हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77 – हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 77☆

☆ हाइबन- रंग बदलती की टीटोडी ☆

इसे आम भाषा में बड़ी टिटोडी कहते हैं। मगर यह टिटोडी नहीं है। इसे ग्रेट थिकनी कहते हैं। यह टिटोडी से बड़ी तथा अनोखी होती है।

यह पत्थरों के बीच छूप कर अपनी जान बचाती है। इसके लिए कुदरत ने इसे अजीब क्षमता दी है। यह जिस पत्थर के बीच छुपती है अपने को उसी रंग में रंग लेती है।

इसकी इसी विशेषता के कारण इसका दूसरा नाम स्टोन कर्ली है। यह हमेशा जोड़े में रहती है।इसकी रंग बदलने की विशेषता एक कारण यह कम दिखाई देती है।

गर्म पत्थर~

सांप के हमले से

छुटी टिटोडी।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-02-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया

डॉक्टर मिली भाटिया

(सुप्रसिद्ध चित्रकार एवं लेखिका डॉ मिली भाटिया जी को बसंत पंचमी पर्व पर उनके चित्रकला विषय में  शोध “भारतीय लघुचित्रों में देवियों का अंकन” पर डॉक्टरेट से सम्मानित किये जाने पर एवं आज 18 फरवरी को आपके 35वे जन्मदिवस पर  ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। सत्रह वर्ष की आयु में माँ के निधन के पश्चातआँखों में आजीवन रहने वाले केरटोकोनस नेत्ररोग के होते हुए भी यह उपलब्धि प्रेरणास्पद है।

आज प्रस्तुत है आपकी कविता मैं “मिली”

 ☆ कविता ☆ मैं “मिली” ☆ डॉक्टर मिली भाटिया ☆ 

हवाओं से बातें करती हूँ

सपनो की दुनिया में

रंगो को भरती हूँ

मैं “मिली”

 

खोई खोई सी रहती हूँ

ज़िन्दगी से उलझती हूँ

दिल की सुनती हूँ

मैं “मिली”

 

आसमान से बातें करती हूँ

फूलों की मुस्कुराहट को

काग़ज़ पर उकेरती हूँ

मैं “मिली”

 

चिड़िया सी चहकती हूँ

चंचल-शोख़ सी थी कुछ

खामोशी से अब बातें रखती हूँ

मैं “मिली”

 

तारों से सुलझती हूँ

बादलों सी बरसती हूँ

काग़ज़ को कलम से सजाती हूँ

मैं “मिली”

 

अब भी बस

खोई खोई सी रहती हूँ………..!!

मैं “मिली”

 

© डॉक्टर मिली भाटिया

रावतभाटा-राजस्थान

मोबाइल न०-9414940513

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५४॥ ☆

तस्माद गच्चेर अनुकनखलं शैलराजावतीर्णां

जाह्नोः कन्यां सगरतनयस्वर्गसोपानपङ्क्तिम

गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनां या विहस्येव फेनैः

शम्भोः केशग्रहणम अकरोद इन्दुलग्नोर्मिहस्ता॥१.५४॥

 

आगे तुम्हें हिमालय से उतरती

कनखल निकट मिलेगी जन्हुकन्या

सगर पुत्र हित स्वर्ग सोपान जो बन

धरा स्वर्ग संयोगिनी स्वयं धन्या

धरे चंद्र की कोर को उर्मिकर से

उमा का भृकुटि भंग उपहास करके

फेनिल तरल , मुक्त मधुहासिनी जो

जहाँ केश से लिप्त शंकर शिखर के

 

शब्दार्थ    ..  कनखल… हरिद्वार के निकट एक स्थान

जन्हुकन्या..गंगा नदी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 83 – सांझ होते ही…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना सांझ होते ही ….। )

☆  तन्मय साहित्य  #83 ☆ सांझ होते ही ….

सांझ होते ही यादों का, दीपक जला

रात भर फिर अकेला ही जलता रहा,

बंद  पलकों  में, आए  अनेकों  सपन

सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।

 

शब्द  हैं  सब  अधूरे, तुम्हारे बिना

अर्थ अब तक किसी के मिले ही नहीं,

स्वर्ण बासंती मधुमास जाने को है

पुष्प अब तक ह्रदय के खिले ही नहीं,

 

सीखते सीखते प्रीत के पाठ को

प्रार्थना भाव से रोज पढ़ता रहा।

सिलसिला भोर तक…

 

नर्म सुधीयों का एहसास ओढ़े हुए

कामनाओं का, निर्लज्ज नर्तन चले,

दर्द है  कैद,  संयम  के  अनुबंध में

प्रीत की रीत को जग सदा ही छले,

 

प्रेम  व्यापार  में  मन अनाड़ी  रहा

दांव पर सब लगा हाथ मलता रहा।

सिलसिला भोर तक ….

 

है विकल सिंधू सा, वेदना से भरा

नीर निर्मल मधुर पान की प्यास है,

चाहे बदरी बनो या नदी बन मिलो

बूंद स्वाति की हमको बड़ी आस है,

 

मन में  ऐसे  संभाले  रखा  है तुम्हें

जिस तरह सीप में रत्न पलता रहा।

सिलसिला भोर तक यूं ही चलता रहा।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 34 ☆ सबको गले लगाऊं ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सबको गले लगाऊं। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 34  ☆

☆ सबको गले लगाऊं ☆

अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊँ,

अपनों से जो मिला प्यार उसे कर्ज समझूं ,

जो अपनों के लिए किया उसे क्या अपना फ़र्ज़ समझूं ||

जिंदगी तो रुआँसी हो जाती है हर कभी,

दुख दर्द और बेरुखी जो अपनों से मिली,

उसकी शिकायत यहां किसको दर्ज कराऊँ ||

भले ही अपनों से खुशियां मिली हो,

मगर परायों से कोई कम धोखे नहीं खाये,

जब धोखे ही खाने हैं तो क्यों ना अपनों से ही धोखा खाऊं ||

जीवन को शतरंज की बाजी समझूं ,

यहाँ जब बाजी अपनों के साथ ही खेलनी है,

तो हारकर भी क्यों ना अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊं ||

अगर ऐसा ही है जिंदगी तो तेरी बातों में क्यों आऊं,

लाख अपने नाराज होकर पराये हो जाये,

उनकी बेरुखी को नजरअंदाज कर उनको गले लगाऊं ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५३॥ ☆

हित्वा हालाम अभिमतरसां रेवतीलोचनाङ्कां

बन्धुप्रीत्या समरविमुखो लाङ्गली याः सिषेवे

कृत्वा तासाम अधिगमम अपां सौम्य सारस्वतीनाम

अन्तः शुद्धस त्वम अपि भविता वर्णमात्रेण कृष्णः॥१.५३॥

 

गृहयुद्ध रत बन्धुजन प्रेम हित हो

विमुख युद्ध से त्याग मादक सुरा को

जिसे रेवती की मदिर दृष्टि ने

प्रेमरस घोलकर और मादक किया हो

बलराम ने जिस नदी नीर का सौभ्य

सेवन किया औ” लिया था सहारा

उसी सरस्वती का मधुर नीर पी

श्याम रंगतन ! हृदय शुद्ध होगा तुम्हारा

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 71 ☆ सफ़र ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “सफ़र ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 71 ☆

सफ़र ☆

आँखों के आगे एक कोहरा-

न आगे नज़र आता था, न पीछे;

एक गाड़ी में बैठी हुई

बस किसी और गाड़ी के पीछे-पीछे

धीमी-धीमी रफ़्तार में

ज़िंदगी चल रही थी…

 

कुछ उतावलापन था

मंजिल तक पहुँचने का,

कुछ छटपटाहट थी

वक़्त ज़्यादा लगने की,

कुछ डर था

कि आगे की गाड़ी का साथ

छूट न जाए,

कुछ उत्सुकता थी

कि सफ़र का अंत कैसा होगा…

 

उस उतावलेपन, छटपटाहट, डर और उत्सुकता ने

बदल दी मेरी सोच की धारा

और एक डरी हुई मैना की तरह मैं

सिमट गयी ख़ुद ही मैं…

 

कहाँ जानती थी

कि आगे वाली गाड़ी को शायद

ख़ुद ईश्वर का आशीर्वाद था,

और मेरे भीतर भी

एक ईश्वर था!

 

जब से यह राज़ खुला है,

हो गयी हूँ बेफिक्र और मस्मौला,

और उडती हूँ अपने ख्यालों के आसमान में

किसी बाज़-सी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  दृष्टि ?

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं,

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है।

 

(माँ सरस्वती का अनुग्रह हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जागृत रखे। शारदा पूजन एवं वसंतपंचमी का अभिवादन स्वीकार करें।)

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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English Literature – Poetry ☆ ‘एकाकार’… श्री संजय भरद्वाज (भावानुवाद) – ‘Union…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem “एकाकार”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज 

☆ संजय दृष्टि –  एकाकार ☆

बार-बार इशारा कर

वह बुलाती रही,

देख समझ कर भी

वह अनदेखा रहा,

एक-दूसरे के प्रति

असीम आकर्षण,

एक-दूसरे के प्रति

अबूझ भय,

धूप-छाँह सी

उनकी प्रीत,

अंधेरे-उजाले सी

उनकी रिपुआई,

वे टालते हैं मिलना

प्राय: सर्वदा

पर जितना टला

मिलन उतना अटल हुआ,

जब भी मिले

एकाकार अस्तित्व चुना,

चैतन्य, पार्थिव जो भी रहा

रहा अद्वैत सदा,

चाहे कितने उदाहरण

दे जग प्रेम-तपस्या के,

जीवन और मृत्यु का नेह

किसीने कब समझा भला!

©  संजय भारद्वाज

Union… ☆

Repeatedly gesticulating,

she kept on calling,

Even after seeing her

He feigned to be ignorant,

Infinite charm,

lethal attraction

kept pulling them

towards each other…

But, the unknown fear,

Kept them at bay…

 

Their lasting love

remained like

Scorching Sun and

the soothing shade

Their rancor kept nurturing

like the light and darkness…

 

They avoided meeting

As much as possible

Kept postponing their union

almost always…

But then, their union

became so inevitable,

However hard they

Chose to be singularly existent…

 

Dead or alive

Mortal or immortal

whoever lived

Always been monistic,

the advaita,

No matter

how many references

the world may quote

of love-penance,

But, who could ever understand

the amorous affinity between

the Life and death…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 79 – कविता – ऋतु बसंत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है माँ सरस्वती पूजन एवं  बसंत पंचमी पर्व पर आपकी विशेष रचना  “ऋतु बसंत। इस सामायिक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 79 ☆

? ऋतु बसंत ?

देखो आया बसंत बहार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

सदियों से जाने यह बात

ऋतुएं भी मनाती हैं त्यौहार

 

उमड़ने लगा भाव अनुनय

बातों में होने लगी विनय

प्रेम मनुहार की सुंदर बेला

ऋतु बसंत का आया समय

देव ने किया मिलकर विचार

प्रकृति ने किया सोलह सिंगार

 

बसंत आते देख ऋतुराज

पहन लिया पुष्पों का ताज

वन उपवन सब झूम के गाए

झरनों से बजने लगे साज

धरा भी खुश हो रही निहार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

 

कोयल कू के डाली डाली

तितलियां हो गई मतवाली

ऋतु बसंत ने ली अंगड़ाई

प्रेमी युगल सब डूबे ख्याली

अब ना कोई सुझे विचार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

 

आमों में बौरै भी छाई

बसंत पंचमी झुम के आई

पीली चुनर सर पर ओढ़े

खेतों में सरसों खिलखिलाई

लेकर इनकी शोभा अपार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

 

मानव मन हो गया आशातीत

हर दृश्य निर्मल नवीन पुनीत

उमंग   खिले अमलतास कनेर

भर उठा जीवन भरा संगीत

होने लगे सब सपने साकार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

 

देख धरा की सुंदरता

मां नर्मदा बन सरिता

देवों की बढीं आतुरता

मां सरस्वती स्वयं विराजी

ले वीणा के मधुर झंकार

प्रकृति ने किया सोलह श्रृंगार

 

सदियों से जाने यह बात

ऋतुएं भी मनाती है त्यौहार

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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