हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #137 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल-23 – “इंतज़ार…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “इंतज़ार…”)

? ग़ज़ल # 23 – “इंतज़ार…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में दिल को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

 

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

रहते खुद के घर में पता दुश्मन का मिलता है।

 

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से क्या पता पूछते हो,

ढूँढने पर भी उनको कहाँ खुद का पता मिलता है।

 

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कहाँ दोस्त का घर मिलता है।

 

इंतज़ार में उनके थक जाती हैं आशिक़ की निगाहें,

इश्क़ को कैरीअर के क़ैद से कब समय मिलता है।

 

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बन कर रह गए हैं,

आतिश अब माँगने पर प्यार अपनों से मिलता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तन-मन पर छा जाओ ☆ श्री वीरेंद्र प्रधान ☆

श्री वीरेंद्र प्रधान

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वीरेंद्र प्रधान जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन (कवि, लघुकथाकार, समीक्षक)। प्रकाशित कृति – कुछ कदम का फासला (काव्य-संकलन), प्रकाशनाधीन कृति – गांव से बड़ा शहर। साहित्यकारों पर केन्द्रित यू-ट्यूब चैनल “प्रधान नामा” का संपादन। )

☆ कविता ☆ तन-मन पर छा जाओ ☆ श्री वीरेंद्र प्रधान  ☆

तुम से दो कदम पहले होता है अन्त

और एक कदम पहले शुरुआत

वहुत गजब है प्रिय! तुम्हारी बात।

शुरुआत से अन्त का यही क्रम

अनन्त काल से चलता है अबाध।

                                         

अपने सब मित्रों और सखियों में

सबसे कम तुमने पाया कद

किन्तु किसी के आगे

और किसी के पीछे होकर

हो तुम निरापद।

 

थोड़ी सी बढ़ जाती है

हर चार साल में तुम्हारी लम्बाई

फिर जस की तस

सबसे छोटी दिखती तुम्हारी परछाई

फिर भी एक दो नहीं वरन

दस को छुपा लेती हो तुम

महीनों की पांच में

तुम्हारा क्रम है पूर्व निर्धारित।

 

युवाओं को तुम्हारे पूर्ण युवा होने का

वर्ष भर रहता है इन्तजार

और तुम्हारे सोलह नहीं वरन

चोदह की होने पर ही होता है प्रेम-दिवस।

हमेशा बना रहे तुम्हारा यौवन

वर्ष भर बांटते रहें उपहार मन।

 

तुम छुपो मत सामने आओ

बाल, वृद्ध, युवा के तन-मन पे’ जा जाओ।

 

© वीरेन्द्र प्रधान

संपर्क – जयराम नगर कालोनी, शिव नगर, रजाखेड़ी, सागर मध्यप्रदेश 

मो – 7067009815

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#75 ☆ गजल – ’’जिनकों हमने था चलना सिखाया…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “जिनकों हमने था चलना सिखाया…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 75 ☆ गजल – जिनकों हमने था चलना सिखाया…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

है हवा कुछ जमाने की ऐसी, लोग मन की छुपाने लगे हैं।

दिल में तो बात कुछ और ही है, लब पै कुछ और बताने लगे हैं।

 

ये जमाने की खूबी नहीं तो और कोई बतायें कि क्या है ?

जिसको छूना भी था पहले मुश्किल, लोग उसमें नहाने लगे हैं।

 

कौन अपना है या है पराया, दुनियाँ को ये बताना है मुश्किल

जिनको पहले न देखा, न जाना, अब वो अपने कहाने लगे हैं।

 

जब से उनको है बागों में देखा, फूल सा मकहते मुस्कुराते

रातरानी की खुशबू से मन के दरीचे महमहाने लगे हैं।

 

बालों की घनघटा को हटा के चाँद ने झुक के मुझकों निहारा

डर से शायद नजर लग न जाये, वे भी नजरें चुराने लगे हैं।

 

