हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 242 ☆ बाल कविता – होली का त्योहार… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 242 ☆ 

☆ बाल कविता – होली का त्योहार…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 होली का त्योहार

बने हैं चाट पकौड़ी

आलू टिक्की, पापड़, सेमें

स्वाद मूँग मंगौड़ी।।

 *

गरम – गरम आलू हैं छोले

बढ़िया उर्द कचौड़ी

बेसन के भी सेव खा रहे

मौड़ा सब ही मौड़ी।।

 *

रंग गुलाल उड़े हैं केसर

मस्ती ही मस्ती है

जमकर खेलें, हुरियारे सब

रँगी गली बस्ती है।।

 *

जमकर खाएँ चाट पकौड़ी

सी – सी कर हुरियारे

खूब मना त्योहार होलिका

जोकर से मुँह कारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #204 – आलेख – हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर– ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं ज्ञानवर्धक आलेख हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 204 ☆

☆ आलेख – हाइकु में व्यक्त भावों की अभिव्यक्ति के मूल स्वर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

हाइकु जापानी काव्य की एक संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली विधा है, जो प्रकृति, मानवीय भावनाओं और जीवन के क्षणिक अनुभवों को 5-7-5 की वर्ण-संरचना में समेटती है। भारतीय साहित्य में हिंदी हाइकु ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, जहाँ यह जापानी शैली से प्रेरित होकर भी भारतीय संस्कृति, संवेदनाओं और जीवन के रंगों से सरोबार है। प्रस्तुत संग्रह में विभिन्न हाइकुकारों ने अपनी रचनात्मकता और भावनात्मक गहराई से जीवन के विविध आयामों को उकेरा है। यहां हम इन सभी हाइकुओं की समीक्षा करते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को प्रस्तुत करेंगे।

हमने हाइकु का समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कोशिश की है कि इसमें प्रत्येक हाइकु को शामिल किया जाए। इसमें हाइकु की संक्षिप्तता और गहनता को ध्यान में रखते हुए, इनके भाव, शिल्प और संदेश को संतुलित रूप से विश्लेषित किया गया है। यह समीक्षा प्रेम, प्रकृति, जीवन, दर्शन, और सामाजिक संदर्भों के विविध पहलुओं को उजागर करती है।

 

~ प्रेम और व्यक्तिगत संवेदना

  1. अनिता वर्मा ‘अन्नु’: दिल में बसी/ अब होती हैं बातें/ यादों से तेरी।

यह हाइकु प्रेम की स्मृति और उसकी शाश्वतता को दर्शाता है। प्रिय की अनुपस्थिति में यादें संवाद का आधार बनती हैं, जो एक मार्मिक उदासी को व्यक्त करता है।

  1. अनुपमा प्रधान: वो मेरा प्यार/ न बन पाया मेरा/ रूठी किस्मत।

प्रेम की असफलता और भाग्य की विडंबना यहाँ प्रमुख है। “रूठी किस्मत” एक सशक्त प्रतीक है जो मानव की असहायता को रेखांकित करता है।

  1. उषा पाण्डेय कनक‘: ‘आँखों ने रोपे/ बीज, प्रेम भाव के/ दिल मुस्काये।

प्रेम की उत्पत्ति और उसका विकास इस हाइकु में बीज और मुस्कान के रूपक से सुंदरता से चित्रित हुआ है। यह प्रेम की सकारात्मक शक्ति को दर्शाता है।

  1. निशा नंदिनी भारतीय: तुम्हीं रोशनी/ तुमसे है जीवन/ हो अर्धांगिनी।

यह हाइकु दांपत्य प्रेम और जीवनसाथी के महत्व को उजागर करता है। “रोशनी” और “अर्धांगिनी” भारतीय संस्कृति में नारी की केंद्रीय भूमिका को प्रतिबिंबित करते हैं।

  1. तपेश भौमिक: तन्हाई पर/ याद आई उसकी/ वो हरजाई!

एकाकीपन में प्रेम की स्मृति और विश्वासघात का दर्द इस हाइकु में स्पष्ट है। “हरजाई” शब्द भावनात्मक तीव्रता को बढ़ाता है।

 

~ प्रकृति और ऋतु चित्रण

  1. आशा पांडेय: जाड़े की रात/ गुलजार अलाव/ कहानी झरे।

सर्द रात में अलाव की गर्माहट और कहानियों का प्रवाह इस हाइकु में ग्रामीण जीवन की सादगी को जीवंत करता है। “कहानी झरे” एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।

  1. आशीष कुमार मीणा: नाच उठा है/ देखो मन मयूर/ भीग वर्षा में।

वर्षा में मन का आनंद और स्वतंत्रता का चित्रण इस हाइकु की विशेषता है। “मन मयूर” एक सुंदर रूपक है जो प्रकृति और भाव का संनाद दर्शाता है।

  1. अलंकार आच्छा: बरसे घन/ नहाके ताज़ा हुए/ उँघते वन।

वर्षा के बाद जंगल की शांति और ताजगी यहाँ प्रभावशाली है। “उँघते वन” प्रकृति की विश्रामावस्था को सूक्ष्मता से व्यक्त करता है।

  1. उपमा शर्मा: बर्फीली हवा/ गिर गया है पारा/ काँपता तन।

ठंड का यथार्थवादी चित्रण इस हाइकु में है। “काँपता तन” मानव की प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता को उजागर करता है।

  1. कमल कपूर: बाँटे महक/ सुबह की सहेली/ नर्म चमेली।

सुबह की ताजगी और चमेली की सुगंध का संयोजन इस हाइकु में प्रकृति की सौम्यता को दर्शाता है। “सुबह की सहेली” एक रमणीय उपमा है।

  1. चेतना भाटी: कली चटखी/ स्वागतम वसंत/ मन महका।

वसंत का आगमन और मन की प्रसन्नता इस हाइकु में जीवंत है। “कली चटखी” प्रकृति के नवीकरण का प्रतीक है।

  1. जितेन्द्र निर्मोही: तितली गई/ लेकर मकरंद/ फैलती गंध।

प्रकृति की गतिशीलता और सुगंध का प्रसार इस हाइकु में है। “फैलती गंध” सूक्ष्म संवेदना को प्रभावी ढंग से व्यक्त करता है।

  1. प्रदीप कुमार दाश “दीपक”: बसंत आया/ फूल खिलने लगे/ गाये विहग।

वसंत की जीवंतता और पक्षियों का गान इस हाइकु में प्रकृति के उत्सव को चित्रित करता है।

  1. मंजु शर्मा जांगिड़ “मनी”: फागुन आया/ गुलाल रंग लाया/ नभ में छाया।

फागुन की रंगीनी और उत्साह का चित्रण यहाँ है। “नभ में छाया” उत्सव की व्यापकता को दर्शाता है।

  1. डॉ. सीमा उपाध्ये: पतझड़ में/ रेत सी उड़ती है/ जिंदगी यहाँ।

पतझड़ के माध्यम से जीवन की नश्वरता का चित्रण इस हाइकु में गहन है। “रेत सी उड़ती” एक मार्मिक रूपक है।

 

~ पारिवारिक और सामाजिक भाव

  1. डॉ. इन्दु गुप्ता: माँ तू है सूर्य/ मुझमें तेरा रूप/ मैं मीठी धूप।

माँ के प्रति श्रद्धा और संतान में उसकी छाया का भाव इस हाइकु में सुंदर है। “मीठी धूप” मातृत्व की कोमलता को व्यक्त करता है।

  1. कल्पना भट्ट: घर आँगन/ महकाती प्यार से/ मेरी बिटिया।

बेटी के प्रति स्नेह और घर की खुशहाली यहाँ प्रमुख है। “महकाती प्यार से” मासूमियत का प्रतीक है।

  1. गंगा पांडेय “भावुक”: उदास पिता/ अतिथि के आते ही/ खुल के हँसा।

पिता की उदासी का अतिथि के आगमन से हँसी में बदलना भारतीय आतिथ्य और भावनात्मक संतुलन को दर्शाता है।

  1. डॉ. नितीन उपाध्ये: आई घर से/ मिर्ची-हल्दी से सनी/ अम्मा की चिट्ठी।

माँ की चिट्ठी में घर की स्मृति और उसका स्पर्श इस हाइकु में जीवंत है। “मिर्ची-हल्दी” ग्रामीण जीवन की सुगंध को उकेरता है।

  1. डॉ. नीना छिब्बर: पढ़ चिठ्ठियाँ/ अधखुली पुरानी/ मिले जवाब।

पुरानी चिट्ठियों में छिपे भाव और उत्तरों का चित्रण इस हाइकु में नॉस्टैल्जिया को जागृत करता है।

  1. सतीश राठी: संस्कार मिले/ बनता प्रतिबिम्ब/ पुत्र पिता का।

पिता से पुत्र में संस्कारों का संचरण इस हाइकु में है। “प्रतिबिम्ब” पारिवारिक विरासत को दर्शाता है।

 

~ जीवन, दर्शन और सामाजिक टिप्पणी

  1. प्रकाश कांबले: युद्ध चाहिए?/ शांति का संदेश है/ बुद्ध चाहिए।

शांति और अहिंसा का संदेश इस हाइकु में प्रभावशाली है। “बुद्ध चाहिए” समकालीन युद्ध की विभीषिका के बीच प्रासंगिक है।

  1. डॉ मंजु गुप्ता: जिस वृक्ष की/ छाँह में नर बैठे/ उसी को काटे।

पर्यावरण विनाश और मानव की कृतघ्नता का यह हाइकु सशक्त टिप्पणी है। यह प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी को उजागर करता है।

  1. डॉ. रीना सागर: यंत्रों में बंधा,/ मन की आज़ादी,/ विलुप्त हुई।

तकनीक के प्रभाव से मानसिक स्वतंत्रता के ह्रास का चित्रण यहाँ है। यह आधुनिक जीवन की विडंबना को व्यक्त करता है।

  1. डॉ. पूर्वा शर्मा: उम्मीद-माँझा/ ख्वाहिशों की पतंग/ जीवन यही।

जीवन को पतंग और उम्मीद को माँझे के रूप में चित्रित करना इस हाइकु की मौलिकता है। यह आकांक्षाओं और संतुलन को दर्शाता है।

  1. गिरीश चंद्र ओझा इन्द्र: जीव है आया/ जगत भरमाया/ भव-जलधि।

जीवन की माया और संसार के भ्रम को यह हाइकु दार्शनिक रूप से व्यक्त करता है। “भव-जलधि” गहन चिंतन को प्रेरित करता है।

  1. डॉ. घनश्याम नाथ कच्छावा: निकली रात/ संसार को सुलाने/ दर्द भूलाने।

रात की शांति और दर्द से मुक्ति का भाव इस हाइकु में है। यह जीवन की क्षणभंगुरता को सूचित करता है।

  1. प्रगति त्रिपाठी: महत्वाकांक्षा/ भर लूं मुट्ठी में ये/ पूरा संसार।

महत्वाकांक्षा की अतिशयता और उसकी सीमा यहाँ व्यक्त हुई है। “मुट्ठी में संसार” एक प्रभावशाली रूपक है।

  1. राम सिंह साद‘: ‘भूला है वन्दा/ अपने को स्वयं ही/ विडंम्वना है।

आत्म-विस्मृति और उसकी विडंबना इस हाइकु में गहन दर्शन के साथ प्रस्तुत हुई है।

  1. डॉ लता अग्रवाल: त्रिवेणी तट/ होगा पवित्र स्नान/ जीव उध्दार।

आध्यात्मिकता और पवित्रता का भाव इस हाइकु में है। “जीव उध्दार” मुक्ति की आकांक्षा को दर्शाता है।

  1. श्याम मठपाल: पेड़ सूख रहे।/ धरती तप रही।/ आदमी मौन।

पर्यावरण संकट और मानव की उदासीनता का यह हाइकु सशक्त चेतावनी है। “आदमी मौन” गहरी टिप्पणी है।

 

~ नैतिकता, संस्कार और संदेश

  1. तारकेश्वर सुधि‘: ‘कड़वे बोल/ बनते तलवार/ पहले तोल।

वाणी की शक्ति और संयम का संदेश इस हाइकु में है। “पहले तोल” नैतिकता की शिक्षा देता है।

  1. एस के कपूर “श्री हंस”: दिल हो साफ/ रिश्ते टिकते तभी/ गलती माफ।

रिश्तों में ईमानदारी और क्षमा का महत्व यहाँ व्यक्त हुआ है। यह हाइकु सामाजिक मूल्यों को रेखांकित करता है।

  1. सत्य नारायण: माता-पिता का/ आदर करना ही/ है ये संस्कार।

माता-पिता के प्रति सम्मान और संस्कारों का यह हाइकु भारतीय मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है।

  1. (आचार्य) संजीव वर्मा सलिल‘: ‘नहीं बिगड़ा/ नदी का कुछ कभी/ घाट के कोसे।

नदी की निर्मलता और मानव की आलोचना के बीच यह हाइकु प्रकृति की उदारता को दर्शाता है।

  1. प्रदीप कुमार शर्मा: धीरज धर/ मिलेगी कामयाबी/ कोशिश कर।

धैर्य और परिश्रम का संदेश इस हाइकु में सरल किंतु प्रभावी ढंग से व्यक्त हुआ है।

 

~ विविध भाव और चित्र

  1. कृष्णलता यादव: पाण्डुलिपियाँ/ अनुभव-लड़ियाँ/ झुर्रियों मध्य।

अनुभव और वृद्धावस्था का यह हाइकु गहन है। “झुर्रियों मध्य” जीवन के संचित अनुभवों को दर्शाता है।

  1. नमिता राकेश: झरना फूटे/ जो हंसे लड़कियां/ गीली मिट्टी सी।

लड़कियों की मासूम हँसी और प्रकृति का संयोजन इस हाइकु में रमणीय है। “गीली मिट्टी” ताजगी का प्रतीक है।

  1. प्रतिभा जोशी: कृष्ण मगन/ करें गोपियाँ रास/ भक्ति स्वरूप।

भक्ति और रास का यह हाइकु आध्यात्मिकता को व्यक्त करता है। “कृष्ण मगन” भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है।

  1. प्रणाली श्रीवास्तव: खूब उत्साह/ सोने-चांदी-पीतल/ क्रय की प्रथा।

भौतिकता और उत्साह का यह हाइकु सामाजिक रीति पर टिप्पणी करता है।

  1. प्रवीण शर्मा: प्रीत की झील/ खूब भर बदरा।/ प्यासे बसेरा।

प्रेम की गहराई और उसकी तृप्ति यहाँ चित्रित हुई है। “प्यासे बसेरा” भावनात्मक संतुष्टि को दर्शाता है।

  1. डॉ. प्रमोद सागर: शुद्ध सलिला/ पाप हरे सबका,/ शिव आँचल।

आध्यात्मिक शुद्धता और शिव की कृपा इस हाइकु में है। “शुद्ध सलिला” पवित्रता का प्रतीक है।

  1. बसन्ती पंवार: जीवन जैसे/ सांप छछूंदर है/ छोड़ता नहीं।

जीवन की जटिलता और उससे मुक्ति की असंभवता यहाँ व्यक्त हुई है। यह एक रोचक रूपक है।

  1. राजपाल सिंह गुलिया: पेड़ रो रहे/ धुआँ पीकर ही ये/ बड़े हो रहे।

प्रदूषण और पर्यावरण की पीड़ा का यह हाइकु मार्मिक है। “पेड़ रो रहे” संवेदनशील चित्रण है।

  1. लाडो कटारिया: एहतियात/ है कोरोना अभी भी/ चौकस रहें।

महामारी के प्रति सतर्कता का यह हाइकु समकालीन संदर्भ में प्रासंगिक है।

  1. विभा रानी श्रीवास्तव: पक्षी का गीत/ वो मेरे होंठो पर/ ऊँगली रखे।

प्रकृति और मौन का यह हाइकु सूक्ष्म संवेदना को व्यक्त करता है।

  1. विमला नागला: उर मूरत/ सांवली है सूरत/ कष्ट हरता।

प्रिय या ईश्वर की छवि और उसकी कृपा यहाँ व्यक्त हुई है।

  1. शेख़ शहज़ाद उस्मानी: सुस्वागतम/ आइये व जाइये/ रोका किसने?’

जीवन की स्वतंत्रता और उसकी क्षणभंगुरता का यह हाइकु हल्के व्यंग्य के साथ प्रस्तुत हुआ है।

  1. डा. सरोज गुप्ता: आज मौसम/ बड़ा खुशगवार/ हो जाए मस्ती।

मौसम की खुशी और जीवन का आनंद यहाँ सरलता से व्यक्त हुआ है।

~ निष्कर्ष

यह हाइकु संग्रह हिंदी साहित्य में हाइकु की व्यापकता और गहराई को प्रदर्शित करता है। प्रेम, प्रकृति, परिवार, दर्शन, और सामाजिकता के विविध रंग इन रचनाओं में संक्षिप्त किंतु प्रभावशाली ढंग से उभरे हैं। प्रत्येक हाइकु अपने आप में एक संपूर्ण भाव-चित्र है, जो पाठक को सोचने और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। ये रचनाएँ हाइकु की उस शक्ति को प्रमाणित करती हैं, जो कम शब्दों में गहन अर्थ समेट लेती है।

——-

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #271 – कविता – ☆ होली की हुडदंग, मेरे देश में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर एक भावप्रवण कविता होली की हुडदंग, मेरे देश में…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #271 ☆

☆ होली की हुडदंग, मेरे देश में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(अभिव्यक्ति परिवार के सभी भाई बहनों को रंगपर्व होली की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत एक गीत)

बड़ी जोर से मची हुई है, होली की हुड़दंग

 मेरे देश में ।

 वैमनस्य, अलगाव, मज़हबी, राजनीति के रंग

 मेरे देश में।।

 

कोरोना के कहर से ज्यादा

राजनीति जहरीली

कुर्सी के कीड़े ने कर दी

सबकी पतलुन ढीली,

कभी इधर औ’ कभी उधर से

फूट रहे गुब्बारे

गुमसुम जनता मन ही मन में

हो रही काली-पीली

आवक-जावक खेल सियासी

खा कर भ्रम की भंङ्ग

मेरे देश में।।

 

 विविध रंग परिधानों में

 देखो प्रगति की बातें

 आश्वासनी पुलावों की है

 जनता को सौगातें,

 भाषण औ’आश्वासन सुन कर

 दूर करो गम अपने

 अलग अलग सुर में सब

 अपनी अपनी राग सुनाते,

 लोकतंत्र या शोकतंत्र के, कैसे-कैसे ढंग

 मेरे देश में

 भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

 मेरे देश में।

 

 रक्तचाप बढ़ गए,

 धरोहर मौन मीनारों के

 सिमट गई पावन गंगा,

 अपने ही किनारों से,

 झाँक रहे शिवलिंग,

 बिल्व फल फूल नहीं मिलते

 झुलस रहा आकाश

 फरेबी झूठे नारों से,

 बैठ कुर्सियों पर अगुआ, लड़ रहे परस्पर जंग

 मेरे देश में

 भूख गरीबी, वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

 मेरे देश में।

 

 ये भी वही और वे भी वही

 किस पर विश्वास करें

 होली पर कैसे, किससे

 क्योंकर परिहास करें,

 कहने को जनसेवक

 लेकिन मालिक ये बन बैठे

 इन सफेदपोशों पर

 कैसे हम विश्वास करें,

 मुँह खोलें या पर बंद रखें, पर पेट रहेगा तंग

 मेरे देश में

 भूख गरीबी वैमनस्य के भ्रष्टाचारी रंग

 मेरे देश में।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 95 ☆ गाँव से अपने… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गाँव से अपने…”।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 95 ☆ गाँव से अपने… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

लौट आया हूँ शहर में

गाँव से अपने।

 

बिछ गए हैं जाल

यंत्रणा झेलती पीढ़ी

बंद पिंजरों में सिसकते

टूटी चढ़ें सीढ़ी

 

खो गए गहरे कुएँ में

आँख के सपने।

 

ख़बर बुनती रात

सहम जाती हर सुबह है

पराजय थक चुकी

जन्मती फिर-फिर कलह है

 

घोषणाओं में दबे हैं

भूख के टखने।

 

हार जाता युद्ध है

मौसम बदलता चाल

खेत की ख़ामोशियाँ

दब गये सारे सवाल

 

अब शिथिल से बाजुओं में

टूटते डैने।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆ यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 99 ☆

✍ यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बशर हर साहिबे क़िरदार होगा

तभी अपना चमन गुलज़ार होगा

 *

छिपा जिस भेष में गद्दार होगा

हमेशा घात को तैयार होगा

 *

मरा है मुफ़लिसी में करके फ़ाके

यक़ीनन वो कोई ख़ुद्दार होगा

 *

शिनावर  मौज़ की रफ़्तार नापे

अजी वो खाक़ दरिया पार होगा

 *

क़लम जो बेचता सड़कों पे गाकर

मुझे लगता कोई फ़नकार होगा

 *

चलूँगा बैल सा कोल्हू के हर दिन

कभी क्या ज़ीस्त में इतवार होगा

 *

हुआ वहशत का है जो शख़्स हामी

यक़ीनन ज़हन से बीमार होगा

 *

रखेगा कैद में सैयाद कब तक

कभी तो आपका दीदार होगा

 *

मुहब्बत का सफ़र आसां न समझो

“अरुण” रस्ता बड़ा दुश्वार होगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की..।)

✍ कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की… ☆ श्री हेमंत तारे  

फ़ासला  नही,  फ़ासिला कहा करो

हादसा  नही,   हादिसा  कहा  करो

*

गर इश्क है उर्दू से,  पशेमा  क्यों हो

यार,  सरेआम ऐलानिया कहा करो

*

कुछ  रिवायतें होती हैं उर्दू अदब की

मशायरे सुनो, और ईर्शाद कहा करो

*

गैरों की नही अपनों की बात करता हूं

गर वो ग़लत है, उन्हें गलत कहा करो

*

आधा सच कहो,  ये लाजिमी तो नही

जो बात है, वो साफगोई से कहा करो

*

ख़ामोशी बोलती है जानम, इंकार नही

पर, कभी खुलकर भी  बात  कहा करो

*

जो मौसम – ऐ – तपिश में देते है पनाह

उन  दरख़्तों को भी शुक्रिया कहा करो

*

ये दिल है ‘हेमंत’ कोई खिलौना तो नही

टूट जाता है गर खेले कोई ये कहा करो

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 92 – कितनी अनमोल स्वर्णिम घड़ी हो गई☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कितनी अनमोल स्वर्णिम घड़ी हो गई।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 92– कितनी अनमोल स्वर्णिम घड़ी हो गई… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

रूप सम्पन्न, वो फुलझड़ी हो गई 

आज, चाहत भी उसकी, बड़ी हो गई

*

आपसे मेरी पहली मुलाकात ही 

कितनी अनमोल, स्वर्णिम घड़ी हो गई

*

प्रीति, विश्वास के संग में जब मिली 

कारगर, जिन्दगी की, जड़ी हो गई

*

उम्रभर की सजा ये सुहानी लगी 

तेरी चुनरी ही जब हथकड़ी हो गई

*

मात खाने लगी मुश्किलें, उससे अब 

अपने पैरों पै, विधवा खड़ी हो गई

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – देह रहते… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – देह रहते… ? ?

एकालाप होता है

मौन वार्तालाप,

एकालाप होता है

कल्पना में होता संवाद,

साँसों का अनवरत क्षरण,

मृत्युपथ पर बढ़ते चरण,

मेरी सुनो,

रोष, आक्रोश, खीज, क्षोभ

सबसे मुक्ति पा लो,

देह रहते,

दो घड़ी साथ बैठो,

दो घड़ी बतिया लो..!

 ?

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 9:15 बजे,  29 फरवरी 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 166 – अपनों से अब डर लगता है…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपनों से अब डर लगता है….” । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 166 – अपनों से अब डर लगता है…. ☆

अपनों से अब डर लगता है।

छलछद्मों का घर लगता है।।

*

जिसको दोस्त समझते अपना,

कुछ दिन बाद अदर लगता है।

*

नव पीढ़ी की सोच अलग अब,

रूठे अगर कहर लगता है।

*

सम्मानों की लिखी इबारत,

बिगड़ा-बोल जहर लगता है।

*

टीवी में जब बहसें चलतीं,

ज्ञानी अब विषधर लगता है।

*

न्यायालय में लगीं अर्जियां,

डरा हुआ अंबर लगता है।

*

सदियों बाद सजी अयोध्या,

पावन पवित्र नगर लगता है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 228 – बुन्देली कविता – जी की तपन मिटानी… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – जी की तपन मिटानी।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 228 – जी की तपन मिटानी… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

एक झला पानी को बरसो

जी की तपन मिटानी

ऐंसी जी हो रओ तौ सबको

जैसे मुँजें  ममूदर   में

बात बात में कहत रहै सब

माँय जान दो लूगर में ।

अब जाकें जी में जी आओ

(सौ) तन की तपन मिटानी ।

 

जैसे चले गलिन में फूहर

वैसड़ जा हवा चलत ती

लट कोरी सी चनकट मारे

औ मारे उचट दुलत्ती ।

अब टूटो गरमी को गिरमा

सबरी तपन मिटानी।

 

पहलौटी सी खुसी उजागर

सब झूम झमक कें गाबें

नन्नी रस बुँदियन खों सब कोऊ

  चूमे  चाटें दुलराबें ।

 

ऐंसो लगो खजानो मिल गओ

तन मन तपन मिटानी ।

 

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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