English Literature – Poetry (Classical Translation) ☆ बेहतरीन शायरियाँ – लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में…. /I don’t  feel  inspirited at all in this desolated abode… – बहादुर शाह ज़फर ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present a Classical Translation of Mughal emperor Bahadur Shah Zafar’s Classical Shayari “लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में…”  Mughal emperor Bahadur Shah Zafar had composed this very soulful immortal ghazal, when he was imprisoned in Burma, away from his motherland, where he eventually died.

In Capt. Pravin Raghuvansi ji  wordsI always had a great desire to do an English paraphrasing of it, while retaining its spirit and emotions… ” 

We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this classical translation.

बहादुर शाह ज़फर 

 ☆ लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में …. ☆ 

कैप्टेन  प्रवीण रघुवंशी:  बहादुर शाह ज़फर की एक बहुत भावपूर्ण, अमर कालजयी रचना है: “लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में…” बड़ी इच्छा थी कि इसका एक भावानुवाद किया जाये… .

 

लगता नहीं है जी मेरा

उजड़े  दयार  में

किस  की  बनी  है

आलम-ए-ना-पायेदार में

 

बुलबुल को बाग़बां से

न  सैय्याद से  गिला

क़िस्मत में क़ैद थी लिखी

फ़सल-ए-बहार  में

 

उम्र-ए-दराज़ माँग के

लाये थे चार दिन

दो आरज़ू में कट गये,

दो इंतज़ार में…

 

कह दो इन हसरतों से

कहीं  और जा  बसें

इतनी जगह कहाँ है

दिल-ए-दाग़दार  में

 

है कितना बदनसीब

ज़फ़र दफ़्न के लिये

दो  गज़  ज़मीन भी

न मिली कू-ए-यार में

 

☆ I don’t  feel  inspirited at all in this desolated abode …. ☆

(Captain Pravin Raghuvanshi: Mughal emperor Bahadur Shah Zafar had composed a very soulful immortal ghazal, when he was imprisoned in Burma, away from his motherland, where he eventually died:  “Lagta nahi hai jee mera ujde dayar mei…”

I always had a great desire to do an English paraphrasing of it, while retaining its spirit and emotions… Here’s an attempt…

 

I don’t  feel  inspirited at all

in this desolated abode, but

Whose happiness has  ever

lasted in this transient world

 

Nightingale has no complaint

With the  gardener or fowler

When  destiny  itself scripted

its captivity in peak of spring

 

Was  granted  four  days

of  life  as  a  benefaction…

Two were spent in desires,

while remaining two in wait

 

Please  tell  these desires to

settle down somewhere else

There isn’t enough room left

in this overly blotched heart

 

How  much  unfortunate,  I,

Zafar*  is, who couldn’t  find

Two yards of land for  burial

In the street of dear homeland!

*Zafar – India’s last Mughal emperor, Bahadur Shah, also known as Zafar, died in a British prison in Burma, longing for his country….

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ खोज ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ खोज 

ढूँढ़ो, तलाशो,

अपना पता लगाओ,

ग्लोब में तुम जहाँ हो

एक बिंदु लगाकर दिखाओ,

अस्तित्व की प्यास जगी

खोज में ऊहापोह बढ़ी,

कौन बिंदु है, कौन सिंधु है..?

ग्लोब में वह एक बिंदु है या

ग्लोब उसके भीतर एक बिंदु है..?

©  संजय भारद्वाज 

 रात्रि 10:11बजे, दि. 25 नवंबर 2015

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 65 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 65– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

करते हैं आराधना,

तुम ईश्वर प्रति रुप।

मन मंदिर में रचे बसे,

हो श्रद्धा स्वरूप।।

 

झर झर कर बह अब रही,

आयु वेग की धार।

संबंधों को जीत लो,

पड़े न कभी दरार।।

 

शब्द शब्द के योग से,

बढ़ा शब्द परिवार।

शब्दों की दुनिया बढ़ी,

हुआ अर्थ भंडार।।

 

झूम झूम के नाचता,

मन मयूर चहुं ओर।

पूरी होती चाह अब,

बचा न कोई छोर।।

 

जीवन में सब कुछ मिला,

मिला सकल संसार।

मन से करते अर्चना,

मिले सभी का प्यार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 57 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 57☆

☆ संतोष के दोहे ☆

जप तप अरु आराधना, करिये सतत अनित्य

नवरात्रि में कीजिए, माँ की पूजा नित्य

 

आयु फिसलती रेत-सी, रहते खाली हाथ

कौन जानता कब किधर, छूटे किसका साथ

 

सावन की काली घटा, जब छाती घनघोर

अपने मोहक नृत्य से, मन हरता है मोर

 

सिमट रहे हैं आजकल, यह अपने परिवार

साथ वक्त के बदलते, सामाजिक संस्कार

 

दुनिया सबको मोहती, मायावी संसार

माया से बच कर रहें, इसके रंग हजार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – मोरि नैया लगा दो पार मैया …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत मोरि नैया लगा दो पार मैया……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – मोरि नैया लगा दो पार मैया …….. ☆

 

मोरि नैया लगा दो पार मैया जीवन की

है विनती बारंबार मैया दुखिया मन की

 

तुम हो आदिशक्ति हे माता

सबका तुमसे सच्चा नाता

सब पर कृपा तुम्हारी जग में

महिमा अपरम्पार तुम्हारे आंगन की

हम आये तुम्हारे द्वा , कामना ले मन की

 

कोई न किसी का संग सँगाती

जलती जाती जीवन बाती

घट घट की माँ तुम्हें खबर सब

अभिलाषा एक बार तुम्हारे दर्शन की

दे दो माँ आधार , शरण दे चरणन की

 

झूठे जग के रिश्ते नाते

कोई किसी के काम न आते

करुणामयी माँ तुम जग तारिणी

झूठा है संसार चलन जहाँ अनबन की

माँ नैया है मझधार भँवर में जीवन की

कौन करे उस पार नैया जीवन की

मोरि नैया लगा दो पार मैया जीवन की

है विनती बारंबार मैया दुखिया मन की

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ संभावना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ संभावना

एक आयु के बाद

प्रसूति की संभावनाएँ

निरंतर घटती जाती हैं,

चिकित्साशास्त्र कहता है…,

एक आयु के बाद

प्रसूति की संभावनाएँ

निरंतर बढ़ती जाती हैं,

काव्यशास्त्र कहता है…!

अनुकूल, प्रतिकूल से परे

सदा विजिगीषु रहता है,

संभावना का अपना

एक शास्त्र होता है…!

 

आज मिली कालावधि प्रसूत हो।

©  संजय भारद्वाज 

21.10.2020,  रात्रि 10.01 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 68 – नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 68 ☆

☆ नक्शे का मंदिर ☆

 नक्शे पर बना मंदिर। जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह  सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 45 ☆ दो मुक्तक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “दो मुक्तक.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 45 ☆

☆ दो मुक्तक  ☆ 

 

भारती के मान पर अभिमान होना चाहिए।

देशभक्तों का सदा सम्मान होना चाहिए।

जो वतन पर जान की बाजी लगाकर मर-मिटे,

उन शहीदों के नाम हिन्दुस्तान होना चाहिए।।

 

धर्म कविता का परस्पर प्यार होना चाहिए।

शब्दशः सद्भाव का संचार होना चाहिए।

भेद ना हो बाहरी बर्ताव का दिल से कभी,

कवि हृदय का सत्य ही औजार होना चाहिए ।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – महिमा मां बड़ी तुम्हारी है …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत महिमा मां बड़ी तुम्हारी है……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – महिमा मां बड़ी तुम्हारी है …….. ☆

नवरात्रि पर्व में पूजा की महिमा मां बड़ी तुम्हारी है

हर गाँव शह , घर घर जन जन में पूजा की तैयारी है

 

सबके मन भाव सुमन विकसे, मौसम उमंग से पुलकित है

हर मंदिर मढ़िया देवालय में, भीड़ भक्त की भारी है

 

सात्विक मन की पूजा सबकी होती अक्सर है फलदायी

संसार तुम्हारी करुणा का, मां युग युग से आभारी है

 

श्रद्धा के सुमन भरा करते, जीवन में  मधुर सुगंध सदा

आशीष चाहता इससे मां, तेरा हर चरण पुजारी है

 

अनुराग और विश्वास जिन्हें है अडिग तुम्हारे चरणों में

उन पर करुणा की वर्षा करने की माता अब बारी है

 

कई रूपों, नामों धामों में, है व्याप्त तुम्हारी चेतनता

अति भव्य शक्ति, गुण की, महिमा तव जग में हे माँ न्यारी है

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 67 – तू भी वही, मैं भी वही….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना तू भी वही, मैं भी वही…..। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 67 ☆

☆ तू भी वही, मैं भी वही….. ☆  

 

तू  भी  वही, मैं भी  वही

उस परम के सब अंश हैं

फिर क्यों कोई बगुले हुए हैं

और, कोई हंस हैं।

 

है ध्येय, सब का एक ही

सौगात खुशियों की मिले

क्यों अलग पथ अरु पंथ हैं

है परस्पर, शिकवे-गिले,

वसुदेव जैसे, है जहाँ

तो क्यों, वहीं पर कंस हैं।

तू भी वही …….

 

है पंचतत्वों का घरोंदा

इंद्रियाँ सब की वही

नवद्वार, विविध विकार हैं

कोई कहीं, कोई कहीं,

सब ब्रह्म की संतान तो

फिर क्यों अलग ये वंश हैं।

तू भी वही ……

 

संस्कारवश ये हैं अगर

प्रारब्ध भी यदि मान लें

सत्कर्म से बंधन कटे

दुष्कर्म बंधन बांध लें,

है ज्ञान,तप सेवा जहाँ

क्यों कुटिलता के दंश हैं।

तू भी वही…..

 

विस्तार व्यापक हो रहा

है ज्ञान औ’ विज्ञान का

चिंतन मनन से विमुख सा

मन भ्रमित है इंसान का,

गर नव सृजन निर्माण है

फिर क्यों वहीं विध्वंस है।

तू भी वही….

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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