हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 44 ☆ भारत का भाषा गीत ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘भारत का भाषा गीत। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 44 ☆ 

☆ भारत का भाषा गीत ☆ 

*

हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की

अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की

नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम

जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की

संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,

अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,

राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,

भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,

परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी

कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,

सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,

जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,

मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,

कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,

मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू

पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली

​’सलिल’ पचेली, सिंधी हँस व्यवहार करें हम

हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

*

देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़

शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़

गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर

समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़

‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम

हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम

भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

**

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 76 – आया बसंत आया बसंत ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक सामायिक एवं भावपूर्ण रचना  “आया बसंत आया बसंत। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#76 ☆ आया बसंत आया बसंत ☆

दो शब्द रचना कार के – हेमंत की अवसान बेला में पतझड़ के बाद  जब ऋतु राज बसंत का आगमन होता है, तब   वह सृष्टि के सारे प्राणियों को  अपने रंगीन नजारों के मोहपाश में आबद्ध कर आलिंगनबद्ध हो उठता है। प्राकृतिक रंगों की अनुपम छटा से धरा का कोना कोना सज संवर उठता है, तारों भरा आसमां गा उठता है। धरती खिलखिला उठती है, मानव-मन के वीणा के तार झंकृत हो उठते हैं। तथा मन मयूर फगुआ और चैता के धुन पर नाच उठता है।

कहीं हरियाली भरे खेतों में खिले पीले पीले सरसों के फूल, तथा कहीं कहीं खिले अलसी के नीले नीले फूल धरती के पीले छींट वाली धानी रंग की चूनर ओढ़े होने का एहसास कराते हैं। तथा धरा पर नीले अंबर के निलिमांयुक्त सागर के उतरने का आभास देते हैं। ऐसे में आम्रमंजरी के खिले पुष्प गुच्छ, कटहलों के फूलों की मादक सुगंध, जब पुरुआ  के झोंको पर सवार होकर भोर की शैर पे निकलती है तो वातावरण को एक नवीन ऊर्जा और चेतना से भर देती है। इसी लिए संभवतः बसंत को ऋतु राज भी  कहा गया है। ऋतु राज के इसी वैभव से ये रचना परिचित कराती है।——-

आया बसंत आया बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

छाया बसंत छाया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।

 

धरती के बाग बगीचों से,

अरहर के झुरमुट खेतों से,

सरसों के पीले फूलों से,

बौराई आम्र मंजरी से,

पी पी पपिहा के तानों से,

कोयल के मीठे गानों से,

तूं देख देख झलके बसंत,

चहुंओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।१।।

 

गेंदा गुलाब की क्यारी से,

बेला की फुलवारी से,

चंपा संग चंपक बागों से,

चंचरीक की गुनगुन से

उन्नत वक्ष स्थल गालों में

गोरी के गदराये यौवन पे,

हर तरफ देख छलके बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।२।।

 

ढोलक झांझ मृदंगों से,

भर भर पिचकारी रंगों से।

दानों की लदी बालियों से,

महुआ के रसीले फूलों से,

वो टपके मधुरस के जैसा,

विरहिनि के हिय से हूक उठे,

पिउ पिउ पपिहा के स्वर जैसा,

आमों कटहल के बागों से,

अभिनव सुगंध लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।३।।

 

अलसी के नीले फूलों में,

अंबर के नीले सागर सा,

सरसों के पीले फूलों से,

धरती के धानी चूनर सा

गोरी के उर अंतर में

साजन के प्रेमरंग जैसा,

पनघट वाली के गागर से,

छलके मधुमास शहद जैसा,

बाग-बगीचों अमराई से

झुरझुर चलती पुरवाई से,

नवयौवन की अंगड़ाई से,

बासंती राग विहागों सा,

कुछ नव संदेश लाया बसंत,

चहुंओर धरा से उठा शोर

आया बसंत आया बसंत,

छाया बसंत छाया बसंत।।४।।

 

चंहुओर अबीर गुलाल उड़ें,

गोरी के नैन से नैन लड़े।

इक अलग ही मस्ती छाई है,

सारी दुनिया बौराइ है।

कान्हा के रंगीले रंगों में ,

राधा की बांकी चितवन में,

हर तरफ देख बगराया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।५।।

 

धरती का श्रृंगार बसंत है,

नवउर्जा का संचार बसंत है,

खुशियों का अंबार बसंत है,

कामदेव का हार बसंत है,

मासों में मधुमास बसंत है,

पिया मिलन की आस बसंत है,

जीवन ज्योति प्रकाश बसंत है,

रिस्तों की मधुर मिठास बसंत है।

प्रकृति रंग लाया बसंत,

चंहुओर धरा पर हुआ शोर,

आया बसंत आया बसंत

छाया बसंत छाया बसंत।।६।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६५॥ ☆

 

तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनोद्गीर्णतोयं

नेष्यन्ति त्वां सुरयुवतयो यन्त्रधारागृहत्वम

ताभ्यो मोक्षस तव यदि सखे घर्मलब्धस्य न स्यात

क्रीडालोलाः श्रवणपरुषैर गर्जितैर भाययेस ताः॥१.६५॥

 

वहाँ सुर युवतियां अचश ही तुम्हें छेद

कंगन कुलश से बना नीर धारा

लेंगी सखे घेर , आनन्ददायी

धवलधारवर्षी कि जैसे फुहारा

यदि त्रस्त तब , जो न हो मुक्ति उनसे

जो क्रीड़ानिरत नारि चंचलमना हों

तो तब भीतिप्रद कर्णकटु गर्जना से

डराकर भगाना सकल अङ्गना को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 31 ☆

☆ युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियॅा

विश्व मे सदभाव फैले हो कही न दुराचरण

व्यर्थवैर विरोध से दूषित न हो वातावरण

हर नया दिन शांति मय हो मुक्त हर जंजाल से

समस्याओं का सदा सदबुद्धि से हो निराकरण

बदलते परिवेश मे जो जहां कोई मतभेद हो

छोड मन के द्वेष सब मिल करें शुभ चिंतन मनन

मूर्खता से पसरता जाता रहा आंतकवाद

रोका जाना चाहिये निर्दोषो का असमय मरण

दुष्टता से हैं त्रसित परिवार जन शासन सभी

समझदारी है जरूरी बंद हो अटपट चलन

आदमी जब मिल के रहता सबो की होती प्रगति

हर एक मन को सुहाता है स्नेह का पावन सृजन

बैर से होती सदा हर व्यक्ति को कठिनाईया

सुख बरसता जब हुआ करता नियम का अनुसरण

मन के बढते मैल से तो बढती जाती दूरियाॅ

आदमी हर चाहता है आपसी मंगल मिलन

युद्ध और विरोध नित लाते नई बरबादियाॅ

सदाचारो का किया जाये निरंतर अनुकरण

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्राण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – प्राण ☆

मेरे लिखे पर

इतना निहाल मत होना

कि सृजन ही ठहर जाए,

माना कि

तुम्हारा यूँ मुग्ध होना

मुझे अच्छा लगता है

पर प्राण के बिना भला

कौन जी सकता है..?

