(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆
☆ कहानी- दौड़ता भूत☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
उनका गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.
पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत! दौड़ता भूत.”
यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”
दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”
” मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”
तब दादी बोली, “डरती क्यों हो? मैं पकड़ती हूं उसे, ” कहते हुए दादी लपकी.
ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.
पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.
राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”
तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.
“अरे यह तो खीसकता हुआ भूत है,” कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.
अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.
सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल यादें।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 113 – जीवन यात्रा : 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
शिशु वत्स का अगला पड़ाव होता है स्कूल, पर इसके पहले, जन्म के 4-5 या आज के हिसाब से 3-4 साल तक उसमें एक और भी नैसर्गिकता होती है “उत्सुकता ” हर नई वस्तु चाहे वो किसी भी प्रकार की हो, स्थिर हो या चलित, श्वेत हो या धूमल, चींटी से लेकर हाथी तक और साईकल से लेकर ✈ तक, जो भी दिखेगा वो जरूर उसके बारे में पूछता रहेगा, पूछता रहेगा जब तक कि आप उसे जवाब नहीं दे देते. “ये क्या है, ये क्यों है याने what is this and why is this. बच्चों की यह उत्सुकता उनके नैसर्गिक विकास का ही अंग होती है पर अभिभावक हर वक्त उसके क्या और क्यों का जवाब नहीं दे पाते, कभी कभी जवाब मालुम भी नहीं होते तो बच्चों को कुछ भी समझाकर या डांटकर चुप करा देते हैं. पर होता ये बहुत गलत है क्योंकि ये उसकी प्रश्न करने की नैसर्गिक क्षमता को कमजोर बनाता है. प्रश्न का गलत उत्तर, पेरेंट्स पर अविश्वास करना सिखाता है जब आगे चलकर उसे सही उत्तर पता चलते हैं. जन्म और पोषण बहुत धैर्य, समझ, और सहनशीलता मांगते हैं, जितनी कम होती है, परिणाम भी वैसे ही मिलते हैं. नैसर्गिक प्रतिभा को दबाना सबसे बड़ा अपराध है जो माता पिता अनजाने में कर देते हैं. स्कूलिंग प्रारंभ होने के पहले के ये दो तीन साल बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जिसे कोई भी पैरेंट गंभीरता से नहीं लेते, बच्चे उनके लिये उपलब्धि और मनोरंजन का साधन बन जाते हैं हालांकि “बच्चे को क्या बनाना है वाली” दूसरी हानिकारक सोच अभी आई नहीं है पर आती जरूर है.
स्कूल का आगमन भी बच्चों की नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया में अवरोध का काम ही करते हैं. आपको ये कथन आश्चर्यजनक लगेगा और इससे सहमत होने का तो सवाल ही नहीं होगा पर सच यही है. स्कूल नैसर्गिक विकास की प्रक्रिया के अंग नहीं होते. पहली बात तो ये होती है कि बच्चे कंफर्ट ज़ोन से बाहर निकल कर अनजान परिसर, अनजान वयस्कों याने शिक्षकगण और अनजान सहपाठियों के बीच में असुरक्षित महसूस करता है और यहीं से उसके बाल्य जीवन में प्रवेश करते हैं अनुशासन के साथ साथ डर और असुरक्षा. स्कूल समय की जरूरत हैं ये तो सब वयस्क जानते हैं पर जो नहीं जानता वो है वही बालक जिसे स्कूल जाना पड़ता है. शिक्षण में अतिक्रमित करती व्यवसायिकता ने स्कूल जाने की उम्र विभिन्न विद्यालयीन शब्दावली जैसे किंडर गार्डन, प्रि-स्कूल, नर्सरी के नाम पर घटा दी है जो बच्चों के नैसर्गिक विकास से प्रायोजित और योजनाबद्ध विकास की यात्रा कही जा सकती है. परंपरागत व्यवहारिकता और जमाने के हिसाब से ही आधुनिकता में लिपटी कैरियर प्रोग्रेसन की लालसा गलत है, ये सही नहीं है. पर ये निश्चित है स्कूल बच्चों से उत्सुकता और प्रश्न करने की आदत छीन लेते हैं क्योंकि यहां प्रश्न टीचर करते हैं जिनका उत्तर उसे समझना या फिर रटना पड़ता है. प्रश्न पूछने की ये झिझक और डर ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती और इस कारण ही लोग फ्रंट बैंचर बनने से बचने लगते हैं. दूसरा “रटना” याने समझ नहीं आये तो रट लो या फिर जैसा पहले वाले ने किया है उसी का अनुसरण करते रहो. समाज में इसीलिये भाई, भैया, बड़े भाई और ऑफिस में सीनियर्स का आँखबंद कर अनुसरण करना, स्कूल के जमाने से रोपित इस असुरक्षा से राहत महसूस कराने लगता है. ये जो दुनियां के बड़े बड़े वैज्ञानिक, खिलाड़ी, नेता, बने हैं वो सिर्फ इसलिए बन पाये कि स्कूल के अनुशासित और योजनाबद्ध कार्यक्रम को कभी भी अपने व्यक्तित्व ऊपर हावी नहीं होने दिया. जो सही लगा वही करने के लिये जोखिम की परवाह नहीं की और दुनियां से लड़ गये और वो किया जो वो चाहते थे. जिनको बाद में उसी दुनियां के उन्हीं लोगों ने सर पर बिठाया, पूजा की हद तक उनकी प्रशंसा की. वो इसलिए संभव हुआ कि उनमें असुरक्षा, भय की भावना नहीं संक्रमित हो पाई तब ही तो ज़िद और ज़ुनून उनकी शख्सियत का हिस्सा बने. वो रटना नहीं चाहते थे बल्कि वो समझ गये थे कि रटना, आंख बंद कर किसी का अनुसरण करना ये शब्द उनके लिये नहीं बने हैं. जि़द और ज़ुनून ही उनकी खासियत बनी और ये जुनून ही तेंदुलकर को कॉलेज की जगह क्रिकेट के मैदान की ओर और माही याने धोनी को रेल्वे की सुरक्षित नौकरी छोड़ने के निर्णय की ओर ले जा सका. इसके होने का प्रतिशत बहुत कम होता तो है पर यही वो लोग होते हैं जो लीक से हटकर चलने के उनके नैसर्गिक गुण से संपन्न होते हैं.
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय लघुकथा – “बेटी“.)
☆ लघुकथा – बेटी☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘तू मेरी पालिता बेटी है पुत्तर’। मां ने कहा तो बेटी अंदर तक सिहर गई।
‘क्या कह रही हो माँ, कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है’।
‘ना बेटी ना, अब समय आ गया है तुझे सच्चाई बताने का, फिर कहीं मौका मिला नहीं मिला तो’।
शालिनी को बहू बेटे ने घर से निकाल दिया था। जिंदगी के अंतिम समय में वह बेटी के घर निर्वासित जिंदगी जी रही थी।
बहू अपने पति से एक की दो लगाती। दिन भर उसे भूखा रखती, तिल तिल जलाती। एक-एक दिन उसे एक वर्ष जैसा बीत रहा था। माँ की यह हालत देखकर बेटी उसे अपने घर ले आई। बेटी ने माँ को हाथों हाथ रखा। अपने हाथों से नहलाती धुलाती। समय से भोजन कराती। उसके अपरस हुए हाथों की गदेलियों में अपने हाथ से दवा लगाती।
एक दिन मां बोली – ‘तूने मेरी नरक होती जिंदगी को संभाल दिया है बेटी। अपने बेटे के घर होती तो अब तक मेरे चित्र पर माला टांग दी गई होती’।
बेटी ने माँ के बहते हुए आंसुओं को पोंछ डाला। बेटी के गले लग कर रोती हुई माँ आंसुओं के सैलाब में डूब गई। रोते-रोते मां के अस्फुट स्वरों में अनजाने ही निकल गया – ‘तू तो मेरी पालिता बेटी है – – इतनी सेवा तो मेरी सगी बेटी भी नहीं करती। तेरी असली माँ तो तुझे अंधेरे में मेरे दरवाजे पर छोड़कर चली गई थी’।
बेटी अवाक थी। एकदम हतप्रभ हो गई थी। जिंदगी का सच माँ से ज्यादा कौन जान सकता था भला। पर माँ ने इस सच को अब तक क्यों छुपाए रखा था। एकदम सगी बेटी का प्यार दिया था। वह रोने लगी थी। रोते-रोते माँ के पैर पकड़ कर बोली – ‘इस सत्य को झुठलादे माँ। अब तू ही मेरी माँ है। मैंने तुझमें माँ के दिव्य स्वरूप के दर्शन किए हैं। मैं तेरी पालिता बेटी बनकर नहीं रह सकूंगी’।
अब माँ बेटी दोनों रो रही थी। लगातार हिचकियों पर हिचकियां ले रही थी। माँ को अंतिम हिचकी आई और उसका निर्जीव शरीर बेटी के हाथों में झूल गया।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मम्माँज़ स्पेशल‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 143 ☆
☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्माँ! आपने हमारे लिए सत्तू क्यों भेज दिया ?
गाँव से लाए थे, थोड़ा तेरे लिए भी भेज दिया ऋतु, अच्छा होता है, गर्मी में पेट में ठंडक देता है। क्यों, क्या हुआ ?
माँ! क्या जरूरत है गाँव से चीजें ढ़ोकर लाने की? ऑनलाईन ऑर्डर करो घर बैठे सब मिल जाता है आजकल। बिना मतलब गाँव से इतना बोझा उठाकर लाओ।
अरे, अपने गाँव की पड़ोस की काकी ने बड़े प्यार से खुद बनाकर दिया है तेरे लिए। घर के बने सत्तू की बात ही कुछ और है। ये कंपनी वाले पता नहीं क्या मिलावट करते होंगे उसमें।
सारी दुनिया ऑनलाईन शॉपिंग कर रही है। कंपनी वाले आपको ही खराब चीजें भेजेंगे? और अच्छा नहीं हुआ तो वापस कर दो, पैसे वापस आ जाते हैं।
‘अच्छा, ऐसा भी होता है क्या? हमें नहीं पता था। हमने तो अपनी माँ को ऐसे ही करते देखा था बेटा!। जब साल – दो साल में मायके जाना होता था, माँ वापसी के समय न जाने कितनी चीजें साथ में बाँध देती थी। लड्डू, मठरी, बेसन के सेव, गुड़, सत्तू और भी बहुत कुछ। आजकल तुम लोग हर चीज के लिए यही कहते रहते हो कि सब ऑनलाईन मिल जाता है, ऑर्डर कर लेते हैं। खरीद लो भाई सब ऑनलाईन, अब नहीं भेजेंगे कुछ। क्या करें माँ का दिल है ना!’ – सरोज ने झुंझलाते हुए कहा।
‘अरे! गुस्सा मत होईए, हम तो इसलिए कह रहे थे कि ट्रेन से सामान लाने में आपको परेशानी होती होगी, सामान बढ़ जाता है, सँभालना मुश्किल होता है और कोई बात नहीं है। ‘
‘हम पुरानी पीढ़ी के हैं बेटा। अब तुम लोग ऑनलाईन और गूगल युग के हो। जो चाहिए घर बैठे मँगा लो और जो कुछ पूछना हो तो गूगल गुरु हैं तुम्हारे पास, हमारे जैसों की क्या जरूरत?’ – सरोज के स्वर में थोड़ी मायूसी थी।
‘अच्छा छोड़िए यह सब, यह बताइए आपने हमें अपने हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू क्यों नहीं भेजे’ – ऋतु ने माँ को मनाते हुए कहा।
‘क्यों बेसन के लड्डू ऑनलाईन नहीं मिलते क्या, वह भी ऑर्डर कर लो, हम क्यों मेहनत करें’ — सरोज थोड़ी नाराजगी जताते हुए बोली।
‘हमें पता था गुस्से में आप यही बोलेंगी’ – ऋतु ने हँसते हुए कहा। ‘हमें कुछ नहीं पता माँ, आपके बनाए लड्डू खाने का बहुत मन हो रहा है। आपके हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू इतने स्वादिष्ट होते हैं कि नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है। हॉस्टल में लड़कियों से छुपाकर रखना पड़ता था, नहीं तो एक दिन में ही सब खत्म। ‘मम्माँज़ स्पेशल लड्डू’ आपके सिवाय दुनिया में कोई भी नहीं बना सकता मम्माँ ! ’
‘अच्छा – अच्छा, अब माँ को मक्खन लगाना बंद कर, भेज दूँगी बेसन के लड्डू’ और दोनों फोन पर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक हाइबन – “कोबरा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 181 ☆
☆ हाइबन- कोबरा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था। वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”
सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।
रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।
” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ताक झांक।)
माँ अच्छा हुआ जो मैं आपके साथ तीर्थ में जगन्नाथ पुरी आई।
बहुत कुछ देखने और सीखने को मिल रहा है। देखो माँ जो हमारे साथ ट्रेन में महिला थी उसे सब लोग सहयात्री कैसे बुरा भला बोल रहे हैं। देखो जरा इसे, अपने अंधे पति को लेकर आई है क्या जरूरत है इसको…।
माँ ये लोग मंदिर की लाइन में दर्शन के लिए खड़े हैं लेकिन बुराई कर रहे हैं।
माँ ! उस महिला के पास चलते हैं।
उसे देखकर बहुत हिम्मत मिलती है ।
आप यहां खड़े रहो मैं उसे अपने साथ यहां पर बुला लेती हूँ।
नमस्कार पहचाना हम आपके सामने वाली सीट पर बैठे ट्रेन में बैठे थे।
हां पहचाना।
देखो न लोग कैसे कह रहे हैं?
मेरे पति की पहले आंखें थी धीरे-धीरे आंखों में कुछ रोग हो गया और उनकी दृष्टि चली गई मेरी नजर से वह दुनिया देखते हैं। वे देख नहीं सकते पर महसूस तो सब कुछ करते हैं।
बच्चे तो सब बाहर चले गए हैं लेकिन नौकरी कर रही थी। दोनों बच्चे खुश हैं। नाम के लिए दो बेटे हैं।
हम उनके लिए भर हैं। हम उनके लिए बोझ हैं ।
मैं गवर्नमेंट स्कूल में टीचर थी। अब रिटायर हो गई हूं घर में बैठकर अकेले क्या करूंगी?
हम दोनों तीर्थ यात्रा पर निकले है। क्या मुझे जीने का हक नहीं ?
रीमा ने धीरे से कहा-
बिल्कुल है आंटी।
चलिये आंटी आप मां के और मेरे साथ वहां पर खड़े हो जाइए तो हम चारों एक साथ रहेंगे।
काश! एक बिटिया होती दो बेटे नहीं..,
और वह रोने लगते हैं।
आंटी मेरे भी पिताजी नहीं है।
मां ने मुझे मुश्किल से पाला है मैं उनके साथ रहती हूं।
अब मैं छुट्टी में उनके साथ घूमती फिरती रहती हूं।
जीवन है तो क्यों ना हम हॅंस कर जिये।
बेटा तुमने बहुत अच्छी बात कही चलो अब हमारी यात्रा और अच्छी हो जाएगी हम लोग भगवान के दर्शन करते।
बहन जी आपकी बेटी बहुत प्यारी है।
लेकिन लगता है आजकल की दुनिया में लोगों के पास बहुत समय है, दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करने का…।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 112 – जीवन यात्रा : 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मां और पिता के 100% सुरक्षाकवर शिशु वत्स की यात्रा को आगे बढ़ने से नहीं थाम सकते क्योंकि जीवन सिर्फ संरक्षित होकर आगे बढ़ते जाने का नाम नहीं है,ये तो विधाता की योजनाबद्ध प्रक्रिया है जिसमें उसका अगला पड़ाव होता है भिन्नता,सामंजस्य, उत्सुकता,अपने जैसा कोई और भी होने का अहसास.शिशु के व्यक्तित्व के अंकुरित होने की अवस्था. और ये इसलिये आ पाती है कि अब प्रविष्ट होते हैं भाई और बहन, बहुत थोड़े से आयु में बड़े और साथ ही पेट्स भी. ये कहलाते हैं हमजोली जो अपने साथ लाते हैं खिलंदड़पन. अब सिर्फ खिलौने से काम नहीं चलने वाला बल्कि साथ खेलने वाला भी अपनी ओर खींचता है और ये काम तीनों ही बहुत सहजता और सरलता से करते हैं. पेट्स भी समझ जाते हैं कि ये हमारे जैसा ही है, हमारा मालिक नहीं बल्कि हमजोली है जिसका रोल न तो सिखाने का है न ही अनुशासित करने का बल्कि ये तो खेल खेल में अनजाने में वह सिखा जाने वाला है जो प्रतिस्पर्धा के साथ जीतने का गर्व या हारने पर फिर जीतने की कोशिश करना सिखाता है और खास बात भी यही है कि यहां जीत घमंडमुक्त और हार निराशा मुक्त होती है. हर खेल का प्रारंभ हंसने से और अंत भी हंसने से ही होता है. पेट्स भी खेल के आनंदरस में बाल खींचने या कान उमेठने की पीड़ा उसी तरह भूल जाते हैं जैसे जन्म देने की खुशी में प्रसवपीड़ा.
यही बचपन है, यही बालपन है और यही संपूर्ण रामायण का बालकांड भी.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सिसकती बूँदें”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 201 ☆
🌻 लघु कथा🌻 🌧️सिसकती बूँदें🌧️
चंचल हिरनी सी उसके दो नैन, बस इंतजार ही तो कर रहे थे। कई वर्षों से वह चाह रही थी कि घर वालों के साथ सुधांशु उसका अपना हो जाए।
शायद परदेस से आने के बाद मन बदल जाए। सावन हरियाली चारों तरफ छाने लगी थी। मन भी पिया मिलन के सपने संजोए उस पल को तक रही थी, कि कब वह घड़ी आए और उसमें वह व्याकुल धरा सी और अमृत बूँद बनकर वे समा जाए।
महक जाए सोंधी खुशबू से घर आँगन, सारा परिवार और फिर मनाने लगे त्यौहार शायद उसकी कल्पना कल्पना ही रह गई।
शुचि ने जैसे ही पलकों को खोल सामने देखना चाहा बारिश बंद हो चुकी थी। परंतु अभी भी तेज गर्जन की आवाज से वह उसी प्रकार से डरने लगी, जैसे सुधांशु खड़ा गरजती आवाज में कह रहा हो – दरवाजा खोलो कितनी देर लग रही हो। दरवाजा खोलते ही सुधांशु के साथ साथ ही साथ बिल्कुल आधुनिक लिबास में सुंदर सी नवयौवना गृहप्रवेश करने लगी।
शुचि को समझते देर नहीं लगी वह ठहरी गांव की अनपढ़ शायद इसीलिए वह पीछे सरकती चली गई। तेज बिजली कौंध गई। बारिश की बूँदों का चारों तरफ तेज हवा के साथ गिरना आरंभ हुआ।
आँगन में कपड़े उठते शुचि के चेहरे पर सिसकती बूँद आज बहुत कुछ बोलती, परंतु बस फिर एक तेज आवाज और गिरती सिसकती बूँदें धीरे-धीरे पलकों को छोड़ हाथों के सहारे साड़ी के पल्लू तक पहुंच गई थी।
शायद बारिश की बूँदें भी शुचि की इस दशा पर सिसक-सिसक कर गिरने लगी।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ”वह नहीं लौटा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 251 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ वह नहीं लौटा☆
उस दिन खरे साहब दफ्तर से लौटे तो उनके स्कूटर के पीछे एक युवक सवार था। लंबे-लंबे हाथ पाँव, लंबा दुबला चेहरा, पैर में रबर की चप्पलें, तीन-चार दिन की बढ़ी दाढ़ी और लंबे-लंबे रूखे बाल। शायद महीनों से उनमें तेल नहीं लगा होगा। उसके चेहरे पर निस्संगता और बेपरवाही का भाव था।
दोपहर को खरे साहब का फोन श्रीमती सुधा खरे के पास आ चुका था— ‘बड़ी मुश्किल से एक डेली वेजर की नियुक्ति करायी है। शाम को लेकर आ रहा हूँ।’
सुधा देवी तभी से उत्तेजित हैं। बेसब्री से खरे साहब के लौटने की प्रतीक्षा कर रही हैं। बाइयाँ तो काम के लिए मिल जाती हैं, लेकिन उन्हें ज़्यादा निर्देश नहीं दिये जा सकते। पलटकर जवाब दे देती हैं और चार आदमी के सामने इज्जत का फ़ालूदा बना देती हैं। ज़्यादा बात बढ़ जाए तो काम छोड़ने में एक मिनट नहीं लगातीं। फिर अपनी इज्ज़त ताक में रखकर चिरौरी करते फिरो। सुधा देवी को इन बाइयों का स्वभाव आज तक समझ में नहीं आया। जैसे भविष्य की, बाल-बच्चों की ज़िन्दगी की कोई चिन्ता नहीं। हाथ का काम जहाँ का तहाँ छोड़ा और चलती बनीं। कहाँ से इतनी हिम्मत और इतनी बेपरवाही जुटा पाती हैं? उन्हें याद है जब पहली बार खरे साहब सस्पेंड हुए तो वे इतनी परेशान हुईं कि दस हज़ार रुपये ज्योतिषियों और टोने-टोटके वालों को दे डाले। खरे साहब के शरीर से जाने कितने भूत और जिन्न निकल कर नये ठिकानों को प्रस्थान कर गये,तब जाकर खरे साहब वापस बहाल हुए। उसके बाद खरे साहब तीन चार बार और सस्पेंड हुए,और वे समझ गयीं कि यह सब नौकरी में चलता रहता है। सस्पेंड होने से अब न किसी की इज्ज़त जाती है, न नौकरी।
सुधा देवी दफ्तर का आदमी चाहती थीं क्योंकि कच्ची नौकरी वाला आदमी बहुत बर्दाश्त कर लेता है। रगड़कर काम लो तब भी पलट पर जवाब नहीं देता। नौकरी पक्की होने की उम्मीद में गैरवाजिब हुक्म भी बजाता रहता है।
खरे साहब आदमी को लेकर पहुँचे तो सुधा देवी ने सर से पाँव तक उसका जायज़ा लिया। वह सुधा देवी को हल्का सा सलाम करके खड़ा हो गया। सुधा देवी ने उसका लंबा कद,लंबे दुबले हाथ पाँव और कुल मिलाकर हुलिया देखा। वे समझ गयीं कि यह आदमी ज़्यादा काम का नहीं।
इसकी बनक बताती है कि इसके हाथ पाँव फुर्ती से चल ही नहीं सकते। देखने से ही एंड़ा बेंड़ा लगता है।
सुधा देवी ने कुछ असंतोष से पति से पूछा, ‘यह नमूना कहाँ से उठा लाये?’
खरे साहब सवाल सुनकर भिनक गये। बोले, ‘तुम्हें तो सब नमूने लगते हैं। डेली- वेजेज़ में ट्रेन्ड आदमी कहाँ मिलेगा? जिनकी नौकरी पक्की हो गयी है वे किसी के घर पर काम नहीं करना चाहते। कहते हैं झाड़ू पोंछा के लिए जेब से पैसा खर्च करके आदमी रखो, यह हमारा काम नहीं है। सब अपने अधिकार जानते हैं।’
सुधा देवी का खयाल है कि उनके पति प्रशासन में कच्चे हैं, इसलिए ये सब काम उनसे नहीं होते। उनके अपने दादाजी ज़मींदार हुआ करते थे, ऐसे रोबदार ज़मींदार कि कब जूता उनके पाँव में रहे और कब हाथ में आ जाए, जान पाना मुश्किल था। उनका खयाल है कि प्रशासन क्षमता उन्हें विरासत में मिली है और एक बार मौका मिल जाए तो वे दुनिया को सुधार दें। खरे साहब चूँकि किरानियों के वंशज हैं, इसलिए शासन करना उनके बस में नहीं।
सुधा देवी ने समझ लिया कि अब इसी आदमी से काम चलाना है, इसलिए मीन-मेख निकालने से कोई फायदा नहीं। लेकिन काम कैसे चले? यह आदमी चलता है तो लंबे-लंबे पाँव लटर- पटर होते हैं। खड़ा होता है तो कमर को टेढ़ा करके कमर पर हाथ रख लेता है। बर्तन माँजता है तो उसकी रफ्तार देखकर सुधा देवी का ब्लड प्रेशर बढ़ता है। बर्तनों पर गुज्जा ऐसे चलाता है जैसे उन पर चन्दन लेप रहा हो। बर्तनों की गन्दगी साफ करते में मुँह पर वितृष्णा का भाव साफ दिखायी पड़ता है। झाड़ू लगाता है तो हर पाँच मिनट में रुक कर कमर में हाथ लगाकर उसे सीधी करता है। लंबी-लंबी लटें बार-बार मुँह पर आ जाती हैं। उन्हें हटाने में ही काफी समय जाता है।
सुधा देवी के पास मनचाहा काम लेने के लिए एक ही रास्ता है— सारे वक्त आदमी के सिर पर चढ़े रहो। युवक का नाम गोविन्द है। गोविन्द बर्तन धोता है तो सुधा देवी बगल में खड़ी रहती हैं। बताती हैं कि कहाँ-कहाँ चिकनाई रह गयी। ‘जरा जोर से रगड़ो। कुछ खा पीकर नहीं आये क्या?’
गोविन्द झाड़ू लगाता है तो सुधा देवी पीछे-पीछे डोलती हैं। कहाँ-कहाँ जाले लगे हैं, इशारा करके बताती हैं। फर्नीचर पर जहाँ धूल रह जाती है वहाँ उँगली चला कर बताती हैं। किवाड़ों और पर्दों को हटाकर अटकी छिपी गन्दगी दिखाती हैं। गोविन्द को लगता है यह सफाई का काम खत्म नहीं होगा। एक कोने से मुक्ति मिलती है तो सुधा देवी की उँगली दूसरे कोने की तरफ उठ जाती है। गोविन्द के लिए यह समझना मुश्किल है कि इतनी सफाई क्यों ज़रूरी है। कहीं थोड़ा बहुत कचरा रह जाए तो क्या फर्क पड़ेगा? कचरे की तलाश में इतनी ताक-झाँक करना क्यों ज़रूरी है?
यह स्पष्ट है कि गोविन्द को साहबों के घर में काम करने का अभ्यास नहीं है। खरे साहब, सुधा देवी या उनके बच्चों से बात करने में उसके स्वर में कोई अदब-लिहाज नहीं होता। आवाज़ जैसी कंठ से निकलती है वैसी ही बहती जाती है। कहीं नट-स्क्रू नहीं लगता। शब्दों के चयन में भी कोई होशियारी नहीं होती। जो मन में आया बोल दिया। सुधा देवी के लिए यह स्थिति बड़ी कष्टदायक है। किसी के भी सामने अक्खड़ की तरह कुछ भी बोल देता है। दो भले लोगों के बीच चल रही बातचीत में हिस्सेदारी करने लगता है। दिन में दस बार दुनिया के सामने सुधा देवी की नाक कटती है।
गोविन्द के साथ बड़ी मुश्किलें हैं। घर में सब्ज़ी बेचने और दूसरे कामों से आने वाले मर्द- औरतों से बात करने में उसे बड़ा रस आता है। जाने कहाँ-कहाँ की बात करता है। कुछ अपनी सुनाता है, कुछ दूसरों की सुनता है। बतियाते, हँसते बड़ी देर हो जाती है। सुधा देवी सुनतीं, अपना खून जलाती रहती हैं। काम भले कुछ न हो, लेकिन ऊँचे स्वर में बात करना, हा हा ही ही करना बर्दाश्त नहीं होता। इशारे में कुछ समझाओ तो कमबख्त की समझ में आता नहीं।
जब तक आदमी खाली बैठा रहता है तब तक सुधा देवी का खून सनसनाता रहता है। नौकर का खाली बैठना उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। जब तक उसे फिर से किसी काम पर न लगा दें तब तक उनका किसी काम में मन नहीं लगता।
जिस कॉलोनी में खरे साहब रहते हैं उसके मुहाने पर सुरक्षा के लिए एक गार्ड रखा है जिसका वेतन कॉलोनी वाले सामूहिक रूप से देते हैं। सेना का रिटायर्ड हवलदार है, नाम चरन सिंह। बहुत दुनिया देखा हुआ, पका हुआ आदमी है। आदमी को बारीकी से पहचानता है। गोविन्द को देखता है तो उसके ओंठ नाखुशी से फैल जाते हैं। बुदबुदाता है— ‘यूज़लेस। एकदम अनफिट।’ उसकी नज़र में गोविन्द फौज के लिए किसी काम का नहीं है। इसे तो लेफ्ट राइट सिखाने में ही महीनों लग जाएँगे। लेकिन उससे बात करने में उसे मज़ा आता है क्योंकि गोविन्द की बातों पर अभी शहर की चतुराई और मजबूरी का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। खरी खरी बात करता है।
दो-तीन दिन में गोविन्द पलट कर सुधा देवी को जवाब देने लगा है। ‘कर तो रहे हैं’, ‘आप तो पीछे पड़ी रहती हैं’, ‘सुन लिया, आप बार-बार क्यों दुहरा रही हैं?’ और ‘थोड़ा दम लेने दीजिए, आदमी ही तो हैं।’ सुधा देवी उसका जवाब सुनकर एक क्षण अप्रतिभ हो जाती हैं, लेकिन जल्दी ही उसकी प्रतिक्रिया को परे धकेल कर फिर मोर्चे पर डट जाती हैं। नौकरों की प्रतिक्रिया पर ध्यान देने लगे तो काम हो चुका।
लेकिन पाँच छः दिन में बाद ही विस्फोट हो गया। गोविन्द बाँस में झाड़ू बाँधकर बाहर दीवारों के जाले झाड़ रहा था और सुधा देवी हाइफन की तरह थोड़ा सा फासला रखकर उससे नत्थी उसके पीछे-पीछे घूम रही थीं। एकाएक उसने बाँस ज़ोर से ऐसा ज़मीन पर पटका कि सुधा देवी की हृदयगति रुक गयी। चिल्ला कर बोला, ‘हमें नहीं करना ऐसा काम। आप हमेशा सिर पर खड़ी रहती हैं। हम आदमी नहीं हैं क्या?’
सुधा देवी इस अप्रत्याशित घटना पर अकबका गयीं। उन्होंने घूम कर इधर-उधर देखा कि कोई उनके इस अपमान का साक्षी तो नहीं है। फिर हकला कर बोलीं, ‘क्या? यह क्या तरीका है? काम कैसे नहीं करेगा?’
गोविन्द अपने दुबले पतले पंजे उठाकर बोला, ‘नहीं करेंगे। आप हमेशा पीछे-पीछे घूमती रहती हैं। यह काम कराने का कौन सा तरीका है?’
सुधा देवी तमक कर बोलीं, ‘पीछे-पीछे न घूमें तो तुम्हें कामचोरी करने दें? आधा काम होगा, आधा पड़ा रह जाएगा।’
गोविन्द अपना हाथ उठाकर बोला, ‘हमें नहीं करना आपका काम। हम जा रहे हैं। साहब को बता दीजिएगा।’
सुधा देवी कुछ घबरा कर बोलीं, ‘ऐसे कैसे चला जाएगा? कोई मजाक है क्या?’
गोविन्द पलट कर बोला, ‘हाँ मजाक है। आपका कर्जा नहीं खाया है।’
उसने अपनी साइकिल उठाई और लंबी-लंबी टाँगें चलाता हुआ निकल गया। सुधा देवी कमर पर हाथ धरे हतबुद्धि उसे जाते देखती रहीं।
चरन सिंह दूर से सारे नज़ारे को देख रहा था। गोविन्द के ओझल हो जाने के बाद धीरे-धीरे चलता हुआ सुधा देवी के पास आ गया। बोला, ‘नासमझ है। गाँव से आया है। अभी समझता नहीं है। कुछ दिन ठोकर खाएगा, फिर समझ जाएगा। अभी दुनिया नहीं देखी है। आप फिकर मत करो। कल वापस आ जाएगा।’
सुधा देवी ने अपने गड़बड़ हो गये आत्मसम्मान को समेटा, फिर दर्प से बोलीं, ‘जब पेट में रोटी नहीं जाएगी तब होश आएगा। बहुत अकड़ता है।’
उनके भीतर जाने के बाद चरन सिंह के ओठों पर हँसी की हल्की रेखा खिंच गयी।
खरे साहब के दफ्तर से आने पर सुधा देवी ने झिझकते हुए उन्हें सूचना दे दी। खरे साहब निर्विकार भाव से बोले, ‘कौन सी नई बात है? तुम्हारे साथ हमेशा यही होता है। कल आ जाए तो अपना भाग सराहना।’
दूसरे दिन सवेरे आँख खुलते ही सुधा देवी का ध्यान पिछले दिन की घटना पर गया। उन्हें भरोसा था कि गोविन्द लौटकर आएगा। भूख बड़े से बड़े अकड़ू की अकड़ ढीली कर देती है। यह किस खेत की मूली है। ताकत एक पाव की नहीं है, लेकिन अकड़ रईसों जैसी है।
उसके आने का वक्त हुआ तो सुधा देवी बेचैन आँगन में घूमने लगीं। सारे विश्वास के बाद भी कहीं खटका था कि कहीं न आया तो। प्रतिष्ठा का सवाल था।
दिन चढ़ने लगा लेकिन गोविन्द का कहीं पता नहीं था। सुधा देवी भीतर घूमते घूमते ऊबकर बाहर आ गयीं। सामने फैले रास्ते पर बार-बार नज़र डालतीं। चरन सिंह अपनी ड्यूटी पर तैनात था। उसने उनकी तरफ एक बार देखकर मुँह फेर लिया।
अचानक एक दस बारह साल का लड़का खड़खड़ करती साइकिल पर आया और चरन सिंह से कुछ पूछ कर उनकी तरफ बढ़ आया। उनके सामने आकर बोला, ‘गोविन्द गाँव चला गया। कह गया कि बता आना कि अब नहीं आएगा।’
सुधा देवी का मुँह उतर गया। बड़ी कोशिश से गला साफ कर बोलीं, ‘ठीक है। अच्छा हुआ।’ लड़का मुड़ने लगा तो पीछे से बोलीं, ‘अब आये तो कहना हमारे घर आने की जरूरत नहीं है।’
लड़का ‘अच्छा’ कह कर आगे बढ़ गया और सुधा देवी पराजित सी घर की तरफ चल दीं। चरन सिंह ने फिर उनकी तरफ देखा और चेहरे पर फैल रही मुस्कान को छिपाने के लिए चेहरा घुमा लिया।