हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३२॥ ☆

सा संन्यस्ताभरणम अबला पेशलं धारयन्ती

शय्योत्सङ्गे निहितम असकृद दुःखदुःखेन गात्रम

त्वाम अप्य अस्रं नवजलमयं मोचयिष्यत्य अवश्यं

प्रायः सर्वो भवति करुणावृत्तिर आर्द्रान्तरात्मा॥२.३२॥

जो भूषण विहीना गहन दुख क्षीणा

सुनिकटस्थ शैय्या मृदुल गात्रवाली

तुम्हें देख फिर नयन आंसू भरेगी

मृदुद हृदय घन ! अति दयावान भारी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सोहर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सोहर ?

साँस उखड़ने लगी है,

उमंग भरने लगी है,

नवांकुरण का सोहर

मेरी आँख लिखने लगी है!

©  संजय भारद्वाज

30.3.2021, प्रात: 7.47 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 36 ☆ रामायण मन मोहिनी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “रामायण मन मोहिनी“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 36 ☆

☆ राम जाने कि – रामायण मन मोहिनी ☆

रामायण है मन मोहिनी पावन कथा श्री राम की

संसार में नित्य धर्म और अधर्म के संग्राम की

 

कष्ट कितना भी हो आखिर सत्य की होती विजय

दुराचार का अंत होता पाता निश्चित ही पराजय

 

सादगी और सच्चाई में ही शक्ति होती है बड़ी

तपस्या और त्याग होते ही हैं जादू की छड़ी

 

सुलझती हैं समस्याएं न्याय सद्व्यवहार से

जो सताती दूसरों को ऐंठ औ अधिकार से

 

उदाहरण करता है प्रस्तुत आचरण श्रीराम का

दुराचारी राक्षसों का दर्प था किस काम का

 

प्रेम है वह तत्व जिससे बदल जाते दुष्ट मन

सद्भाव आत्मविश्वास से सब काम जाते सहज बन

 

सदाचार व प्यार नित कर्तव्य और संवेदना

धैर्य करुणा निपुणता देते रहें यदि प्रेरणा

 

शांति मिलती है सदा तो मन को हर प्रतिकार से

सिखाती रामायण जग को जीतना नित प्यार से

 

धर्म ही सबसे बड़ा साथी है इस संसार में

चाहिए हम रखें मन को अपने नित अधिकार में

 

मनोभावों का बड़ा होता है जीवन में असर

मन अगर वश में है तो दुर्भावनाओं का न डर

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३१॥ ☆

 

आद्ये बद्धा विरहदिवसे या शिखा दाम हित्वा

शापस्यान्ते विगलितशुचा तां मयोद्वेष्टनीयाम

स्पर्शक्लिष्टाम अयमितनखेनासकृत्सारयन्तीं

गण्डाभोगात कठिनविषमाम एकवेणीं करेण॥२.३१॥

विरह के दिवस बंधी निर्माल्य वेणी

मिलन दिन विगत शोक मुझसे खुले जो

हटाते बढे नख भरे हाथ से क्लिष्ट

उलझी अलक गाल से प्रियतमा को

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रिय सखी…. ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ प्रिय सखी…. ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये ☆ 

“प्रिय सखी “

सांजवेळी बसले होते संचित

ती समोर आली अवचित.

सखी ला कसला विचार सतावतोय?

जगण्याचा अर्थ कुठे उमगतोय?

तो आजपर्यंत कोणाला उमगला?

व्यर्थ जोजार देऊ नको जीवाला.

परमेशाच्या हाती हिशोब जगण्याचा

आपण कठपुतली बाहुल्या संचिताच्या.

अश्रू पूस सावर स्वतःला

मी नेहमीच आहे सोबतीला.

तिने डोक्यावरून हात फिरवला

मनात भावनांचा कल्लोळ दाटला.

उचलली लेखणी भावनाना वाट दिली

झरझर कागदावर शब्दकला रेखाटली.

माझी सखी जगणं फुलवते

माझी सुंदर कविता मग सजते.

सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

मो  नं 9860499623

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/म्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 78 ☆ रंगपंचमी विशेष – संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं रंगपंचमी पर्व पर विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 78 ☆

☆ रंगपंचमी विशेष – संतोष के दोहे ☆

माटी वृज की भी कहे, मुझे नहीं अब चैन

चरण पखारन चाहती, कबसे हूँ बैचैन

 

ग्वाल-बाल तकते रहे ,कबसे प्रभु की राह

रँग-अबीर हाथ लिए, बस खेलन की चाह

 

आवत देखा कृष्ण को, संखियाँ हुईं अधीर

नर-नारी वृज के सभी, कोई रखे न धीर

 

श्याम रँग राधा रचीं, मन बसते बहुरंग

मुरली की धुन में नचीं, लग मोहन के अंग

 

प्रेम-रस में पगे सभी, देख श्याम का रास

वृज में लगता आज यह, ज्यूँ आया मधुमास

 

प्रेम रँग बरसाइये, कहता यह “संतोष”

चरण-शरण मैं आपकी, हरिये मेरे दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३०॥ ☆

 

निःश्वासेनाधरकिसलयक्लेशिना विक्षिपन्तीं

शुद्धस्नानात परुषमलकं नूनमागण्ण्दलम्बम

मत्संभोगः कथमुपनमेत स्वप्नजोऽपीति निद्राम

आकाङ्क्षन्तीं नयनसलिलोत्पीडरुद्धावकाशम॥२.३०॥

 

श्रृंगार साधन रहित स्नान से मात्र

उलझी अलक गाल पर लटक आती

विरह ताप से श्वांस उच्छवास जिसके

सुकोमल अरूण अधर पल्लव जलाती

जो स्वप्न मे मम मिलन कामना से

मधुर नींद का आगमन चाहती है

लखोगे उसे प्रिय नयन द्वार जिसके

सलिल धार रूकना नही जानती है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 77 ☆ शून्य☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “शून्य । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 77 ☆

☆ शून्य ☆

मैं शून्य में हूँ?

या शून्य मुझमें है?

या मैं ही शून्य हूँ?

 

बैठी थी जब इस इमारत के भीतर

जो शून्य के आकार की थी,

मैंने कोशिश की उस शून्य में समा जाने की,

और इतनी आसानी से समा गयी,

जैसे वो या तो मेरे लिए बना था

या फिर मैं उसके लिए!

 

पर ज़रा उठकर आगे बढ़ी ही थी

कि कोई और उस शून्य की गोद में

यूँ जा बैठा, जैसे वो उसके लिए ही बना हो…

 

नहीं…शायद मैं शून्य में नहीं थी…

हम सब में शून्य है-

तभी तो वो हम सिखाता है

कि नहीं है हमारा अपना वजूद कोई-

आखिर हमें मिट्टी में समां जाना है!

 

तो फिर हम ही शून्य हुए ना?

 

हाँ, हम शून्य हैं-

‘गर ज़िंदगी के साथ ख़ुशी से मिल जाते हैं

तो ख़ुशी चारों ओर बारिश सी बरसती है,

और यदि हम ज़िंदगी से तालमेल ही नहीं बिठा पाते

तो नहीं बचती हमारी कोई अहमियत!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खारी बूँद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – खारी बूँद  ?

वह समंदर

क्या हुआ,

पछता रहे हैं सारे

जो उसकी आँख में

कभी आँसू

बो कर गये थे!

©  संजय भारद्वाज

(अपराह्न 1:30 बजे, 26.3.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 102 ☆ होली पर्व विशेष – इस बार होली में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  होली पर्व पर विशेष  विचारोत्तेजक कविता इस बार होली में।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 102☆

? होली पर्व विशेष – इस बार होली में।  ?

लगाते हो जो मुझे हरा रंग

मुझे लगता है

बेहतर होता

कि, तुमने लगाये होते

कुछ हरे पौधे

और जलाये न होते

बड़े पेड़ होली में।

देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल

मुझे खून का आभास होता है

और खून की होली तो

कातिल ही खेलते हैं मेरे यार

केसरी रंग भी डाल गया है

कोई मुझ पर

इसे देख सोचता हूँ मैं

कि किस धागे से सिलूँ

अपना तिरंगा

कि कोई उसकी

हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर

अलग अलग झँडियाँ बना न सके

उछालकर कीचड़,

कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे

पर तब भी मेरी कलम

इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी

विश्व आकाश पर सतरंगी सपने

नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर

सब छूट जाते हैं, झट से

सो रंगना ही है मुझे, तो

उस रंग से रंगो

जो छुटाये से बढ़े

कहाँ छिपा रखी है

नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?

डालना ही है तो डालो

कुछ छींटे ही सही

पर प्यार के प्यार से

इस बार होली में।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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