हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #192 – 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ग़म तो दौलत ठहरी …”)

? ग़ज़ल # 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जब तुम्हारा दिल गुलशन में सजा पाया,

क़सम ख़ुदा की हमने बड़ा ही मज़ा पाया।

अस्त्र हैं इस दिलचस्प खेल के वफ़ा बेवफ़ा,

अब क्या रोना है जो उस को जफ़ा पाया।

वस्ल ओ फ़ुरक़त की तय होती नहीं सीमा,

मुहब्बत ने भी ख़ुद को अक्सर ठगा पाया।

ग़म तो दौलत ठहरी इस रस्मे रूहानी की,

इसका हासिल ज़िंदगी जी कर जता पाया।

जन्नत दोज़ख़ गुज़रेगा तुमसे कुछ रुक कर,

आतिश ने इसे इम्तिहान में आज़मा पाया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नंगधड़ंग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नंगधड़ंग??

तुम झूठ बोलने की

कोशिश करते हो

किसी सच की तरह,

तुम्हारा सच

पकड़ा जाता है

किसी झूठ की तरह..,

मेरी सलाह है,

जैसा महसूसते हो

वैसा ही जियो,

पारदर्शी रहो सर्वदा

काँच की तरह,

स्मरण रहे,

मन का प्राकृत रूप

सदा आकर्षित करता है

किसी नंगधड़ंग

शिशु की तरह..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 6:58 बजे, 12.01.2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ घर पुश्तैनी ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ कविता ☆ घर पुश्तैनी ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

घर पुश्तैनी 

उतर रहा ज़मीन पर

फैलाकर पंख 

जिसने पाली थीं 

पाँच पीढ़ियाँ

सदियों तक। 

 

आसमान छूते ठहाकों की 

साक्षी बनी

विशाल ऊंची छत

ढहती जा रही अब

अपना किरदार निभाकर। 

 

हर गिरती 

ईंट खपरैल संग

भूलीं बिसरीं यादों से

उठ रही है धूल अब। 

 

हर कोने से 

आती है आवाज़ 

हँसी, मस्ती 

और रोने की

यादें हज़ारों बातों की

बिंब जिनका मन पर

है अजरामर।

 

 

वो सीढ़ियाँ 

जिस पर

रुके न थे कदम 

पर कुछ राज़

पेट में रख लिए

इसने भी

समय समय पर। 

 

 

दिवारों ने

न जाने सुने होंगे 

कितने किस्से कितनी कहानियाँ 

छुपाये होंगे

रहस्य अनगिनत

मूक मौन दिवारों ने। 

 

आज गिर गयीं हैं दीवारें

एक नया इतिहास रचने।

 

परिवर्तन 

प्रकृति तेरा नियम है

सालों खड़ी दीवारों को

अब ढह जाना है

एक नए नीड़ का निर्माण 

बेहद ज़रूरी है। 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 70 ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

ज्ञान बुद्धि विनम्रता   तेरे  आभूषण हैं।

सत्यवादिता प्रभु  आस्था तेरे भूषण हैं।।

मत राग द्वेष कुभावना    धारण करना।

ईर्ष्या और घृणा कुमति भी     दूषण हैं।।

[2]

आत्म विश्वास से खुलती सफल राह है।

सब कुछ संभव यदि जीतने की चाह है।।

व्यवहार कुशलता  बनती उन्नति साधक।

बाधक बनती हमारी नफरतऔर डाह है।।

[3]

मत पालो क्रोध  प्रतिशोध  बन जाता है।

मनुष्य स्वयं जलता औरों को जलाता है।।

प्रतिशोध का  अंत  पश्चाताप  से है होता।

कभी व्यक्ति प्रायश्चित भी नहीं कर पाता है।।

[4]

विचार आदतों से ही चरित्र निर्माण होता है।

इसीसे तुम्हारा व्यक्तित्व चित्र निर्माण होता है।।

तभी बनती तुम्हारी   लोगों के दिल में जगह।

गलत राह पर केवल दुष्चरित्र निर्माण होता है।।

[5]

बस छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।

नफरत बन  जाती   जैसे लोहे की जंग   है।।

बदला लेने में बर्बाद नहीं  करें इस वक्त को।

तेरा सही रास्ता ही लायेगा सफलता का रंग है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 134 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

 

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

 

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

 

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

 

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जंगल: दो कविताएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय कविताएं – जंगल: दो कविताएँ-)

☆ लघुकथा ☆ जंगल: दो कविताएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक

आग से धरती बनी

धरती पर जंगल उगे

जंगल में परिन्दे आए

और जानवर

फिर जंगल में वनमानुष आए

फिर आया आदमी

और आदमी के बाद

जंगल में कुछ नहीं आया ।

दो

जंगल सरकार का है

जंगल की लकड़ी तस्करों की

जंगल के प्राणी बाघों के हैं

जंगल का पानी कारख़ानों का

जंगल में रहने वालों का

कुछ भी नहीं जंगल में ।

 

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अवसरवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अवसरवाद ??

बित्ता भर करता हूँ,

गज भर बताता हूँ,

नगण्य का अनगिन करता हूँ,

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ,

बेशुमार हथियाता हूँ,

कमी का रोना रोता हूँ,

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार,

सारा कुछ दुय्यम बना रहा,

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #184 ☆ भावना की कुंडलियाँ… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना की कुंडलियाँ…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 184 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना की कुंडलियाँ… ☆

मन की आंखों में बसा, बस तेरा ही प्यार।

देख तुझे पढ़ने लगे, आँखों का अखबार।।

आँखों का अखबार, पढ़ें फिर तुमको जानें।

मन ही मन में ठान, बात दिल की पहचानें।।

कहे भावना बात, सुनी बातें सब जन की।

तुम हो मेरी जान, बात कहता हूँ मन की।।

दिल से ही कहने लगी, धड़कन  दिल का हाल।

मन बेकाबू हो रहा, मिलने को तत्काल।।

मिलने को तत्काल, सनम तुम  आओ कैसे।

लिया तुम्हें है जान, नहीं हो  सपने जैसे।।

कहे भावना बात, रोज ये दिल की तुमसे ।

मन की मन से जान, बात कहते हैं दिलसे।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #170 ☆ “एक पूर्णिका … बेटा” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – एक पूर्णिका … बेटा”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 170 ☆

 ☆ “एक पूर्णिका … बेटा☆ श्री संतोष नेमा ☆

बात  हमारी  मान  लो  बेटा

लोगों कों  पहचान लो  बेटा

कौन है अपना कौन  पराया

अपने  से  ही जान लो  बेटा

बड़े- बूढ़ों की बात सुनो  तुम

गाँठ  बड़ी  सी बाँध लो  बेटा

राह  धर्म  की  चलना  हरदम

दिल में अब यह ठान लो बेटा

काम-क्रोध मद लोभ से बचना

अपने  मन  में  आन  लो  बेटा

सोच-समझ  कर बोलो हमेशा

मुख  में  मीठी  जुवान लो बेटा

खूब  करो  माँ-बाप  की   सेवा

कर्मों    पर   संज्ञान   लो   बेटा

सपने  सभी  साकार  करो  तुम

ऐसी   ऊँची   उड़ान   लो   बेटा

पाना   यदि   “संतोष”. तुम्हें   है

हाथ  में  काम  महान  लो   बेटा

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “साथ तुम्हारा…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गीत – “साथ तुम्हारा…☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

हर पल साथ तुम्हारा हो, तेरा मुझे सहारा हो।

तुमसे बढ़कर और नहीं, तुझ तक जीवन सारा हो।।

 

मेरे प्रियवर, मेरे साथी,

चाहत है बस तेरी

तुझ तक सीमित मेरा जीवन,

और भावना मेरी

हर पल साथ तुम्हारा हो, बस तुझ पर दिल हारा हो।

हर पल साथ तुम्हारा हो, तेरा मुझे सहारा हो।।

 

गहन तिमिर में तू उजियारा,

है वसंत की बेला

तू केवल लगती मलयानिल,

दुनिया जगे झमेला

पास रहे तू हर पल मेरे, वरना दिल बेचारा हो।

हर पल साथ तुम्हारा हो, तेरा मुझे सहारा हो।।

 

तू जीवन की धवल चाँदनी,

सुखद एक अहसास

सभी ओर तो रोदन दिखता,

तू केवल विश्वास

सूरज-चाँद उगें जीवन में , सब कुछ तुझ पर वारा हो।

हर पल साथ तुम्हारा हो, तेरा मुझे सहारा हो।।

 

भजन-आरती तुझमें दिखते,

गुरुवाणी का गायन

परभाती की रौनक तुझमें,

राम-राम अभिवादन

पूरणमासी प्यार तुम्हारा, बहती गंगा धारा हो।

हर पल साथ तुम्हारा हो, तेरा मुझे सहारा हो।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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