श्री कमलेश भारतीय
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा – कहानी ☆ नीले घोड़े वाले सवारों के नाम ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(यह कहानी – ‘नीले घोड़े वाले सवारों के नाम’ धर्मयुग में जुलाई, 1982 में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी का पंजाबी मे अनुवाद श्री केहर शरीफ ने किया जो पंजाबी ट्रिब्यून में – ‘रुत नवेयां दी आई’ शीर्षक से प्रकशित हुई थी।)
नगर में कोहराम मच गया था।
और मुझे माला की चिंता सताई थी। बेतरह याद आई थी माला।
वह अपनी ससुराल में खैरियत से हो। यही दुआ मांगी थी। जब जब किसी बहू को दहेज के कारण मिट्टी का तेल छिड़ककर मारे जाने की खबर अखबार में पढ़ता हूं तब तब मेरा ध्यान अपनी इकलौती बहन माला की ओर चला जाता है। अजीब संयोग है कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता, जब अखबार के किसी कोने में ऐसी मनहूस खबर न छपती हो और मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी इकलौती बहन रोज़ मरती हो। रोज़ रोज़ मरने की उसकी खबर पढ़कर मे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। माला की याद के साथ ही याद आता है उसका गुनगुनाना :
उड़ा बे जावीं कावां
उडदा वे जावीं मेरे पेकड़े,,,,
यह महज गुनगुनाने लायक लोकगीत नहीं है। ससुराल में किसी दुखियारी बेटी द्वारा काजा का सहारा लेकर मायके की याद एव॔ वीरे तक अपना मन खोलकर रख देने का अनोखा साधन है ।
कागा। अरे ओ कागा। उड़ते हुए मे रे मायके जाना,,,,,सचमुच यह लोकगीत भी नहीं, कागा भी नहीं। कागा के कहने के बहाने यह दुखियारी माला का मन है जो ससुराल के दुखों को भुलाने के लिए बार बार मायके की तरफ पंख लगाये उड़ता है और अपनी तकलीफों की कहानी, दर्द के पहाड़ों जैसे बोझ को मां से कहने से इसलिए कतराते है कि मां सब काम काज छोड़कर सहेलियों के गले लग कर रोने लगेगी। मां का कलेजा छलनी छलनी हो जायेगा। बाप से भी भेद खोलते हुए माला का मन भरता है। बाप ने पहले ही अपनी पहुंच से बाहर जाकर दान दहेज दिया था। अब वह दोहरी मार से, लोगों में बैठे हुए भी अपना आपा खो देगा। पर मेरी बेबसी पर आंसू बहाने से बढ़ कर कुछ कर नहीं पायेगा। हां, कागा, तुम सारी कहानी कहना तो कहना मेरे भाई से। कहानी सुनते ही उसकी आंखों में गुस्से की आग मच उठेगी और वह नीले घोड़े पर सवार होकर बहन की खोज खबर लेने निकलेगा।
नगर में यहां वहां, हर चौक, हर गली, हर बाजार, हर घर और हरेक की जुबां पर एक ही चर्चा थी -नवविवाहित की हत्या या आत्महत्या की रहस्यमयी घटना की औल मुझे एक ही चिंता थी बहन माला की।
माला हर समय हंसूं हंसूं करति रहती। जरा जरा सी बात पर उसके दांत खिल उठते और मां उसे टोकती रहती कि तेरी ये आदत अच्छी नहीं। ससुराल में धीर गंभीर रहना पड़ता है बहुओं को। बहुएं ही ही करतीं अच्छी नहीं लगतीं। भले घर की लडकियां बात बेबात पर दांत नहीं निकालतीं ।
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पिता बीमारी से लड़की रहे होते। मैं, जो माला का बड़ा भाई ही नहीं, बाप भी जगह पिता की भूमिका निभाने को विवश था। मां को टोक देता -हंसने खेलने दे मां। मायके में ही तो लड़कियां मौज मस्ती करती हैं। कौन जाने कैसी ससुराल मिले ?
-कैसी ससुराल क्या ? मेरी बेटी राज करेगी राज ।
-अभी से उसे ससुराल में सेवा करने की बजाय राज करने का पाठ पढ़ाओगी तो ऐसे लाड प्यार में खिल खिल क्यों न करेगी ?
-किसी के बाप का क्या जाता है जो मेरी बेटी हंसती है ?
-बाप तो इसका और मेरा एक ही है, अम्मा। मगर हम कौन इसके भाग की रेखा लिख सकते हैं ?
-ऊ,,,,माला इस प्रसंग से चिढ़ जाती और जीभ निकाल कर मुझे चिढ़ाने लगती। मैं भी बड़प्पन भूल कर पर हाथ उठा कर दौड़ पड़ता। मां बीच में आ जाती -मेरे जीते जी कोई हाथ लगा कर दिखाये तो मेरी लाडली को। और वह मां के पीछे छिपी मुझे जीभ दिखा दिखा कर चिढाती रहती ।
लोगों की बातें, अखबार की रपटें, सब सुनता हूं तो घबरा जाता हूं।
-क्या जमाना आ गया है ? लोग किसी की जान को जान ही नहीं समझते ? गाजर मूली की तरह कट। बस। मामला खत्म।
-न मूर्खो। अंधेर साईं का,,,,,तुम्हारी करतूत की खबर लोगों को न लगेगी ? लोगों के सामने बच बी गये पर ऊपर की अदालत कौन भुगतेगा ? वो ऊपर वाला तो सब कुछ देखता है,,,,जानी जान है।
-हाय। हाय। जिंदा जान को कैसे बकरे की तरह मार डाला। कसाई कहीं के। सुनते हैं, रात को खूब मारपीट की। अधमरी तो कर ही दिया था। फिर पिछले कमरे में ले गये थे। मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी। कितनी तड़पी होगी। हाय राम। चीखी चिल्ला होगी। हाथ पांव मारे होंगे।
-मुए टेलीविजन मांग रहे थे। कहां से ला देती ? किस मुंह से मांगती? बहू के मायके में क्या पैसों की खान दबी होती है कि गयी और खोद लाई ?
-अब शमशान घाट का बाबा सच्चा बनता है कि मुझे नोट दे गये। हरामजादे। नोट दे गये या तूने ले लिए ? तुझे पता नहीं चला, जिस लाश को मुंह अंधेरे जलाने लिए हैं, शहर के चार आदमी साथ नहीं हैं, कुछ तो काली करतूत होगी ही। और वह चिल्लाने की बजाय मुंह में नोट दबा कर कोठरी में घुस गया ? कुत्ता कहीं का। अब नगर भर में घूम रहा है अपने आपको धर्मात्मा साबित करने के लिए। पाखंडी। निकाल बाहर करो इसे शहर से या जिंदा गाड़ दो ।
जितने मुंह, उतनी बातें।
नगर में एक तनावपूर्ण शांति।
लोग-जो दहेज न लेने, न देने की कसमें खाते नहीं थकते थे। लोग-जो दहेज न मिलने पर जान लेने से भी नहीं चूकते थे। लोग-अबूझ पहेली की तरह समझ में नहीं आते थे। लोग-जो जुलूस की शक्ल में नारे भी लगाते थे। लोग-जो समय आने पर बिखर भी जाते थे। लोग-जो गालियां देते नहीं थकते थे। वही लोग महज शोक प्रकट करने आते थे।
-च् च्, बहुत बुरा हुआ। महज मातमपुर्सी, महज नाटक। जैसे एकाएक धुंध उतर आई हो, सन्नाटा व्याप गया हो। कहीं कोई विरोध नहीं। विरोध की आवाज़ तक नहीं। शहर में जैसे एक नवविवाहिता सामान्य ढंग से सब्जी-भाजी बनाने रसोई घर में गयी हो और असावधानी में उसकी साड़ी का पल्लू आग पकड़ कर उसे जला गया हो। अखबार के किसी कोने को भरने के लिए एक छोटी सी खबर, जिसे सुबह रजाई में दुबके, चाय की चुस्कियों भरते, ताज़ा अखबार में सबने पढ़ा और शाम तक अखबार को रद्दी में फेंक दिया। घटना को भूल भुला दिया। रोज़ ऐसा होता है। कहीं न कहीं, किसी न किसी शहर में। क्यों होता है ऐसा ? कौन सिर खपाये,,,,भाड़ में जाये।
क्या माला के साथ भी,,,,,?
किसी शिकारी की बंदूक से निकली गोली की तरह यह सवाल मुझे छलनी कर जाता है। माला के बारे मः ऐसा सोचते ही सिहरन सी दौड़ने लगती है सारे जिस्म में। सि, से लेकर पांव तक करंट की लहर गुजर जाती है और मैं सुन्न हो जाता हूं। अखबार के किसी कोने में छपी छोटी सी खबर भी मुझे माला के प्रति दुश्चिंताओं से भर देती है ।
-मेरी बेटी राज करेगी, राज।
हर मां बाप, भाई बहन यही चाहते हैं कि ससुराल में उनकी लाडो राज करे। बीमार बाप बिस्तर से लगा, चाय, निगाहों से शादी की सारी रस्में देखता रहा था और उसकी जगह माला का कन्यादान मुझे ही करना पड़ा था। उसका धर्म पिता बन कर। राखी की लाज के साथ साथ उसके मान सम्मान का भार भी मे रे ही कंधों पर आ गया था। कन्या दान करके मैंने यही मांगा- मेरी बहन राज करे, राज।
क दो बार ससुराल के चक्कर लगाने के बाद देखा कि माला की हंसी कहीं खो गयी थी।
तीज त्योहारों पर सब कुछ ले जाते भी डरी सही रहती। तानों की कल्पना मात्र से उसकी कंपकंपी छूट जाती। मिली हुई सौगातों पर ससुराल में होने वाली छींटाकशी याद करते उसका मन डूबने लगता। न चाहते भी उपहारोअऔ से लदी फदी जाती। अगली बार फिर वही उतरा हुआ चेहरा और मांगों का सिलसिला होता।
एक बड़ा भाई, जिसके अपने सपने झर चुके हों, अपनी बहन को सिवाय शुभकामनाओं के दे हो क्या सकता था ? एक मां भगवान् की मूरत के आगे माता रगड़कर बेटी का सुहाग बना रहे की दुआ ही कर सकती है। और कुछ नहीं। एक बीमार बाप सिवाय आशीर्वाद के और क्या सम्पत्ति दे सकता है ?
ये सब नाकाफी थे दुनिया के बाज़ार में, माला की ससुराल में।
इनका कोई मोल न था। कौड़ी थे, एकदम कौड़ी। माला के खत उसके दुख दर्दों का संकेत लिए रहते। खतों की लिखाई बेढंगी -बेतरतीब रहती। जिससे लिखने वाली के मन में व्याप्त भय, आशंका, चिंता, अस्थिरता आदि की सूचनाएं छिपाई हुई होने पर भी मिल हो जाती थीं।
फिर उसके खत जैसे सेंसर किए जाने लगे। किसी किसी खत में बनावटी खुशियां भरी होतीं तो कोई कोई खत टूटे फूटे अक्षरों में कभी पेंसिल तो कभी कोयले से लिखा मिलता। और इस हिदायत के साथ कि चोरी से लिख रही हूं, इस खत का जिक्र न करें। बस। मिलने आ जाएं। दर्द की एक एक परत जम कर दर्द का पहाड़ बन जाती थी। जिसका बोझ बांटने के लिए वह कभी खत का तो कभी कागा का सहारा लेती थी।
बात बरसों से बढ़कर हाथापाई तक आ पहुंची थी। पीठ पर नीले नीले निशान जब जख्म बन जाते, तब मरहम के लिए मायके की हंसी ठिठोली याद आती। बात,तानों से बढ़कर इल्जामों तक पहुंच गयी थी और यहां तक कि घर से अपना हिस्सा बेचकर पैसा ला दो ।
कई काली रातें गिद्ध की तरह डैने फैलाये शहर पर मंडरा कर निकल गयी थीं और लोग बेखबर सोच रहे थे या आंखें मूंदे सोने का बहाना कर रहे थे।
रपट तक दर्ज नहीं हुई थी। मामला ठप्प लग रहा था। हत्यारे मज़े में काम धंधों में लग गये थे। एकाएक शहर में हलचल मच गयी थी। नवविवाहिता के मायके से, आसपास के कई गांवों की पंचायतें इकट्ठी होकर आई थीं। ठसाठस लोग, भीड़ के बीच सिसकते भाई। थाने का घेराव ही हो गया लगता था। पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न करने की निंदा की जा रही थी। पुलिस मुर्दाबाद। हाय,,,हाय,,,,खा गये।
थानेदार ने रपट दर्ज न करने की बजाय भाषण झाड़ा था-एक सप्ताह हो गया इस कांड को । । अब तक आप लोग कहां सो रहे थे ? मैं मोहल्ले में गया था और ललकार कर पूछा था-है कोई माई का लाल जो गवाही दे कि हत्या की गयी है ? है कोई भलामानस जो छाती ठोककर कहे कि मैंने देखा है ? क्या उसकी चीखें किसी ने नहीं सुनीं ? क्या आग का धुआं निकलते भी किसी ने नहीं देखा ? क्या एक ही दिन में मार डाला गया? रोज़ खटपट होती थी। मारपीट होती थी। गवाही दो। गवाही के बिना केस कैसा ?
रिश्वतखोर हाय हाय,,,,
नारे शहर भर में गूंजे थे। अखबारों को बिक्री का मसाला मिला था। मामला अधिकारियों के ध्यान में लाया गया था। अमन चैन कायम करना जरूरी हो गया था। जुलूस पर लाठी बरसाने से मामला शहर दर शहर फैल जाता। इसलिए जनता का गुस्सा शांत करने के लिए थानेदार की ही पेटी उतार दी गयी यानी सस्पेंड। हत्यारों को गिरफ्तार किया गया और फिर जैसे ठंडी राख में से हवा झोंका लगते ही चिंगारियां फूट पड़ती हैं -दबी हुई चर्चा छिड़ गयी।
-स्सालों को फांसी लगा देनी चाहिए ।
-नहीं। चौक में कौड़े मारने चाहिएं।
-पूछो, तुम्हारी क्या बेटी नहीं है ?
-हाय। सुनते हैं उस दिन बेचारी ने ब्रत रखा था।
-देवी देवता भी कैसे निष्ठुर हैं। एकदम पत्थर।
-कैसे कैसे राक्षस हैं दुनिया में ।
-पता चलेगा जब जेल में चक्की पीसेंगे। गले में फांसी का बंदा कसेगा,,,,
-सब फसाद की जड़ छोटी ननद है।
-उसे क्या दूसरा घर नहीं बसाना ?
-क्या गारंटी है कि जहां वह जायेगी वहां उसे जलाया नहीं जायेगा ?
-नारी ही नारी की दुश्मन है ।
इस चर्चा के बीच मैं एक बार फिर अलग थलग पड़ जाता हूं। ज़मीन के हिस्से की मांग जैसे किसी आरे की तरह माला को चीर कर रख गयी थी। टुकड़े टुकड़े हो गयी थी वह। होंठ बंद और आंखों से फूट पड़ा झरना आंसुओं का। काश, ज़मीन न होती। बाप ने शराब की लत में उड़ा दी होती। या भाई ने जुए में हार दी होती। यह ज़मीन न होती तो उसकी हड्डी हड्डी न टूटती।
निकलते निकलते बात मुझ तक पहुंची थी और सहज ही मुझे इस पर विश्वास नहीं आया था। पढ़ा लिखा वर्ग जो आर्थिक क्षमता का, आर्थिक अव्यवस्था का शिखर देख रहा है अपनी नजरों के सामने। वही,,,,वही हां जो देख रहा है अपनी बहनों को भी शादी ब्याह की उमर लायक। वही ननदें जिन्हें दूसरे घर बसाने हैं,,,कहां से ले आती हैं इतना बड़ा जिगरा,,,इतना बड़ा कलेजा ?
मैंने तैयारी की थी और मां ने रोक लिया था -न, न, पुत्तर। हम लड़की वाले हैं। फिर भी जंवाई है। हमारा दामाद। हम बेटी वाले हैं। हमें झुकना ही पड़ेगा।
-जंवाई है तो जंवाई बन कर रहे। नहीं तो,,,,
मां ने मुझे जाने नहीं दिया था। कहीं माला की ससुराल जाकर कुछ ऐसा वैसा न कर दूं।
जुलूस नगर के हिस्सों में गुजर रहा है। थानेदार जो बहाल हो गया है । लोगों ने उसे पुलिस स्टेशन में कुर्सी पर बैठे देखा तो ऐसे हैरान हुए जैसे उसका भूत देख लिया हो। वह जिंदा जागता थानेदार था। आंखों में वही चीते सी चुस्ती, चेहरे पर रिश्वत की रौनक, मूंछों पर रौब झाड़ने वाली नौकरी का ताव और सबसे ऊपर वही चमचमाती वर्दी, बायीं ओर लटकता पिस्तौल, कंधों पर जगमगाते सितारे, न जाने कौन सी बहादुरी दिखाने पर। जब। वह सरकारी बूटों तले सड़क को रौंदता, पूरी ऐंठ के साथ शहर में गश्त लगाने लगा तब सबको सरकार की मर्जी के बारे में कोई शक नहीं रह गया था।
यही क्यों, सारे हत्यारे बड़े मज़े में जमानतों पर छूट आए थे और हंस हंस कर बता रहे थे कि जिसने पायजामा बनाया है, उसने नाड़ा भी। कानून के इतने बड़े बड़े पोथे हैं कि कानून से बचने के लिए रास्ता निकल ही आता है।
जुलूस गुजर रहा है। नारे गूंजते जा रहे हैं -नाटक बंद करो। हत्यारों को सज़ा दो। नहीं तो हम सज़ा देंगे।
मां और मैं दरवाजे से बाहर निकल उमड़ आए लोगों,,,,लोगों के जोश और गुस्से को देखकर कांपने लगते हैं। डर कर बिल्कुल नहीं, हम डरे हुए नहीं हैं। उनका जोश और गुस्सा मुझमें आ गया है और मैं भी उन लोगों के साथ हो लेता हूं। मां मुझे रोकती नहीं। वह जानती है कि माला मेरा इंतज़ार कर रही है। मैं जैसे नीले घोड़े पर सवार हूं। जल्दी पहुंचने के लिए उतावला। खोज खबर लेने। माला तेरे भाई जिंदा हैं,,,,हजारों भाई,,,,
© श्री कमलेश भारतीय
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