हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #165 – 51 – “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र …”)

? ग़ज़ल # 51 – “मिटा दे अपनी हस्ती ग़र …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

अदब की महफ़िल में यार तू शायरी कर,

मत यूँ ही अल्फाज़ की तू जादूगरी कर।

क्यों लागलपेट की बात करता तू उठते बैठते,

कर जुमलों दरकिनार एक बात तो खरी कर।

क़ीमतों की मार से बेबस को राहत तो मिले,

शहंशाह है बीमार की कुछ तो चारागरी कर।

अदब-तहजीब को धंधा बनाये कुछ सुख़नवर,

अय कलम ईमान भूलों की मत चाकरी कर।

फ़िरक़ा परस्ती मिट जाए लोगों के दिलों से,

यार सोच समझ कर कुछ तो सौदागरी कर।

मिटा दे अपनी हस्ती ग़र कोई मर्तबा चाहे है,

मुल्क को ख़ुशनुमा खुद को ख़ुदी से बरी कर।

दिल में कुछ ईमान रखकर ज़ाया कर मंदिर,

मुफ़्त में वोटों के लिए मत तू यायावरी कर।

दिल मे हैं तामीर उसके मंदिर ओ’ मस्जिद,

रियाया को मिले धंधा ऐसी तू बाज़ीगरी कर।

शौक़ हुकूमत का पाल बख़ूबी तू सियासत कर,

मुल्क में अमन वास्ते ‘आतिश’ कारीगरी कर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 42 ☆ मुक्तक ।। वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 41 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। वरिष्ठ नागरिक, जिंदगी की शाम नहीं, इक नया सवेरा है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जिंदगी की शाम नहीं इक नया सबेरा है।

यह तो जीवन की दूजी पारी का फेरा है।।

अनुभव और दुनियादारी का है अवसर।

हर पल हो उपयोग कि चार दिन का डेरा है।।

[2]

बदलते समय से अपना नाता जोड़ना है।

नई पीढ़ी को सही दिशा में मोड़ना है।।

अनुभव संपन्न विनम्र और संयमशील उम्र यह।

भूले बिसरे शौकों का हर पत्ता अब तोड़ना है।।

[3]

दुनियादारी का हर कर्ज लौटाने का वक्त है।

रिश्ते नाते का हर फर्ज निभाने का वक्त है।।

इस सफर ने जाने अंजाने सिखाया बहुत कुछ।

किस्से कहानी की हर तर्ज सुनाने का वक्त है।।

[4]

निराशा असंतोष को जीवन में पाना नहीं है।

अवसाद अकेलापन जीवन में लाना नहीं है।।

बुढ़ापा नहीं  वरिष्ठता को हमें है अपनाना।

अपने  अनमोल दोस्तों को छोड़ जाना नही है।

[5]

हर लम्हा जिंदगी जीने का अरमान जगाना है।

छोटी छोटी खुशी का भी जश्न मनाना है।।

उम्र हमारी सोच पर हावी ना होने पाए।

एक ही मिली जिंदगी कि यादगार बनाना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सुदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सुदर्शन ??

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

और कभी-कभार

नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा,

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला,

कल तक जो नश्वर था

आज ईश्वर हो गया..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 108 ☆ ग़ज़ल – “वह याद चली आती…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “वह याद चली आती…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #108 ☆  ग़ज़ल  – “वह याद चली आती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दुनियाँ से जुदा, दिल में रहती है जो शरमाई 

वह याद चली आती, जब देखती तनहाई।

 

मिलकर के मेरे दिल को दे जाती है कुछ राहत

जो रखती मुझे हरदम उलझनों में भरमाई।

 

लगती उदास मुझको ये कायनात सारी

तस्वीर तुम्हारी ही आँखों में है समाई।

 

सदा सोते जागते भी सपने मुझे दिखते है

पर फिर से कभी मिलने तुमसे न घड़ी आई।

 

अनुमान के परदे पर कई रूप उभरते है

कभी बातें करते, हँसते पड़ती हो तुम दिखाई।

 

सब जानते समझते धीरज नहीं मन धरता

पलकों में हैं भर जाते कभी आँसू भी बरियाई।

 

मन बार-बार व्याकुल हो साँसें भरा करता

कर पाई कहॉ यादें इन्सान की भरपाई।।

 

दिन आते हैं जाते हैं पर लौट नहीं पाते

देती ’विदग्ध’ दुख यह संसार की सच्चाई।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #158 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 158 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

शुभ अवसर का लाभ तो, उठा रहे हो मीत।

तुम भी इसको जान लो, कर लो  मुझसे प्रीत।।

करना होगा अब प्रिये, अनुग्रह को स्वीकार।

चाहे कुछ भी सोच लो, तुम हो मेरा प्यार।।

हर पल आती आपदा, इसका यहीं निदान।

डटकर करो मुकाबला, जीवन हो आसान।।

मुझे प्रशंसा प्रशस्ति की, नहीं कभी भी चाह।

जीवन में मिलती रही, हमें सुहानी राह।।

उनकी अब तो बढ़ गई, प्रतिष्ठा है आज।

मिलजुल कर अब हो रहे, बनते बिगड़े काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अरण्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अरण्य ??

निराशा के पलों में,

आक्रोश के क्षणों में,

कई बार सोचा;

आग लगा दूँ

अपनी कविताओं के

अरण्य को,

वैसे भी यह अरण्य

घेर लेता है

दुनिया भर की जगह

और देने के नाम पर

छदाम भी नहीं देता,

संताप बढ़ा;

चरम पर पहुँचा,

आश्चर्य!

तीली के स्थान पर

लेखनी उठाई,

नयी रचना आई,

सृजन की बयार चली,

मन उपजाऊ हुआ;

अरण्य और घना हुआ,

पर्यावरणविद सही कहते हैं;

व्यक्ति और समाज के

स्वास्थ्य के लिए

अरण्य अनिवार्य होते हैं!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #144 ☆ सन्तोष के नीति दोहे – 2 ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “सन्तोष के नीति दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 144 ☆

 ☆ सन्तोष के नीति दोहे – 2 ☆ श्री संतोष नेमा ☆

 असली धन वन-संपदा, इसे न जाना भूल

बचा रहे पर्यावरण, यह जीवन का मूल

 

महँगाई के नाम पर, रोता आज समाज

पर सबसे महँगा हुआ, भाई-चारा आज

 

सदा हमारे लिए ही, सैनिक हों कुर्बान

किंतु धर्म के नाम पर, लड़ते हम नादान

 

हृदय रखें गर शुद्ध हम, कर्म करें गर नेक

बाधाएँ भी हार कर, घुटने देतीं टेक

 

जिह्वा पर काबू रखें, यही बिगाड़े पेट

बढ़ते दौर विवाद के, देती है अलसेट

 

तन-मन करती खोखला, ताड़ी और शराब

बिखर रहे परिवार भी, होती साख खराब

 

धन-मन काला मत रखें, कभी न जिसका मोल

सच्चाई होती सदा, जीवन में अनमोल

 

मन वृंदावन-सा रखें, तन काशी का घाट

रखिये मंदिर सा हृदय, मन के खोल कपाट

 

बड़े बड़प्पन ना रखें, रखे न सागर नीर

उससे लघुता ही भली, रखे हृदय में पीर

 

करते रहिए कोशिशें, गर चाहें परिणाम

स्वप्न देखने से महज, कभी न बनते काम

 

जिस घर में होता नहीं, वृद्धों का सम्मान

उस घर में होता सदा, खुशियों का अवसान

 

कच्चा धागा प्रेम का, इस पर दें मत जोर

रिश्ते सभी संभालिये, रखें खींच कर डोर

 

आगे बढ़ता देख कर, होते दुखी अपार

होता कलियुग में यही, पर सुख में दुख यार

 

कामी, क्रोधी, लालची, देते हैं उपदेश

करें साधु बन कर ठगी, रोज बदलकर भेष

 

बँधी रहे मुट्ठी अगर, ताकत देती खूब

राख बने मुट्ठी खुली, साख जाय सब डूब

 

दया, क्षमा अरु शीलता, यही धर्म का सार

सर्वश्रेष्ठ “संतोष” धन, इस पर करें विचार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बाकी, कविता म्हणजे काय असतं ? ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बाकी, कविता म्हणजे काय असतं ? ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

मनावर लिहीता येत नाही

म्हणून कागदावर लिहायचं

बस्स, इतकंच……

 

बाकी, कविता म्हणजे काय असतं ?

 

दोन ओळींच्या मधलं जाणून घ्यायचं

तसच मनाच्या आतलं समजून घ्यायचं.

 

आतमध्ये दडलेल उफाळून वर येतं

नकळत कागदावर उमटत जातं

तीच तर कविता असते.

 

बाकी, कविता म्हणजे काय असतं ?

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 105 ☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  ‘बेटी ! मत बन मेरी जैसी’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 105 ☆

☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ना जाने क्यों

मुझे आईने में

आज अपना नहीं

माँ का चेहरा नजर आया

पनीली-सी आँखें

बोल उठीं मुझसे

छोड़ दिया ना

तुम्हें भी सबने अकेला ?

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

घर के कामों को निपटाती

इधर-उधर, ऊपर-नीचे, आती-जाती

बोलोगी खुद से

सवाल तुम्हारे,

जवाब भी तुम्हारे ही होंगे | 

सन्नाटे को चीरती आवाज,

लौटेगी तुम तक बार-बार

टी. वी. चलाकर –

दूर करना चाहोगी,

घर में पसरे सूनेपन को

पर कोई नहीं तुम्हारी बात सुननेवाला |

मानों मेरी बात  |

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

शुरू हो गई है प्रक्रिया

तुम्हें पागल बनाने की

बड़े सलीके से

आईने में दिखती आँखें

मानों रो रही थीं –

कह रही थीं –

निकलो बाहर इस

भीतर – बाहर के सूनेपन से

इससे पहले तुम्हें कोई

पागल करार दे

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उत्सवधर्मी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उत्सवधर्मी ??

जीवन की अंतिम घड़ी,

श्यामल छाया सम्मुख खड़ी,

चित्र चक्र-सा घूमा;

क्षण भर विहँसा ;

छाया के संग चल पड़ा,

छाया विस्मित.. !

जीवन से वितृष्णा

या जीवन से प्रीत?

न वितृष्णा न प्रीत;

ब्रह्मांड की सनातन रीत,

अंत नहीं तो आरंभ नहीं,

गमन नहीं तो आगमन नहीं,

मैं आदि सूत्रधार हूँ,

आत्मा का भौतिक आकार हूँ,

सृष्टि के मंच का रंगकर्मी हूँ,

सृजन का सनातन उत्सवधर्मी हूँ!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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