हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आदिबीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आदिबीज ? ?

ये ज़मीन मेरी है

इसकी रजिस्ट्री मेरी है,

कोठी, गाड़ी, इज़्ज़त

जायदाद, जेवरात मेरे हैं,

इन्हें छू नहीं सकता कोई,

औरत बनती है

कभी ज़मीन

कभी रजिस्ट्री

इज़्ज़त और ़

जायदाद भी मर्द की,

मुर्दा सम्पत्ति का

ज़िंदा आदिबीज होती है औरत!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #231 – 118 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “नुमाइश…” ।)

? ग़ज़ल # 115 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में दिल को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

*

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

रहते खुद के घर में पता दुश्मन का मिलता है।

*

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से पता पूछते हो ?

ढूँढने पर उनको नहीं ख़ुद का पता मिलता है।

*

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कहाँ दोस्त का घर मिलता है।

*

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बन कर रह गए हैं,

आतिश प्यार माँगने पर ही अपनों से मिलता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 109 ☆ मुक्तक – ।। मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 109 ☆

☆ मुक्तक – ।। मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

खुशी होकर जियो जिंदगी में जज्बात बहुत है।

मिलेगा बहुत कुछ  इसमें     सौगात बहुत है।।

पर वाणी में रखना      तुम मिठास    बहुत ही।

बात की चोट से यहाँ    पर आघात    बहुत  है।।

[2]

न गुम रहना अतीत में यादों की बारात बहुत है।

मत होना मायूस खुशियों की  अफरात बहुत है।।

बना कर रखना  तुम  अपने रिश्ते       नातों को।

अपनों के खोने पाने की भी   मुलाकात बहुत है।।

[3]

समय से चलना मिलके वक्त की रफ्तार बहुत है।

रखते मस्तिष्क को ठंडा उन्हें सत्कार बहुत है।।

क्रोध अहम    को त्यागना ही उत्तम है यहाँ पर।

व्यर्थ बातों की भी     जीवन में शुमार बहुत है।।

[4]

पैदा करनी शांति कि घृणा का रक्तपात   बहुत है।

करना नहीं विश्वास धोखे की खुराफात बहुत है।।

बढ़ाना है आदमी से ही आदमी का प्यार यहाँ पर।

जिंदगी में बिन वजहआंसुओं की बरसात बहुत है।।

[5]

मत तोड़ना विश्वास यहाँ घात   प्रतिघात बहुत है।

कोशिश करे आदमी तो   अच्छा हालात बहुत  है।।

जीत रखना जीवन में बहुत   ही संभाल कर तुम।

गर कभी मन हार गए तो फिर   मात बहुत है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 171 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जीवन-सफलता…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “जीवन-सफलता...। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जीवन-सफलता” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

यह दुनिया प्रभु की रचना है यहाँ न कोई अभाव है

हर एक को मिल पाता वह सब जो भी जिसका भाव है।

 *

सोच समझ ही सही चाहिये, सही स्नेह की भावना

साथ जी रहे जो धरती पर उनके प्रति शुभ कामना ।

 *

राहें यहाँ अनेक, पंथ कई सबके अलग विचार हैं

सबको हितकर राहें चुनने, जीने के अधिकार हैं।

 *

पर इससे भी बड़ा सोच यह है कि सब खुशहाल हों

हम जो करें करे ऐसा सब प्राणी जिससे निहाल हों।

 *

हर आने वाला दिन, गये दिन से ज्यादा सुखदायी हो

पास-पड़ोस हमारा सुधरे जीवन में अच्छाई हो।

 *

यही चाहिये सही सोच रख, हम प्रतिदिन शुभ कर्म करें

सबके हित की रखे भावना, कभी न कोई अधर्म करें।

 *

मन में सदा दया हो सबके सुख-दुख का अनुमान हो

करे सदा वे काम कि जिससे किसी का न नुकसान हो।

 *

सेवा, परोकार, सद्गुण ही प्रिय लगते भगवान को

इनसे ही सुख-शांति सदा ही मिलती हर इन्सान को।

 *

सफल उसी का जीवन जिसने कुछ ऐसा कर पाया है

जिसने सामाजिक सेवा कर जन मन को हर्षाया है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अबाध… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अबाध… ? ?

कब तक घिसोगे कलम?

कब तक करोगे यूँ नि:शुल्क सृजन?

नि:शुल्क, सेवा का साधन था तब,

नि:शुल्क, निरर्थक का पर्यायवाची है अब,

निस्पृहता छोड़ो, व्यवहार से नाता जोड़ो,

सत्ता, संपदा के अनुगामी बनो,

अपने जीवन में संपन्नता का स्वाद चखो..,

अबाध रही वैचारिक रस्साकशी,

उनके उदाहरणों में जमे रहे राजर्षि,

मेरे उद्देश्यों में बसे रहे ब्रह्मर्षि..!

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 10:37 बजे, 23.3.24

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ☆

सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – सहर कभी न आई है…। 

? रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ? ?

 रुकी-रुकी सी ज़िंदगी है हौसला धुआँ धुआँ

मुसीबतों में है बशर कि उठ रहा  धुआँ धुआँ

*

बरस रहे न अब्र भी ये इब्तिला की है घड़ी

घटा हुई है देख लो बे- साख़्ता धुआँ धुआँ

*

ज़मीर रोज़ बेचते न डर भी कुछ ख़ुदा का है

दरीचे बंद भी वफ़ा के और सबा धुआँ धुआँ

*

रची न भी थी हाथ में लगी ख़िज़ाँ की है नज़र

हिना का रंग भी बिखर के हो गया धुआँ धुआँ

 *

सहर कभी न आई है ग़मों की देख शाम की

तमाम उम्र बीती है कि बस मिला धुआँ धुआँ

 *

सिमट गए ख़ुशी के पल झुकी हुई है ये नज़र

जलाल से की हुस्न के जिगर हुआ धुआँ धुआँ

 *

बची न ख़्वाहिशें कोई कि रूठा भी ख़ुदा मेरा

न चाहतें न उल्फ़तें है हर दुआ धुआँ धुआँ

© सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #226 ☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे –  मधुमास )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 226 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चंचरीक की गूंज से, खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे, तुम मेरा संसार।।

  *

पतझर झरता शाख से, वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का हमें  है इंतजार।।

*

मन उपवन में खिल रहे, देखो पुष्प हजार। 

  धरा प्रफुल्लित देखकर, झरते हरसिंगार।।

*

 गुलशन के गुल देखकर छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के, रंगों   की    बौछार ।।

*

यश वैभव का गेह में, रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे, जीवन में मधुमास।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नाखुदा… ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आई आई एम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। आप सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत थे साथ ही आप विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में भी शामिल थे।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी ने अपने प्रवीन  ‘आफ़ताब’ उपनाम से  अप्रतिम साहित्य की रचना की है। आज प्रस्तुत है आपकी अप्रतिम रचना “नाखुदा…

? नाखुदा… ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम् ☆ ?

जब से दुनिया को छोड़

खुद से दोस्ती कर ली

जिंदगी  के  तमाम  गम 

खुद  ही  फना  हो  गए…

ना  किसी  की कोई गरज

ना ही किसी की तमन्ना

ना  किसी  का  इंतज़ार,

ना ही किसी से उम्मीद…

ना  किसी  की  आरज़ू,

ना ही किसी की जुस्तजू

ख़ुद-मुख़्तारी रास आ गई

अब खुदा ही नाखुदा मेरा…!

~ प्रवीन रघुवंशी ‘आफताब’

© कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

पुणे

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #41 ☆ कविता – “कौन जाने मै कौन हूं…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 41 ☆

☆ कविता ☆ “कौन जाने मै कौन हूं…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इतना जानू के मै हूं

ना जानू के कौन हूं

 *

ना आस्तिक हूं

ना नास्तिक हूं

ख़ुदको जान ना पाऊ

ख़ुदा को कैसे जाननेवाला हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना हिंदू हूं

ना मुस्लिम हूं

नहीं किसिके पास जवाब

फिर मै कैसे जवाबन हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना नाम हूं

ना खानदान हूं

अपने तो अपने नहीं लगते

परायों को क्या दिखाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना सोच हूं

ना खयाल हूं

नहीं खयालात खुदके काबू

सोच से थोड़ी चलने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना जानवर हूं

ना फरिश्ता हूं

कैसे किसी को मिटाऊ

कैसे ख़ुदको बचाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना वंश हूं

ना निर्वंश हूं

जो लेके आया था

वहीं देके जानेवाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना आदम हूं

ना हव्वा हूं

यूंही समय की डाली पे

क्या नाचता हुआ एक बंदर हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

कौन जाने मै कौन हूं

कौन बताए मै क्या हूं

चाहें जो बन सकता हूं

चाहें वो दिखा सकता हूं

चलो फिर इंसान ही बन जाता हूं

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 198 ☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 198 ☆

☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

रोज निशा में करें उजाला

रोज रहें घटते – बढ़ते।

जो तारों में सबसे उजले

मौन रहें थोड़ा पढ़ते।।

सोम , सुधांशु ,शशांक कहाते

जिनको कहें सुधाकर भी।

रजनीपति हैं, निशापति हैं

उनको कहें सुधाधर भी।।

 *

जो राकेश , इंदु , हिमांशु

जो शशि , मयंक ,निशाकर।

विधु , मृगांक व कलानिधि हैं

फूल , फलों दें रस पर।।

 *

औषधीश , तारापति जो हैं

बच्चों के मामा प्यारे।

क्षपानाथ , राकापति जो हैं

खुश रहते जिनसे तारे।।

 *

जो सागर में हलचल करते

सागर में आ जाता ज्वार।

जब – जब घटते बढ़ते रहते

प्यारे लगें महीना क्वार।।

  

उत्तर – चंद्रमा।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

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