हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एकाक्षी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ एकाक्षी ☆

 

एकाक्षी होना चाहता हूँ,

आवश्यक नहीं

एक आँख बंद कर लूँ,

वांछित है, दोनों में

समत्व विकसित कर लूँ!

 

©  संजय भारद्वाज 

10 अगस्त 17, संध्या 7.10

#आपका दिन सार्थक हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष – तुम कहाँ छिपे हो मोहन …… ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज प्रस्तुत है  श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर विशेष कविता   “तुम कहाँ छिपे हो मोहन….”। )

☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष – तुम कहाँ छिपे हो मोहन…. ☆  

गीता के रचनाकार  कृष्ण,

हे दीनन के रखवाले

तुम कहाँ छिपे हो मोहन

प्यारे चक्र सुदर्शन वाले।

 

कितने ही लाक्षाग्रह धधके हैं,

पुनः इसी धरती पर

भीषण लपटों में जले जा रहे,

जलचर-थलचर-नभचर,

कौरव दल विध्वंसक बन कर

घेरा डाले चहुँ ओर खड़े

क्या और अभी भी खाली

इनके कुकर्मों के पाप घड़े,

है विदुर कहाँ जो गुप्त सुरंग से,

हमको आज निकाले

तुम कहाँ छिपे हो मोहन……

 

निशदिन कितनी ही द्रोपदियों

के चीर हरण होते हैं

जूएं में राजनीति के पांडव

लगा रहे गोते हैं

जिसका खा रहे नमक, विरुद्ध

उसके ही कैसे बोलें

है नेत्र बंद गुरु द्रोण-भीष्म  के

उनको कैसे खोलें,

है सचराचर दृष्टा!

इन ललनाओं की लाज बचा ले

तुम कहाँ छिपे हो मोहन……..

 

लावे की भांति असुर दलों के

निर्दय हाथ बढ़े हैं

इस पुनीत हिन्द-भूमि पर

दुष्कृत्यों के अंक चढ़े हैं,

शंकित मन, व्याकुल डरे हुए

गोकुल के ग्वाले-गौवें

कोयल बैठी गुमसुम

कर्कश स्वर गीत गा रहे कौवे,

दुष्टों का मद मर्दन कर प्रभु,

भक्तों की लाज बचा ले

तुम कहाँ छिपे हो मोहन…….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

07/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष – हे कृष्ण! तेरे एक अवतार में कितने किरदार ☆ श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास  “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आज प्रस्तुत है श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर आपकी कविता   “हे कृष्ण! तेरे एक अवतार में कितने किरदार। )

☆ श्री कृष्ण जन्माष्टमी विशेष – हे कृष्ण! तेरे एक अवतार में कितने किरदार 

देवकी सुत भी, यशोदा पुत्र भी,

मथुरा निवासी भी, सर्वत्र वासी भी,

हजारों परिणीता भी, एक पत्नीव्रता भी,

प्रेम की सूरत भी, त्याग की मूरत भी,

राधा के गीत भी, गोपियों के मीत भी,

रुक्मणी से योग भी, मीरा के संयोग भी,

यारों के यार भी, बह्मांड के सूत्रधार भी,

कमजोरों के सँरक्षक भी, दुष्टों के भक्षक भी,

दूसरों के दर्द से अधीर भी, अपने लिए सख़्त कर्मवीर भी,

शांति के लिए रण छोड़ते भी, धर्म के लिए सीमा तोड़ते भी,

त्रिलोक के सबसे बड़े महारथी भी, महज एक सारथी भी,

अनेकों आरोपों से युक्त भी, सबके पापों को करते मुक्त भी,

सबसे निर्लिप्त भी, सँसार के पालन में संलिप्त भी,

नादान भक्तों के लिए हमेशा खड़े भी, विद्वानों के समझ से परे भी।

 

©  दिव्यांशु  शेखर

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ असंभव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ असंभव ☆

उसका समय

आया नहीं

पर चलो

कुछ छल करें,

छिप जाओ तुम

तुम्हारी एवज़ में

उसके प्राण हरें,

गलती पकड़ी जाएगी

तब देखी जाएगी,

तब तक तुम्हारी

जीवन-नैया भी

खेई जाएगी,

मेरे नकार से

तमतमा गया,

क्रोध के साथ

अचरज आ गया,

जीवन भर

सिद्धांतों पर

चलता रहा,

छल को पास

फटकने न दिया,

अब मृत्यु से

रक्षा के लिए

सिद्धांतों से समझौता

संभव नहीं,

काल!

एक नहीं

अनेक बार

अकाल हरो

पर जीवन से

छल करुँ,

संभव नहीं!

 

©  संजय भारद्वाज 

( 3 अगस्त 2018, मध्याह्न)

#आपका दिन सार्थक हो।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सृष्टि☆

तुम समेटती रही

अपनी दुनिया और

मुझ तक आकर ठहर गई,

मैं विस्तार करता रहा तुम्हारा

और दुनिया तुममें

सिमट कर रह गई,

अपनी-अपनी सृष्टि है प्रिये!

अपनी-अपनी दृष्टि है प्रिये!

©  संजय भारद्वाज 

सुबह 10.25 बजे, 17.6.19

#आपका दिन सार्थक हो।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ब्लैक होल ☆

कैसे जब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम

सघन से विरल

की ओर होता है,

जमाने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है

सारा रिक्त शनैः-शनैः

ब्लैक होल हो चला है!

 

©  संजय भारद्वाज

आपका दिन सार्थक हो।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शैवाली ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ में आज-

☆ संजय दृष्टि  ☆ शैवाली ☆

जैसे शैवाली लकड़ी,

ऊपर से एकदम हरी

कुरेदते जाओ तो

भीतर निविड़ सूखापन,

कुरेदना औरत का मन कभी,

औरत और शैवाली लकड़ी

एक ही प्रजाति की होती हैं..!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 8:37, 15.7.19

आपका दिन सार्थक हो।☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सम्पन्नता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ सम्पन्नता ☆

बूढ़े जीवन ने

यकायक पूछा,

कभी सोचा

अब तक

क्या खोया

क्या पाया,

अपनी संपन्नता पर

मैं इतराया,

मर्त्यलोक में

क्षरण के मूल्य पर

अक्षय पाता रहा,

साँसे खोता रहा

अनुभवी होता रहा,

रीता आया था

सृष्टि सम्पन्न लौट रहा हूँ,

सो खोया कुछ नहीं

बस, पाया ही पाया!

©  संजय भारद्वाज

30.7.2017, रात्रि 8.18 बजे

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ हँसी ☆

31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी।  उन्हें नमन। बचपन में उनकी कहानी ‘घासवाली’ पढ़ी थी।  उसकी नायिका के धुँधले-से अक्स  और कहानी की पृष्ठभूमि ने लगभग बीस वर्ष बाद लिखी कविता को भी प्रभावित किया था।  इस रचना की मंच पर नृत्य नाटिका के रूप में अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकीं। मुंशी जी को समर्पित यह कविता रक्षाबंधन पर भी सामयिक है। अत: साझा कर रहा हूँ।

 

भीड़ को चीरती एक हँसी

मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी,

कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक

कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी,

मैं टूटा था, दरक-सा गया था

क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?

 

पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,

सलीके से उसके  हाथ

आधा माथा ढके जब घास काटते थे

उसके रूप की कल्पनामात्र से

कई कलेजे कट जाते थे..,

 

थी फूल अनछुई-सी

जंगली घास में जूही-सी,

काली भरी-भरी सी देह

बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें,

मुझे शायद आँखों से सुंदर

उसमें तैरते उसके भाव लगते थे,

भाव जिनकी मल्लिका को

शब्दों की जरूरत ही नहीं

यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी ..,

 

पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली

पर कुँआरी लड़कियाँ भी

उसके रूप से जल जाती थीं,

गाँव के मरदों के भीतर के

जानवर को, कल्पनाओं में भी

उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था,

लोक-लाज-रिवाजों के कपड़ों के भीतर भी

उनका प्राकृत रूप नजर आ ही जाता था..,

 

पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी

पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी

पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक  अपेक्षा थी…..

 

गॉंव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे,

नतीजतन रसिया तो होने ही थे,

जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती

वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,

मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी

कोई अपेक्षा पुरुष बसा है,

अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में

कुछ क्षण ठाकुर के,

उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे

काँटों की शैया को सोने के पलंग

सपने सलोने से कम नहीं लगते थे..,

 

खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी,

डूबते क्षितिज को चूमता सूरज,

पक्षियों का कलरव,

घर लौटते चौपायों का समूह,

दूर जंगल में शेर की गर्जना,

अपने डग घर की ओर बढ़ाती

आतांकित बकरियों की छलांग,

इन सब के बीच-

सारी चहचहाट को चीरते

गूँज रही थी पुष्पा की हँसी..,

 

सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया

घर लौटकर, पसीना सुखाकर

कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना

मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना..,

 

स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी

ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा

प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी

चली जा रही थी पुष्पा ..,

 

एकाएक,

शेर की गर्जना ऊँची हुई,

मेमनों में हलचल मची,

एक विद्रूप चौपाया

मासूम बकरी को घेरे खड़ा था,

ठाकुर का एक हाथ मूँछो पर था

दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था..,

हँसी यकायक चुप हो गई

झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया,

सर पर रखा घास का झौआ

बगैर सहारे के तन गया था,

हाथ की हँसुली

अब हथियार बन गया था..,

 

रणचंडी का वह रूप

ठाकुर देखता ही रह गया,

शर्म से आँखें झुक गईं

आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,

निःशब्द शब्दों की जननी

सारे भाव ताड़ गई,

ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है!

तू तो गाँव का मुखिया है,

हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है,

फिर क्यों तू ऐसा है,

क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है..?

 

ए भाई!

आज जो तूने मेरा हाथ थामा,

तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा

ये मैंनेे माना है,

एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,

ठाकुर के पाप की गठरी को

उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,

ठाकुर का जीवन बदल चुका था

छोटे ठाकुर, अब सचमुच ठाकुर थे..,

 

पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था

निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,

फिर शहर में घास बेचती

ग्राहकों को लुभाकर बातें करती,

ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,

पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?

 

उसे मुझे देख लिया था

पर उसकी तल्लीनता में

कोई अंतर नहीं आया था,

उलटे कनखियों से

उसे देखने की फिराक में

मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था,

वह फिर भी हँसती रही..,

 

गाँव के खेतों के बीच से जाती

उस संकरी पगडंडी पर

उस शाम पुष्पा फिर मिली थी,

वह फिर हँसी थी..,

 

बोली-

बाबूजी! जानती हूँ,

शहर की मेरी हँसी

तुमने गलत नहीं मानी है,

पुष्पा वैसी ही है

जैसी तुमने शुरू से जानी है,

हँसती चली गई, हँसती चली गई

हँसती-हँसती चली गई दूर तक..,

 

अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए

अस्तित्व को लिए

निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं

क्षितिज को देखता रहा,

जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,

खुद ने खुद से प्रश्न किया,

ठाकुर और तेरे जैसों की

सफेदपोशी क्या सही थी,

उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !

 

©  संजय भारद्वाज

कविता संग्रह- चेहरे

प्रकाशन वर्ष- 2014

# आपका दिन सृजनशील हो।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हरापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

( कुछ स्मृतियाँ/रचनाएँ कालजयी होती हैं। श्री संजय भारद्वाज जी ने इस रचना के प्रकाशन को स्मृतियों में संजो कर रखा है।आभार)

☆ संजय दृष्टि  ☆ हरापन ☆

  (‘ई- अभिव्यक्ति’ में 25 जुलाई 2019 को दैनिक ‘संजय दृष्टि’ के अंतर्गत प्रकाशित पहली रचना)

जी डी पी का बढ़ना

और वृक्ष का कटना

समानुपाती होता है;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

डायरेक्टली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

वर्तमान अर्थशास्त्र पढ़ा रहा था..,

‘संजय दृष्टि’ देख रही थी-

सेंसेक्स के साँड़

का डुंकारना,

काँक्रीट के गुबार से दबी

निर्वसन धरा का सिसकना,

 

हवा, पानी, छाँव के लिए

प्राणियों का तरसना-भटकना

और भूख से बिलबिलाता

जी डी पी का

आरोही आलेख लिए बैठा

अर्थशास्त्रियों का समूह..!

हताशा के इन क्षणों में

कवि के भीतर का हरापन

सुझाता है एक हल-

जी डी पी और वृक्ष की हत्या

विरोधानुपाती होते हैं;

“जी डी पी एंड ट्री कटिंग आर

इनवरसली प्रपोर्शिएनेट

टू ईच अदर-”

भविष्य का मनुष्य

गढ़ रहा है..!

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

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