हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – कुतरन ☆ श्री श्याम संकत ☆

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है पर्यावरण दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘कुतरन।)

☆ लघुकथा –  कुतरन ☆ श्री श्याम संकत ☆ 

दो भाई-बहन थे। बहन का नाम था ‘कापी’ और भाई था ‘पेस्ट’। एक मम्मी भी रहीं, नाम था उनका ‘कट’।

सब मिल कर घर में धमाल मचाए रहते। खूब फाईल फ़ोल्डर में क्रांति करते, आज़ादी मांगते, खुदाई कर डालते। गूगल को संग ले कर भगवान जाने क्या क्या सर्वे करते रहते। कभी नया साहित्य रचते, कभी विमर्श में उलझते, कभी आलोचना में हाथ आजमाते तो कभी समीक्षक बन बैठते। कभी तो आला दर्जे के टिप्पणीकार भी बन जाते। कविता, कहानी, गज़ल, लघुकथा टाईप चीजें तो इनके बाएं हाथ का खेल थीं।

हाँ, घर में एक बाप भी था, नाम था ‘डिलीट’। ये बाप अपनी पर आ जाए तो समझो एक झटके में सब गुड़ का गोबर हुआ।

हुआ यूँ , कि एक दिन सबने मिलकर बहुत साहित्य बघारा, खटा-पटी चलती रही। सो रात पड़े टेबल के नीचे छिपे माऊस, जी हाँ वही माऊस यानि चूहा, इसका दिमाग भन्नाया तो उसने सब यानि कट, कापी, पेस्ट, डिलीट को किसी सरकारी एजेन्सी सरीखे तीखे बारीक दांतों से कुतर कुतर कर बिखेर डाला।

सुबह कामवाली बाई ने जरुर थोड़ी पें पें करी, लेकिन अब घर में शांति है।

*     *    *

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 93 ☆ कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा ‘कसक’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 93 ☆

☆ लघुकथा – कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। कद छोटा, गोल- मटोल, रंग गोरा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, जो उनके चेहरे पर निहायत सलोनापन बिखेर रही थी। कुल मिलाकर सलीके से सिल्क की साड़ी पहने  बड़ी प्यारी सी महिला मेरे सामने खड़ी थी। जवानी में निस्संदेह बहुत खूबसूरत रही होंगी। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम?  ‘

अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हंसकर कहा।

सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है। मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे हुए को कोई पढ़ता  ही नहीं।  पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे से कहा – अब किसी की धौंस नहीं सहना,मैं अकेले रहूंगी। सब पागल कहते हैं मुझे कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती।  जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी। अरे भाई, अब तो अपने ढ़ंग से जी लेने  दो मुझे।

वह धीरे – धीरे संभलकर चलती हुई अपनेआप ही बोलती जा रही थीं।

मैंने कहा – आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे। गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और लगातार बोलने से साँस फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – अब तो सुनोगी मेरी बात?

हाँ बिल्कुल, बताइए।

 मैं पचहत्तर साल की हूँ। मुझे मालूम है कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे  बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? बहुत- सी कविताएं और कहानियां  लिखी हैं मैंने। घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो। कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो तो वह बोला माताजी, अपनी उम्र देखो।

 मैंने कहा – उम्र को क्या देखना? लिखने पढ़ने की भी कोई  उम्र होती है? तुम अपनी फीस से मतलब रखो मेरी उम्र मत देखो। जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को बीच में लाकर खड़ा कर दो, ना भई !

यह कहानी लिखी है बेटी ! तुम पढ़ना,  उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। मैंने कागज हाथ में ले लिया। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक की कहानी उनके  चेहरे पर साफ लिखी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#136 ☆ लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना…”)

☆  तन्मय साहित्य # 136 ☆

☆ लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास जा कर देखा –

वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरा करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार इस सशक्त कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि,

—-  हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुँचा दे

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल ??

“काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…!”… समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

“काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह !”…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, “काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।”

बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन– भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)

आप क्लाइमैक्स का इंतज़ार कर रहे हैं पर ये तो सिर्फ फिल्मों में होता है. ये तो  वास्तविकता से जुड़ी अलग कहानी है जिसमें 100% सही न तो नायक है न ही खलनायक. शायद यही जिंदगी की हकीकत है जिसमें हम सब भी गुजर रहे हैं और जानते हैं कि हमारी समस्याओं का समाधान करने के लिए अगर कोई नायक है तो वह भी हम हैं पर खलनायक कौन है, ये पहचानना या परिभाषित करना मुश्किल है.इस कथा के अंतिम पड़ाव के संक्षिप्त बिंदु यही हैं.

  1. इस अपहरण में आत्मलोचन जी को जानबूझकर कोई शारीरिक कष्ट नहीं पहुंचाया गया न ही उनके साथ कोई अभद्रता की गई. ये बात अलग है कि सिचुएशन के हिसाब से अपहरणकर्ताओं का आचरण रहा और आत्मलोचन जी भी समझ गये कि इन लोगों के साथ शालीनता ही सबसे कामयाब शस्त्र है. लेकिन दुरूह क्षेत्र के उबड़खाबड़ रास्ते और आंखों में पट्टी बंधे होने कारण हल्की चोट जरूर आई थी. चोट शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से पीड़ा दे रही थी और इन जख्मों पर भय, नमक का काम कर रहा था.
  2. उनकी सुरक्षा में लगे वे सिक्यूरिटी गार्ड, जिनकी शक्ल भी उन्होंने देखी नहीं थी, बहुत बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये थे और आत्मलोचन जी ने अपने जीवन में पहली बार निर्ममता पूर्वक किये गये कत्ल का मंजर देखा था. किताबों की विद्वत्ता के बोझ तले पोषित व्यक्ति जब पहली बार मृत्यु की विभीषिका से रूबरू होता है तो यह अनुभवहीनता उसे स्तब्ध कर देती है और शून्यता उसके सारे सेंस को शतप्रतिशत संक्रमित कर देती है.
  3. किडनेप होने के बाद अपने इस कैंप में उनका ठिकाना सर्किट हाऊस नहीं बल्कि सुदूर जंगल का वह खंडहरनुमा घर था जिसमें उनके VIP status के हिसाब से एक कमरा पूरी तरह उनके लिये रिजर्व था. उनके विश्राम के लिये डबल बैड और बैठने के लिये विशिष्ट चेयर दोनों का डबल रोल एक संकरा तख्त कर रहा था और यही उनका तख्ते ताऊस था. बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी और natural calls के लिये ही बाहर निकला जा सकता था जिसके लिये उन्हें यहां की सिक्यूरिटी प्रदान की गई थी.
  4. अपहरण के Chief Executive Officer याने मॉस्टर माइंड से उनकी मुलाकात अभी हुई नहीं थी. पर जब प्रदेश की राजधानी से प्रतिनियुक्त मीडियेटर और नक्सलियों के मीडियेटर की मीटिंग, विभिन्न दौर के मंथन, कुछ घोषित और कुछ गुप्त मांगों की स्वीकृति की ओर अग्रसर हुई तो उन्हें इस अपहरण कांड के नायक या उनके लिए खलनायक से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कद लगभग साढे छह फुट, रंग गहरा सांवला, कमांडो जैसी काया और आंखों के भीतर लहराता ज्वालामुखी जो किसी को भी भयभीत करने में सक्षम था. पर ये मुलाकात बड़े ही परिपक्व और सौहार्द वातावरण में हुई क्योंकि सामने भी विद्वत्ता और शासकीय अधिकारसंपन्नता से लबालब थे आत्मलोचन IAS Distt. Megistrate. सुदूर बस्तर में बहुत कम लोग ही उनसे अंग्रेजी में बात कर पाते थे पर यहाँ वार्तालाप की शुरुआत ही अंग्रेजी में हुई.

Hello Mr. DM, I am “Shekhar”, Commander Incharge of this area.I hope you will adjust with the shortcomings of this place, and you should as you know that we too have adjusted since so many years.

विपरीत परिस्थितियां और भयजनित असहायता व्यक्ति की बोलने की शक्ति उसकी मातृभाषा तक ही सीमित कर देती हैं. तो आत्मलोचन जी ने अपनी मातृभाषा में अपने सुरक्षा गार्ड की हत्या की बात करनी चाही पर “शेखर” ने भी गुरिल्ला युद्ध के कमांडर का दर्जा, अपनी चतुराई, नृशंसता और हर पल व्यक्तियों और घटनाओं को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कला के बल पर ही हासिल किया था. उसने प्रश्न पूरा होने के पहले ही उनकी बात काटते हुये जवाब दिया “हमने भी अपने बहुत से योद्धा खोये हैं, जन्म के बाद हमारा पहला खेल ही मृत्यु से आंखमिचौली से शुरु हो जाता है. हमारा” नेटवर्क” बहुत शक्तिशाली है और हम अपने एरिया के हर महत्वपूर्ण अधिकारी का बायोडाटा, स्केच और मूवमैंट की पल पल की खबर हम तक समय से पहले पहुँच जाती है. पर एक बात और है कि आपको तो हम सम्मान सहित सुरक्षित रिहा कर आपके घर पहुंचा रहे हैं, फाइनल सेटलमेंट के बाद,” पर हम हमारी मुखबिरी करने वालों को नहीं छोड़ते”. कमांडो शेखर ने अपनी मिलिट्री जैसी ड्रेस के एक पॉकेट से कलेक्टर साहब का स्केच और बायोडाटा उनको देकर अपनी हल्की मुस्कान के साथ विदा ली।

मुलाकात खत्म हो गई क्योंकि ये सिर्फ संदेशात्मक थी. एक दो दिन के बाद सेटलमेंट के अनुसार आत्मलोचन जी मीडियेटर के संरक्षण में स्वास्थ्य परीक्षण के बाद घर पहुँच गये. घर लौटने पर उनकी मां ने छलकते आंसुओं के बीच उनके सुरक्षित लौटने पर तिलक लगाया आरती की और कई अरसे के बाद आत्मलोचन, पिता के चरणस्पर्श कर उनके गले लगे. Power and Strong Network के बारे में जो भूतपूर्व मुख्यमंत्री समझाना चाहते थे, वह नियति ने उनको बहुत प्रभावी तरीके से समझा दिया था. इस घटना के बाद आत्मलोचन जी के पास TMT जैसा मजबूत इरादा तो था पर लक्ष्य जिले की कवच कुंडल जड़ित अभावग्रस्त जनता को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने की लड़ाई में उनका साथ देना भी था. उन्होंने मुख्य मंत्री द्वारा मुख्य सचिव के माध्यम से दिये गये अपने ट्रांसफर के सुझाव पर भी विनम्रतापूर्वक कहा कि उनका असली assignment तो अब शुरु होने वाला है और वह भी इसी जिले में और इसी पद पर.

एक अंतिम बात जो कि इस पूरी कहानी का एंटी क्लाइमैक्स है वह है नक्सलग्रस्त जिलों में दो समानांतर सत्ताओं की मौजूदगी. एक सरकारी होती है जिसमें भ्रष्टाचार, कामचोरी और लालफीताशाही होती है.

दूसरी दुर्गम क्षेत्र में प्रभावी व्यवस्था भय, आतंकवाद मनमानी और निरंकुश होती है. ये दोनों व्यवस्थायें आपस में युद्धरत रहती हैं और इन दो पाटों के बीच में पिसते रहते हैं साधनविहीन, शिक्षाविहीन, स्वास्थ्य विहीन निरीह और निर्बल ग्रामवासी जो न केवल गरीबी से बल्कि निरंकुशता से भी हारी हुई लड़ाई लड़ते रहते हैं. प्रयास सिर्फ आंकड़ों में दिखाये जाते हैं और जमीनी हकीकत के लिये सरकार और नक्सली एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं.

अगर आपके मन मस्तिष्क में ये कहानी चोट करे और लोचन गीले लगें तो अपनी राय जरूर दीजियेगा. अपनी कांकेर पदस्थापना के अनुभवों और कल्पनाशक्ति की कॉकटेल है ये कथा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – अपने लिए ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  अपने लिए)

☆ लघुकथा – अपने लिए ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी में कार्यरत कर्मचारियों की तरह वर्दीनुमा कपड़े पहने कुछ सुंदर नौजवान युवक-युवतियों ने कार्यालय-कक्ष में प्रवेश किया और एक-एक कर अपनी कंपनी की तरफ से दिए गए उत्पाद सभी को दिखाने लगे। सभी को कंपनी-संचालक द्वारा एक बंधे-बंधाये प्रबंधन कोर्स की तरह प्रशिक्षित किया गया था और वह एक रट्टू तोते की तरह बोलकर अपने उत्पादों की अच्छाइयां और उनके अनूठे उपयोगों के बारे में बता रहे थे। साथ ही, एक के साथ एक मुफ्त या एक के दाम में दो का भी प्रलोभन दे रहे थे, जैसा कि ग्राहकों को लुभाने, या सरल शब्दों में कहें तो फंसाने का एक कारगर उपाय होता है। कुछ साथी कर्मचारी इस अंत में दिए गए मारक जाल में आ गए थे, और अपनी आवश्यकताओं या पसंद के अनुसार कुछ ना कुछ खरीद रहे थे। किसी-किसी ने वर्तमान की बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए भी उन नवयुवक और नवयुवतियों के प्रति अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए कुछ उत्पाद लिए, तो एक-दो का उनके प्रति आकर्षण भी कारण रहा होगा।

अब जब वह मेरे सामने खड़े रटे-रटाए वाक्य बोलने को हुए तो मैंने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया, “एक बात बताओ, तुम्हें इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?” वह एक-दूसरे को देखने लगे। मैंने कहा, “छोड़ो, जितने भी मिलते होंगे, पर इतने नहीं कि जिन्हें तुम्हारी दिनभर की दौड़-धूप के अनुसार संतोषजनक या ज्यादा कहा जा सके, क्यों?”

वह चुपचाप खड़े थे जिससे मुझे यह अंदाजा हो गया था कि मैं काफी हद तक सही हूं।

मैंने फिर कहा, “यह तो तुम लोग भी जानते हो कि यह सारे प्रोडक्ट, जो तुम लोग बेच रहे हो, वह उत्तम गुणवत्ता वाले या नामी कंपनियों के नहीं हैं। इनमें बहुत मार्जिन होता है। तुम लोगों को थोड़ा सा लाभ देकर ज्यादातर लाभ कंपनी या एजेंसी के पास चला जाता है, जबकि तुम इन्हें बेचने के लिए अपना पूरा पसीना बहा देते हो। तो क्यों नहीं तुम लोग अपना स्वयं का कोई काम शुरू करके उसमें अपना श्रम और शक्ति लगाते। कम से कम किसी मुकाम तक तो पहुंचोगे, और तुम्हें तुम्हारी मेहनत का पूरा फल भी मिलेगा। तुम्हें किसी के अधीन रहकर नहीं, बल्कि आजादी से काम करने को मिलेगा और तुम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करोगे, अपने लिए…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 93 – भक्ति और संपत्ति ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #93 🌻 भक्ति और संपत्ति 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार काशी के निकट के एक इलाके के नवाब ने गुरु नानक से पूछा, ‘आपके प्रवचन का महत्व ज्यादा है या हमारी दौलत का? ‘नानक ने कहा, ‘इसका जवाब उचित समय पर दूंगा।’

कुछ समय बाद गुरु नानक जी ने नवाब को काशी के अस्सी घाट पर एक सौ स्वर्ण मुद्राएं लेकर आने को कहा। नानक वहां प्रवचन कर रहे थे। नवाब ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल नानक के पास रख दिया और पीछे बैठ कर प्रवचन सुनने लगा। वहां एक थाल पहले से रखा हुआ था।

प्रवचन समाप्त होने के बाद नानक ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं मुट्ठी में लेकर कई बार खनखनाया। भीड़ को पता चल गया कि स्वर्ण मुद्राएं नवाब की तरफ से गुरु नानक जी को भेंट की गई हैं। थोड़ी देर बाद अचानक गुरु नानक जी ने थाल से स्वर्ण मुद्राएं उठा कर गंगा में फेंकना शुरू कर दिया। यह देख कर वहां अफरातफरी मच गई। कई लोग स्वर्ण मुदाएं लेने के लिए गंगा में कूद गए। भगदड़ में कई लोग घायल हो गए। मारपीट की नौबत आ गई। नवाब को समझ में नहीं आया कि आखिर गुरु नानक जी ने यह सब क्यों किया। तभी गुरु नानक जी ने जोर से कहा, ‘भाइयों, असली स्वर्ण मुद्राएं मेरे पास हैं। गंगा में फेंकी गई मुद्राएं नकली हैं। आप लोग शांति से बैठ जाइए।’ जब सब लोग बैठ गए तो नवाब ने पूछा, ‘आप ने यह तमाशा क्यों किया?’

धन के लालच में तो लोग एक दूसरे की जान भी ले सकते हैं।’ गुरु नानक जी ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया वह आपके प्रश्न का उत्तर था। आप ने देख लिया कि प्रवचन सुनते समय लोग सब कुछ भूल कर भक्ति में डूब जाते हैं। लेकिन माया लोगों को सर्वनाश की ओर ले जाती है। प्रवचन लोगों में शांति और सद्भावना का संदेश देता है मगर दौलत तो विखंडन का रास्ता है।‘ नवाब को अपनी गलती का अहसास हो गया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#135 ☆ लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती…”)

☆  तन्मय साहित्य # 135 ☆

☆ लघुकथा – सच तो कह रही है फूलमती… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

खेत खलिहान से फसल घर में लाते ही मोहल्ले के पंडित जी के फेरे शुरू हो जाते। मौसम के मिज़ाज के अनुसार कभी पँसेरी दो पंसेरी गेहूँ, ज्वार, दालें कभी सब्जी-भाजी और कभी ‘सीधे’ में पूरी भोजन सामग्री की माँग इन पंडित जी की पूरे वर्ष बनी रहती।

इस वर्ष खरीफ की फसल सूखे की चपेट में आ गई और बाद में बेमौसम की बारिश व ओले आँधी की चपेट में आने से रबी की फसल भी आधे साल परिवार के खाने लायक भी नहीं हुई।

खाद, बीज व दवाईयों के कर्ज के बोझ से लदे कृषक रामदीन पत्नी फूलमती के साथ आने वाले समय की शंका-कुशंकाओं में डूबे बैठे थे, उसी समय पंडितजी काँधे पर झोला टाँगे घर पर पधार गए।

“कल्याण हो रामदीन! नई फसल का पहला हिस्सा भगवान के भोग के लिए ब्राह्मण को दान कर पुण्यभागी बनो और अपना परलोक सुधार लो यजमान”।

पहले से परेशान फूलमती अचानक फूट पड़ी – “पंडित जी बैठे-बिठाए इतने अधिकार से माँगते फिरते हो, क्या हमारे खेत की मेढ़ पर  आज तक भी आपके ये पवित्र चरण कभी रखे हैं आपने! आँधी-पानी, ओलों और सूखे  से पीड़ित  हम लोगों के दुख की घड़ी में हालचाल भी जानने की कोशिश की है कभी, ठंडी गर्मी व बरसात के वार झेलते खेत में मेहनत करते किसी किसान के श्रम को आँकने की भी कोशिश की है कभी आप ने? फिर किस नाते हर तीज त्योहार, परब-उत्सव पर हिस्सा माँगने चले आते हो”।

“पंडित जी!…पूरी जिंदगी बीत गई हाड़तोड़ मेहनत कर दान-पुन करते, फिर भी हमारा यह लोक ही नहीं सुधर रहा है और परलोक का ,झाँसा देकर इधर, आप हमें सब्जबाग दिखाते रहते हो और दूसरी तरफ सेठ-साहूकार और सरकारी साब लोग”।

“जाओ पंडित जी, थोड़ी मेहनत कर के रोटी कमाओ और खाओ तब असल में रोटी और मेहनत का सही स्वाद और महत्व समझ पाओगे”।

पंडित जी हतप्रभ से कुछ क्षण शांत रहे और फिर करुणाभाव से फूलमती की ओर एक नजर डाल कर वापस हो गए। आगे गली के एक कोने में काँधे का झोला फेंकते हुए मन ही मन कुछ बोलते हुए अपने घर की ओर लौट पड़े।

“सच तो कह रही है फूलमती”

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़र, जोरू, ज़मीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़र, जोरू, ज़मीन ??

यह ज़मीन मेरी है,…नहीं मेरी है,..तुम्हारी कैसे हुई, मेरी है।….तलवारें खिंच गईं। जहाँ कभी खेत थे, वहाँ कई खेत रहे।

ये संपत्ति मेरी है,…पुश्तैनी संपत्ति है, यह मेरी है,..खबरदार ! यह पूरी की पूरी मेरी है।..सहोदर, शत्रुओं से एक-दूसरे पर टूट पड़े। घायल रिश्ते, रिसते रहे।

यह स्त्री मेरी है,…मैं बरसों से इसे चाहता हूँ, यह मेरी है,…इससे पहली मुलाकात मेरी हुई थी, यह मेरी है।… प्रेम की आड़ में देह को लेकर गोलियाँ चलीं, प्रेम क्षत- विक्षत हुआ।

यह ईश्वर हमारा नहीं है,…हम तुम्हारे ईश्वर का नाम नहीं लेते,…हम भी तुम्हारे ईश्वर को नहीं मानते,…तुम्हारा ईश्वर हमारा ईश्वर नहीं है।…हिस्सों में बंटा ईश्वर तार-तार होता रहा।

आदमी की नादानी पर ज़मीन, संपत्ति और औरत ठठाकर हँस पड़े।

© संजय भारद्वाज

(प्रातः 8:01बजे, 31.5.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – संस्कार ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना कौस्तुभ जी की एक विचारणीय लघुकथा संस्कार। आप इस लघुकथा की प्रस्तुति इस यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर भी देख – सुन सकते हैं  👉  लघुकथा – संस्कार …बहुत कुछ है सीखने के लिये…..डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

 ☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – संस्कार ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

“कल तुम मेरे बेटे को नाम से पुकार रहे थे। तुम्हें कोई मैनर्स है कि नहीं। कोई संस्कार है कि नहीं। यही सिखाया है तुम्हारे माँ-बाप ने। जब मैं तुम्हारा बॉस हूँ तो मेरा बेटा भी तुम्हारा बॉस ही हुआ।“ श्याम लाल जी ने अपने ऑफिस के एंप्लॉय केदार को जोर-जोर से डांटते हुए यह कहा|

तभी पापा पापा कहकर 13-14 साल का बच्चा अंदर दाखिल होते हुए अपने माली की तरफ देखते हुए बोला “पापा इस बूढ़े  खूसट  को निकाल क्यों नहीं देते नौकरी से। मुझे पाल पोस कर बड़ा किया है, तो इसकी इतनी हिम्मत कि यह मुझ पर हुकुम चलाएगा। किसी बात को करने से मना करेगा।“ अब श्याम लाल जी की नजरें केदार के सामने ऐसी झुकी की वे उठाने की हिम्मत ही नहीं कर पाए|

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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