता है और वे भी डाक्टर के चक्कर लगातीं रहतीं हैं। पापा और मम्मी में बहुत कम बात होती है।अब घर में मेलजोल का वैसा माहौल नहीं है जैसा बाबूजी के घर में रहने से बना रहता था। मम्मी बाबूजी से मिलने वृद्धाश्रम कभी नहीं जातीं। पापा महीने में एक बार बाबूजी से मिलने जाते हैं पर दुखी मन से गेट से तुरंत लौट आते हैं। फोन पर आया की बातों को सुनकर मैं परेशान हो जाता… बाबूजी क्यों घर छोड़कर चले गए? जीवन भर तो उन्होंने सबका भला किया। पापा को सभी सुविधाओं देकर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाया, खुद भूखे रहकर पापा को भरपूर सुख सुविधाएं दीं।

जिंदगी के बारे में तो ऐसा सुना है कि जिंदगी में हमें वही वापस मिलता है जो हम दूसरों को देते हैं, तो फिर बाबूजी को वह सब क्यों वापस नहीं मिला। मुझे लगता है जीवन में खुशी एक तितली की तरह होती है जिसके पीछे आप जितना दौड़ते हैं वह आगे उड़ती ही जाती है और हाथ नहीं आती है। मैं अपने आप को समझाता हूं… बड़ी नौकरी मिलने पर बाबूजी को अपने पास इस बड़े शहर में ले आऊंगा, फिर उन्हें इतनी खुशी और सुख दूंगा कि उनका बुढ़ापा हरदम हंसी खुशी और आराम से कट जाएगा।इस संसार में अच्छे से जीने के लिए विश्वास, प्यार और मेलजोल की जरूरत होती है।घर से मेरे आने के बाद पापा -मम्मी और बाबूजी के बीच ऐसा क्या घटित हो गया कि विश्वास, प्यार मेलजोल सब कुछ टूटकर बिखर गया।

इधर कुछ दिनों से मेरे अकेलेपन के बीच नेहा की दस्तक बढ़ गई है, उससे दिनोदिन लगाव बढ़ता जा रहा है। अक्सर हम लोग मौज-मस्ती करने कभी गार्डन, कभी सिनेमा हॉल जाने लगे हैं। कभी पार्टियों में नाच गाना चलता है तो कभी पूर्ण समर्पण के साथ नेहा मुझ पर न्यौछावर हो जाती है…. नयी बात अभी ये हुई है कि मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा पद मिल गया है, खुशी और उत्साह से नेहा मेरा हाथ थामे एक बार बाबूजी से मिलने आतुर है…

मैंने तय किया कि नेहा को लेकर बाबूजी के चरणों में अपना सर रख दूंगा और फिर कहूंगा… बाबूजी तुम जीत गए।

मैं एक बड़ा आदमी बन गया हूं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर का पद संभाल लिया है… और आज हम ट्रेन से अपने घर जाने के लिए रवाना हो गए हैं। स्टेशन से उतरकर घर जाने के लिए टैक्सी से चल पड़े हैं, अचानक बाबूजी तुम याद आ गये, मैंने टैक्सी ड्राइवर को पहले वृद्धाश्रम चलने को कहा, टैक्सी वृद्धाश्रम की तरफ दौड़ने लगी है, वृद्धाश्रम के गेट पर रुककर मैंने नेहा का हाथ पकड़कर टैक्सी से उतारा और पूछताछ काउंटर पर बाबूजी के बारे में पूछताछ की। केयरटेकर हमें बाबूजी की खोली की तरफ लेकर चला। एक टूटी सी खटिया में भिनभिनाती मक्खियों के बीच बाबूजी लेटे हुए थे, शरीर टूट सा गया था, दाढ़ी बहुत बढ़ चुकी थी,गाल पिचके, आंखें घुसी हुई हड्डियों के कंकाल में तब्दील बाबूजी पहचान में नहीं आ रहे हैं। बाबूजी ने आंखें खोली। मेरी उपलब्धियों को सुनकर उनके बेजान चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झिलमिलाई और अचानक हताशा में बदल गई..

बाबूजी ने हाथ उठाकर नेहा और मुझे आशीर्वाद दिया और तकिए के नीचे से कुछ पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए बेजान आवाज में बोले – ‘बेटा मेरा एक छोटा सा काम कर देना, कफन के लिए सस्ता सा कपड़ा ख़रीद कर ले आना ‘

वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था और बाबूजी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थीं….

मैं अपने मोबाइल से पापा -मम्मी को फोन लगा रहा था,उधर से लगातार आवाजें आ रहीं थीं “आऊट ऑफ कवरेज एरिया”….. आउट ऑफ कवरेज एरिया…..।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 111 – पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #111 🌻 पाप का भागी कौन—पाप किसने किया? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक ब्राह्मण ने बगीचा लगाया। उसे बड़े मनोयोग पूर्वक संभालता, पेड़ लगाता, पानी देता। एक दिन गाय चरती हुई बाग में आ गई और लगाये हुए कुछ पेड़ चरने लगी। ब्राह्मण का ध्यान उस ओर गया तो उसे बड़ा क्रोध आया। उसने एक लट्ठ लेकर उसे जोर से मारा। कोई चोट उस गाय पर इतने जोर से पड़ी कि वह वहीं मर गई। गाय को मरा जानकर ब्राह्मण बड़ा पछताया। कोई देख न ले इससे गाय को घसीट के पास ही बाग के बाहर डाल दिया। किन्तु पाप तो मनुष्य की आत्मा को कोंचता रहता है न। उसे संतोष नहीं हुआ और गोहत्या के पाप की चिन्ता ब्राह्मण पर सवार हो गई।

बचपन में कुछ संस्कृत ब्राह्मण ने पढ़ी थी। उसी समय एक श्लोक उसमें पढ़ा जिसका आशय था कि हाथ इन्द्र की शक्ति प्रेरणा से काम करते हैं, अमुक अंग अमुक देवता से। अब तो उसने सोचा कि हाथ सारे काम इन्द्र शक्ति से करता है तो इन हाथों ने गाय को मारा है इसलिए इन्द्र ही गोहत्या का पापी है मैं नहीं?

मनुष्य की बुद्धि की कैसी विचित्रता है, जब मन जैसा चाहता है वैसे ही हाँककर बुद्धि से अपने अनुकूल विचार का निर्णय करा लेता है। अपने पाप कर्मों पर भी मिथ्या विचार करके अनुकूल निर्णय की चासनी चढ़ाकर कुछ समय के लिए कुनैन जैसे कडुए पाप से सन्तोष पा लेता है।

कुछ दिनों बाद गौहत्या का पाप आकर ब्राह्मण से बोला— मैं गौहत्या का पाप हूँ तुम्हारा विनाश करने आया हूँ।

ब्राह्मण ने कहा—गौहत्या मैंने नहीं की, इन्द्र ने की है। पाप बेचारा इन्द्र के पास गया और वैसा ही कहा। इन्द्र अचम्भे में पड़ गये। सोच विचारकर कहा— ‛अभी मैं आता हूँ।’ और वे उस ब्राह्मण के बाग के पास में बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर गये और तरह−तरह की बातें कहते करते हुए जोर−जोर से बाग और उसके लगाने वाले की प्रशंसा करने लगा। प्रशंसा सुनकर ब्राह्मण भी वहाँ आ गया और अपने बाग लगाने के काम और गुणों का बखान करने लगा। “देखो मैंने ही यह बाग लगाया है। अपने हाथों पेड़ लगाये हैं, अपने हाथों से सींचता हूँ। सब काम बाग का अपने हाथों से करता हूँ। इस प्रकार बातें करते−करते इन्द्र ब्राह्मण को उस तरफ ले गये जहाँ गाय मरी पड़ी थी। अचानक उसे देखते इन्द्र ने कहा। यह गाय कैसे मर गई। “ब्राह्मण बोला—इन्द्र ने इसे मारा है।”

इन्द्र अपने निज स्वरूप में प्रकट हुआ और बोला—‟जिसके हाथों ने यह बाग लगाया है, ये पेड़ लगाये हैं, जो अपने हाथों से इसे सींचता है उसके हाथों ने यह गाय मारी है इन्द्र ने नहीं। यह तुम्हारा पाप लो।” यह कहकर इन्द्र चले गये। गौ हत्या का पाप विकराल रूप में ब्राह्मण के सामने आ खड़ा हुआ।

भले ही मनुष्य अपने पापों को किसी भी तरह अनेक तर्क, युक्तियाँ लगाकर टालता रहे किन्तु अन्त में समय आने पर उसे ही पाप का फल भोगना पड़ता है। पाप जिसने किया है उसी को भोगना पड़ता, दूसरे को नहीं। यह मनुष्य की भूल है कि वह तरह−तरह की युक्तियों से, पाप से बचना चाहता है। अतः जो किया उसका आरोप दूसरे पर न करते हुए स्वयं को भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा – नदी।)

☆ लघुकथा – नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

नदी थी। नदी के इस तरफ़ एक बस्ती थी, दूसरी तरफ़ भी एक बस्ती थी। नदी पर पुल था। दोनों बस्तियों के लोग इस पुल पर से होकर दूसरी बस्ती में आया-जाया करते। इन आने-जाने वालों में इस बस्ती की एक लड़की और उस बस्ती का एक लड़का भी था। कभी-कभी वे दूर से दौड़ते हुए आते और पुल के ठीक बीचोंबीच ऐसे लिपट जाते जैसे दोनों एक ही हों। इस बस्ती के कुछ लोग उस बस्ती के लोगों को असभ्य तथा जंगली कहते। उस बस्ती के कुछ लोग इस बस्ती के लोगों को पाखंडी कहते। ये लोग प्यार के दुश्मन थे तथा हमेशा दूसरी बस्ती को नष्ट करने की योजनाएंँ बनाते रहते। पुल के पास कभी-कभी इन लोगों के हुजूम देखे जाते, ये लोग ध्वजाएँ लहराते, साज़िशी ठहाके लगाते, आग उगलते भाषण देते। आख़िर एक दिन पुल पर कोहराम हुआ। पुल लाशों से भर गया। लाशें हटीं तो पुल तोड़ दिया गया।

अब नदी थी, पुल नहीं था। नदी के दोनों ओर पुलिस तैनात रहती। सुबह होते ही लड़की नदी के इस पार आ खड़ी होती, लड़का उस पार आ खड़ा होता। दोनों एक दूसरे को देखते रहते और चिल्लाते रहते। सूरज डूब जाता तो लौट जाते। पुलिस उनके इस तरह चिल्लाने से तंग आ गई, प्यार के दुश्मन तो उनके दुश्मन थे ही। फिर एक दिन दोनों अपनी जगहों पर दिखाई नहीं दिए। किसी को हैरानी नहीं हुई। सब जानते थे कि वे किसी दिन दिखाई देना बंद हो जायेंगे। उस दिन के बाद नदी का पानी मटमैला हो गया। हमेशा से शांत बहती नदी हर समय फुफकारती रहती। नदी में बड़े-बड़े पत्थर लुढ़कते नज़र आते। अब नदी, नदी जैसी नहीं, सर्वग्रासी दीर्घकाय पिशाचिनी जैसी दिखती थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #122 – बाल कथा – “घमंडी के दांत घिस गए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “घमंडी के दांत घिस गए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 122 ☆

☆ बाल कथा – घमंडी के दांत घिस गए ☆ 

(चंपक मार्च (प्रथम) 2009)

रस्सी पत्थर पर आहिस्ता आहिस्ता स्पर्श करते हुए जा रही थी. मगर घमंडी पत्थर को उस का मुलायम स्पर्श अच्छा नहीं लगा. वह तुनक कर बोला, “ओ सुतली, अपनी औकात में रह.”

रस्सी को पत्थर के बोलने का ढंग अच्छा न लगा. मगर फिर भी वह बड़े प्यार से बोली, “क्या हुआ भैया ?”

“क्या भैयावैया लगा रखी है. तुझे मालूम नहीं कि यह मेरे सोने का समय है और तू है कि मेरी नींद खराब कर रही है?” पत्थर ने अकड़ कर कहा, “चुपचाप यहां से चली जा. नहीं तो मैं तुझे काट कर कुएं में फेंक दूंगा.”

रस्सी क्या बोलती, वह चुप रही. पत्थर ने समझा कि रस्सी डर गई. इसलिए वह ज्यादा अकड़ कर बोला, “क्यों री, बहरी हो गई है क्या ?”

“नहीं भैया, मैं तो आप को सहलासहला कर मालिश कर रही थी. आप ने मेरे स्पर्श को मेरी छेड़खानी समझ लिया. 

आप समझ रहे हैं कि मैं आप को जगा कर आप की नींद खराब कर रही हूं. यह गलत है.” 

“अच्छा. तू मुझे सिखाएगी कि गलत क्या है और सही क्या है ?” पत्थर अपने तीखे दांत दिखा कर बोला, “तुझे मजा चखाना पड़ेगा,” कहते हुए पत्थर ने अपने दांत से रस्सी को काट लिया.

पत्थर ने जहां दांत लगाए थे वहां से रस्सी कमजोर हो गई. उस पर गांठ लगा दी गई.

यह देख कर रस्सी को अच्छा नहीं लगा. उस ने अन्य रस्सियों से शिकायत की. अन्य रस्सियां भी कुएं के पत्थर से परेशान थीं. उन्होंने तय किया कि वे पत्थर को सबक सिखाएंगी, ज्यादा घमंड अच्छा नहीं होता है.