रंग बदलती ’विदग्ध’ ऐसा दुनियाँ कुछ भी कहना समझना है मुश्किल

जिनकों हमने था चलना सिखाया, अब से हमको चलाने लगे हैं।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (61 – 65) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

पत्नी बिन संभव नहीं कोई धार्मिक विधान।

अतः कराई राम ने स्वर्ण मूर्ति निर्माण।।61अ।।

 

एक-पत्नी-व्रती राम से हुई न सीता दूर।

उनका त्याग महान भी रहा स्तुत्य भरपूर।।61ब।।

 

किया शास्त्र-विधि-संमत यज्ञ राम ने पूर्ण।

रक्षक वही राक्षस बने जो थे बाधक पूर्ण।।62।।

 

दिव्य ज्ञान से वाल्मीकि ने जो थी रची रामायण।

सीतासुत कुश-लव से ही लगे कराने गान।।63।।

 

राम चरित कवि वाल्मीकि, गायक कुश-लव गान।

फिर श्रोता वह कौन जो मुग्ध न हो मतिमान।।64।।

 

सुस्वरूप दो बालकों को करते मधु गान।

अनुज सहित श्रीराम ने देखा तज निज भान।।65।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 126 ☆ मुक्तक देवी के ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  नवरात्रि पर्व पर विशेष  “मुक्तक देवी के। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 126 – साहित्य निकुंज ☆

☆ मुक्तक देवी के ☆

महिमा मां की निराली आया तेरे  द्वार

करता हूं मैं वंदना कर दो तुम उद्धार।

मैं बिनती तुझ से करूं रख लो मेरी लाज

जन्म मरण का प्रश्न है कर दो नैया पार।।

 

पुकारू मैं तुझे जब भी मेरे दर्शन में तू आए

मैं खोलूं आंख तो मेरे ख्वाबों में समा जाए।

तू देवी सा रूप है करूं मैं याचना तुझसे।

मुझे तू अपना ही समझे मुझमें तू समा जाए।।

 

मां कात्यानी रूप की करते जय जयकार।

हर लो मां तुम विपदा सारी होकर सिंह सवार।।

करती है कल्याण मां देती है वह वरदान।

दुख सारे हरती मां करे दुष्टों का संहार।।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #116 ☆ फागुन लायो रंग हजार… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना फागुन लायो रंग हजार। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 116 ☆

☆ फागुन लायो रंग हजार

रँग रंगीलो फागुन आयो, चलती प्रेम फुहार

श्याम छबीलो नाचन लागो, भर नैनन में प्यार

राधे कहती हैं सखियों से, प्रेमहिं प्रभु का द्वार

प्रेम गीत कोयलिया गावे, छाई बसंत बहार

होरी देखन आज बिरज में, लम्बी लगीं कतार

पुलकित है “संतोष” आज तो, खुशियाँ मिलीं अपार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (56 – 60) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

पत्नि त्याग से भुजा जो कष्ठ श्लेष अज्ञात।

उससे शस्त्र ग्रहण किये भूषण सम रघुनाथ।।56अ।।

 

जब लौटे वे अयोध्या ब्राह्मण का मृतपुत्र।

यमपुर से आ लौट कर, था सजीव फिर तत्र।।56ब।।

 

ब्राह्मण ने पा पुत्र को, राम का कर गुणगान।

क्षमायाचना की जो पहले की थी निंद्रा-दान।।57।।

 

वर्षा कर ज्यों मेघ यश पाता उगा के धान।

अश्वमेघ कर राम भी नृपों में हुये महान।।58।।

 

आमंत्रित ऋषिगण कई आये राम के पास।

सभी वे जिनके धरा और दिव्य लोक था वास।।59।।

 

उन सबको पा अयोध्या चतुर्मुखी शुभ-द्वार।

हुई ब्रम्हा सी सहज ही शोभित सकल प्रकार।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 104 ☆ कविता – मेरा प्यारा गीत गया ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता  “मेरा प्यारा गीत गया”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 104 ☆

☆ मेरा प्यारा गीत गया ☆ 

दुख-सुख-प्रत्याहार मिला, लेकिन सब कुछ बीत गया।

कभी धूप ने झुलसाया, कभी लहर-सा शीत गया।।

 

कुछ हैं नौका खेने वाले, कुछ हैं उसे डुबोने वाले।

कुछ हैं गौर वर्ण मानस के, कुछ हैं कपटी, नकली ,काले।

कुछ की आँखें खुली हुई हैं, कुछ के मुख पर स्वर्णिम ताले।

 

कभी हार का स्वाद चखा, कभी- कभी मैं जीत गया।।

 

अनगिन स्वप्न सँजोए हमने, पूरे कभी नहीं होते हैं।

कालचक्र के हाथों खुद ही, फँसे हुए हँसते-रोते हैं।

वीर जागते सीमाओं पर, कुछ तो आलस में सोते हैं।

 

करूँ सर्जना आशा की, फिर भी मन का मीत गया।।

 

दर्प, मदों में डूबे हाथी, झूम-झूम कर कुछ चलते हैं।

बनते दुर्ग खुशी में झूमें, ढहते हाथों को मलते हैं।

जिसका खाते, उसी बाँह में, बनकर सर्प सदा पलते हैं।

 

भूल रहा हूँ मैं हँसकर, रोकर, किन्तु अतीत गया।।

 

संग्रह हित ही पूरा जीवन, भाग रहा भूखे श्वानों-सा।

ढहता रहा आदमी खुद ही, जर्जर हो गहरी खानों-सा।

कभी आँख ने धोखा खाया, कभी अनसुना कर कानों-सा।

 

कभी बेसुरे गीत सुना, कभी छोड़ संगीत गया।।

 

क्रूर नियति से छले गए हैं, सुंदर -सुंदर पुष्प सदा ही।

कभी अश्रु ने वस्त्र भिगोए, और भाग्य का खेल बदा ही।

नग्न बदन अब चलें अप्सरा, प्रश्न उठें अब यदा-कदा ही।

 

पाप-पुण्य की गठरी ले, मेरा प्यारा गीत गया।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #112 – परीक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता – “परीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 112 ☆

☆ कविता – परीक्षा ☆ 

मुझ से तुम न घबराना

चुपके से आ कर कहें परीक्षा.

घबराने से गायब होती

याद की थी जो बातेंशिक्षा.

 

याद रहा है जितना तुम को

लिख दो उस को, कहे परीक्षा.

सरल—सहल पहले लिखना

कानों में यह देती शिक्षा.

 

जो भी लिखना, सुंदर लिखना

सुंदरता की देती शिक्षा.

जितना पूछे, उतना​ लिखना

कह देती यह खूब परीक्षा.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

10/03/2017

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (51 – 55) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

तप का उसे अधिकार नहिं, था वह अनुचित पोच।

समझ यही संहार का किया राम ने सोच।।51।।

 

तुहिन त्रस्त किंजल्क से थे उसके मुख-माल।

क्योंकि तापते अग्नि से झुलस गये थे बाल।।52अ।।

 

को संहारा राम ने कर ग्रीवा विच्छेद।

नृप को करना है उचित सही-गलत का भेद।।52ब।।

 

राज-दण्ड पा भी उसे मिला न सद्गति-द्वार।

सज्जन की गति तो मिली पर न हुआ उद्धार।।53।।

 

पक्ष में मिले अगस्त्य संग सुख-आनन यों राम।

शरद् भी खिलता चंद्र संग जैसे अधिक ललाम।।54।।

 

जलनिधि पायी अगस्त ने, उदधियुक्ति प्रतिदान।

जो पाये थे अस्त्र दिव्य दिये राम को दान।।55।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares