हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #95 ☆ दीपो से धरा सजाना है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #95 ☆ # दीपो से धरा सजाना है# ☆

अमावस की काली रातों में,

           दीपों से धरा सजाना है।

रह ना जाए कोई कोना,

        जग में प्रकाश फैलाना है।

तन आलोकित मन आलोकित,

   जग को आलोकित कर जाना है।

 मन मारे जो बैठ गये घर में,

   उनके दिल  का दिया जलाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।1।

 

जीवन की अंधेरी रातों में,

      कांटों के उपर चलना है।

  उम्मीदों का जला के एक दिया,

        खतरों से बच के निकलना है।

ना खाये कोई ठोकर राहों में,

      एक दीपशिखा सा जलना है।

सत्कर्मो के पथ आलोकित हों,

            राहों में उजाला करना है।

।।अमावस की काली रातों में।।2।।

 

नीले अंबर की छांव में,

       दुख से कातर हर गांव में।

 बांधे घुंघरू पांवों में,

       छम छम नांच दिखाना है,

ना दुखी हो कोई जीवन में,

       खुशियों के गीत सुनाना है।

  हर तरफ खुशी के रेले हों,

         हर दिल का साज बजाना है।

।।अमावस की काली रातों में।।3।।

 

खेतों में खलिहानों में,

 झोपड़ियों  महलों के कंगूरो पे।

हर मंदिर के कलशों उपर,

      हर मस्जिद की मीनारों पर।

अब अंधेरे रह ना जायें,

         चर्चों और गुरद्वारों में।

हर तरफ रौशनी फैली हो,

।।अमावस की अंधेरी रातों में।।4।।

 

हर तरफ पटाखे फूट रहे,।

        बंटती हर तरफ मिठाई हो।

आओ हम खुशियां बांटें,

        दीवाली की सबको बधाई हो।

 हर तरफ खुशी  के मंजर हो,

   ना जीवन में ग़म के अंधेरे हो।

उम्मीदों की किरणें फूट पड़े,

            जीवन में नये सबेरे हों।

।।अमावस की काली रातों में।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

23-10-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (1-5) ॥ ☆

अनुरूप वर प्राप्त तब इंदुमति को जो देवसेना सी थी स्कंद को प्राप्त

ले साथ अपनी बहिन, भोज नृप ने किया यत्न नगरी में जाने का तत्काल ॥ 1॥

 

सारे नृपति भी प्रभाहीन तारों से रवि के उदय पर दुखी पराजित से

निज रूप-गुण-वेश को कोसते से, गये शिविर में आये थे जो जहाँ से ॥ 2॥

 

शचि की कृपा से स्वयंवर में सब नृप रहे श्शांत यद्यपि था संकट का डर भी

काकृत्स्थ अज के स्पर्धी अनेकों नृपति मन मसोसे रहे द्वेष कर भी  ॥ 3॥

 

वर वधु सँग पहुँचा उस राजपथ पर जहाँ पुष्पवर्षा से शोभित सुपथ था

जहाँ तोरणें इन्द्रधनु सम सजी थीं, जहाँ ध्वजा छाया से आतय विरत था॥ 4॥

 

जहाँ भवनों के स्वर्ण छज्जों से महिलायें थी झलक पाने को आतुर उमगती

तज काम सारे अधूरें, घरों के, वर-वधू की रूप श्शोभा निरखती॥ 5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संपदा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संपदा ? ?

उनके लिए

धन ही संपदा थी,

उसके लिए

सम्बंध ही धन था,

वे सम्बंधों से भी

धन कमाते रहे,

उसे जिनसे कमाना था;

उनसे भी रिश्ते बनाते रहा,

समय का लेखा-जोखा

प्रमाणित करता है;

सम्बंध कमाने वाले,

आत्मीयता से

आजीवन सिंचित रहे,

केवल अकूत सम्पत्ति भर

जुटा सकने वाले पर

सच्ची संपदा से वंचित रहे!

भाईदूज की हार्दिक शुभकामनाएँ

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 53 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 53 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

निगाहों में जो करूणा की सुखद आभा तुम्हारी है

मधुरता ओर कोमलता लिये वह सबसे न्यारी है।।

 

मुझे दिन रात जीवन में कहीं कुछ भी नहीं भाता

तुम्हारी छवि को जबसे मेरे नयनों ने निहारी है।।

 

सलोना और मनभावन तुम्हारा रूप ऐसा है

सरोवर में मुदित अरविन्द-छवि पर भी जो भारी है।।

 

झलक पाने ललक मन की कभी भी कम नहीं होती

बतायें क्या कि उलझे मन को कितनी बेकरारी है।।

 

लगन औ’ चाह दर्शन की निरंतर बढ़ती जाती है

विकलता की सघनता है, विवशता ये हमारी है।।

 

तुम्हारी कृपा की आशा औ’ अभिलाषा लिये यह मन

रंगा है तुम्हारे रॅंग में, औ’ ऑखों में खुमारी है।।

 

सुहानी चाँदनी में जब महकती रात रानी है

गगन में औ’ धरा मैं हर दिशा में खोज जारी है।।

 

उभरते ’चित्र’ मन भाये मनोगत कल्पना में नित

अनेकों रूप रख आती तुम्हारी मूर्ति प्यारी है।।    

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज प्रस्तुत है आपके साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश के अंतर्गत आपकी अगली ग़ज़ल “इश्क़ हो गया”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 2 – “इश्क़ हो गया” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

उनकी पुरज़ोर तैयारियों से उसे इश्क़ हो गया है,

अपने अरमानों के लुटेरों से उसे इश्क़ हो गया है।   

 

अब तो दुश्वारियों की  लत सी पड़ गयी है उसे,

बर्बादियों की लगातार आमद से इश्क़ हो गया है।

 

बहुत ख़ौफ़ज़दा है वह मुहब्बत जताने वालों से,

उन की बेपनाह मेहरबानियों से इश्क़ हो गया है।  

 

ग़म का लहराता समुंदर लुभाता है ख़ूब उसे,

ऊँची उठती तूफ़ानी लहरों से इश्क़ हो गया है। 

 

कौन किसके साथ चलता है ख़ुदगर्ज़ ज़माने में,

कुछ काम जब आन पड़ा तो इश्क़ हो गया है। 

 

पहाड़ों पर चढ़ने पर साँस फूल जाती है उसकी,

उसे उतरती उम्र की फिसलन से इश्क़ गया है।

 

दो झटके खा चुका है उसका नादान सा दिल,

धीमी पड़ती दिल की धड़कन से इश्क़ हो गया।

 

कब आएगी कभी न छोड़कर जाने वाली महबूबा,

“आतिश” को उसी नाज़नीन से इश्क़ हो गया है।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (81-86)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (81-86) ॥ ☆

 

नवयुवक अज में स्व अनुराग की बात शालीनतावश तो वह कह न पाई

उर्मिल सुकेशी के रोमांचमय गात से पर किसी से भी कुछ छुप न पाई ॥ 81॥

 

तब उस घड़ी हँस सुनंदा ने परिहास में कहा – ‘‘क्यों सखि चलें और आगे ? ”

सुन इंदु ने तितिक्षापूर्ण लखकर कहा – ‘‘कहीं जाता कोई लक्ष्य पाके ?”॥ 82॥

 

फिर सुंदरी ने सुनंदा के हाथो में वरमाल कुकुम लगी यों सधा दी

कि अनुराग की मूर्ति अज के गले में यथोचित उसी के सहारे पिन्हा दी ॥ 83॥

 

उस मांगलिक माल के वक्ष लगते ही सुयोग्य वर अज ने कुछ ऐसा पाया

जैसे स्वयं इंदुमति ने ही भुजपाश दे उसको अपने गले है लगाया ॥ 84॥

 

मिली धनरहित चंद्र को चंद्रिका आत्म अनुरूप सागर को गंगा ने पाया

राजाओं के लिये असह्रय यही गीत, सहर्ष मिल सबने एक स्वर से गाया ॥ 85॥

 

प्रमुदित वर पक्ष एक ओर था प्रसन्नचित – राजागण थे उदास, हीन थे प्रभा से ।

प्रातः सरोवर में ज्यों खिलते कमल कहीं,मुरझाते कुमुद कुसुम शेष रवि – विभा से ॥ 86॥

 

छटवाँ सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतर्प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अंतर्प्रवाह? ?

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

प्रवाह बन जाता हूँ,

जगत में विचरती देह,

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ मैं कहाँ हूँ..!

गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ

©  संजय भारद्वाज

20.9.2017, प्रातः 7:06 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 105 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 105 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो कैसे साल भर,

रहता है उजियार।

दीपों की ये रोशनी,

दूर करे अंधियार।।

 

धानी चूनर ओढ़कर,

प्रकृति करे शृंगार।

धरा प्रफुल्लित हो रही,

हरा-भरा संसार।।

 

लज्जा का घूँघट करो,

धीमे बोलो बोल।

मिल-जुलकर सबसे रहो,

जीवन है अनमोल।।

 

प्रीति रखी है श्याम से,

जग के पालन हार।

जिनकी महिमा है अमित,

करते नैया पार।।

 

मन की गहरी वेदना,

नयन बहाते नीर।

नयनों की भाषा पढ़ो,

तब समझोगे पीर।।

 

नयन-तीर से कामिनी,

करती हृदय-शिकार।

मुझको भी होने लगा,

उससे सच्चा प्यार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 94 ☆ कहाँ  चल दिये …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “कहाँ  चल दिये ….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 94 ☆

☆ कहाँ  चल दिये….  ☆

छोड़ कर आधी कहानी, कहाँ चल दिये

दे कर आँखों में पानी, कहाँ  चल दिये

 

हमको   था  फकत  आसरा  आपका

तोड़ कर ये  ज़िंदगानी,कहाँ  चल  दिये

 

सबक   वफ़ा   का  सीखा ना आपने

खूब करी खुद मनमानी,कहाँ  चल दिये

 

वादा    निभाया    ना   आपने    कभी

छीन कर अब ये जवानी,कहाँ चल दिये

 

तोड़   के  रिश्ते   पल   भर  में  सारे

नींद चुरा कर मस्तानी,कहाँ चल दिये

 

मिलता  न “संतोष”  कभी  आसां  से

भूल कर सभी नादानी,कहाँ चल दिये

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (76-80) ॥ ☆

 

आत्मज उन्हीं के है रघु आज राजा कर विश्वजित यज्ञ दे दान वैभव

रख मुत्तिकापात्र भर शेष, संपति घर दिग्विजय बाँट दी बढ़ा गौरव ॥ 76॥

 

यश जिनका पर्वत शिखर से भी ऊँचा सागर से गंभीर पाताल तक है

है स्वर्ग तक हर जगह सुप्रसारित, अलौकिक अपरिमित सबों से पृथक है ॥ 77॥

 

स्वर्गाधिपति इंद्र आत्मज सरीखा यह अज उसी का है सुयोग्य बेटा

जो राज्य रूपी शकट की धुरी को अभी से धुरंधर पिता सम है लेता ॥ 78॥

 

कुल, कांति, नई उम्र, से औं गुणों से, जो विनय -सदभावना-शीलयुत है

तुम अपने अनुरूप लख इसको वर लो, मणि-स्वर्ण संयोग होना उचित है ॥ 79॥

 

ये सुनंदा के वचन सुन लजाती सी कुछ किन्तु हर्षित अपरिमित वदन से

माला स्वयंवर की ही भाँति, अज को वररूप में किया स्वीकृत स्वमन से ॥ 80॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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