हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४॥ ☆

 

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर

नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात

नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर

वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥२.४॥

 

जहाँ यक्ष जन के नयन मात्र प्रेमाश्रु

को छोड़ आँसू नहीं जानते हैं

प्रिया का मिलन शमन उपचार जिसका

उसी ताप को ताप पहचानते हैं

जहाँ रति कलह के सिवा अन्य कोई

विरह दुख किसी को नहीं व्यापता है

जहाँ और सबकी उमर की अवधि को

अभय एक यौवन सतत नापता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 84 ☆ माहिया ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “माहिया । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 84 – साहित्य निकुंज ☆

☆ माहिया ☆

खामोशी गुनती है

क्या कहना है वो

शब्दों को चुनती है।

 

खामोशी कहती है

पिया तुम तो मेरे

रग रग में बहती हो।

 

खामोशी प्यारी है

चुप चुप रहकर वो

दुनिया में न्यारी है।

 

खामोशी क्या कहती

तेरे दिल में जो

आंखें ही वो पढ़ती।।

 

जन्मों की  कहानी है

माहिया तु है तो

हर रुत सुहानी है।

 

यादों का दरिया है

माहिया तु ही तो

मिलने का जरिया है।

 

फुर्सत है कहां तुम्हें

आए तुम तो नहीं

अब तुमसे क्या कहें

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 74 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 74 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

फसल मिले वैसी हमें, जैसा बोया बीज

जग में कर्म प्रधान है, कर्म बड़ी है चीज

 

जो खेतों में रात दिन, करते हैं श्रम दान

अपने हक को लड़ रहा, पोषक वही किसान

 

गाँवों से अब निकल कर, चले शहर की ओर

श्रमिक खेत को छोड़के, खोज रहे नव ठोर

 

माटी से उपजे सभी, माटी की यह देह

माटी में ही सब मिले, करें ईश से नेह

 

सूने सारे हो गए, खेत और खलिहान

सड़कों पर निकले सभी, हक के लिए किसान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆

दुनिया को जितना देखोगे

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा

दुनिया को जितना समझा

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२॥ ☆

हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं

नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः

चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं

सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥२.२॥

 

लिये हाथ लीला कमल औ” अलक में

सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला

जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर

स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला

कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी

तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से

 सीमान्त शोभित कदम पुष्प से

जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 85 – खोटा सिक्का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना खोटा सिक्का….। )

☆  तन्मय साहित्य  #85 ☆

 ☆ खोटा सिक्का…. ☆

उसने खोटा सिक्का

धर्म वेदी पर चढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया

 

सुबह नहाए, मिटी खुमारी,

फिर किताब बाँची

और रोज की तरह

लगे करने झूठी साँची

फूटपरस्ती के पांसे चल

सब को लड़ा दिया

अपना कद बढ़ा लिया ……..

 

शाम हुई सत्संग भवन में

सबसे आगे थे

घर आकर मधु पान

ज्ञान के उलझे धागे थे

एक आवरण फेंक

दूसरा चोला चढ़ा लिया

अपना कद बढ़ा लिया ……

 

कपटी नींव भ्रष्ट तानों-बानों

की दीवालें

गिरगिटियों से रंगे भवन में

सबके मन काले

भावहीन बौनों ने

भूल भुलैया खड़ा किया

अपना कद बढ़ा लिया …….

 

आदर्शों का पिटे ढिंढोरा

मक्कारी मन में

चेहरे हैं रंगीन, दाग धब्बे

बाकी तन में

पाठ फरेबी का

संतानों को भी पढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ तल्खियां…/Bitter Grudges… … – Ms. Leena Mittal Kheria ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Ms Leena Mittal Kheria’s mesmerizing poem  “तल्खियां.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Ms Leena Mittal Kheria

☆ तल्खियाँ..

हाशिये पर हैं अब वो सारे रिश्ते

जिन पर कभी हमको गुमान था

बपौती है उनकी मेरी ज़िंदगी

उन्हें इस बात का इत्मीनान था..

 

हैं इतनी तल्खियॉं अब दरम्यान

कि मानो पुश्तैनी अदावत हो

है आजकल मंजर कुछ ऐसा

मानो खुद की खुद से बगावत हो..

 

उनकी हैं रवायतें कुछ ऐसी कि

उन्हें तकरार से भी गुरेज़ नही

कीमत चाहे कुछ भी चुकानी पड़े

उन्हें इस बात से कतई परहेज़ नही…

 

अपनी हुकूमत अपने अख़्तियार के

वो अब बेइन्तिहा नशे में चूर हैं

जब जो चाहें मन मर्जी करें

ना जाने क्यूँ इस कदर मगरूर हैं ..

 

फाक्ता हो गये मेरे सारे ख्वाब

हकीकत से वाबस्ता हुई हूँ मैं

ज़िंदगी के बेइंतहा ज़ुल्मों सितम

रुसवाइयों से रूबरू हुई हूँ मैं ..

© लीना मित्तल खेरिया

☆ Bitter Grudges… 

 All the grand relationships

That we were proud of

are marginalized now…

Although, he considered my life

as his personalized sole property…

 

There is mountain of  lasting

bitterness now, as if ancestral

family feud  has  been waged

My state, these days, is as if  I’m

a mutinous rebellion to my ownself …

 

He has some customary habits

Of not even bothering to squabble

No matter what price we have to pay

He’d never be concerned at all…

 

Conceitedly,  ever insolent,

He runs his self-rulings openly, 

Always imposing own authority,

beastly free own-will, arbitrarily…

 

All  my  rosy  dreams are

summarily shattered now

As I’m introduced to life’s newer

harsh realities, suffused with

rampant oppressions..!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ समय… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता समय… ।)

☆ कविता  ☆ समय… ☆

होने औऱ

चुक जाने

के बीच

जो घट

जाता है

 

वही

समय

कहलाता

है

 

बनाया

आदमी ने

बांधा

एक इकाई में

 

जब से

निकल गया

हाथ से

समय

 

आदमी

तब से

परेशान

है

 

एक तरफ

अतीत

 

दूसरी तरफ

भविष्य

 

सामने

वर्तमान

है

 

इन काल

पल

घड़ी

में

 

आदमी

उलझा

 

कब से

समय से

परेशान

है…

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)

मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆ ढूंढ रहा हूँ रफूगर ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ढूंढ रहा हूँ रफूगर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆

ढूंढ रहा हूँ रफूगर

 

उधड़ गयी है जिंदगी चारों तरफ से,

पैबन्द जगह-जगह मैंने खुद लगाए,

अब हर तरफ पैबन्द लगी नजर आती है जिंदगी,

 

ढूंढ रहा शायद कोई रफूगर मिल जाए,

जो जिंदगी रफू कर दे,

जगह-जगह से उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

जितना सम्भल कर कदम रखता हूँ,

उतनी ही उलझ कर,

और ज्यादा उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

काश कोई रफूगर मिल जाता,

जो एक एक धागें को मिला,

रफू कर देता तो पहले सी नजर आ जाती जिंदगी,

 

फूलों की बगिया में कांटों से उलझ गया,

काश कांटों की जगह जिंदगी,

फूलों में उलझ जाती तो फूलों सी महक जाती जिंदगी ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१॥ ☆


विधुन्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः

संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम

अन्तस्तोयं मणिमयभुवस तुङ्गम अभ्रंलिहाग्राः

प्रासादास त्वां तुलयितुम अलं यत्र तैस तैर विशेषैः॥२.१॥


जहाँ सुन्दरी नारियाँ दामिनी सी

जहाँ के विविध चित्र ही इन्द्र धनु हैं

संगीत  के हित मुरजताल जिनकी

कि गंभीर गर्जन तथा रव गहन हैं

उत्तुंग मणि रत्नमय भूमिवाले

जहाँ हैं भवन भव्य आमोदकारी

इन सम गुणों से सरल , हे जलद !

वे हैं सब भांति तव पूर्ण तुलनाधिकारी

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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