हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆श्रेयस साहित्य # १ – श्री राम ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # 1 ☆

☆ कविता ☆ ~ श्री राम ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

आंखें तुमको देखती,

आंखों में है प्राण

रघुवर तेरे अधर पर,

अति मीठी मुस्कान

प्राण तत्व तुम जगत के

कर धारे संधान

रोम रोम में राजते

तुममें रमते प्राण

प्राण प्रिया जू सियाजी

राजे तेरे बाम

तुम प्रिय हो इस दीन के

प्रिय है तेरो नाम

राम नाम है मंत्र मणी

जपते आठो याम

मीरा के तुम राम हो,

कबीरा के भी राम

तुलसी के उर में बसों

घट में श्री रैदास,

गुरु नानक अरदास में

गुरु वाणी में वास

रहिमन दोहन में लिख्यो

ब्रह्म राम को नाम

राम शब्द परमात्मा,

आप सभी के राम

राम नाम महिमा बड़ी,

राम नाम को छाँव

जो जानन सो जान गा

माथ मोहि तोहि पाँव

श्रेयस रचि अति सोचि के

लिखियो शब्द सियराम

रतन महा बहुमूल्य है,

नाम तुम्हारो राम l

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – माँ ? ?

माँ,

अकेले यात्रा करने से डरती थीं,

अब अकेले ही निकल गईं अनंत यात्रा पर,

साथ देने की सोचता भी,

पर क्या साथ जाना होता भी?

शास्त्र कहते हैं, वैतरणी स्वयं ही तरनी होती है, यह यात्रा अकेले ही करनी होती है।

 

माँ,

आप प्रकांड अनुभव की धनी रही,

आपकी स्मृति सदा घनी रही,

एक बार आप चल लीं जिस मार्ग पर,

सदा के लिए अंकित हो गया वह

आपके स्मृतिसर्ग पर।

 

माँ,

पहले भी कभी की होगी यह यात्रा,

पहले भी कभी चरण पड़े होंगे इसी पथ पर,

मार्ग के कंकड़-कंकड़ से परिचित होंगी आप, हर मोड़, हर घुमाव के प्रति निश्चिंत होंगी आप।

 

माँ,

भले ही अब तक यात्रा रही निरंतर है,

लेकिन इस बार थोड़ा-सा अंतर है,

एक मोड़ से अब आप

चली जाएँगी प्रभापथ की ओर,

यह पथ आपको ले जाएगा गोलोक की ओर।

 

माँ,

अब मार्ग स्मरण न रहे

तो कोई बात नहीं,

मर्त्यलोक को तजकर

गोलोक की वासी हो चुकीं आप,

आवागमन चक्र से

मुक्त हो चुकीं आप,

जीवात्मा से अब

परमात्मा हो चुकीं आप..!

?

प्रातः 8:51 बजे, गुरुवार दिनांक 13 फरवरी 2025

(आज 29 मार्च को माँ के गमन को 60 दिन हो गए।)

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 153 ☆ मुक्तक – ।। हो गये साठ के पार अभी असली इम्तिहान बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 153 ☆

☆ मुक्तक – ।। हो गये साठ के पार अभी असली इम्तिहान बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

सफर जारी  पर अभी तो आने को  मुकाम बाकी है।

किया जा चुका बहुत कुछ पर  अभी काम बाकी है।।

साठ    के      पार   हो    चुके  तो   कोई   बात  नहीं।

अभी  तो   नापी  है  ज़मीं  अभी  आसमान   बाकी है।।

=2=

अभी अदा करने को शुक्रिया वह हर इन्सान बाकी है।

पूरे   जो   कर   नहीं  पाए  वह हर अरमान बाकी है।।

अभी   तो  शुरू   ही   हुई   है जीवन   की  दूसरी पारी।

जान लो कि   जिन्दगी का असली  इम्तिहान  बाकी है।।

=3=

अभी   भी   दुनियादारी  का  कुछ   लगान   बाकी  है।

कर नहीं पाए इस्तेमाल वह साजो सामान  बाकी  है।।

रुकना  नहीं   थमना  नहीं   तुम्हें   इस  बीच   दौड़ में।

अभी  भी  जीतने   को   हर  तीर    कमान   बाकी  है।।

=4=

सेवा निवृत हो गए पर अभी अनुभव का सम्मान बाकी है।

कुछ नया करने सीखने को जज्बाऔर तूफ़ान बाकी है।।

अब   तो   वरिष्ठ  नागरिक  का  दायित्व  भी  है  कंधों पर।

अभी     देखने    घूमने  को   भी   पूरा   जहान  बाकी  है।।

=5=

चुप   रह  गई  जो  अब  तक  अभी  वह  जुबान बाकी है।

ऊपरवाले ने भी दिए कामअभी वह फरमान  बाकी है।।

पूरा   करना  है   हर  काम  इसी  एक  ही  जिन्दगी  में।

भागते रहे जिंदगी भर अब जरा सा चैन आराम बाकी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #218 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – आदमी जिये नित आदमी के लिये… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – आदमी जिये नित आदमी के लिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 218

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – आदमी जिये नित आदमी के लिये…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जाति में धर्म में भिन्नता हो भले,

भिन्न परिवेश हों और व्यवस्था अलग

हो पढ़ा या अनपढ़ हो गुणी-अवगुणी

आदमी कोई किसी से रहे न विलग ।

 

ऊपरी भेद दिखते अनेकों भले,

भीतरी पर कहीं कोई अन्तर नहीं

 हैं वही भावनाएँ, वही सोच सब

बातें वैसी ही, वैसा ही व्यवहार भी ॥

 

रूप रंग साजसज्जा तो हैं बाहरी मन के,

भावों का अन्दर है एक-सा चलन एक-सी जिंदगी,

एक-सी आदतें, एक-सी लालसा एक जीवन-मरण।

स्वार्थ है हर जगह आपसी वैर भी, प्रेम का भाव भी

द्वेष भी द्वन्द भी इसी से प्रीति की बेल पलती नहीं,

होती रहती अंजाने ही खटपट कभी ॥

 

बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद ने आ, आदमी को सिखाया

कि मिल के रहें मन को मैला न कर, कुछ छपाये नहीं,

जो भी सच हो उसे साफ निर्भय कहें।

प्रेम ही धर्म है, प्रेम ही जिंदगी

आदमी जिये नित आदमी के लिये

अपने श्रम से है जब लोग पाते खुशी,

खुद भी हर व्यक्ति को खुशी मिलती तभी ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “गहरे रिश्ते…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कविता  – “गहरे रिश्ते” 🕯️ ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

  ढूँढने  से नहीं मिल रहा,

 ना जाने कहाँ ये खो गया,

 एक रिश्ता प्यार का,

  दिल के बहुत जो करीब था!

 व्यस्त हुए है, हम कुछ ऐसे,

  खबर हुई ना, ये ख्याल आया,

 छूटता रहा संबाद और,

  बढती गई ये दुरियाँ !

 *

  कहाँ शिकायत दर्ज कराएँ,

  कौन इसे वापस ले आए,

  नहीं जरूरत कोई इसकी,

  चलो प्यार से ये सुलझाएँ!

 *

 प्यार और विश्वास की जड़ से,

 गहरे है ये अपने रिश्तें,

 व्यस्त अपने कार्यकलापों से,

 फुरसत के चंद, पल निकालें!

 *

एक बार फिर से कर ले,

 खट्टी-मीठी, थोडी  बातें,

मिट जाएगा अंतर सारा,

 धूल आईने से हट जाएँ!

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

दिनांक.. 26/03/2025.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तीन कविताएँ  – सूखा…  ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

 ☆ विश्व जल दिवस पर – तीन कविताएँ  – सूखा…  ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

22 मार्च विश्व जल दिवस है। मेरे 2005 में प्रकाशित पहले काव्य संग्रह ‘कोई अच्छी ख़बर लिखना’ में जल पर बहुत सी कविताएँ शामिल थीं। उनमें से तीन कविताएँ प्रस्तुत हैं।

– हरभगवान चावला 

सूखा-1

‘कितना दूर है पंजाब’

एक भेड़ पूछती है

और मर जाती है

‘हम कितना तेज़ दौड़ें

कि तुरंत पहुँच जाएँ पंजाब’

एक और भेड़ पूछती है

और गिर जाती है

सब भेड़ों की आँखों में

अनदेखा पंजाब है

जहाँ पानी से लबालब

नदियाँ बहती हैं

हर रोज़ छोटा होता जाता है

पंजाब जाता काफ़िला

एक दिन पूछती है

एक बहुत छोटी भेड़ –

‘जब तक हम पहुँचेंगे पंजाब

क्या तब तक भी बचा रहेगा

पंजाब के दरियाओं में पानी।’

 

सूखा-2

सारा-सारा दिन

दरकी धरती की दरारों में

कोई कीड़ा ढूँढ़ती थी चिड़िया

और पाताली कुओं में चोंच भर पानी

चिड़िया हर रोज़

बारिश का इन्तज़ार करती थी

एक रात हताश चिड़िया ने

अपने भूखे-प्यासे बच्चों से कहा-

‘चलो

हम किसी दरिया के किनारे बसेंगे’

चिड़िया के नन्हें बच्चे

तुरंत उड़ना सीख गये।

 

सूखा-3

बूढ़े ने

समय से पहले दम तोड़ चुके

खेत की अस्थियों को बटोरा

और कहा-

‘कहीं मिला जल

तो प्रवाहित करूँगा तुम्हें’

फिर बूढ़े ने

खूँटों से बँधी गायों की

रस्सियाँ खोल दीं

और अर्राती गायों से कहा-

‘कभी लौटकर इस गाँव में न आना’

फिर बूढ़े ने

अपने घर का दरवाज़ा बंद किया

देर तक दीवारों को देखता रहा

दीवार पर बने मोर को सहलाया

और कहा-

‘ज़िंदगी रही तो मिलेंगे ज़रूर’

फिर बूढ़ा

पानी के सफ़र पर चल दिया

उसने सुन्न आसमान को देखा

और सहसा महसूस किया

उसकी आँखों का पानी नहीं सूखा है

सब कुछ सूख जाने के बाद भी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिहीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – दृष्टिहीन? ?

(2013 में प्रकाशित कवितासंग्रह ‘योंही’ से)

मैं देखता हूँ रोज़

दफ़्न होता एक बच्चा,

मैं देखता हूँ रोज़

टुकड़े-टुकड़े मरता एक बच्चा,

पीठ पर वज़नी बस्ता लटकाए,

बोझ से कंधे-सिर झुकाए,

स्कूल जाते, स्कूल से लौटते,

दूसरा बस्ता टांकते;

ट्यूशन जाते, ट्यूशन से लौटते,

घर-समाज से

किताबें चाटते रहने की हिदायतें पाते,

टीवी देखते परिवार से

टीवी से दूर रहने का आदेश पाते

रास्ते की टूटी बेंच पर बैठकर 

ख़त्म होते बचपन को निहारते,

रोज़ाना की डबल शिफ्ट से जान छुड़ाते,

शिफ्टों में खेलने-कूदने के क्षण चुराते,

सुबह से रात, रात से सुबह

बस्ता पीठ से नहीं हटता,

भरसक कोशिश करता

दफ़्न होना नहीं रुकता,

क्या कहा-

आपने नहीं देखा..!

हर नेत्रपटल

दृश्य तो बनाता है,

संवेदना की झिल्ली न हो

तो आदमी देख नहीं पाता है..!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 244 ☆ बाल गीत – नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 244 ☆ 

☆ बाल गीत – नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही

आगे बढ़ता जाऊँगा।

दुश्मन के छक्के छुड़वाऊँ

ध्वज का मान बढ़ाऊँगा।

खूब पढ़ूँगा मैं मेहनत से

सबका कहना मानूँगा।

मात – पिता की सेवा करके

लक्ष्य सदा मैं ठानूँगा।

 *

काम समय से पूरा कर लूँ

नहीं कभी घबराऊँगा।

नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही

आगे बढ़ता जाऊँगा।।

 *

तूफानों से नहीं डरूँगा

जीवन सफल बनाऊँ मैं।

हर मुश्किल आसान करूँगा

प्रेमिल पाठ पढ़ाऊँ मैं।

 *

सदा सत्य को मैं अपनाकर

शुचिता , शान बढ़ाऊँगा।

नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही

आगे बढ़ता जाऊँगा।।

 *

मीठा – मीठा बोलूँगा मैं

सबसे मधु व्यवहार करूँ।

सीमाओं की रक्षा करके

दुश्मन से मैं नहीं डरूँ।

 *

प्राण देश के खातिर दे दूँ

कभी न पीठ दिखाऊँगा।

नन्हा हूँ मैं वीर सिपाही

आगे बढ़ता जाऊँगा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #273 – कविता – ☆ गीतिका – जलती रही चिताएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गीतिका गीतिका – जलती रही चिताएँ” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #273 ☆

☆ गीतिका – जलती रही चिताएँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बने रहो आँखों में ही, मैं तुम्हें प्यार दूँ

नजर, मिरच-राईं से, पहले तो उतार दूँ ।

*

दूर रहोगे तो, उजड़े-उजड़े पतझड़ हम

अगर रहोगे संग-संग, सुरभित बयार दूँ।

*

जलती रही चिताएँ, निष्ठुर बने रहे तुम

कैसे नेह भरे जीवन का, ह्रदय हार दूँ।

*

सुख वैभव में रमें,रसिक श्री कृष्ण कन्हाई

जीर्ण पोटली के चावल, मैं किस प्रकार दूँ।

*

चुका नहीं पाया जो, पिछला कर्ज बकाया

माँग रहा वह फिर, उसको कैसे उधार दूँ।

*

पानी में फेंका सिक्का, फिर हाथ न आया

कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ।

*

दायित्वों का भारी बोझ  लिए  काँधों पर

चाह यही हँसते-हँसते, जीवन गुजार दूँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 97 ☆ जंगल अंगार हो गया ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “जंगल अंगार हो गया”।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 97 ☆ जंगल अंगार हो गया ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

टेसू क्या फूल गए

जंगल अंगार हो गया।

 

सज गई धरा

नवल वधू सी

वृक्षों ने पहने

परिधान राजसी

 

सरसों पर मस्त मदन

पीत वसन डाल सो गया।

 

महुआ रस गंध

बौराया आम

नील फूल कलसी

भेजती प्रणाम

 

सेमल के सुर्ख गाल

अधरों पर प्यार बो गया ।

 

थिरक रही हवा

घाघरा उठाकर

चहक रहे पंछी

बाँसुरी बजाकर

 

तान फागुनी सुनकर

मौसम गुलज़ार हो गया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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