(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “अपने लिए“।)
☆ लघुकथा – अपने लिए ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆
किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी में कार्यरत कर्मचारियों की तरह वर्दीनुमा कपड़े पहने कुछ सुंदर नौजवान युवक-युवतियों ने कार्यालय-कक्ष में प्रवेश किया और एक-एक कर अपनी कंपनी की तरफ से दिए गए उत्पाद सभी को दिखाने लगे। सभी को कंपनी-संचालक द्वारा एक बंधे-बंधाये प्रबंधन कोर्स की तरह प्रशिक्षित किया गया था और वह एक रट्टू तोते की तरह बोलकर अपने उत्पादों की अच्छाइयां और उनके अनूठे उपयोगों के बारे में बता रहे थे। साथ ही, एक के साथ एक मुफ्त या एक के दाम में दो का भी प्रलोभन दे रहे थे, जैसा कि ग्राहकों को लुभाने, या सरल शब्दों में कहें तो फंसाने का एक कारगर उपाय होता है। कुछ साथी कर्मचारी इस अंत में दिए गए मारक जाल में आ गए थे, और अपनी आवश्यकताओं या पसंद के अनुसार कुछ ना कुछ खरीद रहे थे। किसी-किसी ने वर्तमान की बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए भी उन नवयुवक और नवयुवतियों के प्रति अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए कुछ उत्पाद लिए, तो एक-दो का उनके प्रति आकर्षण भी कारण रहा होगा।
अब जब वह मेरे सामने खड़े रटे-रटाए वाक्य बोलने को हुए तो मैंने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया, “एक बात बताओ, तुम्हें इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?” वह एक-दूसरे को देखने लगे। मैंने कहा, “छोड़ो, जितने भी मिलते होंगे, पर इतने नहीं कि जिन्हें तुम्हारी दिनभर की दौड़-धूप के अनुसार संतोषजनक या ज्यादा कहा जा सके, क्यों?”
वह चुपचाप खड़े थे जिससे मुझे यह अंदाजा हो गया था कि मैं काफी हद तक सही हूं।
मैंने फिर कहा, “यह तो तुम लोग भी जानते हो कि यह सारे प्रोडक्ट, जो तुम लोग बेच रहे हो, वह उत्तम गुणवत्ता वाले या नामी कंपनियों के नहीं हैं। इनमें बहुत मार्जिन होता है। तुम लोगों को थोड़ा सा लाभ देकर ज्यादातर लाभ कंपनी या एजेंसी के पास चला जाता है, जबकि तुम इन्हें बेचने के लिए अपना पूरा पसीना बहा देते हो। तो क्यों नहीं तुम लोग अपना स्वयं का कोई काम शुरू करके उसमें अपना श्रम और शक्ति लगाते। कम से कम किसी मुकाम तक तो पहुंचोगे, और तुम्हें तुम्हारी मेहनत का पूरा फल भी मिलेगा। तुम्हें किसी के अधीन रहकर नहीं, बल्कि आजादी से काम करने को मिलेगा और तुम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करोगे, अपने लिए…।”
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #93 भक्ति और संपत्ति ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बार काशी के निकट के एक इलाके के नवाब ने गुरु नानक से पूछा, ‘आपके प्रवचन का महत्व ज्यादा है या हमारी दौलत का? ‘नानक ने कहा, ‘इसका जवाब उचित समय पर दूंगा।’
कुछ समय बाद गुरु नानक जी ने नवाब को काशी के अस्सी घाट पर एक सौ स्वर्ण मुद्राएं लेकर आने को कहा। नानक वहां प्रवचन कर रहे थे। नवाब ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल नानक के पास रख दिया और पीछे बैठ कर प्रवचन सुनने लगा। वहां एक थाल पहले से रखा हुआ था।
प्रवचन समाप्त होने के बाद नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं मुट्ठी में लेकर कई बार खनखनाया। भीड़ को पता चल गया कि स्वर्ण मुद्राएं नवाब की तरफ से गुरु नानक जी को भेंट की गई हैं। थोड़ी देर बाद अचानक गुरु नानक जी ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं उठा कर गंगा में फेंकना शुरू कर दिया। यह देख कर वहां अफरातफरी मच गई। कई लोग स्वर्ण मुदाएं लेने के लिए गंगा में कूद गए। भगदड़ में कई लोग घायल हो गए। मारपीट की नौबत आ गई। नवाब को समझ में नहीं आया कि आखिर गुरु नानक जी ने यह सब क्यों किया। तभी गुरु नानक जी ने जोर से कहा, ‘भाइयों, असली स्वर्ण मुद्राएं मेरे पास हैं। गंगा में फेंकी गई मुद्राएं नकली हैं। आप लोग शांति से बैठ जाइए।’ जब सब लोग बैठ गए तो नवाब ने पूछा, ‘आप ने यह तमाशा क्यों किया?’
धन के लालच में तो लोग एक दूसरे की जान भी ले सकते हैं।’ गुरु नानक जी ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया वह आपके प्रश्न का उत्तर था। आप ने देख लिया कि प्रवचन सुनते समय लोग सब कुछ भूल कर भक्ति में डूब जाते हैं। लेकिन माया लोगों को सर्वनाश की ओर ले जाती है। प्रवचन लोगों में शांति और सद्भावना का संदेश देता है मगर दौलत तो विखंडन का रास्ता है।‘ नवाब को अपनी गलती का अहसास हो गया।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती…”।)
☆ तन्मय साहित्य # 135 ☆
☆ लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
खेत खलिहान से फसल घर में लाते ही मोहल्ले के पंडित जी के फेरे शुरू हो जाते। मौसम के मिज़ाज के अनुसार कभी पँसेरी दो पंसेरी गेहूँ, ज्वार, दालें कभी सब्जी-भाजी और कभी ‘सीधे’ में पूरी भोजन सामग्री की माँग इन पंडित जी की पूरे वर्ष बनी रहती।
इस वर्ष खरीफ की फसल सूखे की चपेट में आ गई और बाद में बेमौसम की बारिश व ओले आँधी की चपेट में आने से रबी की फसल भी आधे साल परिवार के खाने लायक भी नहीं हुई।
खाद, बीज व दवाईयों के कर्ज के बोझ से लदे कृषक रामदीन पत्नी फूलमती के साथ आने वाले समय की शंका-कुशंकाओं में डूबे बैठे थे, उसी समय पंडितजी काँधे पर झोला टाँगे घर पर पधार गए।
“कल्याण हो रामदीन! नई फसल का पहला हिस्सा भगवान के भोग के लिए ब्राह्मण को दान कर पुण्यभागी बनो और अपना परलोक सुधार लो यजमान”।
पहले से परेशान फूलमती अचानक फूट पड़ी – “पंडित जी बैठे-बिठाए इतने अधिकार से माँगते फिरते हो, क्या हमारे खेत की मेढ़ पर आज तक भी आपके ये पवित्र चरण कभी रखे हैं आपने! आँधी-पानी, ओलों और सूखे से पीड़ित हम लोगों के दुख की घड़ी में हालचाल भी जानने की कोशिश की है कभी, ठंडी गर्मी व बरसात के वार झेलते खेत में मेहनत करते किसी किसान के श्रम को आँकने की भी कोशिश की है कभी आप ने? फिर किस नाते हर तीज त्योहार, परब-उत्सव पर हिस्सा माँगने चले आते हो”।
“पंडित जी!…पूरी जिंदगी बीत गई हाड़तोड़ मेहनत कर दान-पुन करते, फिर भी हमारा यह लोक ही नहीं सुधर रहा है और परलोक का ,झाँसा देकर इधर, आप हमें सब्जबाग दिखाते रहते हो और दूसरी तरफ सेठ-साहूकार और सरकारी साब लोग”।
“जाओ पंडित जी, थोड़ी मेहनत कर के रोटी कमाओ और खाओ तब असल में रोटी और मेहनत का सही स्वाद और महत्व समझ पाओगे”।
पंडित जी हतप्रभ से कुछ क्षण शांत रहे और फिर करुणाभाव से फूलमती की ओर एक नजर डाल कर वापस हो गए। आगे गली के एक कोने में काँधे का झोला फेंकते हुए मन ही मन कुछ बोलते हुए अपने घर की ओर लौट पड़े।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़र, जोरू, ज़मीन
यह ज़मीन मेरी है,…नहीं मेरी है,..तुम्हारी कैसे हुई, मेरी है।….तलवारें खिंच गईं। जहाँ कभी खेत थे, वहाँ कई खेत रहे।
ये संपत्ति मेरी है,…पुश्तैनी संपत्ति है, यह मेरी है,..खबरदार ! यह पूरी की पूरी मेरी है।..सहोदर, शत्रुओं से एक-दूसरे पर टूट पड़े। घायल रिश्ते, रिसते रहे।
यह स्त्री मेरी है,…मैं बरसों से इसे चाहता हूँ, यह मेरी है,…इससे पहली मुलाकात मेरी हुई थी, यह मेरी है।… प्रेम की आड़ में देह को लेकर गोलियाँ चलीं, प्रेम क्षत- विक्षत हुआ।
यह ईश्वर हमारा नहीं है,…हम तुम्हारे ईश्वर का नाम नहीं लेते,…हम भी तुम्हारे ईश्वर को नहीं मानते,…तुम्हारा ईश्वर हमारा ईश्वर नहीं है।…हिस्सों में बंटा ईश्वर तार-तार होता रहा।
आदमी की नादानी पर ज़मीन, संपत्ति और औरत ठठाकर हँस पड़े।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – संस्कार ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆
“कल तुम मेरे बेटे को नाम से पुकार रहे थे। तुम्हें कोई मैनर्स है कि नहीं। कोई संस्कार है कि नहीं। यही सिखाया है तुम्हारे माँ-बाप ने। जब मैं तुम्हारा बॉस हूँ तो मेरा बेटा भी तुम्हारा बॉस ही हुआ।“ श्याम लाल जी ने अपने ऑफिस के एंप्लॉय केदार को जोर-जोर से डांटते हुए यह कहा|
तभी पापा पापा कहकर 13-14 साल का बच्चा अंदर दाखिल होते हुए अपने माली की तरफ देखते हुए बोला “पापा इस बूढ़े खूसट को निकाल क्यों नहीं देते नौकरी से। मुझे पाल पोस कर बड़ा किया है, तो इसकी इतनी हिम्मत कि यह मुझ पर हुकुम चलाएगा। किसी बात को करने से मना करेगा।“ अब श्याम लाल जी की नजरें केदार के सामने ऐसी झुकी की वे उठाने की हिम्मत ही नहीं कर पाए|
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 35 – आत्मलोचन– भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)
अगले कुछ महीने न जाने क्यों पर आत्मलोचन ने बड़े तनाव में गुजारे, छोटी छोटी बातों पर भड़क जाने की आदत ऑफिस का माहौल गंभीर बना दे रही थी, वित्तीय वर्ष का बज़ट फंड लेप्स होने पर प्रिसिंपल सेक्रेटरी नाराज होते रहते थे.दुर्गम नक्सली क्षेत्र में योजनाओं के अंतर्गत काम होना शासन की इच्छा पर कम नक्सलियों के मूड पर ज्यादा निर्भर होता था, काम करने वाले वही कांट्रेक्टर सफल हो पा रहे थे जिनके नक्सलियों से वाणिज्यिक संबंध थे अन्यथा विकास कार्यों को बाधित करना उनके जनांदोलन का ही एक अंग था. आये दिन रास्ता बंद करना, उनकी सूचना देने वाले पुलिस के खबरियों का सिर काटकर बॉडी सड़क पर डाल देना उनके आंदोलन और शक्ति प्रदर्शन का एक हिस्सा था. मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री बहुत संवेदनशील और सक्रिय थे जो चाहते थे कि इस समस्या को शासन एड्रेस करे और उनकी अपेक्षा, युवा सिविल सर्विस के अधिकारियों से बहुत ज्यादा थी. हर परफारमेंस रिव्यू में ये लोग चाहते थे कि ये युवा जिलाधीश इनोवेटिव और सशक्त निर्णयों से राज्य के विकास को गतिशील करें राज्य में हर वर्ष की तरह इस बार भी ग्रामसुराज अभियान 14 अप्रैल से प्रारंभ हुआ और आत्मलोचन जी ने जिले के नक्सली प्रभावित दुर्गम क्षेत्र में जिले के विकास से संबंधित अधिकारियों के साथ कैंप लगाने का निश्चय किया ताकि क्षेत्र के निर्धन निर्बल आदिवासियों और जिलास्तर के शासनतंत्र के बीच संवाद स्थापित किया जा सके और शासकीय योजनाओं के माध्यम से उनके सर्वागीण विकास को दिशा दी जा सके और जनसमस्याओं के निवारण की पहल की जा सके.तिथि निर्धारित होने पर सूचना हर माध्यम से हर संबंधित व्यक्ति, संस्था और प्रिंसिपल सचिव स्तर के अधिकारियों को दी गई ताकि लोग इस कैंप में भाग ले सकें.इस कदम से मुख्य सचिव और मुख्य मंत्री प्रभावित हुये. पर एक बात और हुई, उन्हीं पूर्व मुख्यमंत्री का फोन फिर आया कि उन्हें उनके नेटवर्क के माध्यम से जिले में कोई बड़ी घटना होने की पूर्वसूचना मिली है पर समय दिन व स्थान की विस्तृत जानकारी नहीं है पर फिर भी सतर्क और सावधान रहने की सलाह दी गई. कैंप की मॉनीटरिंग और निर्देशों में उलझकर कलेक्टर साहब ये चेतावनी नज़रअंदाज कर गये और नियत तिथि पर कैंप सदलबल प्रस्थान कर गये. आवश्यक और अपरिहार्य सुरक्षा बल साथ चल रहा था. ठीक दिन के 11बजे कार्यक्रम प्रारंभ हुआ और उपस्थित ग्रामीणों के बीच शासकीय योजनाओं के प्रचार माध्यम से संवाद प्रारंभ हुआ. प्रारंभिक भाषणों के बीच जैसे ही आत्मलोचन जी मंच की ओर बढ़े, अचानक ही लगभग सौ डेढ़ सौ वर्दीधारी युवक मंच की ओर बढ़े और इसके पहले की कोई समझ पाता, उन्होंने कलेक्टर के पर्सनल सिक्यूरिटी गार्ड को शूट कर आत्मलोचन जी को अपने कवर में ले लिया और सुरक्षा बल इस अचानक हमले से स्तब्ध हो गया, कुछ करने की गुजांइश वैसे भी नहीं बची थी क्योंकि देखते देखते ही आठ दस नक्सली उन्हें घेरकर बाहर गाड़ी में बिठाकर आगे बढ़ गये और सुरक्षा बल, नक्सलियो के बाद में किये बम विस्फोट में समझ नहीं पाये कि यहां कितनी गंभीर घटना घट चुकी है. एक तरफ आत्मलोचन जी अज्ञात स्थान की ओर ले जाये जा रहे थे वहीं इस अभूतपूर्व घटना की खबर से संभागीय मुख्यालय और राजधानी में हड़कंप मच गया. मीडिया ने राष्ट्रीय राजधानी तक सत्ताधीशों को झकझोर कर रख दिया. इस तरह की ये शायद पहली घटना थी. समाधान करने के लिए देश- प्रदेश के संचार तंत्र एक हो गये और नक्सली क्षेत्र के विशेषज्ञ वरिष्ठ और सेवानिवृत्त अधिकारियों के माध्यम से इस कार्य में संलग्न प्रमुख नक्सली नेताओं से बातचीत के रास्ते कुछ देर से ही सही पर बहुत प्रयास के बाद खुल ही गये.
वहीं कथा के नायक का हाल क्या हुआ यह जानने के लिए कुछ समय और दीजिए, अगली एक या दो किश्तों में क्लाइमेक्स आपके सामने होगा.
बहुत परिश्रम से कहानी तैयार हुई है और धन्यवाद उन सभी मित्रों को जिनके लगातार प्रोत्साहन से उम्मीद से बढ़कर यहां तक का सफर तय हो गया.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है यथार्थ के धरातल पर स्त्री विमर्श पर आधारित एक अत्यंत संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा “दो बाँस…”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 126 ☆
☆ लघुकथा – दो बाँस☆
कमलाबाई गाँव में अपने पति झुमुक लाल के साथ रहती थी। निसंतान होने के कारण सारी जमीन जायदाद उसके छोटे भाई ने अपने नाम लिखवा लिया। खाने के लाले पड़ने लगे, उम्र ज्यादा होने के कारण झुमुक लाल को दिखाई नहीं देता था। आँखों से लाचार फिर भी पत्नी के लिए परेशान रहता था।
किसी तरह खाने-पीने का इंतजाम हो जाता था। आस पड़ोस के लोग कुछ सहायता कर जाते हैं और थोड़ा बहुत अनाज दे जाते थे। एक छोटे से झोपड़ी नुमा घर में रहते थे।
चुनाव चल रहा था। वोट मांगने प्रत्याशी घर-घर दस्तक दे रहे थे। कमलाबाई के घर आने पर पूछा गया…” सब ठीक-ठाक है।” कमलाबाई ने हाथ जोड़कर कहा…. “जैसे तैसे खाने का इंतजाम हो जाता है साहेब, परंतु झोपड़ी में एक तरफ से पानी आएगा अब बरसात भी आने वाली है, आप मुझे दो बड़े बड़े बाँस दिलवा देते तो मैं पन्नी लगाकर घर को बचा लेती।”
मंत्री जी ने बड़े बड़े अक्षरों पर लिखवा लिया कि बाँस दिया जाए। कमला और झुमुक लाल खुश थे कि बाँस मिल जाएगा और घर की टपरिया में पन्नी बांध लेंगे।
वोट देते समय कमलाबाई खुश थीं। अब घर बन जाएगा।
अचानक रात में तेज बारिश और आंधी चली। पति-पत्नी एक कोने का सहारा लिए बैठे थे। सुबह-सुबह एक तरफ से दिवाल गिरी और झुमुक लाल बैठे का बैठा ही रह गया।
प्राण पखेरू उड़ चुके थे। मंत्री महोदय के घर से दो बाँस आ गया कोरे कागज पर कमला का अंगूठा लगाया गया बांस मिल गया।
कितने दयावान है मंत्री जी अंतिम संस्कार के लिए नया बाँस और कुछ रूपया कमलाबाई को दिए हैं।
तस्वीर खींचते देर नहीं लगी। शाम को कमलाबाई को एक बड़ी गाड़ी लेने आई और एक बाँसो से भरी ट्राली भी आई।
कमलाबाई को अनाथ आश्रम के लिए भेजा गया और उस झोपड़ी के चारों तरफ बाँस की बल्लियां लगाई गई।
कमलाबाई शून्य हो ताकतीं रहीं। झोपड़ी नुमा मकान में चारों तरफ से बल्लियां लगाकर मंत्री जी के नाम की तख्ती लग गई।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ यह आम रास्ता नहीं है ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
यह जो छोटी सी पक्की ईंटों की पगडंडी जा रही है तब एकदम कच्ची हुआ करती थी। यह कच्ची पगडंडी इसलिए कि उन दिनों आवासों के आसपास मजबूत दीवार थी और इस कच्ची पगडंडी की जरूरत हर आम-ओ-खास को पड़ती रहती थी। मैं भी इसी पगडंडी पर संभल-संभल कर मोटरसाइकिल चलाते हुए पहली बार अमृता से मिलने गया था। उसे कॉलेनी में बिल्कुल दीवार के साथ सटा आवास मिला हुआ था।
यों अमृता से मेरी पहली मुलाकात अचानक हुई थी। मैं एक कार्यक्रम की कवरेज करके निकल रहा था और उस दिन मोटरसाइकिल की बजाय पैदल ही था। देखा मेरे सामने एक विभाग के मित्र गाड़ी में बैठे हैं और मुझे इशारा कर रहे हैं, गाड़ी में आ जाने का। ड्राइविंग सीट पर एक महिला स्टेयरिंग संभाले बैठी थी। मित्र ने परिचय कराया, वह अमृता थी, किसी दूसरे विभाग में पढ़ाती थी।
इसके बाद मैंने विभाग में जाकर चाय का प्याला पीने की पेशकश स्वीकार की तब अमृता ने बताया था कि परिचय करवाने वाले मित्र के बारे में उसकी राय बहुत अच्छी नहीं है और इसी के चलते वह मुझे भी कोई तरजीह नहीं दे रही थी लेकिन इधर-उधर की जानकारी मिली कि आप ठीक-ठाक आदमी हो, इसलिए चाय पर निमंत्रण दे दिया। अमृता की साफगोई मुझे अंदर तक झू गई थी। सरल भाव से सब सच-सच कह देने की अमृता की अदा से मैंने उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था, जिसे थामने में उसने भी देरी नहीं की।
मैं उस शहर में नया-नया आया था और मेरी शामें बहुत अकेलीं और उदास बीतने से अमृता ने बचा लीं। यह तो बाद में अहसास हुआ क उसकी शामें भी उतनी ही उदास व तन्हा थीं। मैं एक दिन भीड़ भरे बाजार में से गुजर रहा था कि अमृता दिख गई। उसके कदम ठिठके तो मैं भी आगे नहीं बढ़ पाया। वह बताने को तो टेलर मास्टर के पास किसी सूट के डिजाइन के बारे में बात करने आई थी पर मेरे निमंत्रण पर ही एक रेस्टोरेंट में चलने को तैयार हो गई थी। मेज पर आमने-सामने पहली बार हम बैठे थे और रेस्टोरेंट के और ग्राहकों के शोर शराबे के बावजूद खामोश एक-दूसरे को देख रहे थे कि बात का सिलसिला कहां से शुरू करें।
आखिर अमृता ने बताना शुरू किया था कि कैसे वह बड़े विश्वविद्यालय में उस व्यक्ति के संपर्क में आई, जो अब उसका पति है और कैसे एक ही विश्वविद्यालय में पहुंचे पर उसकी महत्वाकांक्षा इस शहर में बने नए विश्वविद्यालय में नए विभाग में खींच लाई। अब बच्चों की मां की भूमिका के साथ-साथ महत्वाकांक्षा दुखदायी साबित हो रही है। पति महोदय किसी अखबार के रविवारीय संस्करण की तरह आते हैं और सोमवार से फिर जिंदगी का पहिया अकेले ही खींचना पड़ता है। बहुत से काम ऐसे होते हैं, जहां अकेले भाग-दौड़ कर जब बुरी तरह हांफ जाती हूं, तब भीड़ भरे बाजार में निकल पड़ती हूं, अजनबी चेहरे ही सही, कुछ नए लोगों को देख लेती हूं और किसी-किसी दिन पहचान वाले व्यक्ति से भी मुलाकात हो जाती हे, जैसे कि आपसे आज मुलाकात हो गई।
मुलाकातों का यह सिलसिला फिर चल निकला और उदास शामें खिलने लगीं। मन का पंछी उड़ान भरने लगा। पांव जमीं पर नहीं लगते थे और रुकते तो सीधे अमृता के घर जाकर। बात दोस्ती से आगे नहीं थी लेकिन लोगों को चर्चा के लिए कुछ न कुछ मसाला चाहिए और वह मिल रहा था। अमृता को इसकी कोई परवाह नहीं थी क्योंकि उसने इन चर्चाओं के बीच जीना सीख रखा था। उसका कहना था कि उसे अपने ढंग से जीना है और उसकी समस्याओं का हल दूसरों के पास नहीं, उसी को खोजना है। फिर दूसरों के रास्ते पर या कहने पर कैसे चल सकती है?
यों अमृता की शादी की सालगिरह में भी संगीत की धुन पर पति पत्नी को मस्त नाचते देखा तब सहज ही विश्वास नहीं हुआ। होली का गुलाल लगाने भी पहुंचा, उस समय घर के हर कोने में रंग बिखरे थे पर जीवन में वे रंग कहां खो गए थे? मैं वहां से लौट कर देर तक सोचता रहा था। अमृता को शराब से नफरत थी और पति महोदय की पहली पसंद। एक बार मैं मित्रता में उपहारस्वरूप उनकी पसंद की चीज ले गया था तब अमृता की आंखों में नफरत की इबारत पढ़ कर मैं ज्यों की त्यों लौटा आया था। कुछ दिन तक उसकी भवें मेरी ओर भी तनी रहीं थीं। उसे वापिस उसी रंग में लाने के लिए कई दिन लग गए थे। यह पहलू भी सामने आ गया था कि पति-पत्नी की प्रेम की डोर कैसे और किन कारणों से कमजोर होती जा रही है।
एक बार अमृता के घर जाते समय अचानक गाय सामने आ गई थी और मेरे थोड़ी चोट लगी देख कर अमृता ने एकदम रूई से सारी सफाई की थी, उससे मैं अंदर तक भीग गया था लेकिन यह सोच कर हैरान था कि आखिर पति-पत्नी के बीच कहां से और कैसे दूरियां शुरू होती हैं और इन दूरियों को पाटने की बजाय खामोशी से इन्हें बढ़ते हुए क्यों देखते रहते हैं? इससे बेकार की चर्चाएं जन्म लेती हैं और इन चर्चाओं से व्यक्ति व व्यक्तित्व अफवाओं के धुएं के घेरे में सिमटता जाता है और लोगों का कहना है कि धुआं वहीं होता है, जहां आग होती है।
अब देखो न अमृता ने अपने एक सहयोगी को कार चलाना सिखाना क्या शुरू किया था कि बातें बननी शुरू हो गईं। यहां तक कि उस समय विश्वविद्यालय के उच्च पद पर बैठे अधिकारी भी अमुक की गर्लफे्रंड कह कर अमृता की बात करने लगे थे पर वह बेफिक्र थी, पूरी तरह। उसके बाल हवा में लहराते रहते, वह यह सब सुन कर बालों की तरह बातों को हवा में लहरा देती। इससे क्या होता है? मैं सिखाती हूं तो किसी को क्या है? यह मेरी जिंदगी है, मुझे इसे जीने का पूरा हक है, किसी को इससे क्या?
इस बेफिक्री के पीछे कहीं यह उम्मीद कायम थी कि उसके पति को इसी विश्वविद्यालय में अच्छा पद मिल जाएगा और वे दोनों इसके लिए पूरी कोशिश में लगे थे। उच्च अधिकारी भी सपने दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे थे। आखिरकार साक्षात्कार रखा गया और अमृता की उम्मीदें आसमान छूने लगीं। उसे लगा कि अब बच्चों को उनके पिता का सहारा और साथ मिल जाएगा। ऐन आखिरी मौके पर यह साक्षात्कार जब रद्द कर दिया गया तब पहली बार अमृता टूट गई और बुरी तरह रो दी, आंसू कि बरबस आ रहे थे। उसके सपने बिखर गए थे। तब भी लगा कि वह पूरे मन से परिवार के प्रति समर्पित है और कहीं से भी उन चर्चाओं व अफवाहों वाली अमृता नहीं है, पर लोगो की जुबान को कौन रोक सका है?
आखिर एक दिन अमृता चली गई। अचानक। किसी और शहर में। जाने से पहले मुलाकात हुई। विदाई सोचकर कांप गया मैं भी। यों शहर और दुनिया बहुत छोटी हो चुकी है, फिर भी विदाई तो विदाई होती है।
क्यों? क्यों जा रही हो इस शहर और इस बसी बसाई दुनिया को छोड़ कर? उसकी मासूम आंखें कुछ देर मेरी ओर ताकती रही। मैं भी खामोशी से जवाब का इंतजार करता रहा। अमृता ने इतना ही कहा कि मैं या आप अपने तरीके से जी सकें, ऐसा मुश्किल है। सीधे-सादे रास्ते में भी कई जगह स्पीड ब्रेकर आ जाते हैं। चर्चाओं को बल मिलता है और वे दूर तलक जाती है। छोटी-छोटी बातें धीरे-धीरे बड़ा रूप ले लेती हैं। मेरी बच्चियां उसी सहयोगी के बच्चों के साथ खेला करती थीं।
एक दिन मेरी बच्ची ने पूछा-मम्मी, उनके पापा आपके फ्रेंड लगते हैं। क्यों, किसने कहा? कॉलोनी में सब बच्चे हमें छेड़ रहे हैं। बस, मैंने समझ लिया कि यह आम रास्ता नहीं है। इसलिए जा रही हूं। नई जगह नया जीवन और नया रास्ता खोजने का प्रयास करूंगी, नई हवा में सांस ले सकूंगी। उसने विदा के लिए हाथ मिलाया। पर उसके फैसले से मैं हिल कर रह गया। एक सवाल भी हवा में उछल गया कि क्या सारी शिक्षा व आधुनिकता के बावजूद औरत को कितनी लक्ष्मण रेखाओं का सामना करना पड़ता है और यह कब तक होता रहेगा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा- “विकल्प”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 116 ☆
☆ लघुकथा- विकल्प ☆
दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर माँ की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूँ धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहाँ हैं।”
” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।”
“अब सारे गेहूँ गीले हो रहे हैं।”
” तो मैं क्या करूँ?” बेटी खीज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोंट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”
” तूझ से बहस करना ही बेकार है,” माँ जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”
” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूँ गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूँ धो कर मत सूखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया।
मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा- डर
पिता की खाँसी की आवाज़ सुनकर उसने रेडिओ की आवाज़ बेहद धीमी कर दी। उन दिनों संयुक्त परिवार थे, पुरुष खाँस कर ही भीतर आते ताकि महिलाओं को सूचना मिल जाए।…”संतोष की माँ, ये तुम्हारे लल्ला को बताय देना कि वो आज के बाद उस रघुवंस के आवारा छोकरे के साथ दीख गया तो टाँग तोड़कर घर बिठाय देंगे, कौनो पढ़ाई-वढ़ाई नाय, सब बंद कर देंगे’…. वह मन मसोस कर रह गया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा कि सत्रह बरस का तो हो लिया, अब और कितना बड़ा होना पड़ेगा कि पिता से डरना न पड़े।.. “शायद बेटे का जन्म बाप से डरने के लिए ही होता है” – वह मन ही मन बड़बड़ाया और औंधे होकर सो गया।
आज उसका अपना बेटा पंद्रह बरस का हो चुका। बेहद ज़िद्दी! कल-से उसने घर में कोहराम मचा रखा था। उसे अपने जन्मदिन पर मोटरसाइकिल चाहिए थी और अभी तो उसकी आयु लाइसेंस लेने की भी नहीं हुई थी। ऊपर से शहर का ये विकराल ट्रैैफिक, उसने सोच लिया था कि अबकी बार बेटे की ये ज़िद्द पूरी नहीं करेगा।…”मॉम, डैड को साफ-साफ बता देना, नेक्स्ट वीक मेरे बर्थडे से एक दिन पहले तक बाइक नहीं आई न, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा.. और हाँ, कभी वापस नहीं आऊँँगा।”… उसने बेटे की माँ के हाथ में बाइक के लिए चेक दे दिया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा-…”शायद बाप का जन्म बेटे से डरने के लिए ही होता है”- और वह सीधा होकर पीठ के बल सो गया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