हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 39 ☆ बचपन चोरी हो गया ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘बचपन चोरी हो गया’। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 39 ☆

☆ बचपन चोरी हो गया

मेरा बचपन चोरी हो गया,

कहीं तूने तो नही चुराया बता ए जिंदगी ||

 

कोई लड़कपन मेरा चुरा कर ले गया,

कहीं तूने तो नहीं छुपाया बता ए जिंदगी ||

 

मेरे यार दोस्तों की टोली गुम हो गयी,

कहीं तूने उन्हें जाते तो नहीं देखा बता ए जिंदगी ||

 

माता-पिता की टंगी तस्वीर रुला देती है,

तूने उन्हें जाने से रोका क्यों नहीं बता ए जिन्दगी ||

 

एक-एक करके सब जुदा हो गए,

तूने सब को क्यों जाने दिया बता ए जिंदगी ||

 

चंद सांसे ही हैं जो मेरी बची है,

कहीं अब तेरी उस पर तो नजर नहीं बता ए जिंदगी ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२३॥ ☆

 

नूनं तस्याः प्रबलरुदितोच्चूननेत्रं प्रियाया

निःश्वासानाम अशिशिरतया भिन्नवर्णाधरोष्ठम

हस्तन्यस्तं मुखम असकलव्यक्ति लम्बालकत्वाद

इन्दोर दैन्यं त्वदनुसरणक्लिष्टकान्तेर बिभर्ति॥२.२३॥

 

गये सूज होंगे विरह में मेरे नित्य

अविकल रुदन से नयन उस प्रिया के

होंगे अधर श्याम , जलते हृदय की

व्यथित श्वांस गति की उष्णता से

कर से हटाते हुये श्याम अलकें

प्रलंबित गिरीं घिरीं अपने वदन से

दिखेगी मेरी प्रियतमा , मेघ तुमको

वहाँ ज्यों मलिन इंदु तव आवरण से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆ मंजिल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मंजिल। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆

☆ मंजिल ☆

जाने की सोची थी ये कहाँ, कहाँ चल दिए हम

लिखा हो जो रास्ता सो हो, कहाँ हमें कोई ग़म

 

ज़िंदगी की अपनी ही ताल है, लय पर चलती है

कठपुतली हैं हम, चल देते हैं, जहां ले जाते कदम

 

करें क्या बात आशनाई की, कहाँ सबको साथ है

उम्मीद नहीं इतनी वफ़ा की, कोई दे साथ हरदम

 

झुक जाता है सर रब के आगे, यार सा लगता है

चलता ही रहा थामे हाथ, ग़म ने जब घेरा दामन

 

बहुत दिनों की कहाँ जीस्त, ख़त्म ही हो जायेगी

उम्मीद यही है रब से अब, चलती रहे ये कलम

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मतलबी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मतलबी ?

शहर के शहर

लिख देगा मेरे नाम,

जानता हूँ…,

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम,

जानता हूँ…!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘नि:शब्द’… श्री संजय भरद्वाज (भावानुवाद) – ‘Silent…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem “ निःशब्द ”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज 

☆ संजय दृष्टि  ☆ नि:शब्द  ☆

एक तुम हो

जो अपने प्रति

नि:शब्द रही जीवनभर,

एक मैं हूँ

जो तुम्हारे प्रति

नि:शब्द रहा जीवनभर।

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘वह ‘)

☆  Silent… ☆

One, that is you

Who remained

voiceless throughout the

lifetime for yourself,

Here I’m who remained

lifelong tongue-tied

towards you…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२२॥ ☆

 

तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं

दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीम इवैकाम

गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्व एषु गच्चत्सु बालां

जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम॥२.२२॥

 

सहचर बिना एक उसे चक्रवाकी

सदृश अल्पभाषी विरह वासिनी को

समझना मेरा ही हृदय दूसरा है

पड़ी दूर मुझसे प्रिया कामिनी को

प्रलंबित विरह के दिनो को बिताती

विकल वेदना से भरी यामिनी जो

मुझे भास होता है कि वह म्लान होगी

शिशिर से मथित ज्यो पद्यनी हो

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#43 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #43 – दोहे  ✍

पहर पहर दिन चढ़ गया, पकी समय की धूप ।

आंखों में अंजने लगा, सपनों का प्रारूप।

 

ग्रंथ, पिटक या पुस्तकें, कर न सके उद्धार ।

मुक्ति चाहिए तो भरो, अपने मन में प्यार ।।

 

प्यार नहीं करता कभी, प्रियतम को स्वच्छंद ।

यदि उसका ही वश चले, रखे नयन में बंद।।

 

धड़कन बढ़ती ह्रदय की, सुनने को पदचाप।

दीवारें ही गुन रही, मन का मौन प्रलाप ।।

 

पागल के पल भोगता, पल-पल है बेचैन।

कहां चैन की चांदनी, खोज रही है नैन ।।

 

आस उड़ी बन कर तुहिन, हत आशा अंगार।

दर्पण दरका तो हुआ, नष्ट भ्रष्ट श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 42 – घाटी से उतरी नदी कोई… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “घाटी से उतरी नदी कोई … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 42 ।। अभिनव गीत ।।

घाटी से उतरी नदी कोई…  ☆

टिप्पणियाँ शाम की किताब पर

ऐसी क्या छाप दीं उन्होंने

रीत चले धूप के भगौने

 

दूब के चुनिंदा मैदान सभी

हरयाले मोरपंख जैसे

घाटी से उतरी नदी कोई

संग लिये सीप-शंख ऐसे

 

जैसे परछाईं हो लम्बग्रीव

पसर गई है कौन-कोने

 

पेड़ मौन सभापति सरीखे

जड़वत हैं किंतु राह ताकते

पूछ रहे पक्षी घर लौटते

आपस में अपने अते-पते

 

झूठी मर्यादा को लाँघते

नकली व्यक्तित्व पड़े ढोने

 

पनिहारिन हवा सहम घाट पर

संकोचों को सहेज  पूछती

लौटेंगे अलगोजे, चरवाहे

गली-गली बालों को ऊँछती

 

चला गया सूरज अस्ताचल को

रक्तवर्ण लगाकर दिठौने

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

28-12-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 88 ☆ विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन – प्रवाह ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता – – –

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 88

☆ विश्व कविता दिवस विशेष – जीवन – प्रवाह ☆

सबसे बड़ी होती है आग ,

और सबसे बड़ा होता है पानी ,

 

तुम आग पानी से बच गए ,

तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती ,

 

धरती से पहचान कर लोगे ,

तो हवा भी मिल सकती है ,

 

धरती के आंचल से लिपट लोगे ,

तो रोशनी में पहचान बन सकती है ,

 

तुम चाहो तो धरती की गोद में ,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो ,

 

धरती को नाखूनों से खोदकर ,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो ,

 

या धरती में खड़े होकर ,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो ,

 

तुम मन भर जी भी सकते हो ,

धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो ,

 

कोई फर्क नहीं पड़ता ,

यदि जीवन खतम होने लगे ,

 

असली बात तो ये है कि ,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे ,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #35 ☆ मैं स्वाभिमानी हूँ ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “मैं स्वाभिमानी हूँ ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 35 ☆

☆ मैं स्वाभिमानी हूँ ☆ 

जिंदगी में सदा मुझको अंधेरे मिलें

उजाले के लिए मैं लड़ता रहा

पथ में बिछें थे कांटे मगर

मैं जख्मी होकर भी चलता रहा

 

तूफानों ने मुझको कई बार रोका

घर उजाड़ने काफी था एक झोंका

तिनके तिनके जोड़कर बनाया

था आशियाना

सजाया-संवारा जब भी मिला मौका

 

राह में एक खूबसूरत हमसफ़र मिलीं थीं

हाथ थामे संग संग

कुछ दूर चली थी

परंपराओं के, रूढियोंके बंधन

ना वो तोड़ पायी

बिखर गए सपने

पर वो लड़की भली थी

अपनों ने मुझको हमेशा रूलाया

ना दर्द बांटा, ना पास बिठाया

हिम्मत दी मुझको, जो थे पराये

खिलाया निवाला, गले से लगाया

 

मैंने अपने उसूलों  सें

समझौता नहीं किया

सत्य के मार्ग पर चला

झूठ का सहारा नहीं लिया

हो उनको मुबारक,

ये दौलत, ये महल सारे

मै स्वाभिमानी हूँ

मैंने भीख में कुछ नहीं लिया

#

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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