हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

उतरा भूत मेपल की डाल से 

अठारह जुलाई को वहाँ ‘देश’ में ईद और रथ यात्रा दोनों पर्व संपन्न हो गये। अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद मैं वाटर कलर और ब्रश वगैरह लेकर निकल पड़ा। आज कनाडियन बत्तख की पेंटिंग बनायेंगे। कल शाम अन्टारिओ झील के किनारे बैठे एक मेपल के पेड़ से प्रार्थना कर रहा था,‘हे महीरूह, हे तरुवर, तुम्हारे रूप का कुछ हिस्सा तो मुझे इस कागज पर उतारने दो।’ दो एक सज्जन मेरा उत्साह वर्धन करने आ गये थे,‘वाह भई! कहाँ से आये है?’ और कोई चुपचाप देखता रहा।

आज भी दो तीन औरतें आ गयीं,‘आप यहाँ बैठे क्या कर रहे हैं, जरा देख सकती हूँ?’

अरे भाई किसने मना किया है? फिर बातचीत। कोई खुद भी आर्टिस्ट है। मगर मैं ने कहा,‘ नहीं भाई, मैं कोई आर्टिस्ट नहीं हूँ। बस रंगों से खेलने का शौक है।’    

एक ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,‘मगर बच्चों की देखभाल के चक्कर में हाथ से ब्रश तो छूट गया है।’ वाह रे माँ का बलिदान! मैं उनसे क्या कहता कि हमारे देश की मधुबनी पेंटिंग को दुनिया में सम्मान दिलाने वाली डा0 गौरी मिश्रा भी तो एक माँ हैं। जिन्होंने इस आंचलिक शिल्प को विश्व कला दरबार के सिंहासन पर बैठाया। लोगों के लिए तो वो ‘मां जी’ ही हैं।  

एक डॉक्टर की कन्या से बात हो रही थी। उसने बताया कि आजकल यहाँ आसानी से काम नहीं मिलते। क्या बेकारी बढ़ रही है ? वैसे यहाँ के नागरिकों को बेकारी भत्ता दिया जाता है।

एकदिन एक आदमी को देखकर लगा कि वे हमारे ही उधर के हैं। दूर से मैं ने आवाज लगायी,‘भाई साहब, नमस्ते। आप इंडियन हैं?’    

एक बूढ़े दम्पति जा रहे थे। साथ में एक नौजवान और दो बच्चे। जाहिर है कि वे दोनों इस नौजवान के वालिद वालिदा हैं। और दोनों बच्चे शायद उस नौजवान के। वह नौजवान आगे आ गया,‘हम पाकिस्तान से हैं।’

‘किस शहर से?’ मैं बार्डर क्रास करना चाहता था।

‘रावलपिंडी से। इस्लामाबाद।’ कहते हुए वे आगे बढ़ गये।

समझौता एक्सप्रेस चली नहीं। वहीं थम गयी। 

पेंटिंग बनाने के लिए साथ में मैं एक फ्लास्क में चाय और रुपाई का दिया हुआ बैग में जैमवाला बिस्किट ले चला था। बीच बीच में चाय की चुसकी ले ही रहा था कि एक बत्तख आकर बगल में खड़ा हो गया,‘ऐ मिस्टर अकेले अकेले ही खाने का इरादा है? मदर मेरी की कसम, हजम नहीं होगा। बतला देता हूँ।’

‘अरे भाई, कुल दो तो बिस्किट हैं। इनमें से अगर तुझे दे दूँ तो मैं क्या खाऊँगा?’ फिर भी यह सोचकर कि उसी के देश में उससे तकल्लुफ तो निभाना चाहिए, मैं ने एक बिस्किट के टुकड़े करके उसकी ओर फेंक दिया कि इतने में एक महिला हाजिर हो गयीं। साथ में पैराम्बुलेटर में उसकी लाडली। वो भी बात करने लगी तो मैं ने पूछा, ‘आपकी बेटी को यह बिस्किट दे सकता हूँ ? बस यही है मेरे पास। वो भी एक…’

‘अरे अभी तो यह घर जाकर लंच करेगी। -’

मगर तब तक उस गुड़िया ने अपना हाथ बढ़ा दिया। सुरीली आवाज में उस नन्ही ने क्या कहा यह तो वही जाने। माँ ने कहा,‘ले लो बेटी। थैंक्स कहो।’

मेरे नसीब में रही, चाय चाय बस चाय/जैम वाले बिसकिट की, फिर याद क्यों सताए ?

मेपल वृक्ष 33 से 148 फीट लंबे हो सकते हैं। पतझड़ के समय इनके रूप की तो छटा ही अनोखी होती है। इनके नीचे चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं मेपल की सूखी पत्तियाँ। लगता है धरती पर आग की लाल, पीले और नारंगी रंगो की लपटें उठ रही हैं। जरा गुनगुनाइये कवि वीरेन डंगवाल की पंक्तिओं को (मंगरेश डबराल के स्मृतिचारण या अनुस्मरण से) :- पेड़ों के पास यही एक तरीका है/यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं।

शाम को बूँदा बाँदी होने लगी। मैं ने कहा, ‘पैर गाड़ी की सवारी कर आऊँ। इतवार की रौनक देख कर आता हूँ।’

तुरंत रुपाई ने थ्रू प्रॉपर चैनेल मना कर दिया। यानी झूम से बुदबुदाकर कहा, ‘बाबा से कहो आज थंडर स्ट्रॉम होने का पूर्वाभास है।’

यहाँ के लोग घर से बाहर कदम रखने के पहले नेट से वेदर रिपोर्ट पढ़ लेते हैं। लेकिन आज तो सब टाँय टाँय फिस्स् हो गया। पानी भी नहीं बरसा। और मैं कमरे में ही बैठा रह गया। धरा के धरा रह गया वज्रघोष का उद्घोष / रिमझिम में भींगते मनवा न हो सका मदहोश !

किंग्सटन की सड़कों पर चलते हुए या कनफेडरेशन हॉल के सामने फव्वारे के सामने बैठे हुए हमने कितनी बार यहाँ की इजहारे मोहब्बत की रीति को देखा। कितना निःसंकोच प्रेम निवेदन है ! लड़के लड़की या युवक युवतियां रास्ते पर चलते हुए या झील के किनारे बैठे हुए पब्लिक प्लेस में एक दूसरे के करीब आने में तनिक भी नहीं शर्माते। और दादा दादी नाना नानी की जोड़ियां ? चिरजीवी जोड़ी जुड़ै, क्यों न सनेह गंभीर -?

नाराज न हों, याद है ‘राम की शक्ति पूजा’ में कविवर निराला ने क्या लिखा था ? –

देखते हुए निष्पलक याद आया उपवन

विदेह का प्रथम, स्नेह का लतांतराल मिलन

नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय सम्भाषण

पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन।

काँपते हुए किसलय, झरते हुए पराग समुदय,

गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय

ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,

जानकी- नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

खैर, जहाँ की जो रीति है। यदि राम रोम में करें गमन/ तन मन से बन जायें रोमन !

फिर भी नायाग्रा के ऊपर रेलिंग पर हमने देखा था कितने सारे लव लॉक लगे हुए हैं। यानी मोहब्बत को वे ताला बंद करके रख रहे हैं। अच्छी बात है। हम तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए….. बॉबी का गाना याद आया ? उस जमाने में इसे गाने से बुजुर्गों की डाँट सुननी पड़ती थी। समझ में नहीं आता था – अरे बाबा, उन्होंने चाबी खो दी है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे आपलोग क्यों डाँट रहे हैं ?

फिर भी समझ में नहीं आता कि इतना सब कुछ होने के बावजूद यहाँ क्यों होती है इतनी छुट्टी छुट्टा की घटनायें ? हमारे देश में भी तो अब ‘हाई सोसाईटी’ में ये सब खूब होने लगी हैं। 2013 में नोबेल पुरस्कार से नवाजी गयीं कनाडियन लेखिका एलिस मुनरो ने भी तीन बच्चे होने के बाद भी अपने पति को तलाक दे कर बाद में दूसरा विवाह किया। नेट में वैसी कोई वजह भी तो लिखी नहीं है। आखिर क्यों ? फ्रेडरिख एंगेल्स ने ‘स्टेट फैमिली एंड प्राइवेट प्रॉपर्टी’ में डाइवोर्स के बारे में लिखा है कि यह बुरी चीज होने के बावजूद नारी मुक्ति के लिए एक आवश्यक कदम है। पता नहीं क्या ठीक है। दिमाग पर कोहरा छा जाता है। यह तो जरूर कहूँगा यह कुछ एम्पुटेशन जैसी बात है। पैर में गैंगरीन होने पर पैर को तो काटना ही पड़ता है। वो लाइलाज है, उसे काट दो। जरूरी, मगर दुखद।

रुपाई पुस्तक भंडार से एक किताब लेकर एलिस मुनरो की एक कहानी पढ़ रहा था। वायसेज। एक छोटी बच्ची माँ के साथ एक डान्स पार्टी में जाती है। वहाँ कई वारांगनायें भी थीं। वह बच्ची उन्हें नहीं पहचानती है। कई एअरफोर्स के अफसर या कैडरों के साथ सीढ़ी पर बैठे उनमें से एक लड़की रोये जा रही थी। एक कैडर उसकी जांघ को सहला रहा था, और उस लड़की को समझा रहा था,‘हो जाता है, ऐसा कभी कभी हो जाता है। बुरा मान कर क्या करोगी?’ मगर बेचारी लड़की के आंसू थम नहीं रहे थे। पर कहानी का दरिया आखिर पहुँचा कहाँ? दिमाग के ऊपर से हर बात निकल गयी। भगवान, तू ने मेरे माथे में सिर्फ गोबर ही भर दिया था, क्या? वो भी कामधेनु या नंदिनी के नहीं, काशी के किसी लँगड़ा अपाहिज और खूसट साँड़ के ? मैं क्या इतना गया गुजरा प्राणी हूँ ?    

खैर मुझे जाने क्यों लगता है कि लेखन जगत में प्रेम, प्यार और दोस्ती का जो आकर्षण है, वो अनूठा है, अप्रतिम है। यशोदा का वात्सल्य या भरत मिलाप से लेकर हीर रांझा, सोहिनी माहिवाल आदि की कहानियां आज भी आम जनता को बांध कर रखने में समर्थ हैं। ओ हेनरी की कहानी ‘गिफ्ट ऑफ मेजाई’ पढ़ी है आपने ? बाबूजी मुझे मेरी जिंदगी का पहला ‘बायोस्कोप’ दिखाने ले गये थे – वो था – डा0 नीहाररंजन गुप्त की कहानी पर आधारित फिल्म ‘दोस्ती’। एक लँगड़ा और एक अंधे की दोस्ती की दास्तान। जैसे बड़े भैया के लिए भरत का प्यार ! तो राम के वनगमन के पहले क्या हुआ सुनिए -‘चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिशतूल। सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।’ भले ही चंद्रमां शीतल किरणों के बदले आग की चिनगारियां बरसाने लगे और अमृत भी चाहे जहर बन जाए, मगर भरतजी तो सपने में भी राम के अहित की बात सोच नहीं सकते। तो यही है भ्रातृप्रेम ! दोस्ती, जुग जुग जीओ ! तो आगे …….

कोई सोच भी सकता है कि कनाडा के किंग्सटन शहर में बैठे हम आम खा रहे हैं ? मगर वही हो रहा है। इसके अलावा चेरी, किवी या हनीड्यू (खरबूजे का मौसेरा भाई) …… मजा आ गया पेटू बंगाली !

कुछ पुरानी बाते याद आ गयीं……

30.6.15 की शाम हम मॉन्ट्रीयल पहुँचे थे। और अगली सुबह किंग्सटन के लिए चल दिये। रास्ते में गैनॉनक के मेट्रो बाजार में ठहरे थे – घर के लिए सब्जी वगैरह लेने।

शीशे का दरवाजा आपको देखते ही खुल जाता है। खुल जा सिमसिम कहने की जरूरत नहीं। अंदर दाखिल हुआ तो झूम सब्जिओं के पास ले गई। अरे बापरे! टमाटर ही देख लीजिए। एक एक गुच्छे में पांच पांच छह छह की संख्या में। और रंग? लाल से लेकर हरे तक। अरुणाचल में बमडीला शहर में भी हमने हरे टमाटर देखे थे। फिर प्याज – क्या साइज है! सफेद, गुलाबी, हिन्दुस्तान की तरह कुछ ललछौहाँ। फिर पीला। सफेद प्याज में उतनी तीक्ष्ण महक नहीं होती। झूम कह रही थी,‘यहाँ रसोई बनाना भी एक टेढ़ी खीर है। ज्यादा भून दिया या तल दिया, या सब्जी में छौंक लगायी, तो तुरन्त फायर अलार्म बजने लगते हैं। यह भी एक मुसीबत है!’ 

उसने कहा,‘हिन्दुस्तानी क्वीजीन के चक्कर में सिंगापुर में कई मकान मालिक अपने घरों में भारतीयों (प्लस पाकिस्तानियों या बांग्लादेशियों) को किराये पर नहीं ठहराते। क्यांकि वे अपनी रंधन पटुता से उनकी नाकों दम करके रख देते हैं। शाब्दिक अर्थो में।          

फिर फलों की सौगात। उन्हें देखने का फल यह मिला कि जामाता की खातिरदारी शुरु हो गई। बार बार क्या नाम गिनाये, जीभ में पानी जो आ जाता है। मगर हाँ, इतना जरूर कहेंगे – यहाँ के केले देखकर समझ में आ गया कि स्वर्ग की एक अप्सरा के नाम पर इसे भी क्यों रंभा कहा जाता है। क्या रंग है। अगली मुलाकात मैक्सिकोवासी आम से। फिर तरह तरह के बिस्किट, पावरोटी, अॅलिव -जिससे अचार वगैरह बनते हैं, और जिसके तेल से खाना भी पकाया जाता है। इटली की दादी नानी तो उससे बड़े लजीज खाना पकाती थीं। हमारे देश के अंग्रेज उससे मालिश करते हैं। हमारे यहाँ के शहद की तरह यहाँ मेपल के रस बिकते हैं। उससे बंगाल के पाटाली गुड़ की तरह गुड़ बनाते हैं। एकबार मार्केट की हाट से हमने उसे खरीदा था। देखने में बिलकुल मेपल की पत्ती जैसा। 

सबकुछ है, मगर आटा नहीं। उसके लिए फिर किंग्सटन का एशियन मार्केट चलिए।

कुछ दिनों के उपरान्त …….

झूम और उसकी जननी के साथ बैठे नाश्ता कर रहा था। मेरे बदन पर थी सिर्फ सैंडो गंजी। माँ बेटी दोनों चौंक उठी,‘अरे बापरे ! आपका यह क्या हाल हुआ है? इतना सनबर्न!’

मैं ने भी शीशे में देखा। चेहरे के ऊपर सनबर्न से त्वचा का रंग भूरा हो गया है। मुझे झूम के नाना की याद आ गयी। जब वे लोग केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये हुए थे, तो वहाँ से लौटने पर मैं ने देखा कि उनका गोरा रंग मानो बिलकुल जल गया था। वह मई का महीना था। दिवाकर मजे से वहाँ अपना तेज बरसा रहे थे। उत्तरी ध्रुव के नजदीक होने के कारण यहाँ भी अलट्रावायोलेट किरणों का प्रकोप भयंकर है। गुलजार का पहला गीत जो हिट हुआ था, वह था- बंदिनी फिल्म में, एस.डी.बर्मन की धुन पर – मेरा गोरा अंग लइले, तोर श्याम रंग दइदे!’ हे घनश्याम, यहाँ तो बात उल्टी हो गई।

फोन पर साले ने कहा था,‘गोरों के देश में जाकर, आप तो और गोरे हो गये होंगे, क्यों?’

साले पर आज इतना गुस्सा आ रहा था कि क्या कहूँ। लँगड़े से कहना कि ‘तुम तो मैराथन में जरूर फर्स्ट आओगे !’

यहाँ के मौसम का रंग ठंग भी कन्याकुमारी जैसा है। तेज धूप, साथ में ठंडी बयार। पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ तो ठंड लग रही है। सड़क पर जाओ तो उफ् उफ् धूप!

मैं ने भार्या से कहा,‘जरा सोचो, तुम्हारी सास तुम्हे कैसी चीज दे गयी थी। पर तुम उसे सँभाल कर रख भी न सकी। लँगड़ा और काला बना कर छोड़ दिया।’  

किंग्सटन में इनके एपार्टमेंट में या मॅान्ट्रीयल और नायाग्रा के होटलों में मैं ने देखा कि सभी जगह अग्नि सम्बन्धी चेतावनी खूब लिखी रहती है। लिफ्ट में, तो एंट्रेंस में। अपने जेहन में दिल्ली के उपहार सिनेमा हॉल की दुर्घटना की याद ताजा हो गयी। 1997 का अग्निकांड, जिसमें उनसठ ने जान गँवायी, सौ से अधिक घायल हुए। सुप्रीम कोर्ट ने साठ करोड़ का जुर्माना ठोका। पंद्रह साल बाद। उसी तरह कलकत्ते के आमरी अस्पताल में न जाने कितने मरीज और तीमारदार दम घुट कर मर गये। फिर भी वहाँ कौन इन नियमों का पालन करता है? किसे है परवाह? चाँदी के जूते हैं न हाथ में।

यहाँ प्रत्येक एपार्टमेंट के सामने स्पष्ट अक्षरों में लिखा है – फायर लेन, नो पार्किंग। हमारे यहाँ की तरह नहीं कि गाड़ियों के नम्बर प्लेट भी धुँधली यादों का साकार रूप बनकर रह जाता है। फिर ढेर सारी गाड़ियों में तो वे अदृश्य ही रहते हैं। जान ले ले तो अच्छा, क्योंकि कहानी खतम। मगर अधमरा करके छोड़ गये तो शिकायत किसके खिलाफ होगी? निराकार ब्रह्म के खिलाफ? हेलमेट न पहनने पर बनारस में चालान कटता है।(अमां, खुदकुशी तो अब सुप्रीम कोर्ट की नजर में भी अपराध नहीं।) लेकिन लापरवाह या बेपरवाह ड्राइविंग के लिए, मोबाइल पर बात करते हुए जॉन अब्राहम बनने के लिए या कानफोड़ू हार्न बजाने के लिए उन वाहनचालकां के खिलाफ किस जहाँगीर बादशाह के दरबार में इन्साफ की घंटी टन टनाये ?

कनफेडरेशन हॉल के सामने जेब्रा लाइन तो बनी है, मगर चेतावनी भी है कि यहाँ गाड़ियों के लिए रोकना अनिवार्य नहीं है। यानी नैन लड़ाओ, फिर कदम बढ़ाओ। वैसे हर पेड़ की शाख पर ही शाखामृग रहते हैं। अर्थात हाई स्पीड के कारण यहाँ भी दुर्घटनाएँ होती हैं। हाईवे पर तो कत्तई कार खड़ी न करें। वरना कोई भी आपको उड़ाता हुआ निकल जायेगा। रुपाई कह रहा था,‘सड़क के उस पार पैदल राही का साइन आने पर ही सड़क पार किया करें। आजू बाजू देख भी लें। और हाँ, ध्यान रहे – यहाँ दायें से चलने का कानून है। सारे वेहिक्ल लेफ्ट हैंड ड्राइव हैं।’

हाँ, किंग्सटन के फैशन में एक बात उल्लेखनीय है कि यहाँ भी टैटू का खूब प्रचलन है। मर्द औरत दोनों अपने जिस्म पर तरह तरह के डिजाइन अंकित करवा कर रखते हैं। तंदुरुस्त बॉडीवाले पहलवान अपनी पेशियों पर जाने क्या क्या गुदवा कर रखते हैं। जरा देखिए वो जो चली आ रही है, उसके एक पैर में पैंट है, और दूसरे में नहीं है? यह क्या? पास आने पर दृष्टिभ्रम का समाधान हो गया। वो पहनी हुई है – हाफ पैंट से भी छोटा यानी पावभर का पैंट। एक तरफ गोरी टाँग, दूसरी ओर चितकबरा। पहले तो लगा यह भी कोई पारदर्शी पोशाक है क्या? पर पूरी काया दृष्टिगोचर होने पर सारी माया समझ में आ गयी।

उम्रदराज महिलायें भी इसमें पीछे नहीं रहतीं। ब्यूटी पार्लर के शीशे के दरवाजे के पीछे उनको भी खूब सेवा लेते हम दोनों ने देखा है। का भैल अगर बढ़ी उमरिया, सजनी ओढ़ नइकी चुनरिया।

मेरी दादी की माँ याद आ गयीं। विजया दशमी के बाद जब बाबूजी उनके पास हमें ले जाते थे, तो मुझे लगता था – जब वे पीतल के खरल(खल) पर दस्ते से कूट कूट कर पान खाती रहीं, तो शायद उनके कंठ के बाहर भी लालिमा छिटकती थी। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के कथामुख में आचार्य ने लिखा है न कि-‘बंगला में दादी के साथ मजाक करने का रिवाज है।’ बंगालियों में दादा दादी नाना नानी के साथ नाती पोतों का एक मजाक का सम्पर्क भी रहता है। नतनी के विवाह वासर में रात्रि जागरण करने में दादी नानी का अग्राधिकार सर्वमान्य है। आर डी बर्मन के समानंतर वे हरि कीर्तन सुनाती हैं। उनके आधुनिक संस्करण यानी आधुनिक दादी नानी शायद टॉलीवुड की चिर बंसती जोड़ी उत्तम सुचित्रा की फिल्म के गाने सुनायें! और यह तो मेरी परदादी ठहरीं।

अरुणाचल के जीरो की याद आ गयी। इतिहास कहता है कि वहाँ की सुंदरियाँ दूसरे कबीलेवालों की नजर से बचने के लिए अपना चेहरा गुदवा लेती रहीं। और नाक पर बांस की नथनी लगाकर उसे भी बेढंगा बना डालती थीं। वहाँ अब एक डाक्टर ने इस परंपरा के खिलाफ जेहाद षुरू किया है। क्योंकि इससे इनफेक्शन फैलने का एवं स्कीन कैंसर होने का खतरा रहता है।

कैटारॅकी नदी जहाँ आकर लेक अॅन्आरिओ को कहती है ‘आदाब!’, वहीं साहिल के पास हरे भरे पार्क के बीच फव्वारे चलते रहते हैं। सामने सड़क के उस पार खड़ा है कॅनफेडरेशन हॉल। दिखने में बड़ा टाउनहॉल जैसा। किनारे कॉनफेडरेशन होटल। वहीं बैठा था। अचानक घंटे की ध्वनि …….

टन् टन् टन्……..मैं चौंक उठा। ऊपर देखा तो बात समझ में आयी। कॉनफेडरेशन हॉल के टॉवर क्लॉक में नौ बज रहे हैं। एकदिन घूमते टहलते मैं फव्वारे के पास बैठा था, तो देखा वहाँ लिक्खा है – यहाँ का पानी पीने के लिए नहीं है। नहाने के लिए भी प्रयोग न करें। साथ साथ यह भी बताते चलें कि भारत में जैसे बिसलेरी वॉटर बोतल में बिकते हैं, उसी तरह यहाँ झरने का पानी बोतल में बिकता है। और हमारी गंगा यमुना गोदावरी? राम, तेरी गंगा मैली हो गई, पापिओं के पाप धोते धोते ………..

द हॉन्टेड वाक ऑफ किंग्सटन – यानी किंग्सटन के अंधकाराच्छन्न अतीत का सैर कर लें। इस भुतहा दुनिया की सैर में वे आपको ले चलेंगे सिन्डेनहैम वार्ड की कब्रगाह में। बताते चलेंगे कि कैसे वहाँ कब्रों को खोदकर लाशों से चीजे चुरायी जाती थीं। या ऐसी ही कुछ खट्टी मीठी यादें। तो शिवजी की बारात में पधारे भूतों पर एक सोरठा ही हो जाए :- नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि। नाचते गाते भूत बड़े ही मनमौजी हैं। देखने में बेढंगे और बड़े ही विचित्र ठंग से बतियाते हैं वे।

दूसरी सैर है फोर्ट हेनरी की। वहाँ नील्स वॉन शूल्ज् को फाँसी दी गई थी। आखिर क्यों? तो सुनिए उनकी दास्तान-ए-बगावत। फिनलैंड में नील्स गुस्ताफ उलरिक नाम से जन्मे(7.10.1807.) षूल्ज सन् 1838 में अपर कनाडा विद्रोह में नेतृत्व कर रहे थे। इसे बैटल ऑफ विन्डमिल कहा जाता है। वे ‘हंटर्स लॉजेस’ नामक गुप्त संस्था के सदस्य थे। उनकी सोच थी कि ब्रिटिश वहाँ कनाडावासिओं पर जुल्म ढा रहे हैं। न्यूयार्क से समुद्री रास्ते से ऑन्टारियो पहुँच कर उनलोगों ने न्यूपोर्ट में एक मजबूत गढ़ भी बना लिया था। मगर पाँच दिनों के युद्ध के बाद अंततः उन्हे हथियार डालना पड़ा। उन्हे एवं उनके साथियों को गिरफ्तार कर एक नौका से किंग्सटन भेजा गया। यह भी देखिए, उन्होंने अपने बचाव में भविष्य में कनाडा का प्रधान मंत्री बननेवाले उसी जॉन अलेक्जांडर मैक्डोनाल्ड को नियुक्त भी कर लिया था। पर फौजी अदालत ने इंकार कर दिया,‘मगर मिस्टर शूल्ज, कानून के मुताबिक आपको अपना बचाव खुद करना होगा। आप अपने लिए किसी वकील को नियुक्त नहीं कर सकते।’

कहा तो यही जाता है कि नील्स वॉन ने अदालत में बहुत ही शराफत एवं विनम्रता से कहा था,‘मुझे गलत सूचना ही मिली थी। मैं वस्तु स्थिति का सही आँकलन कर नहीं सका। सचमुच मुझसे गलती हो गई।’ यह भी कहा जाता है कि कनाडा के ढेर सारे प्रतिष्ठित लोग उनकी मुक्ति के लिए आवेदन करते रहे। मगर हुआ कुछ नहीं। सभी उनकी शराफत के कायल थे। आखिर आठ दिसंबर सन 1838 में फोर्ट हेनरी में उन्हें फांसी से लटका दिया गया।

पुस्तिका में छपी लोअर फोर्ट स्थित रॉयल आर्टिलरी की एक तस्वीर (सन्.1867) में एक कोने पर एक भूतनी की छाया भी दिखती है। वाह रे कमाल! काया नहीं पर छाया तो है।

यह भी एक गजब का सफर है। किंग्सटन और ऑन्टारिओ में प्रेतलोक की सैर। टिकट16.75डा., विद्यार्थियों के लिए सिर्फ14.75डा.। यानी सिनेमा सर्कस देखने की तरह भूत देखने के लिए भी स्टूडेंट्स् कनसेशन !

ज़रा एक दफे सोचिए मियां, (शब्द निर्माण के लिए माफीनामा पेश करते हुए) कोई गोरा ‘गोरनी’ भूत भूतनी अगर, वहाँ मुझसे कहते आकर,‘हैल्लो मिस्टर, आइये अपनी मिसेज के साथ हमारे साथ कॉफी पीजिए न।’

तो मेरी हालत क्या होती? मैं न कहता?-‘मिस्टर श्वेत प्रेत, मेरे पास फिलहाल एक ही पैंट है। कहीं वो आगे से गीला, पीछे से पीला हो जाये तो घर पहुँचूँगा कैसे ?’  

इस पर वो अगर कहता ?-‘यही तो मुश्किल है, भाया। तुम्हारी ही गीता में नहीं है? – वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ? यानी तुम्हारे पास जो है, वो तो फटा वस्त्र मात्र है ? उसका इतना गरूर? अरे असली चीज तो मेरे पास है। यानी रुह, वही भाया – जिसे तुम लोग आत्मा कहते हो। पर काले बबुआ, (अब भूत की उमर का तो कोई आर पार होता नहीं। मैं सिक्सटी का हुआ तो क्या हुआ ? वो मुझे बबुआ तो कह ही सकता है।) चूँकि तुम्हारे हियाँ आत्मा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग इस पर पंडितों में घमासान मचा रहता है, तो इस झगड़े के चक्कर में मुझे ही भूतनी मत बना देना। बिरहा बिरहा मत कहो बिरहा है शमशान! जीते जी तो विरह में भले ही कट गया हो, मगर अब मुझसे मेरी भूतनी को जुदा मत करो। मुझे मर्द ही बने रहने दो।’

मुझे याद आया सच हमारे यहाँ के संस्कृत के विद्वान आत्मा को तो पुल्लिंग ही मानते हैं। कवि त्रिलोचन शास्त्री ने ‘शब्द’ में लिखा है – ‘अपनी अपनी चमक दिखा कर , कहाँ गया वह आत्मा/जिसकी सब तलाश करते हैं, जिस की रेखा/ नहीं बनी लेकिन सत्ता का शोर हो गया/ सारे जग में, आत्मा ही तो है परमात्मा.’

‘बनारसी बबुआ, यह तो बताओ – अगर आत्मा स्त्रीलिंग है, तो फिर परमात्मा पुल्लिंग कैसे ? फूलगोभी में फूल पुल्लिंग और गोभी नारीलिंग। कुल मिला कर फूलगोभी ने भी साड़ी पहन ली। उसी तरह…….’

सोचते सुनते, सुनते सोचते मेरा तो, बिलीव मी, सर चकराने लगा मैं हो गया बेहोश। ष्वेत प्रेत के मुँह से गीतोपदेश से लेकर हिन्दी के शब्द विचार – अरे बप्पा! मेरे लिए तो गीता का बस इतना ही मतलब है कि रंगीन कैलेंडर पर बने पाँच घोड़ेवाले रथ में बैठे श्रीकृष्ण मुसकिया रहे हैं। पीछे मुड़कर दोस्त को कुछ बतिया रहे हैं, और उ धनुर्धारी अर्जुन हथियार डाल के मुँह लटका के पीछे बैठा है। हाय, हाय!

धड़ाम् …..मैं गिरा……। जागा तो स्वयम् को बिटिया के घर में ही पाया। अपने बिस्तर पर ……। इतने में हों….ओं…..हों…..ओं…..झिर झिर घिर घिर….. हों… ओं….          

अरे बापरे! यह कैसा शब्द राग है? क्या मेपल के पेड़ से कोई श्वेत प्रेत नीचे उतर आया है ? पहली रात को तो मैं सचमुच चौंक गया था। झूम की माँ भी डर गयी थी। ऊँ…..ऊँ….मानो सौ बिलार एकसाथ एक दूसरे को गरिया रहे हैं। भूत बंगले की आवाज। अभी शायद कहीं दूर से कई सियार हुआँ हुआँ करके प्रेताराधना करेंगे।

अरे भाई, यह तो बताओ – यह है क्या? खिड़की का शीशा बंद कर दो, तो आवाज में खड़ी पाई। जरा फिर से खोलो हे, ससुर नंदिनी। तो फिर वही हूँ ……ऊँ….। मानो किसी की रूह दस्तक दे रही है। अरे मालिक, इ गजब का डरावना माहौल बाय!

एक और आवाज यहाँ जब तब सुनाई पड़ती है। एम्बुलेंस की अभियान-वार्ता – हुँओं…हुँओं….। और झूम बता रही थी फायर ब्रिगेडवाले भी खूब दौड़ते रहते हैं। बस फायर अलार्म बजने की देर है ….

मुआमला यह है कि ऑन्टारियो झील के बिलकुल किनारे होने के कारण ऐसे भी यहाँ पवन को पूरी छूट है। सम्पूर्ण स्वाधीनता। वो बड़े बड़ों को हिलाकर रख दे। तो….फिर से खिड़की को स्लाइड करके खोलो तो….

बाणभट्ट को जब वज्रतीर्थ श्मशान में खींच कर ले जाया गया तो…..‘जलती चिताओं के पास थोड़ा प्रकाश दिखाई दे जाता था, परंतु उनके आगे अंधकार और भी ठोस हो जाता था। रह-रहकर उलूकों के घूत्कार और शिवाओं के चीत्कार से श्मशान का वातावरण प्रकंपित हो उठता था।(बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’- दशम उच्छ्वास)

कुछ याद आया ?

 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 14 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

क्वीनस् यूनिवर्सिटी और किंग्सटन

नायाग्रा जाने के पहले ही एक दिन रुपाई अपना डिपार्टमेंट दिखाने ले चला। रात के नौ बज गये थे। फिर भी ‘दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला’ (हरिऔध)। सुनसान सड़क पर कार पार्क करके हम चारों मेन गेट से अंदर पहुँचे। एक महिला सुरक्षा कर्मी ने स्वागत किया। फिर प्रोफेसर्स कार्नर में जाने के लिए रुपाई को अपनी चाबी लगानी पड़ी। शीशे का दरवाजा खुल गया। उसकी सास तो गदगद हो उठीं। उसके केबिन में रैक पर किताबें, रिसर्च पेपर्स, दो मेज पर दो कम्प्यूटर। गाइड एवं शोध छात्र अपने अपने काम में लगे रह सकते हैं। एक राइटिंग बोर्ड लटक रहा है। लिखो और मिटाओ। व्हाइट बोर्ड और मार्कर पेन। क्या पोर्टिको है, क्या पैसेज है! यहाँ प्रोफेसर के कमरे के अंदर कोई साफ करने नहीं आता है। वहाँ अपना हाथ जगन्नाथ। सफाई स्टाफ केवल बरामदे तक ही अपने हाथ का जादू दिखाते हैं।

क्वीनस् यूनिवर्सिटी की पुरानी इमारत की स्थापना 16 अक्टूबर 1841 को हुई थी। पुरानी इमारत को बनाये रखते हुए ही नयी बिल्डिंग बनाये गये। हमारे बीएचयू की तरह ही यह विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। बिल्डिंग के अंदर घुसते ही एक अहाते नुमा जगह में ऊपर से कई झंडे लटक रहे हैं। जिन देशों के विद्यार्थी यहाँ पढ़ने आते हैं, उन देशों के झंडे हैं ये। इनमें हमारा तिरंगा भी है। गौरव! आत्म गरिमा से गदगद हो उठे हमारे हृदय युगल!

एक रात खूब बारिश होने लगी। झम झम झमा झम। ताज्जुब की बात – इतना पानी बरसने के बावजूद यहाँ न बिजली जाती है, न और कुछ। काशी में तो इंद्रदेव नाक भी छिड़के तो बिजली मैया मुँह छुपा लेती हैं। मैं बरामदे में बैठा था। झूम की माँ भी वरूणदेव के साथ साथ बरस रही थी,‘अरे भींग जाइयेगा। अंदर आकर बैठिये न।’

झूम जानती है उसके इस पागल पापा को। वह हँस रही थी। रुपाई ठहरा भद्रमहोदय। बेचारा किससे क्या कहे ? ससुरा पागल हमें जो मिला / शिकवा किससे करें या गिला ?

अंटारियो लेक के ऊपर आकाश में काले से लेकर सफेद या राख-रंग के बादल मदमस्त जंगली हाथियों के झुंड की तरह मँडरा रहे थे। जैसे हस्ती यूथ के बीच से निकल कर कोई छोटा छौना इधर से उधर दौड़ने लगता है और उसकी मां सूँड़ उठा कर उसे मना करती है, बुलाती है,‘अरे छोटुआ, वहाँ मत जा। लौट आ, मेरे लाल।’उसी तरह विशाल आकार के मेघों के बीच से निकल कर कोई बादल का टुकड़ा गगन के सैर पर निकल पड़ता है। ‘अरे वो क्या है जो चाँदी की तरह चमक रहा है?’ बादल के किनारे की उज्ज्वल प्रभा को देखकर शायद वह छोटू बादल यही सोचता होगा। आकाश अगर स्त्रीलिंग शब्द होता तो कविगण आराम से मेघमाला को उसके कुंतल सोच सकते थे। वैसे बताते चलें कि बंगला में – खासकर भाटियाली गानों में ( जैसे बंदिनी में एस.डी.बर्मन का गीत – ओ मोरे माझि, ले चलो पार!) कुँच बरन(वर्ण यानी रंग) कन्या तेरा मेघबरन चुल(बाल) एक सार्वभौम उपमा है। जरा कवि कुल शिरोमणि कालिदास के मेघदूत के पूर्वमेघ से सुनिए, साथ में अपटु अनुवाद –

तस्य स्थित्वा कथमपिपुरः कौतुकाधानहेतो रन्तर्वाश्पचिरमनुचरो राज राजस्य दध्यौ।

देख काले बादलों के यूथ / मन में यक्ष ने सोचा कि हाय

उमड़ घुमड़ इन मेघों को देख / क्यों न प्रिया-छवि हृदय में समाय ?

रात भर धरती मैया ने दिव्य स्नान कर लिया। सुबह से ही बदरी है। हम चारों चल रहे हैं रुपाई की गाड़ी से गैनानॉक शहर की ओर। किंग्सटन से बस कुछ दूर । दोनों तरफ हरे हरे पेड़ – चीड़ वगैरह। इधर मेपल उतने नहीं हैं। अब तो मेपल कनाडा का प्रतीक ही बन गया है। झंडे से लेकर मिलिट्री के पदक एवं कनाडियन डॉलर पर आप इन पत्तियों को देख सकते हैं। एक मैक्डोनल्ड के सामने गाड़ी थमी।

‘चलिए, नाश्ता कर लिया जाए।’

वहाँ काउंटर की बगल में लिखा था यहाँ की हर बिक्री का दस सेंट निराश्रय लोगों के ठौर ठिकाना बनाने के लिए दिया जाता है।

पेड़ों के उस पार जंगल। दाहिने बीच बीच में सेंट लॉरेन्स नदी दीख जाती है। उसके बीच थाउजैंड आइलैंड के द्वीप समूह। विशाल झील में बिखरे छोटे छोटे द्वीप। कहीं कहीं तो एक टापू पर बस एक ही मकान है।

सामने एक सुंदर से मोहल्ले के बाहर लिखा था आईवीली। रुपाई ने रथ को वहीं एक किनारे लगा दिया,‘लीजिए उतर कर देखिए। कितने सुंदर सुंदर बंगलानुमा मकान हैं। सब एकतल्ले।’

मकानों के सामने हरा गालीचा बिछा हुआ है। उस पर रंग बिरंगी चिड़ियां दाना चुग रही हैं। हम बगल की घासों के ऊपर से नदी की ओर रुख करते हैं। मगर अई ओ मईया! घासों के बीच सब्जी के मंगरैले की तरह ये क्या बिखरे पड़े हैं? श्वान मल?

