पड़ोस के घर में दूर-दूर से जो परिचित आए उनमें से एक से घनिष्ठता बढ़ गई। बड़े इतने प्यार से दीदी दीदी करते रहे। मैंने सोचा कि अच्छे लोगों से हमेशा परिचय और जान पहचान होनी चाहिए। फोन पर बातचीत के द्वारा पूरे घर परिवार से एक आत्मीयता बंध गई। शादी का कार्ड मिला फोन पर मुझसे कहा गया, नहीं तुम्हें तो बड़ी बहन का दर्जा निभाना है।
मैं भी स्नेह की डोर से बँधी कड़ी गर्मी में राजस्थान जैसी जगह पर सभी के लिए बेशकीमती तोहफ़े और सामानों से लदी फदी पहुंची। आने जाने की टिकट, शादी की तैयारी का खर्च तो अलग था ही। वापस आते समय ₹1 भी मेरे हाथ पर नहीं रखा गया। कहा अरे आप तो बड़ी हैं, हम आपको क्या दें, यकायक मुझे महसूस हुआ कि वहां मेरे जैसी ही और भी बड़ी बहने मौजूद थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #89 अभिमान ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक राजा को यह अभिमान था कि – मैं ही राजा हूँ और सब जगत् का पालक हूँ, मनु आदि शास्त्रकारों के व्यर्थ विष्णु को गत् पालक कहकर शास्त्रों में घुसेड़ दिया है। एक बार एक संन्यासी शहर के बाहर एक पेड़ के नीचे जा बैठे। लोग उनकी शान्तिप्रद मीठी-मीठी बातें सुनने के लिए वहाँ जाने लगे। एक दिन राजा भी वहाँ गया और कहने लगा कि मैं ही सब लोगों का पालक हूँ।
यह सुनकर सन्त ने पूछा- तेरे राज्य में कितने कौए, कुत्ते और कीड़े हैं? राजा चुप हो गया। सन्त ने कहा- ’जब तू यही नहीं जानता तो उनको भोजन कैसे भेजता होगा? राजा ने लज्जित होकर कहा- ’तो क्या तेरे भगवान कीड़े-मकोड़े को भी भोजन देते हैं? यदि ऐसा है तो मैं एक कीड़े को डिबिया में बंद करके रखता हूं, कल देखूँगा भगवान इसे कैसे भोजन देते हैं?
दूसरे दिन राजा ने सन्त के पास आकर डिबिया खोली तो वह कीड़ा चावल का एक टुकड़ा बड़े प्रेम से खा रहा था। यह चावल डिबिया बन्द करते समय राजा के मस्तक से गिर पड़ा था। तब उस अभिमानी ने माना कि भगवान ही सबका पालक है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शत्रु।)
☆ लघुकथा – शत्रु ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
(कविता के ऐसे तमाम शत्रुओं से क्षमा सहित)
– एक कवि आपसे मिलने के लिए द्वार पर हाथ बाँधे खड़ा है, आज्ञा हो तो उसे दरबार में आने दिया जाए ।
– कवि!! हमसे मिलने के लिए आया है, आश्चर्य! ये कवि कहे जाने वाले प्राणी तो जैसे पैदा ही राजाओं की निंदा के लिए हुए हैं ।
– पर यह कवि वैसा नहीं है ।
– कवि तो है न! तुम क्या नहीं जानते कि हम कवियों से और कवि हमसे कितना चिढ़ते हैं । कितने कवि हमारे कारागार में बंद हैं, कितनों पर मुकद्दमें चल रहे हैं, कितनों से हमारे दरबारी अपने स्तर पर लड़ रहे हैं ।
– जानता हूँ महाराज, पर इस कवि ने आपकी प्रशस्ति में कई चालीसे लिखे हैं, अब महाकाव्य लिखने की तैयारी में है । इस कवि ने प्रजा के बीच आपको अवतार के रूप में स्थापित करने का प्रण किया है ।
– अच्छा, उसका हमसे मिलने का प्रयोजन क्या है?
– वह आपको अपनी लिखी कविता की किताबें भेंट करना चाहता है ।
– किताबें! हा…हा…हा…हमने कभी कोई किताब पढ़ी है आज तक? और कविता के तो हम घोषित शत्रु हैं ।
– कविता का शत्रु तो वह भी है महाराज, अघोषित ही सही ।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा “समय की धार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 130 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – समय की धार ☆
इंदु की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.
हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.
उसने कहा..”माँ बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते।”
हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ।”
“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द, मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी माँ जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी।”
“माँ बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये।”
“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो।”
“दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा।”
“इंदु अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो।”
“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती, मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया, इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”
“इंदु एक बात ध्यान रखना माता-पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय
बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी। दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।
वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा-कहानी # 107 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 18 – दतिया दलपत राय की… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)
अथ श्री पाण्डे कथा (18)
दतिया दलपत राय की, जीत सके नहीं कोय।
जो जाको जीत चहें, अदभर फजियत होय।।
भगवान् दास के पौत्र दलपतराव अपने पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 1677 के समय दतिया के राजा बने। यह दौर औरंगजेब का था और दलपतराव भी अपने पिता की मृत्यु के समय मुग़ल सेनापति दिलेरखां के आधीन दक्षिण में युद्ध अभियान में थे। औरंगजेब दलपतराव के पराक्रम से सुपरिचित था अत दिलेरखान की सिफारिश पर उसे मुग़ल दरबार में मनसबदार का ओहदा मिला। दलपतराव अनेक मुग़ल सेनापतियों के आधीन रह कर मुग़ल बादशाह के सैन्य अभियानों में भाग लेते रहे। उन्होंने बीजापुर के मुग़ल अभियान में विजय प्राप्ति के बाद गोलकुंडा के सैन्य अभियान में मुग़ल सेना के साथ सहयोग किया।दलपतराव ने मुग़ल बादशाह की सेना में रहते हुए मराठों के विरुद्ध भी अनेक सफल सैन्य अभियानों में वीरता का परिचय दिया। उन्होंने मराठो के सुद्रढ़ किले जिन्जीगढ़ के घेरे के समय उल्लेखनीय कार्य किया। औरंगजेब ने 1681 से अपनी म्रत्यु पर्यंत 1706 तक दक्षिण में अनेक सैन्य अभियान चलाये और दक्षिण भारत की बीजापुर व गोलकुंडा रियासतों पर अपना परचम लहराया और शिवाजीद्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य की शक्ति को कम करने के प्रयास किया। औरंगजेब के इन प्रयासों में दलपतराव ने सदैव प्रमुख भूमिका निभाई। जब औरंगजेब दक्षिण के अभियान पर था तो उसे मारवाड़ के राठौरों व बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल से शत्रुतापूर्ण चुनौती मिल रही थी ऐसी स्थिति में दलपतराव और उनके सहयोगी बुंदेलों पर औरंगजेब की निर्भरता अत्याधिक थी और बुंदेलखंड में केवल दतिया से ही उसे अच्छी संख्या में सैनिक भी मिलते थे। इन्ही सब कारणों से दलपतराव औरंगजेब के विश्वासपात्र बने रहे और समय समय पर उनका रुतबा मुग़ल दरबार में बढ़ता चला गया। औरंगजेब ने उन्हें उनके पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 500 सवारों का मनसबदार बनाया था जो बढ़ते बढ़ते 1705 इसवी में 3000 सवारों व इतने ही पैदल सैनिकों का हो गया। औरंगजेब की मृत्यु 1707 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में हुई तब दलपतराव ने उसके दूसरे नंबर के पुत्र आजमशाह का साथ उतराधिकार के युद्ध में दिया। आजमशाह स्वयं दलपतराव की सूझबूझ और योग्यता को दक्षिण के विभिन्न अभियानों में परख चुका था। वह उनकी उत्कृष्ठ वीरता एवं उच्चकोटि की राजभक्ति का कायल था अत जब दलपतराव ने उतराधिकार के युद्ध में आजम शाह का साथ देने का वचन दिया तो उनका मंसब बढाकर पांच हजारी कर दिया गया। इस प्रकार दलपतराव का मान सम्मान मुग़ल दरबार में बना रहा। दलपतराव की मृत्यु भी एक सैन्य अभियान के दौरान हुई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उतराधिकार का युद्ध उसके पुत्रों बहादुर शाह व आजमशाह के बीच आगरा के नजदीक जाजऊ में जून 1707 में हुआ। इस युद्ध में हाथी पर सवार दलपतराव को एक छोटी तोप का गोला बाजू में आकर लगा जिससे वे वीरगति को प्राप्त हुए। दलपतराव की मृत्यु के उपरान्त उनके सहयोगी बुंदेले भी मारे गए और इसी के साथ आजमशाह की भी पराजय हो गई।
प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी दलपतराव की स्मृति जन मानस में लम्बे समय तक अक्षुण बनी रही और उनके सम्मान में चारण निम्न पद गाते रहे ;
दल कटे दलपत कटे, कटे बाज गजराज।
तनक-तनक तन-तन कटो, पर तन से तजी न लाज।।
दतिया के राजा दलपतराव एक दुर्दमनीय योध्दा और कुशल प्रशासक थे और लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत जनप्रिय राजा थे। उनके काल में दतिया के वीर सैनिकों की धाक सभी दिशाओं में जैम गई थी और जनमानस में उपरोक्त लोकोक्ति बस गई। दलपतराव का यशोगान उनके दरबारी कवि जोगीदास ने दलपतरायसे में भी किया है।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ कथा कहानी # 30 – स्वर्ण पदक – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
अंतिम भाग (क्लाइमेक्स)
स्टार हाकी प्लेयर रजत और विशालनगर ब्रांच के स्टाफ के बीच स्वागत सत्कार की औपचारिकता के बाद प्रश्न उत्तर का सेशन हुआ जो सभी के लिये सांकेतिक रुप से बहुत कुछ कह गया. सभी समझे भी पर किसको कितना अपनाना है यह भी तो समझदारी है. प्रतिभा, सामाजिक और पारिवारिक परिवेश व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और व्यक्तित्व निर्माण की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है. इस जीवन यात्रा में उलझाव भी आते हैं, सुपीरियर होने का भ्रम, इन्फीरियर होने की कुंठा एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं, क्योंकि दोनों ही स्थिति में व्यक्ति खुद को वह मान लेता है जो वह होता नहीं है. व्यक्ति के अंदर की यह शून्यता न केवल उसे नुकसान पहुंचाती है बल्कि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है. सम्मान और स्नेह दोनों ही क्षत-विक्षत हो जाते हैं. संबंधों में आई ये दरार दिखती तो नहीं है पर महसूस ज़रूर की जाती है. शायद यही कहानी का मर्म भी है. अब आपको सवालों जवाबों की ओर ले चलते हैं. प्रश्नकर्ता के रूप में नाम काल्पनिक हैं, उत्तर अधिकतर रजतकांत ने ही दिये हैं.
अनुराग: आप फाइनल जीतने का श्रेय किसे देंगे
रजत : ये मेरी टीम की जीत है
अशोक: पर फील्ड गोल तो आपने किये, सारी नजरें आप पर थीं, रजत रजत का शोर ही मैदान में गूंज रहा था, रेल्वे का नाम हमारे दिमाग में बिलकुल नहीं आया.
रजत: आपका प्रश्न बहुत अच्छा है पर गोल करना और गोल बचाना तो पूरी टीम का लक्ष्य था, अकेला चना कुछ फोड़ नहीं सकता, ये कहावत मुझे पूरी याद नहीं है पर पिताजी अक्सर कहा करते थे,भैया क्या आपको याद है?
स्वर्ण कांत ने याद नहीं होने का वास्ता दिया हालांकि भावार्थ सब समझ गये पर अशोक ने फिर प्रश्न दागा: माना कि जीत पर हक पूरी टीम का होता है पर स्टार खिलाड़ी, कैरियर, लाइमलाइट, पैसा सबमें बाजी मारी लेते हैं और बाक़ी लोग लाइमलाइट की जगह बैकग्राउंड में रहते हैं.
इस प्रश्न पर टीम के खिलाड़ी रजत की ओर मुस्कुराहट के साथ देख रहे थे , बैंक के स्टाफ के लिए भी इस प्रश्न का उत्तर पाना उत्सुकता पूर्ण था.
रजत: देखिए कुछ गेम में सोलो परफार्मेंस ही रिजल्ट ओरियंटेड बन जाती है पर हाकी, फुटबॉल, वालीबाल, बास्केटबॉल, तो पूरी टीम का खेल है कोई गोल बचाता है, कोई अफेंडर को रोकता है, कोई गोल के लिए मूव बनाता है, पास देता है, अंत में किसी एक खिलाड़ी के शाट से ही बाल गोलपोस्ट में प्रवेश करती है कभी कभी गोलकीपर से वापस की हुई बाल को भी कोई खिलाड़ी वापस गोलपोस्ट में डाल देता है. यह सब टीम वर्क से ही हो पाता है. हम लोग भी उसी टीम वर्क से खेलते हैं जिस तरह आप लोग ये बैंक चलाते हैं.
अभिषेक: जिस तरह क्रिकेट में मेन आफ दी मैच, मेन आफ सीरीज, टाप टेन बेट्समेन, टाप टेन बालर्स होता है, हाकी में क्यों नहीं होता, हमारे यहां भी बेस्ट ब्रांच मैनेजर, बेस्ट रीजनल मैनेजर अवार्ड दिए जाते हैं.
रजत: मेरा सोचना है कि जहां खेल के साथ व्यापार भी जुड़ा रहता है वहां पर कमर्शियल स्पांसर्स ये सब बनाते हैं. बाद में फिर यही प्लेयर्स उनके प्रोडक्ट की मार्केटिंग में लगाये जाते हैं. लोग क्वालिटी की जगह चेहरे पर आकर्षित होकर मार्केटिंग के मायाजाल में फंसते हैं. अधिकांश खेलों में टीम ही सफलता का फैसला करती है. ध्यानचंद हाकी के ब्रेडमेन थे , गावस्कर और तेंदुलकर से कई गुना प्रतिभा के धनी रहे होंगे पर उनके पीछे कमर्शियल स्पांसर्स नहीं थे, पहले भी नहीं और आज भी नहीं. बैंक के बारे में आप लोग मुझसे बेहतर जानते होंगे.
अश्विन: पर फिर भी टीम इंडिया में तो सिलेक्शन का बेनिफिट आपको ही मिलने की संभावना बन रही है.
रजत : अगर ऐसा हुआ भी तो वहां भी टीम में ही खेलना है. हर खिलाड़ी का कैरियर होता है, सफलता दूसरों को भी वैसा करने की प्रेरणा देती है पर अगर किसी खिलाड़ी को ये लगने लगे कि सब उसके कारण होता है तो उसका डाउनफॉल वहीं से शुरू हो जाता है.
बात हाकी के संबंध में चल रही थी पर हर सुनने वाले के दिल तक पहुंच रही थी. सभी परिपक्व और समझदार थे, कही गई हर बात क्रिस्टल क्लियर थी, तो अब और कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी.
विदा लेते समय जब रजतकांत ने अपने बड़े भाई से विदा ली तो उन्होंने कई अरसे बाद रजत को गले लगा लिया पर उन्हें न जाने ऐसा क्यों लगा कि वो अपने छोटे भाई से नहीं बल्कि अपने अनुभवी भाई से गले मिल रहे हैं.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “ठहरी बिदाई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 ☆
☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई…☆
सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।
बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।
बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।
द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।
सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।
धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!
पत्नी ने धीरे से कहीं – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”
सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।
विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”
भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”
परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।
सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।
अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”
यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #88 यह संसार क्या है? ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?
इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।
‘एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।
कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।
उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना। वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।’
कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..
‘संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।
जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता…..।’
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)
अथ श्री पाण्डे कथा (17)
झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।
ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।
इस बुन्देली लोकोक्ति के शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।
इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।
यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।
दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।
पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।
इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।