यह तय कर रस्सियों की बैठक खत्म हुई, “आज के बाद सभी रस्सियां पत्थर की बीच वाले दांत पर से ऊपरनीचे आएंगीजाएंगी.”

“ठीक है,” सभी रस्सियों ने समर्थन किया.

इस घटना के बाद से सभी रस्सियां बारीबारी से पत्थर के तीखे दांत से ऊपरनीचे आनेजाने लगीं.

इधर पत्थर भी कम नहीं था. वह तीखेतीखे दांत लगालगा कर रस्सियां काटने लगा. मगर रस्सियों के आनेजाने से उस के दांत घिसने लगे थे.

एक दिन ऐसा आया कि पत्थर के दांत में रस्सियों के बड़ेबड़े निशान पड़ गए. अब उस में इतनी ताकत नहीं थी कि वह रस्सियों को काट सके.

पत्थर अपना घमंड भूल गया था. वह समझ गया था कि अब वह पहले की तरह ताकतवर नहीं रहा. इसलिए वह बातबात पर अकड़ता नहीं था.

“क्यों भाई, क्या हाल है?” एक दिन रस्सी ने पत्थर से पूछ लिया.

पत्थर क्या बोलता, उस के सभी दांत खराब हो चुके थे. रस्सी ने दोबारा उस से पूछा, “अरे भैया, क्या दांत के साथसाथ जवान भी घिस गई है, जो आप बोलते नहीं हो ?” 

“क्या करूं, बहन, ” पत्थर नम्रता से बोला, “मुझे उस वक्त पता नहीं था कि नम्रता भी एक गुण है. मैं तो समझता था कि कठोरता में ही ताकत है. इसी से सब काम होते हैं.”

रस्सी को पत्थर का स्वभाव बिलकुल बदलाबदला लगा था. वह कुछ मायूस भी था. इसलिए रस्सी ने पूछा,” मैं आप की बात समझी नहीं. आप क्या कहना चाहते हैं ?”

“यही कि तुम कितनी कोमल हो. मुझ से नम्रता से बात कर रही थी. मैं ने तुम्हें कठोर वचन कहे, तुम ने बुरा नहीं माना. अपना काम करती रही. मैं घमंड में था.” 

पत्थर अपनी रौ में कहे जा रहा था, “मगर तुम ने अपना काम जारी रखा. अब यह देखो, मेरे दांत, यह भी तुम्हारा मुलायममुलायम स्पर्श पा कर घिस गए हैं.”

वह बड़ी मुश्किल से बोल पा रहा था, “इसलिए मेरी कठोरता कहां काम आई. मेरे दांत बेकार होने से मुझे बोलने में परेशानी हो रही है, “कहते हुए वह चुप हो गया. 

पत्थर की आंखों में आंसू आ गए थे. इधर रस्सी उस के पश्चात्ताप पर दुखी थी. मगर अब क्या हो सकता था. पत्थर के दांत पर पड़े रगड़ के निशान मिट नहीं सकते थे.

इसलिए रस्सी को कहना पड़ा, “भाई, जो पैदा हुआ है, वह एक दिन तो नष्ट होगा ही. यह प्रकृति का नियम है, इसे हमें स्वीकार करना पड़ेगा.” 

“ठीक कहती हो, बहन, “पत्थर ने कहा तो रस्सी भी चुप हो गई. उसे मालूम हो गया था कि घमंडी का सिर कभी न कभी नीचा होता है.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उजास ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उजास ??

अमावस की गहन रात में चार पथिक मिले। जिज्ञासा ने चारों से एक ही प्रश्न पूछा, ‘क्या दिख रहा है?’ ….’घुप्प अंधेरा है’, पहले ने उत्तर दिया। दूसरे ने कहा, ‘सवाल ही ग़लत है। अंधेरे में कभी कुछ दिखता है क्या?’ तीसरे ने कहा, ‘बेहद लम्बी काली रात है।’ चौथे ने कहा, ‘रात है, सो सुबह की आस है।’… समय साक्षी है कि केवल चौथा पथिक ही उजास तक पहुँचा।

© संजय भारद्वाज

संध्या 4:58 बजे, 13 सितम्बर 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की  प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सबसे ज्यादा पढ़ने का आनंद स्वंय अनुभवित कहानियों में आता है जिन्हें आत्मकथा कीै श्रेणी में भी वर्गीकृत किया जा सकता है. इसके पीछे भी शायद यह मनोविज्ञान ही है कि हम लोग दादा /दादी की कहानियां सुनकर ही बड़े हुये हैं जो अक्सर रात में बिस्तर पर लेटे लेटे सुनी जाती थीं और सुनते सुनते ही कहानियों का स्थान नींद लेती थी. कहानियां तब ही खत्म होती थीं जब ये कहानियां सुनने की उमर को छोड़कर बच्चे बड़े हो जाते थे और अपनी खुद की कहानी लिख सकें, इसकी तैयारियों में लग जाते थे. ये दौर शिक्षण के मैदान बदलने का दौर होता है जब बढ़ने का सफर प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर विद्यालयों से गुजरते हुये महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में विराम पाता है और उसके बाद नौकरी, विवाह, परिवार, स्थानांतरण, पदोन्नति के पड़ावों पर ठहरने की कोशिश करता है पर रुकता सेवानिवृत्ति के बाद ही है. जब समय मिलता है , तो समय न मिलने के कारण बंद बस्तों में जंग खा रही रुचियां पुनर्जीवन पाती हैं, साथ ही व्यक्ति धर्म और आध्यात्म, योग और पदयात्रा की तरफ भी कदम बढ़ाता है. हालांकि इसके बाद फिर वही दादा दादी की कहानियों का दौर शुरू होता है पर भूमिका बदल जाती है, सुनने से आगे बढ़कर सुनाने वाली. पर आज के बदलते दौर में, आधुनिक संसाधनों और न्यूक्लिक परिवारों ने कहानियां सुनने वालों को, सुनाने वालों से दूर कर दिया है. ये कटु वास्तविकता है पर सच तो है ही, हो सकता है कि अपवाद स्वरूप कुछ लोग कहानियां सुनाने का आनंद ले पा रहे हों पर सामान्यतः स्थितियॉ बदल चुकी हैं. पर यहां इस ग्रुप में सबको अपने अनुभवों से रची कहानियां कहने का और दूसरों की कहानियां सुनने का मौका मिल रहा है तो बिना किसी दुराग्रह के निश्चित ही इस मंच पर अपनी कहानियां कहने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि कहानियां सुनने का शौक तो हर किसी को होता ही है.

“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे. डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.

जारी रहेगा…

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 140 – महाकाली का रंँग ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक स्त्री विमर्श पर आधारित भावपूर्ण लघुकथा “महाकाली का रंँग ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 140 ☆

 🔥लघु कथा – महाकाली का रंँग 🔥

कॉलेज कैंपस में गरबे का आयोजन था। नव दुर्गा का रुप बनाने के लिए कॉलेज गर्ल का चुनाव होना आरंभ हुआ। सभी की निगाह महाकाली के रोल के लिए वसुधा की ओर उठ चली।

वसुधा का रंग सामान्य लड़कियों के रंग से थोड़ा ज्यादा गहरा लगभग काले रंग का थी । रंग को लेकर सदा उसे ताने सुनने पड़ते थे। यहां तक कि घर परिवार के लोग भी कहने लगे थे… कि तुम तो इतनी काली हो तुमसे शादी कौन करेगा?

वसुधा का मन हुआ इस रोल के लिए वह मना कर दे, परंतु अपनी भावना को साथ लिए वह तैयार हो गई। परफॉर्मेंस स्टेज पर हो रहा था। दैत्य को मारने के सीन के साथ ही साथ वसुधा ने दैत्य के सिर को हाथ में लेकर अपना डायलॉग बोलना आरंभ किया…. आप सब जान ले काले गोरे रंग का भेद उसकी अपनी उपज नहीं होती। बच्चों का कोई कसूर नहीं होता। देखिए ब्लड का रंग एक ही होता है। कहते-कहते वह भाव विभोर हो नृत्य करने लगी।

उसके इस भयानक रुप को देख सभी आश्चर्य में थें कि कुछ न करने वाली लड़की अचानक इतना तेज डान्स करने लगी हैं।

तभी कालेज का खूबसूरत छात्र पुष्पों की माला लिए स्टेज पर आया। महाकाली के गले में पहना उसके चरणों पर लेट गया।

तालियों की गड़गड़ाहट से कैंपस गूंज उठा। सीने पर पांव रखते ही वसुधा की जिव्हा बाहर निकल आई…. अरे यह तो वही निखिल है!!! जिसे वह मन ही मन बहुत प्रेम करती है।

माँ काली का रुप प्रेम वशीभूत बिजली की तरह चमकने लगी वसुधा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 158 ☆ “स्वर्ग के लिए जुगाड़” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – “स्वर्ग के लिए जुगाड़”)  

☆ कथा कहानी # 158 ☆ “स्वर्ग के लिए जुगाड़” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बुआ चार घंटे पूजा करतीं हैं, 70 पार हो गई हैं। भगवान से अच्छी दोस्ती है तो पूजा के दौरान दो-तीन घंटे लड़के बहू की निंदा भगवान से कर लेतीं हैं, जीवन भर ससुराल वालों से चिढ़ती रहीं, मास्टरनी रहीं थीं तो पैसे का घमंड ब्याज के साथ मिला था।

चार दिन से नहाया धोया नहीं था तो भगवान को भोग भी नहीं लगा था, चार दिन भगवान भूखे थे, बुआ के चार दिन के बुखार ने तोड़ दिया था, जब ठीक हुईं तो नहा धोकर भगवान से बोलीं – मेरे सिवाय तुमको खाना देने वाला कौन है, तुम चार दिन से निर्जला बैठे हो, मुझे दुख है, पर इस बात की खुशी भी है कि इस बार तुमने मेरे कारण चार दिन का उपवास कर लिया है तो तुम्हारा स्वर्ग में जाना तय है और मुझे भी साथ ले चलोगे तो अगली बार से भूखा नहीं रहना पड़ेगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #163 ☆ कथा कहानी – जन्मभूमि ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय  कहानी ‘जन्मभूमि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 163 ☆

☆ कथा कहानी – जन्मभूमि

गिरीश भाई को शहर में रहते बीस साल हुए, लेकिन ठाठ अभी तक पूरी तरह देसी है। कभी छुट्टी के दिन उनके घर जाइए तो उघाड़े बदन, लुंगी लगाये, कुर्सी पर पसरे, पेट पर हाथ फेरते मिल जाएँगे। सब देसी लोगों की तरह पान-सुरती के शौकीन हैं। हर दो मिनट पर गर्दन दाहिने बायें लटकाकर थूकने की जगह खोजते  रहते हैं। दाढ़ी तीन-चार दिन तक बढ़ाये रखना   उनके लिए सामान्य बात है। सोफे पर पालथी मारकर बैठना और कई बार अपने चरण टेबिल पर रख कर सामने बैठे अतिथि की तरफ पसार देना उनकी आदत में शामिल है।

गिरीश भाई को अपने देस के लोगों से बहुत प्यार है। पूछने पर इस शहर में बसे उनके इलाके के लोगों की पूरी लिस्ट आपको उनके पास मिल जाएगी। हर छुट्टी के दिन देस के लोगों के साथ बैठक भी जमती रहती है, कभी उनके घर, कभी दूसरों के घर। उनकी बैठक कभी देखें तो आपको गाँव की चौपाल का मज़ा आएगा। कुर्सियों को किनारे कर, ज़मीन पर दरियाँ बिछ जाती हैं और वहीं पान-सुरती के साथ गप, ताश और शतरंज की बैठकें चलती रहती हैं। चाय के नाम से बैठकबाज़ों का मुँह बिगड़ता है। ठंडाई और लस्सी हो तो क्या कहना! गिरीश भाई और उनके देस के लोगों का मन इन बैठकों से ऊबता नहीं। कल की ड्यूटी की बात करना पूर्णतया वर्जित। बहुत होगा तो कल आधे दिन की छुट्टी ले लेंगे, लेकिन फिलहाल कल की बात उठाकर रंग में भंग न करें श्रीमान।

गिरीश भाई का गाँव उनकी रगों में हमेशा दौड़ता रहता है। वही तो उनके खान-पान से लेकर उनके जीवन की एक-एक हरकत में प्रकट होता है। जब देस के लोगों की बैठक होती है तब गाँव की स्मृतियों को खूब हरा किया जाता है। याद करके कभी ठहाके लगते हैं तो कभी स्वर भारी हो जाता है।

गाँव गिरीश भाई से छूटा नहीं। गाँव में अभी पुरखों का मकान है जिसमें माता-पिता और भाई भतीजे रहते हैं। पिताजी का मन गाँव के अलावा कहीं नहीं लगता। गिरीश कुल पाँच भाई हैं। तीन शहरों में रहते हैं और दो गाँव में। पिता-माता इच्छा और ज़रूरत के अनुसार शहर बेटों के पास आते जाते रहते हैं, लेकिन उन्हें सुकून गाँव में ही मिलता है। कहते हैं, ‘शहर में साफ हवा नहीं है। शोरगुल भी बहुत है।’ सुविधाएँ सब शहर में हैं, इसलिए कई बार जाना ज़रूरी होता है, खास तौर से तबियत बिगड़ने पर।

दिवाली पर एक हफ्ते के लिए है गाँव जाना गिरीश का नियम है जो बीस साल से बराबर निभ रहा है। एक हफ्ते खूब जश्न होता है। शहर की सारी थकान और शहर की बू-बास निकल जाती है। शरीर और मन को नयी ताकत मिलती है। कैसे वे सात दिन निकल जाते हैं, गिरीश को पता नहीं चलता। चलने के वक्त जी दुखता है। शहर और नौकरी को कोसने का मन होता है।

गाँव का यह जश्न मामूली नहीं होता। बुज़ुर्गों के आदेश पर सब भाइयों, चचेरे भाइयों को दिवाली पर गाँव में हाज़िर होना ज़रूरी होता है। दूसरी बात यह कि सबको अपनी एक एक माह की तनख्वाह इस उत्सव के लिए समर्पित करना अनिवार्य होता है। कोई हीला-हवाला नहीं चलता। इस तरह उत्सव के लिए अच्छी रकम इकट्ठी हो जाती है।
यह उत्सव गिरीश के घर में होता है, लेकिन इसकी प्रतीक्षा पूरा गाँव साल भर करता है। घर के लोगों के साथ-साथ हफ्ते भर उनका भी जश्न हो जाता है। खूब गाना-बजाना होता है और गाँव वालों के लिए प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं होता। फुरसत के वक्त गाँव वाले वैसे ही ढोलक और मृदंग की थाप पर खिंचे चले आते हैं। गाँव की नीरस ज़िन्दगी हफ्ते भर के लिए खासी दिलचस्प हो जाती है।

यह उत्सव हर साल होने के कारण सारा कार्यक्रम जमा जमाया रहता है। इशारा करने की देर होती है और आसपास की भजन और लोकगीतों की मंडलियाँ इकट्ठी होने लगती हैं। फिर क्या दिन और क्या रात। रात चढ़ते और सुरूर आता है। सात दिन का यह जश्न वस्तुतः दिन और रात का होता है। जिन्हें नींद आ जाती है वे वहीं दरी या मसनद पर सो लेते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या काफी होती है जिनकी पलक नहीं झपकती। सात दिन बाद यह सरिता सूख जाएगी, इसलिए जितना बने इसके जल में डुबकी लगा लो। फिर तो वही सूनापन है और वही रोज़मर्रा के ढर्रे का सूखापन।

गाँव के लोग इसलिए भी जुड़ते हैं कि सात दिन गिरीश भाई के घर खाने-पीने का भरपूर इंतज़ाम होता है। जो हाज़िर हो जाए उसे भोजन नहीं तो कलेवा-प्रसादी तो मिलेगी ही। गाँव में ठलुओं की कमी नहीं होती। कुछ फितरती ठलुए होते हैं और कुछ बेरोज़गारी से मजबूर ठलुए। ऐसे लोगों के लिए गिरीश का घर सात दिन के लिए नखलिस्तान बन जाता है। और कुछ नहीं तो घर की दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहते हैं।

जो मांँस-मदिरा के प्रेमी होते हैं उन्हें भी आराम हो जाता है। गिरीश सात दिन के लिए सभी तरह का इंतज़ाम करते हैं। जब पूजा- अनुष्ठान के लिए व्रत-परहेज़ करना है तब व्रत-परहेज़, और बाकी समय मौज-मस्ती।

इसीलिए गाँव में साल भर गिरीश भाई और उनके बंधु-बांधवों के लिए पलक-पाँवड़े बिछे रहते हैं। गिरीश खर्चे को लेकर किचकिच नहीं करते। खर्चा कुछ ज़्यादा हो जाए तो बेशी खर्चा गिरीश भाई वहन करते हैं। परिणामतः गाँव में गिरीश भाई की जयजयकार होती है।

गिरीश भाई को गाँव आने में एक ही बात से तकलीफ होती है। जब भी गाँव आते हैं, दो-चार लड़के घेर कर बैठ जाते हैं। उनके चेहरे पर आशा भरी नज़र जमा कर कहेंगे, ‘भैया, अब की बार हम आपके साथ चलेंगे।’

गिरीश इन लड़कों को जानते हैं। दसवीं बारहवीं तक पढ़ कर खेती-किसानी और मेहनत- मज़दूरी से विमुख हो गये, अब बेकार बैठे कुंठित हो रहे हैं। ‘तनक पढ़ा तो हर (हल) से गये, बहुत पढ़ा तो घर से गये ‘ वाली कहावत चरितार्थ होती है। अब शहर में उन्हें अपने दुख की दवा दिखायी देती है। साधन नहीं हैं, इसलिए जो भी हैसियत वाला गाँव में आता है उसे घेरते हैं। गिरीश के लिए यह प्रसंग तकलीफ देने वाला है।

इस बार भी उत्सव के सुख के बीच में ऐसे ही लड़के आ आ कर गिरीश के पास बैठने लगे। गिरीश उनसे बचने की कोशिश करते, लेकिन कहाँ तक बचते? फिर वही अनुरोध, वही आजिज़ी। गिरीश ‘हाँ हूँ ‘ में जवाब देकर टाल देते, लेकिन लड़के बार-बार उन्हें घेर लेते थे। वे उनका रसभंग कर रहे थे। सात दिन के लिए सब चिन्ताओं से मुक्त रहने और मौज करने के लिए आये हैं, यह ज़हमत कौन उठाये? फिर शहर में कौन सी इनके दुख की दवा मिलती है? शहर में आदमी की कैसी फजीहत हो रही है, यह इन्हें क्या मालूम।

रामकृपाल काछी का बेटा नन्दू कुछ ज़्यादा ही पीछे पड़ा है। बारहवीं पास है। सवेरे- शाम धरना देकर बैठ जाता है। एक ही रट है, ‘भैया, इस बार आपके साथ चलना ही है। दो साल हो गये। कब तक फालतू बैठे रहें?’

गिरीश बचाव में कहते हैं, ‘मैं वहाँ पहुँच कर खबर दूँगा, तब तुम आ जाना। वहाँ जमाना पड़ेगा। ऐसे आसानी से काम थोड़इ मिलता है।’

नन्दू कुछ नहीं सुनता। कहता है, ‘मैं आपके यहाँ पड़ा रहूँगा। यहाँ भी तो फालतू ही पड़ा हूँ। दिन भर दद्दा बातें सुनाते हैं।’

गिरीश परेशानी महसूस करते हैं। कहते हैं, ‘सबर करो। मैं जल्दी कुछ न कुछ करूँगा।’

जैसे-जैसे गिरीश भाई के रवाना होने के दिन करीब आते हैं, नन्दू की रट और उसकी घेराबन्दी बढ़ती जाती है। वह चाहता है कि किसी भी कीमत पर शहर चला जाए तो कुछ न कुछ रास्ता निकल ही आएगा। जिस दिन गिरीश भाई को रवाना होना था उसकी पिछली शाम भी वह चलने की रट लगाये रहा और गिरीश उसे समझाते रहे।
अगली सुबह चलने के लिए गिरीश भाई ने टैक्सी बुलवा ली थी। उन्होंने आशंका से इधर-उधर देखा। नन्दू कहीं दिखायी नहीं पड़ा। उन्होंने राहत की साँस ली। घर के लोगों और गाँव वालों से विदा लेकर भारी मन से वहाँ से निकले। गाँव वालों ने अगले साल फिर आने का वादा लेकर उन्हें विदा किया।

टैक्सी करीब एक किलोमीटर गयी होगी कि किसी पेड़ के पीछे से निकलकर नन्दू हाथ ऊँचा किये रास्ते के बीच में खड़ा हो गया। टैक्सी रोकनी पड़ी। फिर वही रट— ‘भैया, मुझे ले चलिए।’ उसके कपड़ों-लत्तों  और हाथ के थैले से स्पष्ट था कि वह जाने के लिए तैयार होकर आया था। गिरीश का दिमाग खराब हो गया।

उन्होंने खिड़की से सिर निकाल कर कहा, ‘मैं खबर दूँगा। जल्दी खबर दूँगा।’ लेकिन लगता था उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। गिरीश भाई ने ड्राइवर को गाड़ी बढ़ाने का इशारा किया। गाड़ी चली तो नन्दू खिड़की पर हाथ रखे साथ साथ दौड़ने लगा, साथ ही इसरार— ‘भैया मुझे ले चलिए।’

गिरीश ने जी कड़ा करके उसका हाथ खिड़की से अलग किया। वह दौड़ते दौड़ते रुक कर बढ़ती हुई गाड़ी को देखता रहा।

कुछ आगे बढ़ने पर गिरीश भाई ने देखा, वह अपना थैला सिरहाने रख कर पास ही बनी पुलिया पर लंबा लेट गया था। इसके बाद धूल के ग़ुबार में सब कुछ नज़र से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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