‘अरे नहीं। ये तो सारे बत्तख यानी कनाडियन गीस पेट पूजा करते करते प्रसाद वितरण करते गये हैं। वाह प्यारे परिंदे, तेरा जवाब नहीं।’   

रुपाई ने सावधान किया,‘ज्यादा आगे मत जाइये। यहाँ के बाशिंदे बुरा मानते हैं। उन्हें लगता है उनके अमन चैन में टूरिस्ट खलल डालने आ पहुँचते हैं। असल में इतने एकांत में रहते रहते उनकी सहनशीलता शायद काफी कम हो गई है। यहाँ तो ऐसे केस भी हुए हैं कि पड़ोसी ने अपने बरामदे में कपड़ा पसारा है, तो लोग म्युनिसिपल्टी में शिकायत दर्ज कराने पहुँच गये हैं कि मोहल्ले की शोभा का सत्यानाश हो रहा है।’

बाहर मुख्य सड़क पर निकल आया। हरियाली के बीच एक सेमिट्री। कब्रिस्तान। सचमुच बड़ी ही शांति से सब आखिरी नींद में सो रहे हैं। कमसे कम इस समय तो सब चैन की नींद सो रहे हैं। जरा हमारे मणिकर्णिका को याद कीजिए। मरने के बाद भी गंदगी और झंझटों से मुक्ति नहीं। ‘का भैया, लकड़ी आजकल क रुपैया मन चल थौ?’ का मोलभाव। चारों ओर गंदगी का आलम। हड्डी और काँच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। उसीमें नंगे पैर भी चलना है। कुत्ते आपस में झीना झपटी कर रहे हैं। उसीके बीच पितरों को पिंडदान करो। किसी की आँख के आँसू सूखे भी नहीं है, तो कहीं इस बात की पंचायत हो रही है कि जो मृत को दागेगा वही संपत्ति का अधिकारी बनेगा आदि। साथ साथ,‘ए पप्पुआ, एहर चाय नांही देहले? कुछ्छो कह, मणिकर्णिका की चाय के स्वादे निराला हौ !’

रुपाई बोला,‘जाड़े में ये सारी सड़क, समूची झील सब बर्फ से ढक जाती हैं। पेड़ो की पत्तियां गायब हो जाती हैं। दूर तक जंगल दिखने लगता है।’

‘तो ये लोग करते क्या हैं? कहीं जाना आना हो तो कैसे जाते है?’

‘सुबह से ही कार्पोरेशन की गाड़ी आकर बर्फ की सफाई में लग जाती है।’

सड़क के किनारे किनारे सफेद लकीर खींच कर साईकिल के लिए रास्ता बना है। इक्के दुक्के साईकिल वहाँ चल रही है।

एक ब्रिज जिसके दोनों ओर फूल लगे हैं, उसे पार कर हम गैनानॉक पहुँचे। यहाँ के लोग इसे गांव ही कहते हैं। आगे यहॉँ के टाउन हॉल के सामने यहाँ की लाइब्रेरी है। मुख्य द्वार बंद था। बांये से अंदर दाखिल हुआ। वाह! करीने से किताबें रक्खी हुई हैं। बेंच पर एक लड़का अधलेटा कोई किताब पढ़ रहा है। रैक पर रखी किताबों में से एक मैं उठा लेता हूँ। किताब का शीर्षक है – ‘मैं माँ को प्यार करता हूँ!’। हर पृष्ठ पर किसी एक जीव के मां-बेटे की तस्वीर है, और उसके नीचे कुछ लिखा है। जैसे – वह मुझे कहानी सुनाती है (पृष्ठ पर इंसान के मां बेटे बने हैं।), वह मुझसे बात करती है (बिल्ली के मां-बेटे), वह बहुत विशाल है (हाथी), वह मुझे खिलाती है(भेंड़)। उसी तरह भालू, पांडा और सारे…….

एक तरफ कम्प्यूटर, लोग इंटरनेट कर रहे हैं।

लाइब्रेरी के सामने टाउन हॉल के मैदान में एक पिआनो रखा है। उसीके आगे एक उन्नीस साल के लड़के की स्मृति में एक सैनिक की मूर्ति। 1917 में उसने सेना में योगदान किया। जंग के दौरान एक सूचना लाने में वह जख्मी हो गया। उस सूचना से उसके कॉमरेड लोग तो बच गये। परंतु अगले दिन ही वह अभागा सारे जख्मों के ,सारे दर्दों के पार चला गया ……..। ऐ जंग की दुन्दभि बजाने वाले, जरा सोचो – यही है युद्ध!

सड़क चली जा रही है। रास्ते में हर घर का लेटर बॉक्स सड़क किनारे खड़ा है। ताकि ऊँचाई पर स्थित या जंगल के भीतर के घरों तक किसी को जाना न पड़े।

कई मकानों के आगे बोर्ड पर लिखा है – बिक्री के लिए। इसी सम्पत्ति के लिए भाई भाई का दुश्मन बन जाता है। अदालत का चक्कर काटते काटते पैर थक जाते हैं। मन में आया…….ईंट की दीवारों के लिए, उठा बड़ों पर हाथ ! पंछी जब उड़ जायेगा, क्या ले जायेगा साथ ? 

रास्ते में एक जगह कई काले काले घोड़े घास चर रहे थे। क्या तंदुरुस्ती है इनकी! काले बदन पर धूप मानो फिसलती जा रही है। फिर एक जगह कई गायें भी घास चर रही थीं। गोरे गोरे बदन पर काले या भूरे धब्बे। इनके नथुने भी गुलाबी। हम काले लोगों के यहाँ तो गाय के नथुने भी काले। और इनका आकार? माफ करना गोपाल, नजर न लग जाए।

उधर चर रहे हैं भेड़ों के रेवड़। हमने कश्मीर, हिमाचल या उत्तराखंड में चरवाहों के पास ऐसे रेवड़ देखे हैं। फिर भी यहाँ की बात ही अलग है। और काशी के आस पास घास के मैदान है ही कहाँ ? चारों ओर तो खेती की जमीन बेच खरीद कर फ्लैट बनाये जा रहे हैं। तो हाल-ए-बनारस पर अशोक ‘अंजुम’ की दो पंक्तियाँ – आरी ने घायल किए, हरियाली के पांव। कंकरीट में दब गया, होरीवाला गांव।   

यहाँ किसी रास्ते पर चलते हुए बिलकुल अपरिचित पुरुष या महिला भी आपको हैल्लो या हाई कहेंगे। निःसंकोच। रास्ते में एक दो बार बाईकर गैंग से भी हमारा पाला पड़ा। यह फैशन खूब चल पड़ा है। सात आठ युवक युवतिओं की टोली काले कपड़े पहन कर, काले हेलमेट वगैरह लगाकर फुल स्पीड से हाईवे पर बाईक दौड़ाते हैं।

कहीं भी जाइये बूढ़े या असमर्थ लोगों के लिए अलग व्यवस्था है। वाशरूम अलग, एअरपोर्ट में उनके लिए अलग से बैठने की जगह। दूसरा कोई नहीं बैठ सकता। नायाग्रा के पार्किंग में उनके लिए बनी जगह में आपने कार पार्क की तो भरिए जुर्माना। पार्किंग लॉट पर सफेद लकीर करीने से खींच कर एक एक कार पार्क करने की जगह को निर्धारित किया गया है।

किंग्सटन के मार्केट स्क्वेअर में शनि और रविवार को बाजार लगता है। वहाँ तरह तरह के फूल भी खूब बिकते हैं। वहीं एक शाम को एक गोरा मदारी टाइप आदमी अलाउद्दीन की तरह नागड़ा पहन कर खेल दिखा रहा था। उसके सिर पर बाकायदा पगड़ी भी थी। पूरा अलाउद्दीन।

आज जहाँ कनफेडरेशन हॉल है, ठीक उसके पीछे ही है मार्केट स्क्वैअर। उसे जमाने में इसका रूप ही कुछ अलग था। वहाँ जहाजों से उतारे गये मालों को रक्खा जाता था। 18.4.1840.की सुबह अचानक तेज आँधी चलने लगी थी। डॉक के पास करीब 70 से 100 केग गन पाउडर रखे हुए थे। जाने कहाँ से उसमें आग लग गयी। फिर क्या था? देखते देखते अग्निकांड में पुराना शहर ही ध्वस्त हो गया। आगे चूने पत्थरों से नवीन नगरी का पुनर्निमाण हुआ। इसीलिए तो इसे लाइमस्टोन सिटी कहा जाता है।

किंग्सटन अपनी मिलिट्री अकादेमी के लिए भी मशहूर है।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- डर के आगे जीत है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- डर के आगे जीत है  ??

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, “अरेे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा ख़त्म! अब तो डर।” इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा, “अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जायेगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।”

साहस और मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा, ‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 102 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (3)

पंडित केरी पोंथियाँ, ज्यों तीतुर कौ ज्ञान।

औरण सगुण बतात हैं, अपनौ फंद न जान॥

शाब्दिक अर्थ:-  पंडित जी अपनी पोथियों के साथ प्राय: तोता या तीतर पक्षी को साथ लेकर सड़क के किनारे बैठे बैठे लोगों का भविष्य फल बताते हैं। उनकी पोंथियाँ में ज्ञान तीतर के ज्ञान जैसा ही होता है जो दूसरों का सगुन तो बता देता हैं पर पंडित जी अपना स्वयं का  भविष्य नहीं जान पाते और ज़िंदगी सड़क के किनारे बैठे बैठे काट देते हैं।

रामायण पाण्डे के दिन बहुरे। हिरदेपुर गाँव दमोह से कोई 3-4 मील दूर था और बाँसा, जो कोपरा नदी के तट पर बसा है,  से भी नजदीक ही था। काली मिट्टी के खेत में उपज अच्छी हो जाती थी। मंदिर से लगी खेती को रामायण पाण्डे अधिया बटाई पर किसी भी काश्तकार को दे देते और गेंहू, ज्वार, मूंग और तिलहन की इतनी उपज तो हो ही जाती कि भगवान का दोनों समय का भोग लग जाता और उसी भोग से पंडित जी के परिवार का भरण पोषण हो जाता। रामायण ज्यादा लालची न थे अत: खेती की उपज बढ़ाने के कोई अन्य उपाय उन्होने कभी सोचे ही नहीं। बटाईदार जितना दे जाते खुशी खुशी भगवान का प्रसाद समझ मंदिर से लगी कोठरी में रखवा लेते। जब कभी किसान दूध और दही भी भगवान को चढ़ा जाते वह भी रामायण पाण्डे और उनके परिवार के काम आ जाता। पर पंडिताइन को इतने से संतोष न था और उनकी ताने बाजी चलती रहती। पंडिताइन हमेशा रामायण से कहती

‘दूसरन खों तो पुथन्ना पढ़ पढ़ खूब ज्ञान देत हो अपने बारे में भी कच्छु सोचो।‘

रामायण ऐसे अवसर पर चुप रह जाना ही पसंद करते और सिर्फ इतना कहते ‘अरी भागवान संतोष रख, भोले की कृपा से अच्छे दिन आए हैं।‘ पर पंडिताइन भी कहाँ मानती दो चार बातें और सुना देती और जब रामायण के तर्कों के आगे उनकी न चलती तो बिसुरते हुये कह उठती

‘सजीवन के भविष की तो सोचो तुमाए तरीका से तो  चल गई गिरस्ती और हो गओ मोड़ा को बियाव।‘

हार थक रामायण यह कहावत कह चुप हो जाते

“माखी गुड माँ गड़ी रहे पंख रहे लिपटाय हाथ मले अरु सिर धुने कहे लालच बुरी बलाय।‘

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

चल घर राही आपुनो

कार हाईवे पर अपनी गति से चल रही है। स्मृति कानों में वशीर बद्र  के शेर को लगी गुनगुनानेःः ‘न जी भर के देखा, न कुछ बात की। बड़ी आरजू थी मुलाकात की।’ तो नायाग्रा, अलविदा।

कार में चलते चलते यह भी बता दें कि नायाग्रा की चुनौती भी अजीब है। उसे देखकर लोग केवल उसके दीवाने ही नहीं हो जाते, बल्कि कइयों ने उस पर छलाँग लगाने की कोशिश की या रस्सी पर चलकर उसे पार करने का प्रयास किया। वही शमा-परवाने की दास्तां। सबसे पहले मिचिगन की एक स्कूल टीचर एन्नी एडसन टेलर ने 63 साल की उम्र में एक बैरेल में खुद को बंद करके नायाग्रा के ऊपर से नीचे छलाँग लगायी थी। दिन था 24 अक्टूबर, 1901। यह तो यीशु की किरपा समझिए कि उन्हें कुछ खरौंच और हल्की चोट से अधिक कुछ न हुआ। वह मर्दानी बच गयी। उनके पहले 19 अक्टूबर को एक बेचारी बिल्ली इयागारा को इसी तरह बक्से में बंद करके ऊपर से नीचे झरने में फेंका गया। वह भी बच गयी या शहीद हो गयी – यह बात विवादास्पद है। सरफिरे इंसानों की करामात तो जरा देखिए।

बिना किसी सहायता के छलाँग लगा कर जिन्दा बच जाने वाला पहला इन्सान था वही मिचिगन का किर्क जोन्स कैन्टॉन। 20.10.2003 को हार्स शू फॉल से झरने की धारा में वह कूद गया था।

अब यह हाईवे वैसे तो छह लेन का है ही। मगर डिवाइडर की ओर सबसे बायें है एच् ओ वी यानी हाई अॅक्युपेन्सि लेन। अर्थात दो से अधिक यात्री लेकर जो कार जा रही है, केवल वही इस लेन से जायें। टोरंटो में पैन अमेरिकन गेम्स चलने के कारण टोरंटो के पास यह सूचना जारी हो गई। उद्देश्य है कि सब कार पुल करके चलायें। एक ही कार में कई सवारी, रहे सलामत दोस्ती हमारी !  

दोनों तरफ पेड़, लंबी लंबी घास – हरे रंग का समारोह। बीच से दौड़ती चमकती काली सड़क। उस पर लेन को बाँटने वाले सफेद दाग भी महावर की तरह चमक रहे हैं। कहीं कहीं सड़क पर इस छोर से उस छोर तक ब्रिज। वैसे तो टोरंटो डाउन टाउन बीस तीस कि.मी. दूर है यहाँ से। मगर कितनी सारी बहुमंजिली इमारतें। चालीस पचास तल्ले या उससे अधिक भी। सांय सांय भागती कारें। दिन में भी सबकी हेड लाइट जल रही हैं। काँहे भाई ? पूछने पर रुपाई फरमाते हैं, ‘गाड़ी स्टार्ट करते ही हेड लाइट जल उठती है।’

रास्ते में जंगलों के पास बाड़े की शक्ल में ऊँची साउंडप्रुफ दीवार खड़ी है। ताकि वाहनों की पों पों से वनवासियों की शांति में कोई व्याघात न पहुँचे। जंगल के चैन में कोई खलल न पड़े। वाह रे संवेदना!

कहीं कहीं पेड़ों के पीछे से झाँकते कॉटेज। यहाँ किसी मकान में छत नहीं होती। ऊपर सिर्फ ढलान होती है।

धरती पर भी नाव चलती है क्या? जी हाँ। किसी कार के ऊपर, तो किसी कार के पीछे ट्रॉली पर सवार है नौका। किंग्सटन में तो लोग कैनो या छोटी नाव कार के ऊपर चढ़ा कर खूब चलते हैं। वहाँ तो घर के सामने भी कार की तरह नाव रखी होती है।

इतने में भुर्र भुर्र …..बगल में श्रीमतीजी की नाक सुर साधना करने लगी है। रुपाई ने गाड़ी रोकने के लिए कहा,‘ जरा माँ से पूछ लो।’

मैं ने कहा,‘फिलहाल तो वो कुंभकर्ण की मौसी बनी बैठी हैं।’

‘नहीं। मैं कहाँ सो रही हूँ ?’तुरंत नारी शक्ति का प्रतिवाद।

‘बिलकुल नहीं।’मेरा उवाच,‘वो कहाँ सो रही हैं? उनकी नाक तो कीर्तन कर रही है, बस। हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे!’   

रास्ते में पोर्ट होप ऑनरूट में गाड़ी थमी। रास्ते में जामाता बार बार पूछ रहा था, ‘पापा को वॉश रूम तो नहीं जाना है ? तो कहीं रुक जाऊँ ?’

कहीं का मतलब रास्ते के किनारे नहीं, भाई। क्या मुझे जेल भिजवाना है? रुपाई किसी अॅानरूट पर रोकने की बात कर रहा है।

मैं रास्ते भर ना ना करता रहा। कोई जरूरत नहीं है। अगला ऑनरूट कितनी दूर है? वगैरह। मगर उसने जब सचमुच एक ऑनरूट रेस्तोराँ पर रोका तो लगा सीट बेल्ट तोड़ कर निकल भागूँ। चरमोत्कर्ष पर थी मेरी व्याकुलता। भार्या उबलती रही,‘बेचारा तो बार बार पूछ रहा था। तब बहुत शरीफ बन रहे थे। छिः। बाहर निकल कर कोई ऐसा करता है भला ?’

अरे ससुर सुता, तुम क्या जानो मर्दों को किस तरह ‘पौरूष-कर’ यानी प्रोस्टेट का टैक्स चुकाना पड़ता है ? हाँ, तो सीट बेल्ट लगाना यहाँ जरूरी है (शहरे बनारस में उसे कउन माई का लाल लगाता है?), मगर ऐसी आपात स्थिति उत्पन्न होने पर बड़ी मुसीबत होती है। लगता है सारे जंजीरों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ूँ ……..

 पता नहीं क्यों पहले से उतनी ताकीद महसूस नहीं कर रहा था। मगर कार पार्क करते करते मुझे लगा मैं दरवाजा खोलकर छलाँग लगा लूँ। उतरते ही मैं दौड़ा वाशरूम की तरफ। भार्या लगी डाँटने,‘ तब से रुपाई पूछ रहा है कि बीच में कहीं रोक लूँ, तब नहीं कह सकते थे? यह क्या बात है ?’

रास्ते के और कुछ दृश्यों का अवलोकन करें –

हम लोग करीब तीन सौ कि.मी. से अधिक हाईवे पर चल चुके हैं। न जाते समय, न आते समय एक भी दुर्घटनाग्रस्त वाहन नजर आया। ऐसे तो यहाँ वैसे एक्सिडेंट्स होते नहीं हैं, पर ज्यों होता है, तुरंत लोग उसकी पूरी व्यवस्था कर लेते हैं। घायलों को कराहने के लिए भगवान भरोसे छोड़ नहीं दिया जाता। बाकी लोगों को डराने के लिए कार की अस्थि को वहीं छोड़ नहीं दी जाती। और बनारस से इलाहाबाद या रेनुसागर ही चले जाइये न, रास्ते में ऐसे ऐसे रोंगटे खड़े करनेवाले दृश्य होंगे कि लगता है कार वार छोड़ कर भाग कर वापस घर पहुँच जाऊँ।

चलते चलते जरा सर्वाधिक प्रधान मंत्रिओं को चुन कर भेजने वाले ऊँचे प्रदेश की बदहाल सड़कों के बारे में अमर उजाला(18.9.15.) की सूचना देखिए :-यातायात नियमों की अवहेलना से नहीं, बल्कि सड़कों की खराब बनावट और गड्ढे के कारण पिछले वर्ष देश में 11.398 से ज्यादा लोगों की मौतें हुईं। इनमें सर्वाधिक हमारे प्रदेश की ‘मौत की राहों‘ पर – 4.455।

बगल से एक भारी भरकम गाड़ी में प्लेन का पंख लाद कर ले जा रहे हैं। उसके आगे पीछे दो एसकर्ट गाड़ी भी चल रही हैं,‘साहबजान, मेहरबान, होशियार सावधान! इस लेन में कत्तई न आयें। वरना -!’

हमरी न मानो सईयां, सिपहिया से पूछो ……….

किंग्सटन लौटते ही हम तीनों को ऊपर पहुँचा कर रुपाई बिन चाय पिये दौड़ा कार वापस करने, वरना एक और दिन की दक्षिणा लग जायेगी। लिफ्ट की दीवार पर मैं ने पहले भी ख्याल किया था कि लिखा है – भार वाहन की अधिकतम क्षमता 907 के.जी. या दस आदमियों के लिए। यानी यहाँ सरकारी हिसाब से लोगों के औसत वजन नब्बे के.जी. होता होगा। फिर भी राह चलते यहाँ कोई किसी की ओर तिरछी निगाह से देखता तक नहीं,‘कौने चक्की का आटा खाला?’ वजनदार महोदय एवं महोदया तो बहुत दृश्यमान होते हैं। चाहे राजमार्ग पर, चाहे मॉल में।

और एक सत्य कथा सुन लीजिए। (अमर उजाला. 5.9.15. से) एक वजनदार दम्पति की कहानी। दोनों की शादी के समय स्टीव का वजन 203 के.जी. रहा। और दुलहिन का 152। वे ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते थे। शादी के स्टेज से तो स्टीव गिर भी गया था। फिर भी दोनों की कोशिशे रंग लाईं। महीनों वर्जिश के बाद स्टीव का वजन 76 के.जी. कम हुआ, और मिशेल का 63 केजी.। हे वर, हे वधू, तुम दोनों को हमारी शुभ कामनायें ! तहे दिल से। तुम्हारा वजन बेशक कम हो, पर तुम्हारी मोहब्बत वजनदार हो ! मे गॉड हेल्प यू माई फ्रेंडस्!

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 11 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

अंबुनाथ का दरबार

कल चलेंगे वापस किंग्सटन। आज सुबह सुबह चारों चले मेरिनलैंड घूमने। यहाँ तरह तरह के सामुद्रिक जीव रक्खे गये हैं। साथ में चिम्पांजी वगैरह कुछ स्थल के जंतु भी हैं। यह एक पिकनिक स्पॉट है। बच्चों को लेकर आइये। उनके लिए तरह तरह के राइड्स् और खेल हैं। ऊपर से नीचे गिरो – धड़ाम्। चक्कर चर्खी में घूमते घूमते ऊपर नीचे हो लो। ऐसे ही सब। हिम्मत हो तो आजमाओ। अगर सीने में हो दम, तब यहाँ पर कम !

झूम ने ऑन लाइन टिकट कटवा लिया था। कार पार्क करके हम अंदर दाखिल हो गये। यहाँ टिकट ‘चेकरिन’ से लेकर ‘गार्डिन’ वगैरह सभी जगह स्त्री शक्ति विराजमान हैं। मजे में पानी बरसने लगा था। एक चीज देखकर मेरा मन बारंबार आह्लादित हो उठता है, और वो है कि कार पार्क करते समय रुपाई स्टियरिंग लॉक अवश्य लगाता है। मेरे मन में अपार हर्ष होता है। क्यों? अरे भाई सब बनारसे को बदनाम करते हैं कि वो ठग नगरी है। यहाँ भी तो उनके मौसेरे भाई रहते हैं।

कार पार्किंग से जब तक रुपाई गेट तक आता, मैं ने देखा मेरिनलैंड की दीवार के पास झाड़ियों पर फालसा जैसे छोटे छोटे फल लगे हैं। जरा चख तो लें। एक कड़ुवा निकला, मगर बाकी? अरे वाह! खट्टा मीठा लाल लाल, पानी लेके धौड़ी आवऽ। इंद्रदेव ने दामाद की नजरों से मेरी रक्षा कर ली।

यहाँ आप एक टिकट से एक ही शो को कई बार देख सकते हैं। कोई रोक टोक नहीं। कल वाले रेनकोट पहनते हुए हम सबसे पहले एक्वेरियम में दाखिल हो गये। कई सील मछलियाँ तैर रही हैं। डुबकी लगा रही हैं। इसी सरोवर को नीचे से भी देखा जा सकता है। वहाँ से और कई रंगीन मछलियां दिखाई देती हैं। ऊपर एम्फिथियेटर जैसा दर्शक दीर्घा बना हुआ है। जो बूढ़े सज्जन वहाँ खड़े थे, ताकि कोई बच्चा रेलिंग पर से टैंक में न झुके, उन्होंने बताया,‘ये सब रिटायर्ड सील हैं। एक सील की उमर औसतन पचास की होती है। तो ये सब चालीस पैंतालीस की हो गई हैं।’

जरा सोचिए, अवसर प्राप्त करने के बाद भी बाकायदा उनकी देखभाल हो रही है। और बुद्ध की जन्मभूमि में जहाँ अहिंसा का नारा बुलन्द किया जाता है, वहाँ क्या होता है? अब तो सरकारी नौकरियों में भी पेंशन गायब हो रहे हैं।

पौने बारह बजे दूसरे बड़े ऑडिटोरियम में शुरू हुआ सी-लायन, डॉल्फिन, बेलुगा व्हेल और वालरस का शो। सबकुछ अद्भुत। उनके कारनामों को देख हम तो बस चकित ही रह गये। ये लोग इन जीवों से कितना प्यार करते हैं, जो उनसे ये करतब करवा लेते हैं। वैसे पशु प्रेमी लोग यह इल्जाम लगाते हैं कि ये उन्हें सिखाने के लिए यातना भी देते हैं। मगर ऐसा नहीं लगता। सर्कस में पशुराज को जैसे हंटर का डर दिखाकर उससे सारे करतब करवाये जाते हैं, यहाँ का माहौल तो उसके बिलकुल विपरीत है। कुछ समझ में नहीं आता। डॉलफिन आदि तो ऐसे ही इन्सानों से प्यार करते हैं। कुत्ते और घोड़ों की तरह।

खैर, सबसे पहले सी लायन का खेल शुरू हुआ। वे फर्श पर घसीटते घसीटते मंच पर आ रहे हैं। फिर ट्रेनर के इशारे पर पानी में छलाँग लगा रहे हैं। एक दूसरे को रिंग पहना रहे हैं। कमर हिला कर नाच रहे हैं। ट्रेनर जब हाथ हिला कर बाई कर रहा है या ताली बजा रहा है, वे अपने फिन्स या पंखों से वही कर रहे हैं। प्रशिक्षक के साथ स्विमिंग पुल में चक्कर काट रहे हैं। सामने घाट पर उठ कर उसे चूम रहे हैं। और हाँ, हर आइटेम के बाद उन्हें उनका मेहनताना चाहिए। यानी, भैया, मुझे मछली दो! और वो देनी पड़ती है। हाथों हाथ। हाँ, ध्यान रहे कि मछली को उनके मुँह में डालते समय उसका मुँह नीचे रहे, यानी मछली की पूँछ ऊपर की ओर हो। वरना सी लायन के गले में खरौंच आ सकती है।

अगला आइटेम है बेलुगा व्हेल का। मुँह से पानी का फव्वारा छोड़ते हुए दो सफेद बेलुगा व्हेल का प्रवेश। ये सिर्फ आर्कटिक महासागरीय अंचल में ही पाये जाते हैं। यानी कनाडा, उत्तर अमेरीका और रूस जैसे देशों के समुद्री तटों के पास। अपने ट्रेनर को थूथन पर उठा कर वे तैर रहे हैं। सवारी करवा रहे हैं। फिर मछली – परितोष एवं पुरस्कार। साथ ही साथ ऑडिटोरियम से उल्लास की ध्वनि आकाश में गूँजने लगती है। सारे बच्चे खुश होकर झूम रहे हैं। बार बार मां का चेहरा अपनी ओर खींच कर कह रहे हैं, ‘मम्मी , वो देखो।’  

उसी तरह कई डॉलफिन मिल कर खेल दिखलाने लगे। पानी के ऊपर छलाँग लगाना, चक्कर खा कर वापस पानी में गिरना। और जाने क्या क्या। वाह भई मजा आ गया। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि इनके कई शो ये एकसाथ समूह में करते हैं। सिन्क्रोनाइज्ड परफॉर्मेंस! जैसे ओलम्पिक में दो तैराक एकसाथ डाइव देते हैं और दूसरे करतब दिखाते हैं, ठीक वैसे। और हमारी शोबाजी क्या हो रही थी ? हम तो बस दांतों तले उँगलियां दबाते रहे।

शो के अंतिम चरण में आविर्भाव हुआ राजा साहब का। वालरस। विशालकाय, भूरा रंग, दो बड़े बड़े दाँत। रूप तेरा मस्ताना। उतने बड़े शरीर को ट्रेनर के साथ साथ मंच के फर्श पर घसीट कर ले जाना ही तो बड़ी बात है। आखिर ये प्राणी तो आर्कटिक अंचल की बर्फ पर ही न रहते हैं।

अयोध्याकांड में भरत कहते हैं न ? ‘पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना।’ भले ही बंदर आदि पशु नाचे और तोते सीताराम सीताराम करें, मगर उनको ये गुण नचानेवाले और पाठ पढ़ानेवाले ही सीखाते हैं।

दोपहर की उदरारती के लिए रुपाई हमें लेकर वहीं मेरीनलैंड के एक रेस्तोरॉ में पहुँचा। वहाँ देखा कई किशोर सर्विस में लगे हुए हैं। रुपाई ने कहा, ‘ये बच्चे स्वरोजगार के लिए छुट्टी के दिनों यहाँ काम करने के लिए आते हैं।’ बाहर रिमझिम बारिश हो रही है। पेट के साथ साथ नेत्रों से भी रसास्वादन होने लगा।

मेरी लाडो आखिर बनारस की बेटी है,‘माँ, मैं जरा झूले पर चढ़ने जा रही हूँ। तुम दोनों वहीं एक्वारियम के ऑडिटोरियम में बैठे रहना।’

‘झूम, सँभाल के। ज्यादा एडवेंचर करने की जरूरत नहीं। चक्कर आने लगेंगे।’ माँ को तो मना करना ही है। रुपाई गया उसके साथ। उनके बचपन में जब मैं बेटी और बेटे को तैराकी सिखाने के लिए गंगा पार ले जाया करता था तो बीच गंगा में ही चिल्लाता रहता,‘चलो मेरे शेर, कूद जाओ।’

ऑडिटोरियम में काफी देर तक बैठे बैठे हम बोर होने लगे थे। हाँ, रुपाई के कहने पर हम लोगों ने बेलुगा व्हेल आदि का दूसरा शो फिर से देख लिया था। वे मेरिन लैंड का चिड़ियाघर देख कर लौटे। इधर हम दोनों दूसरे दो तल्ले के एक टैंक में जाकर किलर व्हेल और दूसरे बेलुगा व्हेल देख आये। अरे जनाब, बेचारे किलर व्हेल को उसके नाम के कारण बदनाम न करें। वे काफी शरीफ प्राणी होते हैं। शिकारी विकारी नहीं। काले नील शरीर पर सफेद आँखे। हाँ दोस्त, तेरा रूप ही जानलेवा है, तू नहीं!  

ऊपर वाले टैंक के पास वही खट्टे मीठे फल। मन ललचा गया। वहाँ के स्टाफ हँसने लगीं,‘ये चेरी के छोटे भाई हैं।’

अब देखिए झूम की मांई की विश्वासघातकता। खुद तो डाल से बिन बिन कर खा रही थी, ‘लीजिए फोटो खींचिए न।’

मगर मैं ने जब हाथ बढ़ाया तो,‘अरे रुपाई नाराज हो जायेगा। पता नहीं कौन सा फल हैं ये।’

किसने लिखा है – नारी तुम केवल श्रद्धा हो (कामायनी)? अरे शेक्सपीयर ने तो काफी पहले ही हैमलेट में लिख दिया था – ‘फ्रेल्टी दाई नेम इज वुमैन!’ विश्वासघात, ऐ नागिनी, क्या तेरा नाम है कामिनी?’ पवित्र बाईबिल की कहानी याद है ? शैतान सेब के फल में कीड़ा बनकर घुस आया और उसने हौवा को बहकाया। हौवा के कहने पर आदम ने उस सेब को खाया, तो लो बच्चू, बेचारे को स्वर्ग से निष्कासित होना पड़ा। क्यों ?

जामाता के सामने मेरी ‘वो’ बिलकुल कौशल्या यशोदा बनी रहती हैं। और मैं ही ठहरा मूढ़ ससुर।

दिन भर बारिश होती रही। मेरिन लैंड में स्कूली बच्चे भी आये हुए थे। उनके मैडम और वे बेचारे भींग रहे थे। नायाग्रा दर्शन वाले रेन कोट भले ही पतले प्लास्टिक के हों, मगर उनसे हम काफी हद तक बचते रहे।   

रात को पहुँचे फिर नायाग्रा से मिलने। वहाँ की आतिशबाजी देखकर तो यही लग रहा था कि रात के अँधेरे को सजाने सितारे आकाश से जमीं पर उतर आ रहे हैं। विद्यापति की एक पंक्ति को रवीन्द्रनाथ ने कहीं लिखा है – जनम अवधि हम रूप निहारल नयन ने तिरपित भेल ……

उनके नूर के दीदार में सारी उम्र्र लगी थी जाने /नजरों की हसरत बुझी न थी, वे चल दी फिर प्यास बुझाने!

अगली सुबह बैक टू किंग्सटन। चलो मन गंगा जमुना तीर …..    

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला “स्वामी जी! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।”

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा-सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा ‘‘तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।’’

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहूँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हांफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा कि  “यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो|”

तो व्यक्ति ने कहा “मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन यह कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।”

स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा  “यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वह ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।”

यही बात लगभग हम सब पर लागू होती है। प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाड़ने में ही रह जाते हैं।

अंततः इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है।

दूसरों से होड़ मत कीजिये, और अपनी मंजिल खुद बनाइये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 9 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

प्रपात के पीछे

यानी सबसे पहले आज बिहाइंड द फॉल देखने जायेंगे। मालूम हुआ हम तीनों को वहाँ नायाग्रा के किनारे तक छोड़ कर वापस आकर रुपाई यहाँ की लाइब्रेरी में बैठकर अपना पेपर पूरा करेगा।

कल दिनभर पिज्जा वगैरह खाने के कारण आज प्रातःकाल पेट कुछ बेअदब हो गया। मेरी सरहज टिपटॉप, सुबह से ही फुलस्टॉप। फिर भी प्रयास जारी रखना, यार। नहा धोकर निकला तो देखा माखनचोर गोपाल के सामने झूम ने केले के दो टुकड़े और एक बड़ी बोतल में पानी रख दिया है। वह जहाँ कहीं भी जाती इस गोपाल की मूर्ति को साथ ले चलती है। बनारस में भी जब आती है तो माखनचोर उसकी गोद में ही रहते हैं। वहाँ हमारे घर के ठाकुर घर में रामकृष्ण परमहंस, शारदा मां, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, महादेव, ससुरजी एवं उनके महाराज, मेरे नाना नानी, बाबा माँ, यानी झूमके दादा दादी और माँ काली आदि के साथ विराजमान हो जाते हैं। मॉन्ट्रीयल के यूल एअरपोर्ट में भी तो गोपाल हम नाना नानी को रीसिव करने आये थे।

मेरा मन भारी होने लगा। हे विश्वद्रष्टा, तुम कब हमारी बात सुनोगे? कब मेरी गुड़िया की गोद में आकर खेलोगे? माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा / करिअ सिसु लीला अति प्रियसीला यह रूप परम अनूपा (बालकांड)! जब शिशु रामचंद्र माता कौशल्या को अपना दिव्य रूप दिखाने लगे तो माँ को वह उतना पसंद क्यों आये ? तो :- माँ कौशल्या हाथ जोड़कर / बोली, ‘खेलो बच्चा बनकर।/देवरूप तो नहीं सुहाता/किलकारी में मन सुख पाता!’  यही तो जीवन का परम सत्य है ! इसी में जीवन का अमृत रस है!

मैं ने हँस कर बेटी से कहा,‘अरे जननी, इतनी बड़ी बोतल में पानी दिया है। बेचारा दिन भर सब कुछ भिंगाता रहेगा।’

अम्मां बोली,‘एक साथ पीने को किसने कहा है? एक एक घूँट पीकर रख दे।’

पहले पेट पूजन, फिर हरि दर्शन। नाश्ते के बाद हम चल पड़े।

जलप्रपात की ओर सड़क की ढलान बिलकुल नीचे चली गई है। नजदीक से नायाग्रा का दीदार करने करीब दस बजे तक हम तीनों वहाँ पहुँच गये। कैसिनो की लंबी इमारत के सामने से सड़क पार करके हम सीढ़ी उतर गये। पहले टिकट, फिर लिफ्ट से नीचे जाओ। फिर एक जगह पीले रंग के पतला सा रेनकोट लो। आगे बढ़ते ही,‘ऐ भाई जरा रुक के चलो।’ वहाँ फोटो खींचा जा रहा है। मैं ने सोचा कि शायद यह फोटो उठाकर मुसाफिर दर्शकों की सूची बना रहे हैं। अरे नहीं मूरख। वापस आते समय वे इसे बेचेंगे। शायद बीस डालर की एक फोटो। कौन लेगा ? खैर, हम अब लिफ्ट के जरिए पहुँचे ठीक जलप्रपात के पीछे बनी सुरंग में। सुरंग के भीतर फर्श पानी पानी जरूर है, मगर फिसलन कहीं नहीं। इसे कहते हैं मेंटेनेंस।

नायाग्रा नदी आकर यहाँ दो भागों में बहती है। पूरब की ओर यूएसए वाला हिस्सा। और इस पार घोड़े के नाल की शक्ल में कनाडावाला। तो जमीन से करीब 56 मीटर नीचे जाकर प्रपात के पीछे बनी सुरंग में खड़े होकर हम झरने को देख रहे हैं। प्रकृति की अद्भुत महफिल सजी हुई है। सामने लाखों मृदंगों की थापों के साथ करोड़ों उर्वशी और रंभायें नाच रही हैं। सारा ब्रह्मांड मदमस्त है। इस दिव्य रूप को देखते जाओ। इसके आगे रोजमर्रे की सारी शिकायतें बिलकुल तुच्छ जान पड़ती है। नायाग्रा जलप्रपात ने अपने ध्रुपद संगीत का ऐसा समाँ बांधा है कि मानो कह रहा हो :-‘ऐ इन्सानों, मेरी इन लहरों की तरह सब एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर चलते रहो। एक दूसरे का साथ न छोड़ो। गले लगालो सबको। अपने मुहल्लेवालों को, अपने शहरवालों को, अपने देशवासिओं को, अपने पड़ोसी मुल्क के लोगों को। तुम्हारे हृदय की धड़कन सुनाई दे सारे विश्ववासियों के सीने में -!’  

सुरंग के अंदर कतार आगे बढ़ रही है। दीवाल पर यहीं के तरह तरह के पुराने फोटोग्राफ लगे हैं। कैसे सुरंग बनी, कैसे एक सुरंग बनते बनते रह गई, कैसे नायाग्रा से हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर का उत्पादन आरंभ हुआ, कौन कौन से विख्यात व्यक्ति इसे देखने यहाँ आये हुए थे, वगैरह। पानी के परदे के उस पार कुछ नहीं दिख रहा है। कुछ नहीं। समझ में आता है कितना बड़ा सत्य छिपा है इस कथन में :- गिरा अनयन नयन बिनु बानी (बालकाण्ड)। वाणी नहीं नैनों के पास/दृष्टि बिन जीभ सारी उदास।

यहाँ भी मनौती की रकम बिखरी पड़ी थी प्रपात धारा के ठीक पीछे, पत्थरों पर। हर जगह भगवान को खुश करने के लिए हम यही उपाय क्यों चुनते हैं? शायद वेदों से ही इसका शुभारंभ है। हे इन्द्र, हे अग्नि, हवि ग्रहण करो, और मुझे यह दो, वह दो! वामन शिवराम आप्टे ने हवः के अर्थ में आहुति, यज्ञ, आवाहन, आदेश से लेकर चुनौती या ललकार तक दिया है। हवनम् का एक अर्थ तो युद्ध के लिए ललकार तक है।

स्वामी जगदीश्वरानंद अनूदित बांग्ला ऋग्वेद के चतुर्थ सुक्त के नौवें श्लोक में है :-(हे इंद्र), धनप्राप्ति के लिए हम आपको हवि के रूप में अन्नदान करते हैं। उसी पुस्तक में है – मार्कंडेय पुराण में देवी लक्ष्मी से कहा गया है – हे चंचला, आप हमारे गृह में पधारिए। आपके प्रसाद से हम ढेर सारा सोना, गायें, पुत्र, पौत्र, दास और दासियां प्राप्त होंगे!(तां म आवहो जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गाबो दास्यो विन्देयं पुरुषानहम्। श्लोक सं. 15)

साथ ही साथ सैमुयेल बटलर (1835-1902) अनूदित होमर का महाकाव्य इलियाड से एक कहानी, इसी विषय पर …….। होमर का दूसरा महाकाव्य ओडिसी को आप इसीका दूसरा खंड कह सकते हैं। एक में अगर ट्राय युद्ध का वर्णन है, तो अगले में है योद्धाओं की घर वापसी।

अब औरत को लेकर झमेला एवं जंग तो रामायण की सीता से लेकर इलियाड की हेलेन ऑफ ट्रॉय तक होते ही आये हैं। नारी महामारी। खैर, जब ट्रॉय का राजकुमार पेरिस स्पार्टा की रानी एवं राजा मेनेलाउस की पत्नी हेलेन को चुरा ले गया तो ट्रॉय के खिलाफ एचियन ग्रीकों ने युद्ध छेड़ दिया। अब जरा अंदर की बात। यहाँ तक पढ़ लेने के पश्चात प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्रीप्रसादजी की बहू डा0 उषा लगी मुझे डाँटने,‘अरे ट्रॉय की कहानी को तो बताना चाहिए। आप भी न बस्स….’। अब पाठकों को क्या मालूम कि हम जैसे चवन्निया लेखकों को जाने कहाँ कहाँ और कितनी बार समालोचनाओं से शराहत होना पड़ता है! और हम तो कोई ‘कलम के अशर्फिया रण बाँकुरे’ नहीं न हैं। हाय अदब, फिर भी हम आते हैं तेरी गलिओं में पत्थरों से लोहा लेने। नश्शए कलम वो है कि छूटता ही नहीं। सो इलियाड से यह कहानी पहले …..

तो स्पार्टा की रानी हेलेन विश्व विख्यात सुंदरी थी। जाने कितने थे उसके चाहनेवाले। रूप ऐसा कि मानो उसी के लिए किसी ने लिखा है – आँखों ने मए हुस्न पिलाई थी एक रोज़, अँगड़ाइयाँ लेता हूँ अभी तक खुमार में! उधर ट्रॉय के राजा प्रियाम और रानी हेकुबा के दो बेटे थे। बड़ा हेक्टर और छोटा पेरिस या आलेक्जांडर। पेरिस भी बला का खूबसूरत था। पेरिस कभी स्पार्टा घूमने गया था। और मौका पाते ही वह हेलेन को अपने संग उड़ा ले आया। ग्रीक योद्धा जहाजों पर सवार होकर ट्रॉय के तट पर आ धमके,‘मेनेलाउस की पत्नी को वापस करो!’

मगर वहाँ भी वही दशानन की तरह जवाब मिला,‘हिम्मत है तो लड़ कर ले जा!’

दस साल तक चला यह युद्ध! कितने योद्धा रणभूमि में खेत रहे। मगर नतीजा जीरो बटा सन्नाटा। आखिर ग्रीक सेनापति ओडिसियस को एक तरकीब सूझी,‘हम एक लकड़ी का खोखला घोड़ा बनायें। उसके अंदर हमारे चुने हुए सिपाही रहेंगे। उस लकड़ी के घोड़े को ट्रॉय के सिंहद्वार के पास छोड़ कर हम जहाज लेकर दूर हट जायें। उन्हें लगेगा कि हम पराजय स्वीकार कर युद्धभूमि से लौट चले हैं। वे उस घोड़े को नगर के अंदर ले जायेंगे तो रात के अँधेरे में हमारे सिपाही घोड़े के पेट से निकल कर ट्रॉय का मुख्यद्वार खोल देगा और हम तब तक वापस आकर अंदर पहुँच जायेंगे।’

बस यही हुआ। घोड़े के पेट पर लिखा था – देवी एथिना के लिए ग्रीकों की भेंट! क्योंकि जंग के दौरान ग्रीकों ने एथिना के मंदिर को तहस नहस कर दिया था। ट्रोजान (ट्रॉय निवासी) पुरोहित लाओकून ने सबको होशियार किया,‘अरे उस घोड़े को फाटक के अंदर मत लाओ। इसमें जरूर ग्रीकों की कोई चाल है।’

मगर उस मौके पर कौन किसका सुनता? ‘ग्रीक भाग गये। हम जंग जीत गये!’कहते हुए ट्रोजान वीर उसे सिंहद्वार के अंदर लेते आये और उसी रात…..अँधेरे में ……..। ग्रीक अपने जहाजी बेड़े को दिन के उजाले में तो दूर ले गये थे, मगर रात तक सब वापस आ चुके थे। और फिर शुरू हो गयी मार काट। बहुत हुआ खून खराबा। अनेकानेक घटनाओं के बाद हेलेन मेनेलाउस को मिल गयी।

अब चढ़ावे की यह कहानी है तब की जब ग्रीकों ने ट्रॉय के बाहर समुद्री तट पर अपने जहाजी बेड़े को खड़ा कर रक्खा था। यानी इलियाड के आरम्भ में। यह उनके अंदरूनी झगड़े की गाथा है। उनके पुरोहित क्राइसेस की बेटी क्राइसिस को ग्रीक सेनापति अगामेनन ने रखैल बनाकर अपने पास रख लिया। क्राइसेस दौलत लेकर गया अगामेनन के पास,‘इसे लेकर मेरी बेटी को छोड़ दो।’

मगर वह इंकार कर गया। पुरोहित क्राइसेस की प्रार्थना से ईश्वर अपेलो अपने चाँदी के धनुष लेकर आये और उनके जहाज पर तीर की वर्षा करने लगे। तो ग्रीक वीर एकिलिस ने सबको बुलाकर कहा,‘अरे इस तरह तो हम सब मारे जायेंगे। जरा पुरोहितों से पूछो कि आखिर फिबस अपेलो हम पर इतना क्रुद्ध क्यों हैं? क्या हमने कोई प्रतिज्ञा तोड़ी है या उन्हें जो ‘हेकाटॉम्ब’ (भेंट) देने की बात कही थी उससे हम मुकर गये?’

प्राचीन ग्रीस में एक हेकाटन का मतलब होता था सौ अच्छे नस्ल के साँड़ों की सौगात। वैसे बारह से भी काम चल जाते। फिर देखिए सौदेबाजी। चेंबर्स में ‘हेकाटॉम्ब’ के अर्थों में लिखा है – शिकारों की एक बड़ी संख्या। ध्यान दीजिए हम भी तो माँ काली को प्रसन्न करने के लिए उनके सामने बलि चढ़ाते हैं। बंगाल में डाकात काली के सामने नरबलि तक होता था। इन्सान अपने लालच में माँ के नाम पर भी कीचड़ उछालने में पीछे नहीं हटता। किसी माँ को क्या अपनी संतान या किसी भी जीव का बलि चाहिए ? बकरीद का अर्थ अब क्या होकर रह गया है? इब्राहीम ने तो अल्लाह के रास्ते पर चलते हुए अपनी सबसे प्यारी वस्तु अपनी औलाद की भी कुरबानी देनी चाही थी। मगर अब -? तो कहानी पर लौटें …….

आगे एकिलिस फिर पूछता है,‘अगर हम उन्हें भेंड़ और बकरिओं का चढ़ावा चढ़ायें तो क्या वे हमें माफ कर देंगे ?’

फिर यहाँ से शुरू होता है ग्रीकों का आपस में मतभेद, मनमुटाव। अब अगामेनन एकिलिस की रखैल ब्राइसिस की माँग करने लगता है। एक हाथ से दो, दूसरे हाथ से लो। वाह! खैर, तो चढ़ावा या मनौती का इतिहास वहाँ भी है। तो आगे……

फिर हम सब सुरंग से निकल आये। लौटते समय हम दोबारा उसमें पहुँचे थे। सीढ़ी से उतरते समय ऊपर लिखा है – जर्नी बिहाइंड द फॉल। तो बाहर प्रपात की बगल में एक छतनुमा घेरे में खड़े होकर चंद्रमौलि पर गंगावतरण का साक्षात दर्शन। शायद इसी ध्वनि से प्राचीन ऋषियों ने हर हर शब्द का निर्माण किया था। हर हर हर हर…… हे कनाडा की गंगा, बस इसी तरह निरंतर बहती जाओ। तुमसे शिकायत रह गयी कि पानी के कतरों में इन्द्रधनुष नहीं दिखा। जो हमने जगदलपुर के चित्रकूट में देखा था। आज आसमां में बादल जो छाये थे।

‘नर्मदा के अमृत’, नंदलाल वसु का शिष्य, चित्रकार एवं लेखक जबलपुर निवासी अमृतलाल वेगड़ ने कहा है,‘जब कोलाहल नहीं रहता, कलरव तभी सुनाई देता है।’ चारों ओर कितनी भाषाओं के पंछी पंख फैलाकर उड़ रहे हैं। कहाँ कहाँ से लोग नहीं आये हैं! शायद अरब, इराक और इज्रायल (सिर पर वही चपटी टोपी, साफ मूँछें और बढ़ी हुई दाढ़ी देख कर कह रहा हूँ।)। उधर जापान, कोरिया और पता नहीं चीन के भी हैं या नहीं। फ्रेंच तो जरूर होंगे। आज भी तो कनाडा में फ्रेंच और अंग्रेजी की तू तू मैं मैं जारी है। उधर अंडाकार चेहरेवाली डच बालायें, तो अफ्रीकी या द0 अमेरिकी भी। मगर कहाँ हैं इस माटी के सच्चे मालिक? एकदिन यहाँ की समूची धरती जिनकी थी। रेड इंडियन ? उनका क्या हुआ ? यहाँ सेंट लारेंस के किनारे की इरोक्विन भाषा में कनाता का अर्थ है गांव या बस्ती। 1763 में उसी से कनाडा का प्रचलन हुआ। आज यहाँ दस प्रदेश हैं। गोरे अगर 76.7 फीसदी हैं, तो एशियन 14.2, अश्वेत 2.9 और आदिवासी सिर्फ 4.3 प्रतिशत। यहाँ के मिलिट्री तमगे पर लैटिन में लिखा होता हैः- ए मारी उस्कू एड मारे। यानी सागर से सागर तक। अर्थात अटलांटिक से प्रशांत महासागर तक साम्राज्य हो! यहाँ का राष्ट्रगान अगर ‘ओ कनाडा’ है, तो राजकीय गान है ‘गॉड सेव द क्वीन’! यानी ग्रेट ब्रिटेन की रानी के प्रति श्रद्धा प्रदर्शन!

इतिहास बहुत निर्मम है। कोलम्बस द्वारा अमरीका की खोज के पश्चात जहाज में बैठकर फ्रेंच और अंग्रेजों का यहाँ आगमन – और फिर? आह! वे रेड इंडियन दौड़ रहे हैं। केवल तीर चलाकर वे कैसे इन बंदूकों का सामना करते? ओह! उस जमाने में तो उनके पास घोड़े भी नहीं थे। घोड़े तो यूरोपियों के साथ ही यहाँ आये। मानो वह समूचा दृश्य आँखों के सामने से गुजर रहा है। बच्चे माँ की छाती से चिपक कर रो रहे हैं। मायें चिल्ला चिल्ला कर अपने ईश्वर को बुला रही हैं। कनाडा की धरती लाल हो उठी है। कैटारकी, सेन्ट लॉरेन्स नदियाँ, ईरी से लेकर ऑन्टारिओ झील – सबकुछ रक्तिम हो गया।

नायाग्रा, तुम्हारी इस गर्जन में उस दिन जाने कितने प्रतिवाद के स्वर मुखर हुये होंगे। हे भगीरथ, आओ, अपना शंख शंख फूँको! इस प्रपात की धारा से इस धरा से सारी कालिमा मिटा कर चिता की राखों से एक नये प्राण का आह्वान कर नहीं सकते ? इन तमाम कुटिल द्वन्द्वों और संघर्षों के बीच अमृत मंथन कर नया जीवन संचार कर नहीं सकते? मगर आज ……

हो हो हो …… सबकी उन्मुक्त हँसी मानो गगन को छू रही है। कोई बच्चे को बुला रहा है, कोई पत्नी या प्रेयसी को। एक दोस्त दूसरे से अनर्गल बातें किया जा रहा है। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मगर शब्द को समझने की जरूरत क्या है ? उनकी भावना की स्निग्ध धारा से हमारा तन मन भी तो सिक्त हो गया। मुक्त हँसी से आ गयी, गुदौलिया (काशी की हृदय स्थली स्थित चौराहा।) की याद। जीअ र’जा, मजा लऽ गुरू, हो आनंद आबाद !

वापसी में एक जगह लिखा था पर्यावरण की रक्षा के लिए प्लास्टिक के रेनकोट को यहीं त्यागते जाइये। अरे नहीं भाई। यहाँ के मौसम का मिजाज समझना बहुत कठिन है। अचानक बारिश होने लगती है। तो इन्हें सँभाल कर ही रक्खा जाए। फिर उन फोटोग्राफरों का सवाल,‘यादगार के लिए अपनी फोटो तो लेते जाइये।’ उनलोगों ने बाकायदा कमरे के अंदर खिंची गयी फोटो के बैकग्राउंड में नायाग्रा की धारा को फिट कर दिया है। वाह भई, फोटोग्राफी के जादू।

आगे बढ़ा तो हमें एक गिफ्ट सेंटर के बीच से होकर निकलना पड़ा। वहाँ एक बड़े हिरण जैसा प्राणी मूस खड़ा है। यानी एक तरह की मूर्ति ही समझिये। उत्तरी यूरोप और एशिया में इसी प्राणी को एल्क कहते हैं। हमे कुछ खरीदना नहीं है भैया। भागो…….भागो………

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 8 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

नायाग्रा जलप्रपात

शाम की चाय रुम में ही हो गई। फिर चले नियाग्रा का दिव्य दर्शन करने। सारी दुनिया से लोग तो इसे ही देखने आते हैं। नारीग्रा, क्याउगा और गहनावेहटा यानी तीन झरनों को एकसाथ आज नायाग्रा ही कहते हैं। ये सब इनके आदिम आदिवासी नाम हैं। इनमें सबसे बड़ा हार्स शू फॉल कनाडावाले हिस्से में है। और दो, यानी अमेरिकन फॉल्स और ब्राइडल फॉल्स उस पार न्यूयार्क की तरफ। यह प्रपात 2600 फीट चौड़ा है। यहाँ पानी 167 से 173 फीट की ऊँचाई नीचे गिरता है। रुपाई बता रहा था वेनेजुएला का एंजेल वाटरफॉल ही दुनिया का सबसे ऊँचा जल प्रपात है।

बस, कार पार्किंग में जो परेशानी हुई। यहाँ नहीं वहाँ। आगे जाओ। झमेला अपरम्पार। खैर घोड़े को अस्तबल मिल गया। हम दाहिनी ओर आगे बढ़े। आगे सड़क। बायें जाकर दो हिस्सों में बँट गई। दाहिने वाले से सीधे वापस ऊपर सड़क पर चले जाओ। बायें से नायाग्रा के किनारे किनारे – इतनी ऊँचाई से उसे जी भर कर देख लो। विहंगम दृश्य। अमां, क्या रूप है! गंगावतरण के लिए अपनी जटाओं को खोलकर नटराज नृत्य कर रहे हैं! रास्ते पर ठट्ट ठठ्ठ भीड़। कोई बच्चों की  फोटो खींच रहा है, तो कोई प्रिया की, या फिर सेल्फी। वहीं काफी आगे दाहिने लेक ईरी से निकल कर यह झरना पूरब की ओर जा रहा है। मंजिल है लेक अॅन्टारियो। उस पार पूरब की ओर अमेरीका वाला हिस्सा दिख रहा है। हरा पानी नीचे छलाँग लगा रहा है। दाहिने कनाडा वाला भाग घोड़े के नाल की तरह अर्द्धचंद्राकार शक्ल में मुड़ा हुआ है। मानो ऊपर से नीचे हरी हरी जलकन्याओं का झुंड सफेद पंखों को हिलाते हुए अटखेलियां करती हुईं नीचे उतर रही हैं। सी-गल पक्षियां उनसे पूछ रहे हैं, ‘कहो नीरबाला, नीचे पहुँच गयीं?’

उधर से आती हवा से पानी की छींटें यहां सड़क तक आ रही हैं। सब दौड़ रहे हैं – भाई, बचके! मगर यहाँ छत्रधारी है कौन ? सब एक दूसरे से लिपट कर मानो बौछार से बच जायेंगे। बिन बारिश की बरसात।

आगे जहाँ से नायाग्रा झरना नीचे छलाँग लगाता है वहाँ परिन्दों की महफिल जमीं हुई है। ‘क्याओं क्याओं! खाने वाने का कुछ लाये हो?’ अपने हल्के बादामी डैनों को हिलाते हुए झुंड के झुंड सफेद सीगल लगे पूछने। कई बच्चे और दूसरे लोग उन्हे ब्रेड वगैरह कुछ खिला रहे थे। और एक काबिले तवज्जुह यानी ध्यान देने योग्य बात – यहाँ ढेर सारी गौरैया भी उड़ उड़ कर दाना चुग रही थीं। हमारे यहाँ तो ये आँगन में, या खिड़कियों पर दिखती ही नहीं। क्यों? मोबाइल टावर को कोसा जाता है। तो वो तो यहाँ भी है कि नहीं ?राम जाने भैया। विज्ञान का अविज्ञान।

सामने बहती धारा में देखा कि पत्थरों पर मनौती के पैसे गिरे पड़े हैं। यहाँ भी यह खूब चलता है। बनारस के घाटों पर पड़े सिक्कों को उठाने के लिए तो मल्लाह के बच्चे गोते लगाते रहते हैं। यहाँ डुबकी लगाने की हिम्मत किसे होगी ?

घड़ी की सूई तो चल चल कर थक गई होगी। मगर संध्या अभी अपनी मंजिल से काफी दूर थी। मानो मायके से ससुराल आना ही नहीं चाहती है। कनाडा में तो नौ के बाद ही संध्या संगीत का आलाप आरंभ होता है।

लोहे की रेलिंग के पास खड़े हम मंत्रमुग्ध होकर झरने को देख रहे हैं। यह कैसा दृश्य है! विंदुसर के तटपर जाने कितने वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात भगीरथ के आह्वान पर जब गंगा स्वर्ग से धरा पर उतरीं, तो नजारा कुछ ऐसा ही रहा होगा। नीचे गंगावतरण के लिए विश्व बंधु शंकर थे खड़े – अपनी जटाओं को बंधन मुक्त कर,‘आओ, हे देवापगा! तुम्हारी प्रचंड धारा को मैं अपने मस्तक पर बांध लूँगा। आओ सुरसरि, धरा पर उतर आओ।’  

चारों ओर निनाद हो रहा है। महादेव का डमरू बज रहा है। प्यासी है धरती, आओ उसकी प्यास बुझाओ। बूँद बूँद पानी के कतरे – एक कुहासा – सामने नीचे धुँध। उसीमें जा रहे हैं कनाडा और यूएसए के जहाज- यात्रिओं को लेकर। उनको कहा जाता है – मेड ऑफ द मिस्ट, कोहरे की कन्या।

शायद प्रकृति भी कोहासे के घूँघट में इस अनूठे रूप को छुपाना चाहती है। नदी पार करते समय वेदव्यास का पिता पराशर ऋशि ने जब मत्स्यगंधा को बांहों में भर लिया था, तो शायद ऐसे ही कोहरे का पर्दा उन्होंने बना लिया था।  

और इतने ऊपर जहाँ हम सारे टूरिस्ट खड़े हैं वहाँ तक आ रही है पानी की फुहार। सावन की रिम झिम। अरे भाई, अपना कैमरा सँभालो। लेंस में पानी लग गया तो सारा खेल चौपट। कैमरे की बैटरी में चार्ज कितना बचा है? अरे, यह तो बस आखिरी साँस ले रही है। धर्मपत्नी से पूछा,‘किंग्सटन से बैटरी चार्जर ले आयी हो न?’

‘वो तो तुम्हारे (बंगाली वधुयें आप नहीं कहतीं) बैग में ही रह गया।’

साफ जवाब सुनकर मेरा मुखड़ा हो गया मेघमय। मुझे भी क्यों नहीं भूल आयी ? हे प्रभु, एकबार पाणिग्रहण में इतनी पीड़ा! अजपुत्र दशरथ की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि तीन तीन बार बलि का बकरा बन गये।

और अर्जुन! सार्थक तीरन्दाज! उनके तो अनेकों नाम हैं। उनमें से एक है सव्यसाची। दाहिने बायें दोनों हाथों से तीर चलाने में समान रूप से कुशल जो थे। अमिताभ बच्चन तो सिर्फ बायें हाथ से रिवाल्वर चलाते हैं। मगर अर्जुन को नैनों के तीर चलाने में भी महारत हासिल थी। द्रौपदी को तो छोड़िए, वो तो सिर्फ बिसमिल्लाह थीं। फिर कन्हैया को पटाकर सुभद्रा, मणिपुर की चित्रांगदा, सागर कन्या उलूपी और जाने कौन कौन। इतनों का भरण पोषण तो छोड़िये, सिर्फ मोबाइल पर हाल चाल लेने में ही तो अपना सारा बैलेन्स बिगड़ जायेगा। वाह रे धनुर्द्धर! अनंग तीर छोड़ने वाले!

हाँ तो इस समय कनाडा में यामिनी की ड्यूटी काफी कम है। शाम के नौ बजे के बाद ही क्षितिज अपने नैनों में काजल लगाना शुरु करता है। अब अँधेरा होने लगा। साढ़े नौ बज गये। वापस होटल चलो। सुबह पाँच बजे तक दिवाकर अपना प्रकाश सजाकर हाजिर हो जाते हैं। तो चलो, होटल में अब रात गुजारो।

अरे यार, क्या बिस्तर है। देह में गुदगुदी, मन में गुदगुदी। फूलों की सेज भी इसके आगे कमतर। मेरी इतनी औकात कहाँ कि ऐसे होटल में कदम भी धरूँ? यह सब तो केयर ऑफ जामाता है। हाँ, वेताल पंच विंशति की वो कहानी याद आ रही है। सवाल था कई कन्यायों में कौन कितनी कोमलांगी है ? उनमें से एक कन्या को सात परतों के शाही बिस्तर पर लेटकर भी केवल इस लिए नींद नहीं आ रही थी, क्योंकि सातवीं तोशक के नीचे एक बाल था। वाह रे नाजुक बदन !

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #110 – बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “लू की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 110 ☆

☆ बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ 

मैं लू हूं. लू यानी गरम हवा. गरमी में जब गरम हवा चलती है तब इसे ही लू चलना कहते हैं. क्या आप मुझे जानते हो ? नहीं ना ? तो चलो, मैं आज अपने बारे में बता कर आप को अपनी आत्मकथा सुनाती हूं.

अकसर गरमी के दिनों में गरम हवा चलती है. इसे ही लू चलना कहते हैं. इस वक्त वातावरण का तापमान 40 डिग्री से अधिक हो जाता है. यह तापमान आप के शरीर के तापमान 37 डिग्री से ​अधिक होता है.

इस ताप पर शरीर की स्वनियंत्रित तापमान प्रणाली शरीर का काम ठीकठाक ढंग से  करती है. इस का काम शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखना होता है. यदि वातावरण का तापमान इस ताप से ज्यादा हो जात है और आप लोग गरमी में बाहर निकल कर खेलते हैं तो तब तुम्हारे शरीर की यह प्रणाली सक्रिय हो जाती है. इस वकत् यह शरीर से पसीना बाहर निकालती रहती है  तुम्हारे शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखा जा सकें.

पसीना आने से शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है. पसीना हवा से सूख जाता है. इस से शरीर में पानी की कमी होने लगती है. इस वकत आप को प्यास लगने लगती है.यदि आप समयसमय पर पानी पीते हो तो शरीर में पानी की पूर्ति हो जाती है.

कभीकभी इस का उल्टा हो जाता हैत. आप समयसमय पर पानी नहीं पीते हो तो शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस दौरान धूप में खेलने या गरम हवा के संपर्क में आने से शरीर में पानी की कमी होने से वह अपने सामान्य तापमान को बनाए रखने के लिए अधिक पसीना निकाल नहीं पाता है. इस के कारण शरीर का तापमान बढ़ जाता है. शरीर के इस तरह तापमान बढ़ने को लू लगना कहते हैं.

लू लगने का आशय आप के शरीर का तापमान अधिक बढ़ जाना होता है. इस दौरान शरीर अपने तापमान को बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है. इस से शरीर को बहुत नुकसान होता हैं. शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस से आप का खून गाढ़ा हो जाता है. जिस से रक्त संचरण में रूकावट आती है. इस रूकावट की वजह से चक्कर आना, उल्टी होना, बेहोशी होना, आंखे जलना जैसी शिकायत होने लगती है. यह सब लू लगने के लक्षण होते हैं.

यदि लू लगने के बाद भी धूप में रहा जाए तो कभीकभी इनसान की मृत्यु हो जाती है. इस कारण गरमी में लू की वजह से कई जनहानि होती रहती है. मगर, आप सोच रहे होंगे कि मैं यानी लू बहुत खतरनाक होती हूं. नहीं भाई, आप का यह सोचना गलत है. मेरे चलने से ही समुद्र के पानी का वाष्पन होता है. इसी की वजह से बरसात आने की संभावना पैदा होती हैं. यदि मैं न होऊं तो आप बहुत सारे काम रूक जाए.

वैसे आप कुछ सावधानियां रख कर मुझे से बच सकते हो. आप चाहते हो कि मैं आप को नुकसान नहीं पहुंचाऊं तो आप को कुछ बातों का ध्यान रखना होगा. गरमी के दिनों में खूब पानी पी कर बाहर खेलना चाहिए. जब भी बाहर जाओ तब सिर पर सफेद कपड़ा या टोपी लगा कर बाहर जाओं. दिन के समय सीधी धूप में न रहो. खूब पानी या तरल पदार्थ पी कर तुम मुझ से और मेरे प्रभाव से बच सकते हो.

बस ! यही मेरी छोटीसी आत्मकथा हैं. यह तुम्हें अच्छी लगी होगी. मैं समझती हूं कि अब आप मुझे अच्छी तरह से समझ गए होंगे. मैं ठीक कह रही हूं ना ?

हां. अब ज्यादा गरदन मत हिलाओं. मैं समझ गई हूं कि तुम समझ गए हो. इसलिए अब मैं चलती हूं. मुझे अपने जिम्मे के कई काम करना हैं. कहते हुए लू तेजी से चली गई.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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