31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी। उन्हें नमन। बचपन में उनकी कहानी ‘घासवाली’ पढ़ी थी। उसकी नायिका के धुँधले-से अक्स और कहानी की पृष्ठभूमि ने लगभग बीस वर्ष बाद लिखी कविता को भी प्रभावित किया था। इस रचना की मंच पर नृत्य नाटिका के रूप में अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकीं। मुंशी जी को समर्पित यह कविता रक्षाबंधन पर भी सामयिक है। अत: साझा कर रहा हूँ।
भीड़ को चीरती एक हँसी
मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी,
कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक
कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी,
मैं टूटा था, दरक-सा गया था
क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?
पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,
सलीके से उसके हाथ
आधा माथा ढके जब घास काटते थे
उसके रूप की कल्पनामात्र से
कई कलेजे कट जाते थे..,
थी फूल अनछुई-सी
जंगली घास में जूही-सी,
काली भरी-भरी सी देह
बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें,
मुझे शायद आँखों से सुंदर
उसमें तैरते उसके भाव लगते थे,
भाव जिनकी मल्लिका को
शब्दों की जरूरत ही नहीं
यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी ..,
पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली
पर कुँआरी लड़कियाँ भी
उसके रूप से जल जाती थीं,
गाँव के मरदों के भीतर के
जानवर को, कल्पनाओं में भी
उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था,
लोक-लाज-रिवाजों के कपड़ों के भीतर भी
उनका प्राकृत रूप नजर आ ही जाता था..,
पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी
पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी
पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक अपेक्षा थी…..
गॉंव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे,
नतीजतन रसिया तो होने ही थे,
जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती
वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,
मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी
कोई अपेक्षा पुरुष बसा है,
अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में
कुछ क्षण ठाकुर के,
उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे
काँटों की शैया को सोने के पलंग
सपने सलोने से कम नहीं लगते थे..,
खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी,
डूबते क्षितिज को चूमता सूरज,
पक्षियों का कलरव,
घर लौटते चौपायों का समूह,
दूर जंगल में शेर की गर्जना,
अपने डग घर की ओर बढ़ाती
आतांकित बकरियों की छलांग,
इन सब के बीच-
सारी चहचहाट को चीरते
गूँज रही थी पुष्पा की हँसी..,
सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया
घर लौटकर, पसीना सुखाकर
कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना
मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना..,
स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी
ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा
प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी
चली जा रही थी पुष्पा ..,
एकाएक,
शेर की गर्जना ऊँची हुई,
मेमनों में हलचल मची,
एक विद्रूप चौपाया
मासूम बकरी को घेरे खड़ा था,
ठाकुर का एक हाथ मूँछो पर था
दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था..,
हँसी यकायक चुप हो गई
झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया,
सर पर रखा घास का झौआ
बगैर सहारे के तन गया था,
हाथ की हँसुली
अब हथियार बन गया था..,
रणचंडी का वह रूप
ठाकुर देखता ही रह गया,
शर्म से आँखें झुक गईं
आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,
निःशब्द शब्दों की जननी
सारे भाव ताड़ गई,
ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है!
तू तो गाँव का मुखिया है,
हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है,
फिर क्यों तू ऐसा है,
क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है..?
ए भाई!
आज जो तूने मेरा हाथ थामा,
तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा
ये मैंनेे माना है,
एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,
ठाकुर के पाप की गठरी को
उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,
ठाकुर का जीवन बदल चुका था
छोटे ठाकुर, अब सचमुच ठाकुर थे..,
पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था
निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,
फिर शहर में घास बेचती
ग्राहकों को लुभाकर बातें करती,
ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,
पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?
उसे मुझे देख लिया था
पर उसकी तल्लीनता में
कोई अंतर नहीं आया था,
उलटे कनखियों से
उसे देखने की फिराक में
मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था,
वह फिर भी हँसती रही..,
गाँव के खेतों के बीच से जाती
उस संकरी पगडंडी पर
उस शाम पुष्पा फिर मिली थी,
वह फिर हँसी थी..,
बोली-
बाबूजी! जानती हूँ,
शहर की मेरी हँसी
तुमने गलत नहीं मानी है,
पुष्पा वैसी ही है
जैसी तुमने शुरू से जानी है,
हँसती चली गई, हँसती चली गई
हँसती-हँसती चली गई दूर तक..,
अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए
अस्तित्व को लिए
निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं
क्षितिज को देखता रहा,
जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,
खुद ने खुद से प्रश्न किया,
ठाकुर और तेरे जैसों की
सफेदपोशी क्या सही थी,
उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !