हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – निर्वासन।)

☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर से एक पक्षी अपने पुराने कुनबे से मिलने जंगल पहुँचा। जंगल ने बाँहें फैलाकर उसका स्वागत किया। सब पक्षी शहर और शहर में बीत रही उसकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहते थे। वे तरह-तरह के प्रश्न पूछ रहे थे। शहर के पक्षी को कुछ प्रश्न समझ में आए, कुछ नहीं। उसने कहा, “तुम सब इतना धीरे क्यों बोल रहे हो, कोई ख़तरा है क्या?”

“हम सब तो वैसे ही बोल रहे हैं, जैसे हमेशा से बोलते आए हैं। तुम काफ़ी ऊँचा बोल रहे हो, आवाज़ भी कर्कश हो गई है, शायद सुनने भी ऊँचा लगे हो।” एक पक्षी ने कहा।

“शायद तुम ही सही हो। शहर में इतना शोर है कि ऊँचा बोलना ही पड़ता है। मुझे लगता है कि ऊँचा बोलते-बोलते ऊँचा बोलना मेरा स्वभाव हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। हो सकता है, ऊँचा सुनने भी लगा होऊँ। और मेरी आवाज़ की कर्कशता तो मैंने भी महसूस की है।”

“बच्चे कैसे हैं तुम्हारे, क्या करते हैं?” दूसरे पक्षी ने पूछा।

“मुझे नहीं मालूम क्या करते हैं। सुबह होते ही पता नहीं कहाँ उड़ जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं। मैं तो जब भी उन्हें देखता-सुनता हूँ, हमेशा उड़ान की बातें करते पाता हूँ। पता है क्या कहते हैं वे? जंगल का आसमान बहुत नीचा है और शहर का बहुत ऊँचा। हमें बहुत ऊँची उड़ान भरनी है।”

“ऐसा? चलो अच्छा है, अपने मन का कर रहे हैं। और तो सब ठीक है न! कोई जोखिम वगैरह तो नहीं है?”

“क़दम-क़दम पर जोखिम हैं। बिजली के तारों का डर, किसी गाड़ी के नीचे कुचले जाने का डर, किसी बिल्ली, कुत्ते का भोजन बन जाने का डर! हर पल ख़तरे में गुज़रता है।”

“फिर तो अपना जंगल ही ठीक।” उस पक्षी ने लंबी साँस ली।

“जंगल भी अब कहाँ सुरक्षित हैं? आँधी-बारिश और बहेलियों का डर तो हमेशा रहता था। अब जिस तेज़ी से जंगल कट रहे हैं, रहने के लिए सुरक्षित जगहें लगातार कम होती जा रही हैं। खाने का भी संकट पैदा होने लगा है।” एक पक्षी ने उस पक्षी की बात का विरोध करते हुए कहा।

“अब हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन बस एक तसल्ली है कि कितनी ही बड़ी मुसीबत आए, हम मिलकर मुक़ाबला करते हैं। एक साथ मिलकर उड़ते हैं, एक साथ मिलकर गाते हैं, एक साथ तारों भरा आसमान देखते हैं।” एक और पक्षी ने कहा।

“एक साथ मिलकर रहना, एक साथ मुसीबत का सामना करना, एक दूसरे के दर्द को महसूस करना, एक साथ उड़ना और गाना- ये छोटी बातें नहीं हैं दोस्तो! यही तो असली जीवन है। शहर में यही सब तो नहीं है, हर कोई अकेला है वहाँ – दुख में भी, सुख में भी।” शहरी पक्षी ने जब यह कहा तो उसके स्वर की नमी से सारे पक्षी संजीदा हो आए। थोड़ी देर एक स्तब्ध चुप्पी पसरी रही, फिर एक पक्षी ने उससे कहा, “तुम अपने जंगल में वापस क्यों नहीं आ जाते?”

“जो अपना निर्वासन ख़ुद चुनते हैं, उनका लौट पाना संभव नहीं होता।” शहरी पक्षी के इस कथन के बाद पसरी चुप्पी फिर नहीं टूटी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 95 ☆ वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय लघुकथा वाह रे इंसान !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 95 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा  का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात  घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं।

एक झोपड़ी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपड़ी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील–बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।     

लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री। जिसने उसकी झोपड़ी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढ़ी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे? जमींदार ने लज्जित होकर बूढ़ी स्त्री को उसकी झोपड़ी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह-जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान-पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से मेरे नाम की जय- जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला – यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तीन लघुकथाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – तीन लघुकथाएँ  ??

[1]

जादूगर

जादूगर की जान का रहस्य, अब रहस्य न रहा। उधर उसने तोते को पकड़ा, इधर जादूगर छटपटाने लगा।…..देर तक छटपटाया मैं, जब तक मेरी कलम लौटकर मेरे हाथों में न आ गई।

[2]

अहम् ब्रह्मास्मि!

अहम् ब्रह्मास्मि..!…सुनकर अच्छा लगता है न!…मैं ब्रह्म हूँ।….ब्रह्म मुझमें ही अंतर्भूत है।
….ब्रह्म सब देखता है, ब्रह्म सब जानता है।

अपने आचरण को देख रहे हो न?…अपने आचरण को जान रहे हो न?

बस इतना ही कहना था..!

[3]

नो एडमिशन

‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 145 ☆ लघुकथा – भुट्टे का मजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “भुट्टे का मजा”।)  

☆ कथा कहानी # 145 ☆ लघुकथा – भुट्टे का मजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हम दस बारह बुड्ढे पार्क में रोज मिलते हैं, बैठकर बतियाने की आदत है। कभी अच्छे दिन पर चर्चा चलती है, कभी मंहगाई पर, तो कभी महिलाओं के व्यवहार पर। दो चार बुड्ढे पुराने पियक्कड़ हैं, दारू की बात पर अचानक जवान हो जाते हैं, दो तीन बुड्ढे पत्नी पीड़ित हैं, और एक दो को भूलने की बीमारी है,दो तीन मोदी के अंधभक्त हैं। एक दो तो ऐसे हैं कि मोतियाबिंद के आपरेशन करा चुके हैं पर पार्क में आंख सेंकने आते हैं।

बैठे ठाले एक दिन बुड्ढों ने भुट्टे खाने का प्रोग्राम बना लिया।पाठक दादा ने आफर दिया भुट्टे हम अपने अंगने में भूनकर सबको खिलायेंगे। मुकेश और बसंत बुड्ढों ने कहा कि पड़ाव से हम दोनों देशी भुट्टे छांटकर लायेंगे।महेश को देखकर सबको गलतफहमी होती थी कि ये आधा जवान और आधा बुड्ढा सा लगता है,आंख सेंकने से आई टानिक मिलता है, पर विश्वास करता है। हृदय डुकर को नींबू और नमक लाने का काम दिया गया।

हम और बल्लू भैया फंस गए,हम लोगन से कहा गया कि आप लोग शहर से कोयला ढूंढ कर लायेंगे। बड़े शहर में कोयले की दुकान खोजना बहुत कठिन काम है, दो किलो कोयला लेने के लिए दुकान खोजने में तीन लीटर पेट्रोल खर्च होता है तीन लीटर पेट्रोल मतलब तीन सौ रुपए से ऊपर। हम लोग कोयले की दुकान ढूंढने निकले तो दो बार कार के चके पंचर हो गये, क्यों न पंचर हों, हमारी स्मार्ट सिटी में गड्ढों में सड़क ढूंढनी पड़ती है। जब दुकान ढूंढते ढूंढते परेशान हो गए तो बल्लू भैया ने कहा अगले मोड़ पर एक भुट्टे बेचने वाले से पूछते हैं कि कोयला कहां मिलेगा, जब मोड़ पर भुट्टे वाले से पूछा तो उसने बताया कि यहां से दस पन्द्रह किलोमीटर दूर एक श्मशान के सामने एक टाल है वहां कोशिश करिए, शायद मिल जाय। हम लोग कोयला ढूंढते ढूंढते थक गए थे तीन लीटर पेट्रोल खतम हो चुका था, उसकी बात सुनकर थोड़ी राहत हुई। पाठक और बसंत डुकरा तेज तर्रार स्वाभाव के थे उनकी डांट से डर लगता था, इसलिए हम दोनों भी डरे हुए थे कि कहीं कोयला नहीं मिला तो क्या होगा,पर अभी अभी भुट्टे बेचने वाले की बात से थोड़ा सुकून मिला। हम दोनों तेज रफ्तार से उस श्मशान के पास वाले टाल को ढूंढने चल पड़े। रास्ते में बल्लू भैया बोले -अरे एक ठो भुट्टा खाना है और इतना नाटक न्यौरा क्यों। एक घंटा बाद हम लोग श्मशान के पास वाले टाल में खड़े थे और कोयले का मोल भाव कर रहे थे, दुकान वाला भुनभुनाया.. कहने लगा -दो किलो कोयला लेना है और दो घंटे से मोलभाव कर रहे हैं, बल्लू हाथ जोड़कर बोला – भैया सठियाने के बाद ऐसेई होता है।

दुकान वाले ने पूछा – इतने दूर से आये हो तो दो किलो कोयले से क्या करोगे ? दुकानदार की बात सुनकर हमने पूरी रामकहानी सुना दी। ईमानदारी से हमारी बात सुनकर दुकानदार को हम लोगों पर दया आ गई बोला – दादा आप लोगों से झूठ बोलने का नईं…. आजकल कोयला कहां मिलता है, हमारे पास जो थोड़ा बहुत कोयले जैसे आता है वह वास्तव में श्मशान से आता है, कुछ बच्चे जिनको दारू की लत लगी है वे जली लाश के आजू बाजू का कोयला बीनकर लाते हैं और सस्ते में यहां बेच जाते हैं और दारू पी लेते हैं। हां कुछ भुट्टे बेचने वाले यहां से ये वाला कोयला आकर खरीद लेते हैं और भुट्टे भूंजकर अपना पेट पालते हैं, क्या करियेगा मंहगाई भी तो गजब की है।आप लोग अपने घर में भुट्टा भूंजकर भुट्टे खाने का आनंद लेना चाहते हैं तो मेरी सलाह है कि ये कोयला मत लो ….

हम दोनों ठगे से खड़े रह गए, समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। बसंत बुड्ढे का फोन आ रहा था कि इतना देर क्यों लगा रहे हो ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ दुखवा मैं कासे कहूँ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ “दुखवा मैं कासे कहूँ…”  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

घर के निरीह बूढ़े प्राणी की अंतिम सांसें चल रही थीं पर उसके प्राण कुछ कहने के लिए तड़प रहे थे। आंखों की पुतलियां बेचैनी में बार बार धरती को, आसमान को ताके जा रही थीं। होंठ थे कि कुछ कहने के लिए खुलते पर फिर कसमसा कर बंद हो जाते थे।

परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्य उनकी चारपाई के इर्द गिर्द घेरा डाले हुए खड़े थे। आखिर उनके प्यारे पोते से उनकी हालत देखी न गयी, आंसुओं से बाबा के पांव को नम करने के बाद, माथा टिकाते कहा- कहिए न बाबा। आप जो कहना चाहते हैं ताकि आपकी आत्मा को मुक्ति मिले।

बाबा ने कोशिश करके मुंदी आंखें खोलीं, फिर परिवारजनों को निहारा और धीमे सुर में कहना शुरू किया -मेरे बच्चो। मेरा जन्म उस पंजाब में हुआ, जिसमें अमृतसर और लाहौर एक दूसरे की ओर पीठ करके नहीं बैठते थे बल्कि एक दूसरे के गले मिलते थे… हाय… फिर इनका बिछुड़ना भी इन आंखों ने देखा। कैसे कहूँ?

-कहिए न बाबा…

– मेरे बच्चो। मेरी जवानी उस पंजाब के खेतों को हरा भरा करने में निकल गयी जिसे इंसानी लहू से सींचा क्या था। आह… कैसे कहूँ…? कैसा भयानक दौर आया। बंटवारे की धुंधली तस्वीर फिर सामने आ खड़ी हुई। और तुम मुझे पंजाब की अनजान धरती पर ले आए। अब…

-दुख कहो न बाबा…

-अब उस धरती पर अपने प्राण त्याग रहा हूं जहां मैंने न जन्म लिया, बचपन बिताया, न जवानी भोगी…तुम लोगों ने मेरा बुढ़ापा खराब कर दिया। हे भगवान्…। कुछ और मंज़र दिखाने से पहले इस धरती से मुझे उठा ले… उठा ले…

इतना कहते कहते बाबा की गर्दन एक तरफ लुढ़क गयी… एक प्रश्नचिन्ह बनाती हुई…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 97 – देने की नीति… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #97 🌻 देने की नीति… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

कड़ाके की ठंड पड़ी। पृथ्वी पर रेंगने वाले कीटक उससे सिकुड़ कर मरने लगे। वन्य प्राणियों के लिए आहार की समस्या उत्पन्न हो गई। लोग शीत निवारण के लिए जलावन ढूंढ़ने निकले। सब के शरीर अकड़ रहे थे तो भी कष्ट निवारण का उपाय किसी से बन नहीं पड़ रहा था।

वृक्ष से यह सब देखा न गया। इन कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए उसे कुछ तो करना ही चाहिए। पर करें भी तो क्या। उसके पास न बुद्धि थी, न पुरुषार्थ, न धन और न अवसर।

फिर भी वह सोचता ही रहा- क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? भला ऐसा कैसे होगा? सर्वथा साधन हीन तो इस सृष्टि में एक कण भी नहीं रचा गया है? गहराई से विचार किया तो लगा कि वह भी साधनहीन नहीं है। पत्र-पल्लवों की प्रचुर संपदा प्रकृति ने उसे उन्मुक्त हाथों से प्रदान की है। वृक्ष ने संतोष की साँस ली। पुलकन उसके रोम-रोम में दौड़ गई।

वृक्ष ने अपने सारे पत्ते जमीन पर गिरा दिए। रेंगने वालों ने आश्रय पाया, पशुओं को आहार मिला, जलावन को समेट कर मनुष्यों ने आग तापी और जो रहा बचा सो खाद के गड्ढे में डाल दिया। दुम हिलाते रंग बदलते गिरगिट अपनी कोतर से निकला और वृक्ष से पूछने लगा- अपनी शोभा सम्पदा गँवाकर तुम ढूँठ बन गये। इस मूर्खता में आखिर क्या पाया?

वृक्ष गिरगिट को निहारता भर रहा पर उत्तर कुछ नहीं दिया। कुछ समय उपरान्त बसन्त आया। उसने ढूँठ बनकर खड़े हुए वृक्ष को दुलारा और पुराने पके पत्तों के स्थान पर नई कोपलों से उसका अंग प्रत्यंग सजा दिया। यह तो उसके दान का प्रतिदान था। अभी उपहार का अनुदान शेष था सो भी बसन्त ने नये बसंती फूलों से मधुर फलों से लाद कर पूरा कर दिया। वृक्ष गौरवान्वित था और सन्तुष्ट भी।

गिरगिट फिर एक दिन उधर से गुजरा। वृक्ष पहले से अधिक सम्पन्न था। उसने देने की नीति अपना कर खोया कम और पाया ज्यादा यह उसने प्रत्यक्ष देखा।

पूर्व व्यंग की निरर्थकता का उसे अब आभास हुआ सो लज्जा से लाल पीला होता हुआ वह फिर अपने पुराने कोंतर में वापिस लौट गया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बारिश ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

सुश्री रुचिता तुषार नीमा

(युवा साहित्यकार सुश्री रुचिता तुषार नीमा जी द्वारा आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा बारिश।) 

☆ लघुकथा – बारिश ☆ सुश्री रुचिता तुषार नीमा ☆

आज आसमान पर बादल छाए थे, मानसून का आगमन हो चुका था। सभी को खुशी थी कि अब इस तपती गर्मी से निजाद मिलेगी। लेकिन शोभा ताई अपनी झोपड़ी में बैठे बैठे ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि पहली बारिश के बाद ही झोपड़े में पानी भर जाएगा, फिर अपने छोटे छोटे बच्चों को लेकर कहा जायेगी।

हे ईश्वर! जब तक कहीं रहने का इंतजाम न हो,तब तक कैसे भी करके बादलों को बरसने से रोक लो।

तभी नगर पालिका की गाड़ी बस्ती के बाहर आकर रूकी, कि पूरी बारिश में बस्ती के लोगों के रहने के लिए सरकार ने पुराने स्कूल में व्यवस्था की है। सब लोग अपना काम का सामान लेकर उधर रहने जा सकते हैं।

तभी बादल बरसने लगे और अब शोभा ताई भी बारिश में खुशी से झूम रही थी।

© सुश्री रुचिता तुषार नीमा

इंदौर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #116 – स्वप्न…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 116 – स्वप्न…! ☆

पावसात भिजताना “तिला”

आठवणारा मी

आज माझ्या फुटपाथ वरच्या झोपडीची

तारांबळ बघत होतो

आणि…

पावसाचं पाणी झोपडीत येऊ नये म्हणून

माझ्या माऊलीची चाललेली धडपड

नजरेत साठवत होतो

इतक करूनही..झोपडीत

निथळणार पाणी थेट तिच्या

काळजाला भिडत होत

आणि…

काय कराव या विचारानेच

तिच्या डोळ्यात पाणी कसं

अगदी सहज दाटत होत

कुटुंबातली लेकरं

अर्ध्या-मुर्ध्या कपड्यावर

मनसोक्त भिजत होती

माझी माय मात्र

आपल्या तुटपुंज्या संसाराची

स्वप्ने आवरत होती

तिची स्वप्ने म्हणजे तरी

काय असणार?

एका बंद पेटीत कोंडलेली चार दोन भांडी

आणि संसारा प्रमाणे फाटलेली

बोचक्यात बांधुन ठेवलेली काही लुगडी

फुटपाथ वरच्या संसारात

असतच काय खरतर

आवरायला कमी आणि सावरायला जास्त

कुठेही गेल की

चुल तेवढी बदलत जाते आणि..

फिरता संसार घेऊन फिरणार्‍या

माझ्या माऊलीची स्वप्न मात्र

ती बंद पेटीच पहात असते…!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – मोनू मिल गया ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “मोनू मिल गया )

☆ लघुकथा – मोनू मिल गया ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“यह देखो विशाल, यह वही बच्चा नहीं है, जिसकी कल के स्थानीय अखबार में शाम को गुमशुदा होने की खबर छपी थी?” पत्नी वीणा ने आज का अखबार मेरे आगे करते हुए कहा।

मैंने गौर से देखा, “हां, लग तो वही रहा है।”

“मैं अभी कल वाला अखबार लाती हूं”, वह गई और तुरंत ढूंढ कर ले आई, “यह देखो विशाल, वही बच्चा है।”

“हां, वही है”, मैंने लापरवाही से कहा, “आज के समाचार में लिखा है कि बच्चा मिल गया है और कुलदीप नगर चौकी में है। वहीं कुलदीप नगर के पास से मिला है। पता नहीं कैसे चला गया वहां? कल के अखबार में लिखा था कि पीतमपुरा कॉलोनी के पास की झुग्गियों में रहता है, जो यहां से काफी दूर है।”

“चलो छोड़ो, यह कल की खबर में ही उसके घर का फोन नंबर दिया हुआ है। एक काम करो, जल्दी से फोन लगाकर उसके घर वालों को सूचित कर दो।” वीणा ने बेसब्री से कहा।

“कमाल करती हो तुम भी”, मुझे यह पागलपन सा लगा, “अखबार में उसके मिलने की खबर छप चुकी है। उसके घर वालों को पता नहीं कब का पता चल चुका होगा। छोड़ो तुम…।”

“एक बार करने में हर्ज ही क्या है? क्या पता, पता न चला हो?” वीणा ने फिर आग्रह किया, “वैसे भी वह झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग हैं, पढ़े लिखे या पैसे वाले नहीं, जो किसी भी तरह पता लगा लेंगे। पता नहीं उन पर क्या बीत रही होगी, खासकर मां पर। तुम्हें मेरी कसम, एक बार फोन करो तो सही, प्लीज।”

मैंने हथियार डालते हुए कहा, “चलो ठीक है, मैं करता हूं, देना फोन।”

जैसे ही उधर से आवाज आई, मैंने पूछा, “आपका बच्चा गुम हुआ था, मिल गया क्या?”

“नहीं जी, आपको कुछ पता है?” एक उत्सुक और बेचैन-सी आवाज थी।

“जी हां, अभी अखबार में पढ़ा। आपका बच्चा कुलदीप नगर चौकी में है। आप ले आएं जाकर।” मैंने संक्षेप में कहा।

“जी, जी जी”, उसने धन्यवाद भरे स्वर में कहा।

फोन रखते-रखते में मुझे जोर की खुशी भरी पुकार सुनाई दी, “मोनू की मां, मोनू की मां, सुनो, मोनू मिल गया, मोनू मिल गया…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – नींद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – नींद ??

आँखों में गहरी नींद बसती थी। फिर नींद में अबोध सपनों ने दख़ल दिया। आगे सपने वयस्क हो चले। वयस्कता भी कब तक टिकती! जल्दी ही सपनों से मन उचाट हो गया और चिंताओं से नींद प्रायः उचटने लगी। समय के साथ चिंताएँ भी रूप बदलती गईं और आँखों में खालीपन भरने लगा। खालीपन के चलते नींद लगभग बेदख़ल हो गई। दिन फिरे और बेदख़ल नींद शनैः-शनैः उल्टे पाँव लौटने लगी। रात में कम, दिन में अधिक आधिपत्य जमाने लगी। फिर एक दिन, रात-दिन की परिधि को समेटकर नींद, आँखों के साथ पूरी देह में गहरे उतर गई। समय साक्षी है, यह नींद इतनी गहरी थी कि फिर कभी नहीं खुली।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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