हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #136 ☆ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 136 ☆

☆ ‌ हिंदी भक्ति काल की ज्ञानाश्रयी शाखा के अनूठे कवि कबीर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

कबीर साहब का जन्म तत्कालीन काशी क्षेत्र वर्तमान में वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान में सन् 1398 में हुआ। जन्म के पश्चात् इन्हें लावारिस हालत में तालाब के किनारे पाया गया था। इनका लालन-पालन नीरू और नीमा नामक जुलाहे दंपति ने किया था। वह समय भारत की गुलामी का था।

देश पर मुग़ल साम्राज्य था। तथा हिंदू धर्म अपने पराभव काल में था। यह वह समय था जब  था हिंदू सभ्यता तथा सांस्कृतिक विरासत के प्रतीकों को तोडा गया, उनकी संपत्ति को लूटा गया तथा पददलित किया गया। लेकिन उसी समय देश के संतों महात्माओं ने धर्म और संस्कृति की मर्यादा की रक्षा के लिए सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के लिए कलम को हथियार बना कर लोगों के भीतर एक चेतना पैदा की। एक तरफ जहां भक्तिकालीन कवियों ने लोगों में भक्तिभाव जगाया। सगुण भक्ति की काव्य धारा प्रवाहित किया, तो वहीं पर कुछ कवियों ने निर्गुण की उपासना की। एक ओर सूरदास, कबीर दास, तुलसी दास, रविदास जैसे कवि थे तो दूसरी ओर रहीम, रसखान जैसे मुसलमान कवि जो इस्लाम केदीन को मानते हुए भी कृष्ण के भक्ति रस में खुद को आकंठ डुबा चुके थे और हृदय से परम उदार शालीनता के प्रतीक बन गए थे। तो वहीं पर कुछ दरबारी कवि भी हुए जो राजाओं महाराजाओं के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्ति गान तक सीमित हो गए। आल्हा तथा रासों विधा की रचनाएं दी, जिसमें जगह जगह अतिशयोक्तिपूर्ण प्रस्तुति है। लेकिन भक्तिकालीन कवियों में कबीर की रचनाओं में खरापन दिखाई देता है, उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है।

समाज के अंतिम पायदान पर खड़े कबीर साहब को ना तो कुछ पाने की अभिलाषा थी ना कुछ खोने का भय। इस लिए जो भी लिखा निर्भय हो कर लिखा। इनकी रचना की मूल विधाएं साखी, सबद, रमैनी तथा दोहे थे। भाषा शैली पंचमेल खिचड़ी थी। इनकी रचनाओं में हिंदी भाषा के अपभ्रंश, पंजाबी गुरुमुखी तथा स्थानीय भाषा के शब्द दृष्टिगोचर होते हैं।  उनकी लेखन शैली में उलटबांसी, अध्यात्म चिंतन, कूट कूट कर भरा हुआ है। उनकी जीवनशैली खांटी फक्कड पन भरी थी, तथा वे घुमक्कड़ प्रकृति के थे, जिसका प्रभाव उनके लेखन की भाषा शैली में स्पष्ट दिखाता है।

उनके लेखन का सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार का अंदाज जहां रूढिवादियों को तिलमिला देता है वहीं समाज के पुरोधाओं को विचार करने के लिए विवश भी करता है। उनके प्रहार के कुछ उदाहरण प्रस्तुत है।–

पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहार

याते चाकी भली जो पीस खाए संसार

तथा  कलयुगी गुरु शिष्य परंपरा की विद्रूपताओं पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि—-

गुरू लोभी सिष लालची, दोनों खेले दाव।

दोनों बूङे बापुरे, चढ़ि पाथर की नाव॥

तो वहीं पर गुरु सत्ता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

मानव जीवन में गुरु की महत्ता  पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि—–

गुरु कुंभार शिष्य कुंभ है, घड़ि घड़ि काढ़े खोट।

भीतर हाथ पसार के, बाहर मारे चोट।

अर्थात् गुरु व्यक्ति भीतर व्यक्तित्व गढ़ता है।उनकी रचनाओं में समाज को दिशा दिखाने वाले संदेश प्रतिध्वनित होते हैं। उनका भी उदाहरण देखें——-

दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।

मरे बैल की चाम सो लोह भसम हो जाए।।           

अथवा

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे, उनका दृष्टि कोण उदारवादी तथा विस्तृत था वह संकुचित दृष्टि कोण के विरुद्ध थे। वह माला नहीं मन फेरने की बात करते थे। तथा दिखावे और बाह्याडंबर के विरुद्ध थे, लेकिन धर्म कर्म के विरोधी नहीं थे।

जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ काम।

मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे राम।

कबीर माला काठ की, कहीं समझावे तोही।

मन ना फिरावे आपना, कहा फिरावे मोहि।

मूड़ मुड़ाए हरि मिलै तौ सब कोई लेइ मुड़ाय ।

बार – बार के मूड़ते , भेड़ न बैकुंठ जाय ।

तो वहीं पर अध्यात्म का संदेश देते हुए कहते हैं कि– 

संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे । 

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बाँधी ॥ 

उन्होंने अध्यात्म की नई परिभाषा गढ़ते हुए ईश्वर के घर की दूरी नापने की आध्यात्मिक नई परिभाषा देते हुए सावधानी का संदेश दिया।

कबिरा हरि घर दूर है, जैसे पेड़ खजूर।

चढै सो चाखे प्रेम रस, गिरै सो चकनाचूर।।

तो वहीं पर और गहराई में उतर कर लिखते हैं कि

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

तो वहीं खोजते खोजते खुद के खो जाने की बात करते हैं।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

अर्थात् भक्ति मार्ग पर अपने अस्तित्व को मिटाने की बात करते हैं। प्रकारांतर से कबीर साहब के मत का समर्थन रविदास जी की रचना में भी दृष्टि गोचर होता है।

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी में भी देखा जा सकता है। अर्थात् चंदन के संपर्क में आकर पानी सुवासित हो जाता है और चंदन घिस कर माथे का तिलक बन जाता है। अर्थात् आत्मा और परमात्मा का मिलन उपयोगी बन जाता है आत्मा के लिए ।

वहीं पर गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाएं भी उनके मत की पुष्टि करते जान पड़ते हैं जैसे—-

गुरु बिन भव निधि तरइ न कोई ।

जौ बिरंचि संकर सम होई ।।

 तो वहीं पर—–

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी।।

श्री गुरु पद नख मनि गन ज्योति । सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।  

तो वहीं पर  तुलसी दास जी के दोहे प्रकारांतर से वहीं संदेश देते प्रतीत होते हैं जैसे—–

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर ।

लेकिन कबीर के राम तुलसी के सगुण रूपी राम नहीं है, वे तो राम के रूप को अनुभूति की विषय वस्तु बना देते हैं तथा राम को अनुभवगम्य बताते हुए कहते हैं कि

जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।

पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥

तो वहीं पर अपनी जन्मभूमि की गरिमा बढ़ाते हुए उसे मोक्ष भूमि कहते हुए लिखते हैं कि—–

जौ काशी तन तजै कबीरा ,तो रामै कौन निहोटा।

और अपने सत्करमों के परीक्षण हेतु मगहर में जा कर अपना शरीर का त्याग कर अपनी आत्मसत्ता को पूर्ण में एकाकार कर उसी में खो जाते हैं।

वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने  भी कबीर के मत की पुष्टि करते हुए लिखा—–

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।

कर बिनु करम करइ बिधि नाना।। 

से की है तो आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं——

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अर्थात् सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, एक शरीर है तो दूसरी आत्मा। सगुण जहां शरीर है ‌वहीं निर्गुण निराकार आत्मचेतन सत्ता। शरीर के बिना आत्मचेतना विलुप्त है तो शरीर के भीतर आत्मचेतना प्रकट हो गतिशील रूप में दृश्य मान हो जाती है। इस प्रकार कबीर साहित्य हमें यथार्थ दर्शन के साथ मतैक्यता के भी दर्शन कराता है।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #152 – ग़ज़ल-38 – “जमाने ने रहम नहीं किया…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जमाने ने रहम नहीं किया …”)

? ग़ज़ल # 38 – “जमाने ने रहम नहीं किया …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

अपने अहसासों को लफ़्ज़ पहना रहा हूँ,

अपने ज़ख्मों को खुद ही सहला रहा हूँ।

 

क्या ज़िक्र करूँ ख़ुदगर्ज़ रिश्तेदारों का,

उन्हें अब उनका चेहरा दिखा रहा हूँ।

 

वक़्त ने पाल पोसकर बड़े करम किए,

अब उसी का अक्स बनता जा रहा हूँ।

 

दोस्तों ने सयानेपन में कसर नहीं छोड़ी,

उन्ही के अन्दाज़ में दोस्ती निभा रहा हूँ।

 

जमाने ने रहम नहीं किया ‘आतिश’ पर,

वक़्त ए रूखसत तौफ़ीक़ आज़मा रहा हूँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

 

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 29 ☆ मुक्तक ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 29 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।हमें फहराना है माँ भारती का जयगान तिरंगा 🇮🇳।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

वन्देमातरम केआवाह्न का  तिरंगा।

जय हिंद के    पैगाम   का  तिरंगा।।

विश्व विजयी    तिरंगा  फहराना है।

वृहतम लोकतंत्र सम्मान का तिरंगा।।

[2]

अमृत महोत्सव की वो  शान तिरंगा।

75 वर्षआज़ादी का गुणगान तिरंगा।।

घर घर तिरंगा हर घर तिरंगा लहराये।

भारत उच्च मस्तकआलीशान तिरंगा।।

[3]

तेरा मेरा सबका ही अभिमान  तिरंगा।

जिसे सब करते वह    सलाम  तिरंगा।।

आज़ादी उत्सव मनाना तिरंगा हाथ में।

राष्ट्र अस्मिता प्रतीक  पहचान   तिरंगा।।

[4]

अमृत महोत्सव का   अभियान तिरंगा।

हम सबकी ही आन बान शान  तिरंगा।।

मातृ भूमि के हर कोने फहराना हमको।

माँ भारती का वन्दन जय गान   तिरंगा।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – शॉर्टकट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – शॉर्टकट ??

रातों रात

वे कहलाना चाहते हैं सिद्ध,

तिस पर रात भी

बारह घंटे की नहीं चाहते,

सुनो उतावलो!

मूलभूत में

कभी परिवर्तन नहीं होता,

तपस्या का

कोई शॉर्टकट नहीं होता..!

© संजय भारद्वाज

( प्रात: 9:30 बजे, 12 अगस्त 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 94 ☆ ’’शुभ भावना…!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  शुभ भावना…!। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 94 ☆ शुभ भावना…!” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जिनके मन में अपनों के प्रति स्नेह कम दुर्भाव है 

यह समझना चाहिए कि उनका गलत स्वभाव है

 मिलकर रहने से बढा करती है ममता भावना 

आज लेकिन सब घरों में ममता का ही अभाव है 

 

आने जाने से ही मन में बढ़ता जाता प्यार है 

प्यार ही संसार में हर खुशी का आधार है

मधुर वाणी जीत लेती सहज ही सद्भावना

प्रेम से ही चल रहा संसार का व्यवहार है

 

जहां भी संसार में होती कमी है स्नेह की

वहीं झट उत्पन्न होती है व्यथा संदेह की

प्रेम पूरित मन सभी की चाहता शुभकामना 

बात कुछ करती नहीं है किसी से विद्वेष की 

 

स्नेह जल में मन सरोवर में सदा खिलते कमल 

सुखद औ आनंददायी मनोहर पावन विमल 

जिनके दर्शन देते रहते मन को सुख औ शांति भी 

कभी कोई दुर्भाव उस मन में न हो सकता प्रबल

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाक्षी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – एकाक्षी ??

एकाक्षी होना चाहता हूँ,

अर्थ यह नहीं कि

एक आँख बंद कर लूँ,

वांछित है; दोनों में

समत्व विकसित कर लूँ!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #144 ☆ भावना के दोहे…रक्षा बंधन ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …रक्षा बंधन ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 144 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …रक्षा बंधन ☆

लगी द्वार पर टकटकी

देख रही हूँ राह।

राखी के अवसर की

है बहना को चाह।।

 

चौमासे की धूम है,

हर दिन है त्यौहार।

संग सखी, भाई बहन,

मिले पिया का प्यार।।

 

राखी के दिन भाई बहना

आया है शुभ दिन क्या कहना।

देते दुआएं भाई हमको

राखी तो भाई का गहना।।

 

रक्षा बंधन प्यार का,

   प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की,

   मना रहा संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #133 ☆ संतोष के दोहे… रक्षा बंधन ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे… रक्षा बंधन। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 133 ☆

☆ संतोष के दोहे… रक्षा बंधन ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राखी पावन पर्व है, धागे का त्यौहार

सजी कलाई प्रेम से, मिला बहिन का प्यार

 

रक्षा का बंधन बंधे, होता जो अनमोल

बहिन सुरक्षित हो सदा, भाई के यह बोल

 

भाई को आशीष दे, करती बहिन पुकार

ईश्वर से यह कामना, सुखी रहे परिवार

 

खुशियाँ लेकर आ गया, राखी का यह पर्व

भाई पर करतीं बहिन, सबसे ज्यादा गर्व

 

सावन सुखद सुहावना, सजे सावनी गीत

रक्षाबंधन,कजलियाँ, बांट रहे हैं प्रीत

 

भाई की यह कामना, मिले बहिन का प्यार

बहिन हमेशा खुश रहे, ईश्वर से दरकार

 

दिखने में दो तन दिखें, बहे एक सा खून

पावन राखी पर्व पर, खुशियाँ होतीं दून

 

इंद्रधनुष सी राखियाँ, भरतीं मन उत्साह

प्रेम बढ़ाती परस्पर, रिश्तों की यह राह

 

दे शीतलता चाँद सी, भ्रात-भगिनि का प्यार

दिल में भी “संतोष”हो, बढ़े प्रेम व्यबहार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 122☆ गीत – मानवता को प्यार करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 122 ☆

☆ गीत – मानवता को प्यार करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

मानव जीवन मूल्यवान है

सजग बनो, उपकार करो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

देश के हित में सपने पालो

कर्तव्यों को सदा निभा लो

वाद्ययंत्र-सा जीवन होता,

देशभक्त  बन स्वयं बजा लो।।

 

स्वारथ से ऊपर उठ जाओ

जीवन में नव प्राण भरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

लोभ, कपट, आलस को त्यागो

धन के पीछे कभी न भागो

योग चक्र को धार बनाकर

बहुत सो लिए अब तो जागो।।

 

ममता, समता के सागर से

निश्छलता से पीर हरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

पावन दीप हृदय में जलता

द्वेष आदमी को है छलता

पुष्प कोमल – सा दिया प्रभु ने

समय उम्र को है नित्य ढलता।।

 

दुख – सुख का मेला है जीवन

जीते जी मत स्वयं मरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

 

तृष्णाओं में डूब न जाओ

धर्म, कर्म कर नाम कमाओ

पशु – पक्षी से उठकर सोचो

अपनी संस्कृति को चमकाओ।।

 

जैसे झरने झर – झर झरते

उसी तरह ही नित्य झरो।

भारत की माटी से जुड़कर

मानवता को प्यार करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#145 ☆ शेष कुशल मंगल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना शेष कुशल मंगल है…”)

☆  तन्मय साहित्य # 145 ☆

☆ शेष कुशल मंगल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चिंतनमय शब्दों का

एक घना जंगल है

जंगल में दंगल है

शेष कुशल मंगल है।

 

अक्षरों से बुनें जाल

अपने से ही सवाल

खोजें अंतर्मन में

भ्रमण चले डाल डाल,

 

भावों के सम्मिश्रण से

निकले तब हल है

शेष कुशल मंगल है।

 

आलस को त्याग कर

रात रात जागकर

चले शब्द साधना

लय प्रवाह साध कर,

 

चीर कर अंधेरे को ही

खिलते कमल है

शेष कुशल मंगल है।

 

उपकारी सोच हो

संवेदन स्रोत हो

सत्य के सृजन में न

मन में संकोच हो,

 

फलीभूत लेखनी वही

जिसमें हलचल है

शेष कुशल मंगल है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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