हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 47 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘मुक्तिका’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 47 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

*

कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो

किस्सोंवाली नानी दे दो

 

बासंती मस्ती थोड़ी सी

थोड़ी भंग भवानी दे दो

 

साथ नहीं जाएगा कुछ भी

कोई प्रेम निशानी दे दो

 

मोती मानुस चून आँख को

बिन माँगे ही पानी दे दो

 

मीरा की मुस्कान बन सके

बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 79 – गौरैया दिवस विशेष – संकल्प से सिद्धि☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  गौरैया दिवस पर एक भावपूर्ण रचना  “गौरैया दिवस । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 79 ☆ गौरैया दिवस विशेष – संकल्प से सिद्धि ☆

नील गगन की छांव में,

सघन बृक्ष की छांव में।

वो तिनका तिनका चुनती थी,

सुन्दर नीड़ बनाने का

वो ताना बाना बुनती थी।

दिनभर कठिन परिश्रम करते,

हार नहीं मानी थी वह।

अपना घर बार बसाने का,

दृढनिश्चय मन में ठानी थी वह।।1।।

 

जाड़े वर्षा  में भीगी थी,

गर्मी तन मन झुलसाती थी।

पर राह डिगा न सकी उसकी,

सुन्दर घोंसला बनाती थी।

सपनों से प्यारा नीड़ देख,

वह मन ही मन मुस्काई थी।

बैठ घोंसलों के भीतर ,

वह राग-विहाग सुनाई थी।।2।।

 

उस नीड़ के भीतर उसने दो,

बच्चे सुंदर बच्चे जाये थे।

उन्मुक्त गगन में उड़ने की,

ले चाह पंख फैलाए थे।

पर हाय विधाता! क्या लिखा भाग्य में,

ना जाने कैसा दिन आया।

नीड़ उजाड़ा बच्चे मारा,

बिल्ले ने तांडव दिखलाया।

पंख नोच खा गया उन्हें,

फिर खों-खों करता चिल्लाया।।३।।

 

घर चमन उजड़नें की पीड़ा,

उसके मन में समाई थी ।

वो  छोटी नीरीह प्राणी ,

कुछ भी ना कर पाई थी।

बच्चों की अल्पायु मौत पर,

उसकी ममता रोई थी।

कुछ करना बस में न था उसके,

वह अपनी सुध बुध खोइ थी।

उन दुखी पलों की बन साक्षी ,

रो रो कर सांझ बिहान किया,

टूटे नीड़ से ममता छूटी,

टूटा दिल ले प्रस्थान किया।4।।

 

उस निरीह प्राणी को देखो,

उसका एक ही नारा है।

संकल्प से सिद्धि मिलती है,

सबका यही सहारा है।

जाते जाते संदेश दे गई,

उम्मीद का दामन थाम लिया।

उन्मुक्त गगन में उड़ने का ,

उसने नव संकल्प लिया।

दुख आता है दुख जाता है,

पर हिम्मत अपनी मत हारो।

उम्मीद का दामन मत छोड़ो

फिर उडो़ गगन में पंख पसारो।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२०॥ ☆

 

गत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्रसंपातहेतोः

क्रीडाशैले प्रथमकथिते रम्यसानौ निषण्णः

अर्हस्य अन्तर्भवनपतितां कर्तुम अल्पाल्पभासं

खद्योतालीविलसितनिभां विद्युदुन्मेषदृष्टिम॥२.२०॥

तब हस्ति शावक सदृश रूप धर मेघ

रुकते कथित रम्य क्रीड़ा शिखर पर

खद्योत दल सम प्रभा क्षीण विद्युत

नयन से निरखना भवन में पहुंचकर

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 34 ☆ रे मन तू बन मुरली ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “रे मन तू बन मुरली“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 34 ☆

☆ रे मन तू बन मुरली  ☆

रे मन तू बन मुरली के समान

जिसके सुर सुनने को उत्सुक सबके कान

 

सीधी सरल पोंगरी खाली

सबके चित को सबके हरने वाली

रस से भरी सदा सुखदाई जिसकी मीठी तान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

जिसकी मधुर सुखद स्वर लहरी

छू जाती हर मन को गहरी

हर पावन प्रसंग को देती रही जो सुख सम्मान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

जिसमें भरा अकथ आकर्षण

जो हर्षित करता हर जन मन

सबको मोद और अधरों को देती जो मुस्कान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

लय स्वर पीड  प्रीति उपजाते

अनजाने की मीत बनाते

सबको सहसा ही दे जाते बिन मांगे पहचान

रे मन तू बन मुरली के समान …

 

सुख दुख नित आते जाते हैं

दिन आगे बढ़ते जाते हैं

बीता युग न साथ दे पाता इतना तो तू जान

रे मन तू बन मुरली के समान

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नि:शब्द ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नि:शब्द ?

एक तुम हो

जो अपने प्रति

नि:शब्द रही जीवनभर,

एक मैं हूँ

जो तुम्हारे प्रति

नि:शब्द रहा जीवनभर।

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘वह ‘)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ज़फ़ा… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश कुमार वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता जफ़ा.. ।)

☆ कविता  ☆ जफ़ा.. ☆

 

वो,

मासूम सा अपना,

जिसे चाहा,

शिददत से इतना,

कि अब

क्या कहूँ,कितनां,

 

नादानी कर बैठा,

खेल गया जफ़ा,

अनजाने में,

सब हुआ…

मालूम ना था,

वो कहता रहा,

 

अब इस चाक

जिगर को ले..

कहाँ जाऊँ,

कोई बताये ज़रा,

 

जानता हूँ दामन

उसका

छोडूंगा तो,नहीँ..

 

ये वो जानता,

मैं जानता,

रब जानता,

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)

मो 7746001236

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१९॥ ☆

 

एभिः साधो हृदयनिहितैर लक्षणैर लक्षयेथा

द्वारोपान्ते लिखितवपुषौ शङ्खपद्मौ च दृष्ट्वा

क्षामच्चायां भवनम अधुना मद्वियोगेन नूनं

सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम॥२.१९॥

 

हे बन्धु इन चिन्ह को ध्यान रखकर

लख शंख औ” पद्म के चित्र द्वारे

श्री हीन मेरे विरह से भवन लख

समझना कमल , क्षीण बिन रवि सहारे

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – न्यूक्लिअर चेन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – न्यूक्लिअर चेन  ?

वे देख-सुन रहे हैं

अपने बोए बमों का विस्फोट,

अणु के परमाणु में होते

विखंडन पर उत्सव मना रहे हैं,

मैं निहार रहा हूँ

परमाणु के विघटन से उपजे

इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन,

आशान्वित हूँ हर न्यूक्लियस से

जिसमें छिपी है

अनगिनत अणु और

असंख्य परमाणु की

शाश्वत संभावनाएँ,

हर क्षुद्र विनाश

विराट सृजन बोता है,

शकुनि की आँख और

संजय की दृष्टि में

यही अंतर होता है।

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 86 ☆ जिंदगी ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता “जिंदगी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 86 – साहित्य निकुंज ☆

☆ जिंदगी ☆

जिंदगी की किताब

बहुत कुछ बोलती है

सुख और दुख के

पन्ने खोलती है।

जिंदगी में

बहुत कुछ घटता है

मन को कुछ भा जाता है

तो

तारीफों का मौसम आ जाता है

यदि कभी कोई  सुई चुभ जाती है.

तो तानों की बिजली गिर जाती है

जिंदगी के पन्ने पलटते जाते हैं

इस जीवन से इस जीवन में

न कुछ पाया जा सकता है

न कुछ ले जाया जा सकता है

फिर भी व्यक्ति का मानस

चिंतन में डूबा रहता है

जिंदगी है ही ऐसी

जो हर पल घटती ही जाती है

जिंदगी के पल में

लगने न दो टाट के पैबंद

देखो कहीं न कहीं

निकल ही आए खुशियों के लम्हे

खुशियां उधार ही जीना है तुम्हें

उन खुशियों के पल को

रखना है संभाल

जो है बस यही है जीवन

 

न रखना है कोई ख्वाहिशें

सभी की ख्वाहिशें

होती है बड़ी

आपस में लगती है होड

जीवन की किताब है बेजोड़

जीवन आनी जानी है

यही जिंदगी की कहानी है…………………..

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तुम जीत गए हो ☆ डॉ मौसमी परिहार

डॉ मौसमी परिहार

(संस्कारधानी जबलपुर में  जन्मी  डॉ मौसमी जी ने “डॉ हरिवंशराय बच्चन की काव्य भाषा का अध्ययन” विषय पर  पी एच डी अर्जित। आपकी रचनाओं का प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन तथा आकाशवाणी और दूरदर्शन से नियमित प्रसारण। आकाशवाणी के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘युगवाणी’ तथा दूरदर्शन के ‘कृषि दर्शन’ का संचालन। रंगकर्म में विशेष रुचि के चलते सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ पटकथा लेखक और निर्देशक अशोक मिश्रा के निर्देशन में मंचित नाटक में महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत। कई सम्मानों से सम्मानित, जिनमें प्रमुख हैं वुमन आवाज सम्मानअटल सागर सम्मानमहादेवी सम्मान हैं।  हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को ई- अभिव्यक्ति में साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता  ‘तुम जीत गए हो’ )   

 ☆ कविता  –  तुम जीत गए हो ☆

तुम जीत गए हो,

बरसों पहले

मैं हार कर

बैठी सब कुछ प्रिय..!!

 

जिस माटी में ,

तुम थे, मैं थी

भाग्य में न थे

वे सुंदर सुख…!!

 

बीते कितने,

दिन-रात, औ

पहर-पहर

में घटता सा,…!!

 

साथी जैसा तेरा

उससे कुछ,

हटकर मेरा था..!!

 

नदियां, उपवन,

कंदराएँ भी,

तौल, मोल कर,

देते कुछ..!!

 

प्रकृति भरी हुई,

कितना कुछ,

देते लेते,

सदियां बीती अब

कहाँ देखे,

किसका मुख..!!

 

© डॉ मौसमी परिहार

संप्रति – रवीन्द्रनाथ टैगोर  महाविद्यालय, भोपाल मध्य प्रदेश  में सहायक प्राध्यापक।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares