हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 129 – लघुकथा – लेटर बॉक्स ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “लेटर बॉक्स”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 129 ☆

☆ लघुकथा – लेटर बॉक्स

शहर का एक मोड़, चौराहे से हटकर एक पेड़ के नीचे लाल रंग का खड़ा लेटर बॉक्स, अपनी कहानी कह रहा था। लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग रामाधार रोज घर से निकलकर लाठी का सहारा लिए चलते – चलते वहां आते थे।

डाकिया बाबू का इंतजार करते हुए बैठे मिलते थे। प्रतिदिन की तरह केवल सरकारी ऑफिस के काम निपटाने वाली कागज और कुछ कार्ड निकलते थे। जिन्हें डाकिया बाबू लेकर चला जाता।

रामाधार को रोज बैठा देख उन्हें पूछा करते… “दादा किसकी चिट्ठी का इंतजार करते हो।” दादा रामाधार हंस कर कहते…. “मेरा बेटा बरसों से विदेश में है वहां से वह चिट्ठियां लिखेगा। उनका इंतजार करता हूं। कभी-कभी उसकी चिट्ठी आ जाती है। मैं रोज देखने आता हूं कि शायद आज आया होगा।”

डाकिया बाबू ने कहा…” दादा अब यह ‘लेटर बॉक्स’ सरकारी जैसा हो गया है। इसमें अब काम की चिट्ठियां कोई नहीं डालता। जमाना बदल गया है। कम से कम अब पारिवारिक चिट्ठियां तो कभी नहीं आती है।”

रामाधार को कान से कम सुनाई देता था। वह भी… “सरकारी नौकरी में ही गया है।” डाकिया बाबू को उन्होंने जवाब दिया। डाकिया बाबू अपना काम कर, लेटर बॉक्स बॉक्स बंद किए और चले जाते थे।

आज फिर निश्चित समय पर रामाधार वहां पर बैठे थे। उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। डाकिया बाबू आए। खुश होकर उन्होंने कहा… “आज से साल भर पहले यह कार्ड आया था। आज ही के दिन।”

“आज मेरी चिट्ठी जरूर आएगी।” डाकिया बाबू ने देखा उनके हाथ में हैप्पी फादर डे का कार्ड अंग्रेजी के शब्दों में छपा लिखा था। डाकिया बाबू ने पत्रों को इकट्ठा किया। रामाधार जी की दो चिट्ठियां आई थी।

खुशी से झूम उठे। डाकिया बाबू से पढ़ने को कहा डाकिया बाबू ने पत्र पढ़ा….” मेरा तबादला कहीं और हो गया है पिताजी। अब मैं आपको पत्र नहीं लिख पाऊंगा। अपना ख्याल रखना।”

वह दोनों चिट्ठियों को लेकर घर की ओर चल पड़ा। एक चिट्ठी डाकिया बाबू को भी मिली। वह वहां पर पढ़ने लगे…. सरकारी आदेश था ‘यहां से लेटर बॉक्स को तुरंत हटा दिया जाए कहीं और सरकारी ऑफिस में रखवा दिया जाए।’

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 96 – कर्मो का लेखा जोखा… ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #96 🌻 कर्मो का लेखा जोखा… 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक महिला बहुत ही धार्मिक थी ओर उसने ने नाम दान भी लिया हुआ था और बहुत ज्यादा भजन सिमरन और सेवा भी करती थी किसी को कभी गलत न बोलना, सब से प्रेम से मिलकर रहना उस की आदत बन चुकी थी. वो सिर्फ एक चीज़ से दुखी थी के उस का आदमी उस को रोज़ किसी न किसी बात पर लड़ाई झगड़ा करता। उस आदमी ने उसे कई बार इतना मारा की उस की हड्डी भी टूट गई थी। लेकिन उस आदमी का रोज़ का काम था। झगडा करना। उस महिला ने अपने गुरु महाराज जी से अरज की हे गुरुदेव मेरे से कौन सी भूल हो गई है। मै सत्संग भी जाती हूँ सेवा भी करती हूँ। भजन सिमरन भी आप के हुक्म के अनुसार करती हूँ। लेकिन मेरा आदमी मुझे रोज़ मारता है। मै क्या करूँ।

गुरु महाराज जी ने कहा क्या वो तुझे रोटी देता है महिला ने कहा हाँ जी देता है। गुरु महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। कोई बात नहीं। उस महिला ने सोचा अब शायद गुरु की कोई दया मेहर हो जाए और वो उस को मारना पीटना छोड़ दे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस की तो आदत बन गई ही रोज़ अपनी घरवाली की पिटाई करना। कुछ साल और निकल गए उस ने फिर महाराज जी से कहा की मेरा आदमी मुजे रोज़ पीटता है। मेरा कसूर क्या है। गुरु महाराज जी ने फिर कहा क्या वो तुम्हे रोटी देता है। उस महिला ने कहा हांजी देता है। तो महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। तुम अपने घर जाओ। महिला बहुत निराश हुई के महाराज जी ने कहा ठीक है।

वो घर आ गई लेकिन उस के पति के स्वभाव वैसे का वैसा रहा रोज़ उस ने लड़ाई झगडा करना। वो महिला बहुत तंग आ गई। कुछ एक साल गुज़रे फिर गुरु महाराज जी के पास गई के वो मुझे अभी भी मारता है। मेरी हाथ की हड्डी भी टूट गई है। मेरा कसूर क्या है। मै सेवा भी करती हूँ। सिमरन भी करती हूँ फिर भी मुझे जिंदगी में सुख क्यों नहीं मिल रहा। गुरु महाराज जी ने फिर कहा वो तुजे रोटी देता है। उस ने कहा हांजी देता है। महाराज जी ने कहा फिर ठीक है। परन्तु इस बार वो महिला जोर जोर से रोने लगी और बोली की महाराज जी मुझे मेरा कसूर तो बता दो मैंने कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है।

महाराज कुछ देर शांत हुए और फिर बोले बेटी तेरा पति पिछले जन्म में तेरा बेटा था। तू उस की सोतेली माँ थी। तू रोज़ उस को सुबह शाम मारती रहती थी। और उस को कई कई दिन तक भूखा रखती थी। शुक्र मना के इस जन्म में वो तुझे रोटी तो दे रहा है। ये बात सुन कर महिला एक दम चुप हो गई। गुरु महाराज जी ने कहा बेटा जो कर्म तुमने किए है उस का भुगतान तो तुम्हें अवश्य करना ही पड़ेगा फिर उस महिला ने कभी महाराज से शिकायत नहीं की क्योंकि वो सच को जान गई थी।

इसलिए हमे भी कभी किसी का बुरा नहीं करना चाहिए सब से प्रेम प्यार के साथ रहना चाहिए। हमारी जिन्दगी में जो कुछ भी हो रहा है सब हमारे कर्मो का लेखा जोखा है। जिस का हिसाब किताब तो हमे देना ही पड़ेगा।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ।)

☆ लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“आज तो बहुत मुश्किल से पहुँच पाई हूँ मैं तुम्हारे पास, एक निगोड़े पत्थर ने मेरा रास्ता रोक दिया था।” छोटी नदी ने बड़ी नदी में मिलते हुए कहा।

“कितनी कमज़ोर हो तुम! एक मामूली पत्थर तुम्हारा रास्ता रोक देता है। मुझे देखो, कोई पत्थर आए तो सही मेरे सामने, अपने बहाव में बहाकर ऐसी जगह छोड़ती हूँ, जहाँ वह ताउम्र धूप में जलता रहता है।” बड़ी नदी बोली।

“तंज़ मत करो बहन। देखो न, पूरी ताक़त से पत्थर से लड़ती हुई मैं तुम्हारे पास पहुँची हूँ, आधी-अधूरी ही सही।”

“आधी-अधूरी हो या पूरी – तुम न भी आओ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है मुझे? तुम से पहले बीसियों तुम जैसी छोटी और ओछी नदियाँ मुझमें मिलती हैं। हर रोज़ कोई न कोई नदी मुझे तुम जैसी ही व्यथा सुनाने लगती है। तंग आ चुकी हूँ मैं, कान पक गए हैं मेरे!”

“ऐसा न कहो। हमारा मिलन तो आत्माओं के मिलन जैसा है। कितना पवित्र उद्देश्य है इस मिलन का। हम सब मिलकर लाखों, करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती  हैं। इनमें कितने साधनहीन, लाचार और ग़रीब लोग शामिल हैं। नाम बेशक तुम्हारा ही होता है, पर सहयोग और समर्थन तो हमारा भी है।”

“हुँह, तुम्हारा सहयोग और समर्थन?”

“हाँ बहन। अपने उद्गम स्थल पर तो तुम हम जैसी ही हो। हम जैसी छोटी-छोटी नदियाँ तुम में मिलती जाती हैं और तुम बड़ी होती जाती हो।”

“ओह, तुम कहना यह चाहती हो कि मेरा वजूद तुम जैसी छोटी नदियों की वजह से है। तुम छोटी नदियों और छोटे लोगों की यही दिक़्क़त है। तुम समझते हो कि कोई बड़ा है तो तुम्हारी वजह से। सुनो, अगर तुम जैसी नदियों का विलय मुझमें नहीं होता तो अनदेखी रह जातीं तुम, साँप की तरह पत्थरों से लिपटी-लिपटी पत्थरों में ही खो जातीं। मेरी वजह से तुम सार्थक होती हो, तुम्हारी वजह से मैं नहीं।”

“इतना अहंकार अच्छा नहीं बहन। मुझे कोई श्रेय नहीं लेना, पर छोटी से छोटी चीज़ का भी मूल्य होता है। सृष्टि सबके सहयोग से ही क़ायम है।”

“अच्छा! तो ऐसा करो, वापस ले लो अपना सहयोग। देखूँ तो सृष्टि पर क्या असर होता है?”

छोटी नदियाँ विमुख हो गईं। अगले दिन से बड़ी नदी दुबली होने लगी। कुछ ही दिनों में नदी एक लंबे अधमरे साँप जैसी दिखने लगी, जिसके फन पर एक बड़ा पत्थर आ गिरा था और जिसकी आँखों में एक छटपटाती याचना ठहर गई थी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 94 ☆ जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘जब आवै संतोष धन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 94 ☆

☆ लघुकथा – जब आवै संतोष धन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

योग के एक सप्ताह के कोर्स का अंतिम दिन। गुरु जी का आदेश था कि आज सबको साथ बैठकर भोजन करना है और खाना  भी अपने घर से अपनी पसंद का ही  लाना है। सब बहुत खुश थे, ऐसा लग रहा था कि ना जाने कब से मन-  माफिक भोजन मिला ही नहीं। उसने पत्नी से अपनी मनपसंद चीजें बनवाईं। पत्नी ने छोटे- छोटे डिब्बों में बड़े करीने से अचार, चटनी, पापड़ से लेकर पति की पसंद की सब्जी, मिठाई सब चीजें रख दीं। योग की कक्षा में एक पेड़ के नीचे सबको गोलाकार बैठा दिया और कहा गया – ‘सब अपनी – अपनी थाली में अपना खाना परोस लें।‘  सबके सामने रखीं थालियां तरह – तरह के व्यंजनों से  सज गईं।  गुरु जी का आदेश हुआ – ‘ अब ये थालियां आगे बढ़ाई जाएंगी।‘  मतलब ? एक बेचैन साधक ने पूछा। गुरु जी मुस्कुराते हुए बोले – ‘अपनी थाली अपने आगेवाले व्यक्ति को देते जाइए। इस प्रकार थालियां गोलाकार तब तक घूमती रहेंगी जब तक मैं रुकने का आदेश नहीं देता।‘  हर किसी की थाली एक – दूसरे के हाथों से  होती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। किसी की आँखें अपनी मनपसंद थाली का पीछा कर रही थीं तो कोई अनेक व्यंजनोंवाली थाली पर नजर गढ़ाए बैठा था। पर थालियाँ तो आगे ही सरकती जा रही थीं ।  थोड़ी देर बाद गुरु जी ने कहा – रुको, अब जिसके हाथ में जो थाली है उसे अपने सामने रखो और भोजन शुरू करो।

 योग की कक्षा यहीं समाप्त होती है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #117 – बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय बालकथा –  “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 117 ☆

☆ बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

” आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ इतनी सी बात ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ “इतनी सी बात”  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

मैं धर्म संकट में फंस गया था।

क्या करूं, क्या न करूं ?

सौ सौ के नोट लूट के माल की तरह कुछ सोफे पर तो कुछ कालीन पर बिना बुलाये मेहमान की तरह बेकद्रे से पड़े हुए थे। इन्हें मेरे गांव का एक किसान यहां फेंक गया था। मेरे लाख मना करने के बावजूद वह नहीं माना था और जैसे उसकी खुशी कमरे में बरस गयी थी, नोटों के रूप में। वह नोटों की बरखा मेरे लिए नहीं, बल्कि उस अधिकारी के लिए थी जिसने मेरे कहने पर उस किसान का बरसों से अटका हुआ काम कर दिया था। उस अधिकारी से मेरी अच्छी जान पहचान थी। इसकी खबर मेरे गांव के किसान को जाने कहां से लग गयी थी और उसने मेरे यहां धरना दे दिया था कि मेरा काम करवाओ और यह आग्रह करना पड़ा कि इस गरीब की सुनवाई की जाये।

मैं समझता था कि मेरा काम खत्म हो गया पर, यह उस काम काज का एक हिस्सा मात्र या कहिए पार्ट वन था। अब इन फेंके गये नोटों का क्या करूं? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अधिकारी से मेरी अच्छी जान पहचान थी और उसने मेरे कहे का मान रख लिया था उसके बदले में नोट दिखाने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। किसी के अहसान को नोटों में बदल देने की कला में मैं एकदम कोरा था। मैं किस मुंह से जाओ, ऐसी बात कहूंगा ? वे क्या रुख अपनायेंगे? सारी पहचान एक तरफ फेंक, बेरुखी से कहीं घर से बाहर न कर दें ? पर  किसी के नाम की रकम को मैं अपने पास कैसे रख सकता था ? मुझे क्या हक था उन नोटों को अपनी जेब में रखने का? किसी अपराधी की तरह मैं मन ही मन अपने आपको कोस रहा था। क्रोध नहीं नोट उसे उठा ले जाने को कह दिया ? नहीं कह सके तो अब भुगतो।

सामने पड़े नोट नोट न लग कर मुझे भारी पत्थर लग रहे थे। मैंने भारी मन से नोटों को समेटा और अधिकारी के घर पहुंच गया। खुशी खुशी उन्होंने मेरा स्वागत् किया। पर मैं शर्म से नहा रहा था। अपने आप में सिमटा, सकुचाता जा रहा था। पल प्रतिपल यही गूंज रहा था कि कैसे कहूं ? किस मुंह से कहूं ? क्या सोचेंगे मेरे बारे में ?

शायद मेरी हड़बड़ाहट को अनुभवी अधिकारी की पैनी निगाहों ने भांप लिया था। और कारण पूछ ही लिया। मुझसे संभाला न जा रहा था नोटों का भार। और सारा किस्सा बयान कर कहा कि वह किसान ये नोट आपके लिए मेरे घर फेंक गया है। मैं समझ नहीं पा रहा कि इनका क्या करूं ? आपसे कैसे कहूं ?

अधिकारी ने जोरदार ठहाका लगाया और मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा – बस। इतनी सी बात ? और इतना बड़ा बोझ ? न मेरे भाई। फिक्र मत करो। जैसे वह किसान आपके यहां ये नोट फेंक गया है वैसे ही आप भी मेरे यहां फेंक दो। बस।

मैं कभी नोटों को और कभी अधिकारी को देख रहा था। नोट निकालने पर भी बोझ ज्यों का त्यों बना रहा। बना हुआ है आज तक।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – तिलिस्म ??

….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। महसूस होता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है। आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।

…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है। जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।

…..कितनी बार बुलाया है, बताओ न कब आओगे?

लेखक जानता था पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।

लेखक जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंदानुभूति का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के होने का।

लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म ही रहने दिया।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 38 – जन्मदिवस – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र संतोषी जी पर आधारित श्रृंखला “जन्मदिवस“।)   

☆ कथा कहानी # 38 – जन्मदिवस – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा में काम काज भले ही देर से शुरु हुआ था पर स्टाफ की द्रुतगति से काम निपटाने की क्षमता और कस्टमर्स के सहयोग ने समय की घड़ी को भी अंगूठा दिखा दिया था जिसमें उत्प्रेरक बनी मिठाइयों का स्वाद भी कम नहीं था. जब बैंक के सामान्य दिनों की तरह यह दिन भी अपने आखिरी ओवर की ओर बढ़ रहा था तो मुख्य प्रबंधक महोदय के निर्देशानुसार, परंपरा के विपरीत शाखा के मीटिंग हॉल में जन्मदिन मनाने की तैयारियां वहीं लोग कर रहे थे जो इंतजाम अली के नाम से जाने जाते थे हालांकि इस बार उनके वरिष्ठ याने संतोषी साहब उनके साथ नहीं थे. परंपरा और पार्टियां एक दूसरे को बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर देती हैं, उसी तरह जैसे क्रिकेट के बैट्समैन के शतक को लोग उसके अगले पिछले रिकॉर्ड को भूलकर इंज्वॉय करते हैं.

शाम को ठीक 5:30 बजे सभी लोग मीटिंग हॉल में आना शुरु कर चुके थे और जो पहले आ गये थे वे व्यवस्था की गुणवत्ता के निरीक्षण में लग चुके थे. चूंकि व्यवस्था बहुत विशालकाय नहीं थी तो सामान्य प्रयास में ही नियंत्रण में आ चुकी थी. ठीक 6बजे मुख्य प्रबंधक महोदय और संतोषी जी ने हॉल में एक साथ प्रवेश किया जो इस छोटे से आयोजन के लिये हर हाल में तैयार हो चुका था. शाखा के 20% “सदा लेटलतीफों” का इंतज़ार छोड़कर, बर्थडे केक और उस पर लगी कैंडल्स का “जन्मदिवस संस्कार” किया गया और केक के रसास्वादन का शुभारंभ संतोषी जी के मुखारविंद से हुआ जो कि होना ही था. इस रस्म में मुख्य प्रबंधक महोदय का उत्साह और सक्रियता प्रशंसनीय रही. सभी खुश थे क्योंकि संतोषी साहब से मिलकर लोग खुश हो ही जाते हैं, आप भी तो. नकारात्मकता से उनका न तो लेना देना था न ही कोई दूर का संबंध. बहरहाल शाखा में एक अच्छी परंपरा की शुरुआत हुई जो सहकर्मियों को पास आने का एक और अवसर प्रदान कर रही थी. यह सकारात्मकता का मिलन समारोह था जो संतोषी जी के सहज व्यक्तित्व से साकार हो रहा था.

शाखा की युवावाहिनी खुश तो थी पर बहुत व्यग्र भी, कारण स्पष्ट था कि ये लोग एक दिन में ही CAIIB के तीनों पार्ट क्लियर करना चाहते थे. पर संतोषी साहब ने उनको प्रेम से समझाया कि आज के इस दिन पर जो मेरे लिये विशिष्ट भी है, मेरे परिवार का भी आपके समान ही अधिकार है. तो इन सुनहरे पलों का एक भाग मुझे उनके साथ भी गुजारने दीजिए. बरस दर बरस बीतते बीतते ऐसा वक्त भी आता है जब बच्चे दूर होकर अपनी अपनी नई दुनियां में व्यस्त हो जाते हैं. बैंक की महफिलें भी साठ के पार उठ जाती हैं और रह जाते हैं पति और पत्नी. पति पत्नी का ये साथ भी सौभाग्य की शर्तो से बंधा होता है कि कौन किसका साथ कब तक निभाता है. तो ये जो वर्तमान है, वह मैं पूरी शिद्दत से जीना चाहता हूँ ताकि मन में कोई पछतावा न रहे.

हालांकि बाद में युवावाहिनी की डिमांड भी पूरी हुई पर उसका वर्णन अभी सोचना और लिखना बाकी है. इसलिए कृपया इंतजार करें, मजबूरी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 168 ☆ लघुकथा – इच्छा मृत्यु… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – इच्छा मृत्यु … ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 168 ☆

? लघुकथा – इच्छा मृत्यु … ?

राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे. किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो. अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली. पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.

किंतु, पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी. भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.

दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया. घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता, मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती. जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.

श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली. जटायु ने  अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं. भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 128 – लघुकथा – चुनावी कशमकश… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाती सशक्त लघुकथा  चुनावी कशमकश ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 128 ☆

☆ लघुकथा – चुनावी कशमकश

गाँव में चुनाव का माहौल बना हुआ था। घर- घर जाकर प्रत्याशी अपनी-अपनी योजना और लाभ का विवरण दे रहे थे।

चुनाव कार्यालय से लगा हुआ छोटा सा मकान जिसमें अपने माता-पिता के साथ रूपा रहती थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। चाह कर भी रूपा पढ़ाई नहीं कर सकी। लेकिन सिलाई का कोर्स पूरा कर पूरे घर का खर्च चलाती थी।

माँ बेचारी दिहाड़ी मजदूरी का काम करती थी और पिताजी पैर से लाचार होने के कारण ज्यादा कुछ नहीं कर पाते परंतु अपना स्वयं का खर्च किसी तरह काम करके निकाल लेते थे।

चुनाव के झंडे, बैनर सिलने के लिए रूपा को दिया गया। रूपा ने बहुत ही सुंदर सिलाई कर प्रत्याशी को देने के लिए कार्यालय पहुंची।

रूपा की सुंदरता और युवावस्था को देखते ही युवा प्रत्याशी की आह निकल गयी। उसे सहायता करने के लिए आश्वासन दिया।

सहज सरल रूपा विश्वास कर घर आ गई। शाम का समय बारिश का मौसम, बिजली का चमकना, और तेज गर्जन के साथ, पानी बरस रहा था। दरवाजे पर आहट हुई, रूपा ने हाथ में टार्च लिया और दरवाजे खोल कर देखने लगी।

युवा प्रत्याशी लगभग भींगा हुआ और हाथों में कुछ बैनर रूपा को देकर कहने लगा….. “इसे अभी अर्जेंट ही तैयार करना है।”

रूपा ने हाँ में सिर हिला कर दरवाजे से अंदर आने को कहा। अपने काम में लग गई।

सिगरेट का कश खींचते हुए प्रत्याशी जाने कब रूपा को मदहोश कर गया। समझ ना सकी। माता-पिता दूसरे कमरे में आराम कर रहे थें।

उन्हें लगा नेता जी बहुत अच्छे इंसान हैं, जो हमारी सहायता के लिए कपड़े लेकर आए हैं।

“अब मेरा क्या होगा?” …. रूपा ने प्रश्न किया? “चुनाव के बाद मैं तुम्हें अपना लूंगा। तुम किसी से चर्चा नहीं करना।”

“मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। मैं वचन देता हूं तुम्हें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने दूंगा।”

युवा प्रत्याशी चलता बना। रूपा कभी हाथ में ढेंर सारे नोट को देखती और कभी बैनर पर लिपटी अपने आप को।

आज  पाँच  साल बाद माता – पिता तो नहीं रहे। रूपा बैनर झंडे फिर से बना रही थीं। साथ में उसका छोटा सा बच्चा तोतली भाषा में ‘नेताजी जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares