हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 52 ☆ मुक्तक ।। हमें बहुत गुमान है, कि हमारी मातृभूमि हिंदुस्तान है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।हमें बहुत गुमान है, कि हमारी मातृभूमि हिंदुस्तान है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 52 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।हमें बहुत गुमान है, कि हमारी मातृभूमि हिंदुस्तान है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हमें    इस बात  का    बहुत गुमान है।

कि हमारी   मातृ भूमि    हिंदुस्तान  है।।

सूर्य सा आलोकित  है  सारे  संसार में।

विश्व   गुरू भारत  वास्तव में महान है।।

[2]

शांति मसीहा है भारत सारे जहान का।

बस ध्यान रहे भारत मां मानसम्मान का।

हर दिल में इक हिंदुस्तान बसना चाहिए।

प्रश्न है करोड़ों  जन के   स्वाभिमान का।।

[3]

इस वतन ने इंकलाब से आजादी पाई है।

शहीदों ने मर मिट कर  तस्वीर बनाई है।।

आंच न आने देगें इस बलिदानी धरती पर।

हर बाजू बनेगा तलवार आंख गर उठाई है।।

[4]

ये भाग्य राम कृष्ण की धरा पर जन्म पाया है।

इस देश ने रामायण  गीता संदेश सुनाया है।।

यह धरती है  विविधता में एकता का संगम।

पूरे विश्व वसुधैव कुटुंबकम् पाठ पढ़ाया है।।

[5]

इस गुलशन का पत्ता पत्ता जार न होने देना।

अमर शहीदों कीअमानत बेकार न होने देना।।

अभी तो आगाज हुआ मंजिल दूर बाकी है।

भारतमाता कीअस्मत कभी बेजार न होने देना।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 117 ☆ ग़ज़ल – “विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #117 ☆  ग़ज़ल  – “विश्व भौतिक है मगर, आध्यात्मिक है जिंदगी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बुराई बढ़कर भी आई हारती हर काल में

मकड़ियां फँसती रही नित आप अपने जाल में।।

 

समझता हर व्यक्ति खुद को सदा औरों से भला

पर भला वह है जो हो वैसा सबों के ख्याल में।।

 

वे बुरे जन जो हैं जीते आज ऊंची शान से

कल वही जाते हैं देखे भटकते बद हाल में।।

 

कर्म से किस्मत बनाई जाती है अपनी स्वतः

है नहीं सच यह कि सब कुछ लिखा सब के भाल में।।

 

प्रकृति देती पौधों को सुविधाएं प्रायः एक सी

बढ़ते हैं लेकिन वही, जीते हैं जो हर हाल में।।

 

धूप, आँधी, शीत, वर्षा, उमस सह लेते हैं जो

फूल सुन्दर सुरभिमय खिलते उन्हीं की डाल में।।

 

सत्य, श्रम, सद्कर्म मानव धर्म है हर व्यक्ति का

आदमी लेकिन फंसा है व्यर्थ के जंजाल में।।

 

मन में जिनके मैल, अधरों पै कुटिल मुस्कान है

तमाचा पड़ता सुनिश्चित कभी उनके गाल में।।

 

चाहते जो जिन्दगी में सुख यहाँ संसार में

स्वार्थ कम, चिन्ता अधिक सब की करें हर हाल में।।

 

विश्व भौतिक है मगर आध्यात्मिक है जिंदगी

ध्यान ऐसा चाहिये हम सब को हर आमाल में।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #166 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 166 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

कानों में मिसरी घुले,नन्हें की किलकार।

महक उठी घर अंगना,सांसों से फुलवार।।

आने से तेरे हुए ,सभी स्वप्न साकार।

मन आनंदित हो उठा,छाने लगी बहार।।

तुझको मैं तो देखकर,होने लगी निहाल।

बिन तेरे कुछ भी नहीं,रहती थी बेहाल।।

पाकर तुझको मिल गई,एक नई मुस्कान।

आने से तेरे मिली, इक माँ की पहचान।।

 तेरे अधरों पर बनी रहे, निश्छल  सी मुस्कान।

उच्च शिखर पर मिल रहे, नित नूतन सोपान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #152 ☆ “विश्वास पर दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “विश्वास पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 152 ☆

विश्वास पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आपस में मत तोड़िये, आप किसी की आस

मुश्किल से जग में बने, आपस में विश्वास

होते एक समान ही, प्रेम और विश्वास

जबरन ये होते नहीं, करिए लाख प्रयास

जीवन में गर चाहिए, सर्वांगीण विकास

दृढ़ इच्छा मन में रखें, खुद पर कर विश्वास

संकल्पों की शक्ति से, पूरे होते काम

मुश्किल लगें न काज भी, होता जग में नाम

कहते सभी प्रबुद्ध जन, फलदायक विश्वास

बिरले ही तोड़ें इसे, रख स्वार्थ की आस

गुण ग्राहक मिलते सदा, अवगुण का क्या मोल

कोयल भाती सभी को, कर्कश कागा बोल

सोच समझ कर कीजिये, कलियुग में विश्वास

टूटा गर इक बार भी, कभी न आता पास

खड़े सत्य के साथ जो, ईश्वर उनके साथ

मुश्किल भी होती सरल, ऊँचा होता माथ

एक भरोसा राम पर, रखते हम “संतोष”

जिनसे ही जीवन चले, जो सच्चे धन-कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 144 ☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी -चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 144 ☆

☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी – चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆ \

अतिशय मौसम प्यारा – प्यारा।

बिल्ली मौसी चली सैर पर

बच्चों का सँग लिए पिटारा।।

 

पेड़ों पर चाँदी है लिपटी

डालों के फल चाँदी – चाँदी।

देख चकित हैं बच्चे सारे

अद्भुत लगता आज नजारा।।

 

घर हैं चाँदी , घर हैं चंदा

चारों ओर बर्फ के बदरा।

हाथ में ले – ले खेलें होली

गिरा मौसमी देखो पारा।।

 

गिरि – पर्वत सब ढके बर्फ से

सन्नाटा हर ओर है पसरा।

मूल निवासी कैद घरों में

पानी जमा नलों में सारा।।

 

बिल्ली जैसे निरे सैलानी

धूम मचाने शिमला आए।

हुई दिक्कतें निरी वहाँ पर

लौट के बुद्धू घर को आए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

 बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – चिरंजीव ??

मैं हूँ,

सो तुम हो,

मुझ पर ही

टिका है

तुम्हारा अस्तित्व,

‘जीती रहो’ पीड़ाओ,

खेद है-

तुम्हें ‘विजयी भव’

नहीं कह सकता मैं,

अपनी जिजीविषा को

चिरंजीव होने का आशीर्वाद

पहले ही दे चुका हूँ मैं..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 10:40 बजे, बुधवार दि. 12 अक्टूबर 2017

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गणतंत्रता दिवस विशेष – राष्ट्र-स्तुति के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ गणतंत्रता दिवस विशेष – राष्ट्र-स्तुति के दोहे ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

शोभित,सुरभित,तेजमय,पावन अरु अभिराम।

राष्ट्र हमारा मान है,लिए उच्च आयाम।।

राष्ट्र-वंदना मैं करूँ,करता हूँ यशगान।

अनुपमेय,उत्कृष्ट है,भारत देश महान।।

नदियाँ,पर्वत,खेत,वन,सागर अरु मैदान।

नैसर्गिक सौंदर्यमय,मेरा हिंदुस्तान।।

लिए एकता अति मधुर,गीता और कुरान।

दीवाली-होली सुखद,एक्यभाव-पहचान।।

सारे जग में शान है,है प्रकीर्ण उजियार।

राष्ट्र हमारा है प्रखर,परे करे अँधियार।।

मातु-पिता,गुरु,नारियाँ,पातीं नित सम्मान।

संस्कार मम् राष्ट्र की,है चोखी पहचान।।

तीन रंग के मान से,हैं हम सब अभिभूत।

राष्ट्रवंदना कर रहे,भारत माँ के पूत।।

राष्ट्रप्रेम अस्तित्व में,आया नवल विहान।

कण-कण करने लग गया,भारत का यशगान।।

रखवाली नित कर रहे,सीमाओं पर लाल।

शौर्य,वीरता देखकर,होते सभी निहाल।।

आज़ादी की वंदना,करता सारा देश।

आओ,हम रच दें यहाँ,वासंती परिवेश।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #166 – तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं  आपके भावप्रवण तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…। )

☆  तन्मय साहित्य  #166 ☆

☆ तन्मय के दोहे – गुमसुम से हैं गाँव…

पथरीली  पगडंडियाँ,  उस पर  नंगे पाँव।

चिंताओं के बोझ से, गुमसुम-सा है गाँव।।

बारिश में  कीचड़ लगे, गर्मी जले अलाव।

ठंडी  ठिठुराती  यहाँ, डगमग जीवन नाव।।

नव विकास की आँधियाँ, उड़ा ले गई गाँव।

लगा केकटस आँगने, अब तुलसी के ठाँव।।

गाँव  ताकता  शहर को,  शहर  गाँव  की ओर

अपनी-अपनी सोच है, किस पर किसका जोर।।

पेड़  सभी  कटने  लगे,   जो  थे  चौकीदार।

कौन नियंत्रित अब करे, मौसम के व्यवहार।।

कलप रही है कल्पना,  कुढ़ता रहा समाज।

साहूकार की डायरी, चढ़ा ब्याज पर ब्याज।।

ऊब गई है जिंदगी, गिने माह दिन साल।

रीता मन कृशकाय तन,  ढूँढे पंछी डाल।।

अब प्रभात फेरी नहीं, गुम सिंदूरी प्रात

चौराहे चौपाल की,  किस्सों वाली रात।।

इकतारे खँजरी नहीं, झाँझ मृदंग सुषुप्त।

पर्व-गीत औ’ लावणी, होने लगे विलुप्त।।

चौके चूल्हे बँट गए, बाग बगीचे खेत।

दीवारें  उठने  लगी,  घर में फैली रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 54 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “मातृभूमि…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 52 ✒️

?  गणतंत्र दिवस विशेष ☆ गीत – मातृभूमि…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

हे मातृभूमि तेरा वंदन

करते हैं हम।

अंजुरी में अर्ध्य लेकर

अर्चन करते हैं हम।।

 

फ़िरते हैं वेश बदले

चहूं ओर भेड़िऐ ,

अपनों की भीड़ में हैं

असंख्य भेदिऐ ,

साग़र की भांति उन पे

गर्जन करते हैं हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

हैं रिश्वती हवाएं

आतंक की बदलियां,

कोहरा है भ्रष्टाचार का

स्वार्थ की बिजलियां ,

फ़िर से नूतन गगन का

सृजन करेंगे हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

कुछ तो शरम करो ऐ

ग़द्दार – ए – वतन ,

अपने ही मृत भाई का

खींचो न तुम कफ़न ,

फ़िर से एक बनेंगे

संकल्प ले – लें हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

किस वास्ते किया है

आत्मा का हनन ,

संकीर्ण सांप्रदायिकता को

कर दें हम दफ़न ,

हैवानियत को छोड़कर

इन्सां बन जाए हम ।

हे मातृभूमि ——– ।।

 

फ़िर ना उठाएगा कोई

हम पर उंगलियां ,

नई आन – बान होगी

ना उजड़ेगीं बस्तियां ,

दुआ मांगती है सलमा

भारत में हो अमन ।

हे मातृभूमि ——– ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रेम – ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय कविता – प्रेम)

☆ कविता – प्रेम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक झोंका हवा का आएगा

धर्मग्रंथों के पन्ने फड़फड़ा कर बिलखने लगेंगे

सूरज की पहली किरण फूटेगी

अँधेरा चीखता हुआ कहीं दुबक जाएगा

समंदर में पछाड़ खाती लहर उठेगी

भरभरा कर गिर जाएगी इस्पात कंक्रीट की दीवार

एक मुलायम डोर सरसराती हुई आएगी

कट जाएगी नैतिकता की कँटीली तार

छिटक जाएँगे तार में गुंथे वर्जनाओं के पत्थर

प्रेम स्थापित नैतिकता के विरुद्ध विद्रोह है

अनैतिक और उच्छृंखल नहीं है प्रेम

प्रेम दरअसल मनुष्य होने की गवाही है

और इसीलिए प्रेम दुनिया की सबसे बड़ी

कारगर और अनिवार्य नैतिक कार्रवाई है ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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