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 8.22 बजे, 23.2.20)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६४॥ ☆

 

हित्वा तस्मिन भुजगवलयं शम्भुना दत्तहस्ता

क्रीडाशैले यदि च विचरेत पादचारेण गौरी

भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौघः

सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी॥१.६४॥

यदि भुजंग कंकण रहित शिव सहित

शैलपर , नृत्य मुद्रा निरत हों भवानी

तो भावमय भक्ति से धर उचित वेश ,

सोपान हो “मणि” तटारूढ़ मानी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 83 ☆ चाँदनी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “चाँदनी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 83 – साहित्य निकुंज ☆

☆ चाँदनी  ☆

आज

चाँदनी रात है

तुझसे मुलाकात है।

चाँद छुपा है

चाँदनी के आगोश में

चहूँ ओर फैली है चाँदनी

बिखर रही रूप की रागिनी

तेरा रूप देखकर

हूँ मैं खामोश

उड़ गये हैं होश

चाँदनी रात में

निखरा तेरा श्रृंगार

लगता है

तेरे रोम-रोम से

फूट रहा मेरा प्यार ।

तभी नजर पड़ी

चाँद पर

वह चाँदनी से कह रहा हो

तुम दूर न जाना

मेरे साथ ही रहना

तेरे साथ ही मेरा वजूद है।

तुझमें डूबना चाहता हूँ

तुझमें समाना चाहता हूँ।

तुझसे मेरा श्रृंगार है।

तू ही मेरा जन्मों का प्यार है।

तभी निहारा अपने चाँद को

उसने नजरे झुका ली

सार्थक हुई मुलाकात

प्रतीक बन गई

चाँदनी रात।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 73 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 73 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

बुरा वक्त ही कराता,  अपनों की पहचान

संकट में जो साथ दे, उसको अपना जान

 

वक्त बदलता है सदा, लें धीरज से काम

नई सुबह के साथ ही, मिलता है आराम

 

चलें वक्त के साथ हम, करें वक्त सम्मान

वक्त किसी का सगा नहिं, चलिए ऐसा मान

 

वक्त बदलते बदल गई, सबकी सारी सोच

नजर हटते ही हटा, नजरों का संकोच

 

वक्त बहुत बलवान है, क्या समझें नादान

पहिया रुके न वक्त का, होता है गतिमान

 

लगे वक्त भारी सदा, जब मुश्किल हालात

वक्त प्रबंधन कीजिये, करिये न सवालात

 

कभी हंसाता, रुलाता, अज़ब वक्त के खेल

जुदा कराता वक्त ही, वही कराता मेल

 

डर कर रहिये वक्त से, बुरी वक्त की मार

वक्त किसी का सगा नहिं, तेज वक्त की धार

 

वक्त की चक्की से पिसें, क्या राजा क्या रंक

बचे न कोई वक्त से, चलता है जब  डंक

 

वक्त की पहचान करें, समय का सदुपयोग

भोग तभी हम पाएंगे, दुनिया के सब भोग

 

साँचा संग सद्गुरु का, झूठा जग ब्यवहार

आवे काम वक्त पड़े, बुद्धि,विवेक,विचार

 

साझेदारी दर्द की, करे जो सच्चा यार

खुशियों में तो सब यहां, बनते हैं दिलदार

 

लक्ष्य तय कर बढ़े चलें, संयम नियम के संग

सफल हों”संतोष”तभी, होगी दुनिया दंग

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६३॥ ☆

 

उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे

सद्यः कृत्तद्विरददशनच्चेदगौरस्य तस्य

शोभाम अद्रेः स्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीम

अंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव॥१.६३॥

 

होगी वहाँ , तीर पहुंचे तुम्हारी

कज्जल सृदश श्याम स्निग्ध शोभा

ताजे तराशे द्विरददंत सम गौर

गिरि वह वहाँ और अति रम्य होगा

तो कल्पना में बँधी टक नयन से

मधुर रम्य दृष्टव्य शोभा तुम्हारी

मुझे दीखती , ज्यों गहन नील रंग की

लिये स्कंध पर शाल बलराभ भारी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि  ☆

यात्रा में संचित

होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल..,

विकल्प लागू होते हैं

सिक्के के दो पहलू होते हैं-

सारे शून्य मिलकर

ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व

या मथे जा सकें

सभी निर्वात एकसाथ

पाए गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे-

शून्य मथने से ही

उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था

ब्रह्मा का अस्तित्व,

आदि या इति

स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ!

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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