हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 36 ☆ सजल – बैर नहीं पाला जीवन भर…. ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी अतिसुन्दर सजल  बैर नहीं पाला जीवन भर….। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 36 ☆

☆ सजल – बैर नहीं पाला जीवन भर…. ☆

हो  जाती वाणी  कठोर जब प्रेम न दिल में पलता है।

बैर नहीं पाला जीवन भर अपनी यही सफलता है।

 

नीम-करेला-सी कड़वाहट  बोली का संकेत यही

है मस्तिष्क रुग्ण चिंतन में पली हुई दुर्बलता है।

 

योगेश्वर भगवान सदा ही मेरी रक्षा  करते हैं।

इसका कारण मेरे मन की एक मात्र निश्छलता है।

 

आस लगाए रहतीं हूँ प्रभु चरणों में चातक जैसी

नहीं जानती पूजन-विधि पर भावों में  निर्मलता है।

 

करता है व्यवहार शत्रु-सा क्रूर पड़ोसी राष्ट्र सदा

और सहन करता है भारत यह कैसी दुर्बलता है।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ फुनवा यानी फोन ☆ डाॅ मंजुला शर्मा (नौटियाल)

डाॅ मंजुला शर्मा (नौटियाल)

( टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड में जन्मीं डॉ मंजुला शर्मा जी को  25 वर्षों के अध्यापन कार्य का अनुभव है एवं अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। हम भविष्य में आपके चुनिंदा रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है फोन पर एक तथ्यात्मक एवं विचारणीय सार्थक कविता  फुनवा यानी फोन)

☆ फुनवा यानी फोन ☆

(समाज में फोन प्रगति का आधार है मगर अति व मति का वैर रहता है , हर बुद्धिमान यही कहता है।यदि इसका प्रयोग काम के लिए ही अधिक होगा तभी सामाजिक जीवन में संतुलन रहेगा । )

 

ये फुनवा, ये फुनरा, ये फुनवा लेगा तेरी जान

तू इसका,तू इसका, तू इसका, खतरा ले पहचान

ये फुनवा,ये फुनवा, ये फुनवा लेगा तेरी जान।

 

शाम सवेरे जब भी देखूॅ, फोन पे तू बतियाए

बेढंगे सब काम करे और मन इसमें उलझाए

सारी दुनिया छोड के तूने इससे लिया है ज्ञान

ये फुनवा, ये फुनवा, ये फुनवा लेगा तेरी जान।

 

समय मिला न ज़रा तुझे, मम्मा से कर ले बात

हुई न जाने कबसे अपने पप्पा से मुलाकात

इसके आगे सबकुछ मिट्टी, फोन ही तेरे प्राण

ये फुनवा, ये फुनवा, ये फुनवा लेगा तेरी जान।

 

मेरे आगे- पीछे ऐसे लोगों की है फौज

चौबीस में से बाहर घंटे,फोन पे लें जो मौज

सोते जगते इसे ही देखें, फोन ही इनकी शान

ये फुनवा, ये फुनवा, ये फुनवा लेगा तेरी जान ।

 

कितने लोग हैं सैल्फी लेते, अपनी जान गंवाई

अजगर, शेर और ट्रेन के आगे सैल्फी लेनी चाही

जान से ज्यादा फोन का ही, रखा है जी ध्यान

ये फुनवा, ये फुनवा , ये फुनवा लेगा तेरी जान।

 

दोस्त यार और भाई-बंधु के, बदले है यह फुनवा

काम-धाम और रास-रंग के बदले है ये फुनवा

आज से इसको दूर रखेगा, मन में ले अब ठान

ये फुनवा,ये फुनवा , ये फुनवा लेगा।

 

© डाॅ मंजुला शर्मा (नौटियाल)

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 7 – याद ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों की हवेली

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 7 – याद ☆

 

माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची अक्सर याद आते हैं,

मायूस ऑंखें मजबूर हो सबको दुनिया से विदा होते देखती रह गयी ||

 

याद कर सबको बरबस आँखों से हर कभी आंसू निकल आते हैं,

दिल में ख्याल आता है सेवा में हमसे बहुत कमी रह गयी थी||

 

थोड़ी सेवा और कर लेते, ना करने की भी कोई मजबूरी ना थी,

काश! इलाज और करा लेते, पैसे की भी कोई कमी ना थी ||

 

मगर ये सब बातें अब अक्सर रोज दिल को कचोटती है,

माफ़ करना ऐसा कुछ ना करने की कोई भावना हमारी नहीं थी ||

 

आप सबसे एक ही विनती, माफ़ी स्वीकार कर लीजिए हमारी,

चाहे जो सजा दे देना पर चरणों में अपने ही हमें जगह देना ||

 

हम अंश आपके बुद्धिहीन नादान, माफ़ी के हरगिज नहीं हकदार,

रह गयी बहुत सेवा में कमी, नादान समझ हमें माफ़ कर देना ||

 

ना जाने सांसरिक जीवन में क्यों ऐसी कमियां रह जाती,

हाथ जोड़ विनती करते,  हम भटकों को सही राह दिखा देना ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विवाह – – मन तेरे संग उड़ान पर ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक सार्थक एवं  भावप्रवण कविता  विवाह – – मन तेरे संग उड़ान पर इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  विवाह – – मन तेरे संग उड़ान पर ☆ 

विवाह बंधन—जीवन का अलिखित आलेख

पवित्र संस्कार सात जन्मों का

निरंकुश संबंधों पर उजास प्रतिबद्धता का

एक दिशांकन रिश्तों की गरिमा का

 

पवित्र अग्नि – – संग संग सात फेरे

विश्वासों की पावन परिधि में मानस प्रतिज्ञा

सात वचनों की वचनबद्धता

दायित्व अधिकार और कर्तव्य की द्विपक्षीय

भावुक अपेक्षा की अभिनंदनीयता

 

विवाह मात्र मन की उड़ान नहीं

सतरंगी सपनों की अगवानी नहीं

सारा गगनांगन मंडप और जग बराती नहीं

विवाह

रिश्तों संबंधों का सबसे तुल्य मंचन

मर्यादाओं का संज्ञान

हर सांस में जीवित विश्वास की अनुगुंजन

 

बिंदिया चूड़ियाँ, नथ मटरमाला मंगलसूत्र

हाथ की रेखाओं में गहरे तक दमकते हैं।

 महावर बिछिया पायल पैरों से

देहरी पुजवाते—मन की उड़ान थामते

 

चलें – –  साथी धवल चंद्र रश्मियां ढूंढे

हिम चोटियों से मन की बात करें

शांत स्निग्ध सौम्य सागर छलकांएं

विवाह बंधन के अलिखित संविधान

की अनुगूंज सुनें–गुनें

 

उगते सूरज की सिंदूरी लाली से

डूबते मार्तण्ड का ईतिवृत्  सुनें

जीवन पथ का सफर साथ गुनगुनाते

प्रयाण बेला चुनें

चलो साथी—चलें उडान भरें

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 44 ☆ वो लड़की ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “वो लड़की”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 44 ☆

☆ वो लड़की ☆

 

फाइलों के ढेर के बीच

अचानक याद आ गयी मुझे वो लड़की

जो थी

कुछ शर्मीली सी,

कुछ डरी-डरी सी,

कुछ घबराई हुई;

जिसकी आँखों में

रंग भरे हज़ारों ख्वाब सजते थे

और जो सोचती थी

कि इतनी ऊंची होगी उसकी उड़ान एक दिन

कि वो भूल जायेगी डर और घबराहट…

 

जिसकी आँखों में रौशनी न हो

वो जिस तरह जिंदगी को टटोलता है,

कुछ उसी तरह वो भी

अपने ख़्वाबों को टटोलती-

कहाँ उसके पास कोई दौलत थी

इन ख़्वाबों के अलावा?

 

उड़ान तो बहुत ऊंची नहीं थी,

पर वो लड़की कतरा-कतरा इकठ्ठा करती हुई,

कुछ लड़ती हुई, कुछ जूझती हुई,

एक ऐसे मुकाम पर जरूर पहुँच गयी

जहां नहीं बसते अब

उसकी आँखों में डर और घबराहट!

 

अब जब भी मन हार मानने लगता है

और लगता है दर्द बसेरा बना लेगा मेरे आँगन में,

मैं फिर बन जाती हूँ वही छोटी लड़की

और फिर उड़ने लगती हूँ

ख़्वाबों के सहारे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विधाता* ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ विधाता

 

उस कलमकार ने

कलम उठाई,

खींच दी रेखा

मेरे होने और

न होने के बीच,

अब उसने

मुझे कलम थमाई,

मैंने टाँक दिए शब्द

उस रेखा पर,

लक्ष्मणरेखा,

शिरोरेखा बन कर

समा गई शब्दों में..,

वह कलमकार अब

आश्चर्य से देख रहा था

शब्दों में छिपा

विराट रूप

और अनुभव कर रहा था-

उसकी सृष्टि से परे

सृष्टि और भी हैं,

विधाता और भी हैं..!

 

©  संजय भारद्वाज

7.7.19  रात्रि 8.18 बजे,

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 22 ☆ कविता – जीवन – एक रियलिटी शो ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “जीवन – एक रियलिटी शो”।  यह कविता  रियलिटी शो अमूल स्टार वाइस ऑफ इण्डिया के विजेता स्व. इशमित सिंह की अकाल मृत्यु पर श्रद्धांजलि स्वरुप  2008 में लिखी थी जो आज भी प्रासंगिक लगती है। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 22

☆ जीवन – एक रियलिटी शो ☆

जीवन

एक रियलिटी शो ही तो है।

 

हम आते हैं

जीवन के मंच पर।

कोशिश करते हैं

जीतने की।

अक्सर,

कुछेक आशावादी

जीत भी जाते हैं

और

ज्यादातर हार जाते हैं।

 

फिर कुछ हो जाते हैं –

निराशावादी

कुछ कर लेते है समझौता

समय से

परिस्थितियों से।

 

विजयी जीत को मान लेता है

परिश्रम का फल

और

शेष मान लेते है

अपनी नियति

अथवा

कर्मों का फल।

 

सब में है प्रतिभा

कुछ प्रदर्शित कर पाते हैं

कुछ नहीं कर पाते।

 

हमारे अपने

सदैव भेजते हैं

प्रार्थना के रूप में एस एम एस

ईश्वर को।

कभी-कभी हमारे अच्छे कर्म

बन जाते है एस एम एस

हमारे लिये।

 

जब कभी देखता हूँ

मंच पर

मंच का रियलिटी शो

तो लगता है कि

कुछ भी तो अन्तर नहीं है

मंच और जीवन में।

 

वैसे ही

जीतने की खुशी

और

खुशी के आँसू।

 

हारने का गम

और

दुख के आँसू।

 

संवेदनशील मंच

गलाकाट प्रतियोगिता।

किन्तु,

ऐसा क्यों होता है?

क्यों होता है

जीवन का रियलिटी शो

इस बिखरी हुई कविता की तरह ?

 

दुख के क्षण

खुशी के क्षणों से

लम्बे क्यों होते है?

अंधकार से पूर्व

प्रकाश क्यो होता है?

और

दीप के बुझने के पूर्व

लौ तेज क्यों हो जाती है?

और

शेष रह जाती हैं

स्मृतियां

बुझे हुए दीप के धुयें की तरह

जो

धीरे-धीरे हो जायेंगी विलीन

समय की गोद में।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

28 जुलाई 2008

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 57 – झूम -झूम जब सावन  आए …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर समसामयिक गीत   “झूम -झूम जब सावन  आए ….।  श्रवण मास हो और  सावन के गीत न हों यह संभव ही नहीं है। लॉक डाउन एवं मन के द्वार में अद्भुत सामंजस्य बन पड़ा है। ह्रदय से लेकर प्रकृति का अतिसुन्दर चित्रण। इस सर्वोत्कृष्ट  सावन के गीत के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 57 ☆

☆ झूम -झूम जब सावन  आए ….

 

झूम -झूम जब सावन  आए,

मन प्रसन्न हो गुन- गुन गाए।

झूमे उपवन की हर डाली,

जीव- जन्तु जन-मन मुस्काए।

 

नभ में प्यारी लाली छाई

भोर  घटा  फिर घिर -घिर आई।

धरती पर मनहर सुंदरता ,

अंबर ने  फिर यूँ बरसाई।

 

तरुवर को नव पात मिले हैं,

कली फूल बनकर मुस्काए।

 

कृषक खेत को हो मतवाले,

चले,स्वप्न अंतर् में पाले।

बैलों की घण्टी के स्वर भी,

लगते सबको बड़े निराले।

 

उछल; कूद करते सब बच्चे,

ज्यों खुशियों के नव पर पाए।

 

सनन -सनन चलती पुरवाई,

तन -मन  लेता है अँगड़ाई।

ले नदिया का नीर हिलोरे,

बढ़ती है जल की गहराई।

 

मुदित हुआ गोरी का आँचल,

संग संग पुरवा लहराए।

 

सावन की है बात निराली ,

मोह रही मन ऋतु मतवाली ।

पिया -मिलन  मधु सरगम छेड़े ,

चितवन हाला की ज्यों प्याली।

 

कर शृंगार सजी  है धरती,

रूप निरख मन अति हरषाये।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आज़ाद ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता आज़ाद।  इस  कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – आज़ाद  ☆ 

आज़ाद… आज़ाद…आज़ाद…

स्वतंत्र….हम स्वतंत्र…स्वतंत्र…

गूँज उठा एक स्वर भारत में,

मनाई होली, दिवाली………

 

फ़टे-चिथड़ों में लिपटी लड़की,

बहा रही आँसू कभी हँस रही,

कभी रुदन तो कभी ज़ोर से ठहाके,

पूछ रही स्वतंत्रता का अर्थ,

 

कह रही रोते-रोते नहीं हुए स्वतंत्र,

है आज भी हम परतंत्र,

कर रहे गुलामी आज भी,

भरा है दुःख उसके ह्रदय में,

 

आज़ाद मात्र हुआ भारत,

भारत कभी था गुलाम,

काले-गोरे का भेद किया,

कुचले गये पैरों तले,

 

हुए परेशां जाति-धर्म के नाम पर,

हुई गुस्ताखी सत्ता के ठेकेदारों से,

हुई लड़ाई भाई-भाई के बीच,

और कहते रह गये ’हम स्वतंत्र’,

 

अबला नहीं सबला है नारी,

कहते-कहते थक गई नारी,

दर असल आज भी है अबला,

आज भी चाहिए उसे सहारा,

 

पहले मात्र था दुश्मन अंग्रेज़,

आज बना दुश्मन संसार,

आज रच रहा महाभारत,

हर घर में, हर गली में,

 

भ्रष्टाचार, आतंकवाद से भरा देश,

बम फूटने का डर तो कभी………

कभी अत्याचार का खौफ़,

लोकतंत्र, प्रजातंत्र मात्र रह गये,

 

पद के लिए हुए अनेक दुश्मन,

दरारें खड़ी हुई भाई-भाई के बीच,

हुए खून के प्यासे हिन्दू-मुसलमान,

जान देते थे कभी एक-दूसरे के लिए,

 

इन्सान के लहू का रंग एक,

ईश्वर- अल्लाह नाम एक,

फिर भी क्यों बैर?

रंजिशें हो रहीं खुले आम,

 

हो रहा अत्याचार देश में,

देश को आज़ाद करने के लिए,

दिये बलिदान वीरों ने,

क्षणभंगुर किया कुछ ठेकेदारों ने,

 

अखण्ड भारत को किया खण्डित

जातिवाद, आरक्षण और धर्मवाद,

किए दुकड़े भारत के अनेक,

हुई बुद्धि भ्रमित इन्सान की,

 

घोर कलियुग आया है,

हम कहते आये है,

है हम स्वतंत्र, स्वतंत्र…..

क्या यही है परिभाषा,

 

बंद करो लड़ना आपस में,

मत बन खिलौना किसी का,

आज़ादी का समझ सही अर्थ,

इन्सान बन विचारों से स्वतंत्र,

 

मत कर शोषण दुर्बल का,

दूर कर बेरोजगारी दे सहारा,

बलात्कार, हत्या, मर्मान्त पीड़ा,

सारे बुरे कर्मो को दूर कर,

 

हिंसा छोड अहिंसा को अपनाओ,

बुद्ध और गांधीजी को ह्रदय से अपनाओ,

उन्नति की राह पर चलकर सहायक बनो,

विलासिता त्याग श्रम को अपनाओ,

 

स्वावलंबन को ही अपनी पूँजी बनाओ,

मत बदलो मात्र पहनावे को,

अपने विचारों से बदलो दुनिया को,

आत्मगौरव बने तुम्हारी जिंदगी,

 

आदर, सम्मान करना है औरत का,

नया इतिहास तुम्हें रचना है,

बढ़ना है आगे विकसित राष्ट्र में

समझो अर्थ आज़ादी का,

 

चिल्लाना नहीं बाज़ार में,

आज़ाद…स्वतंत्र…स्वतंत्र,

होकर सही अर्थों में स्वतंत्र,

समझाना लोगों को परिभाषा,

 

कर माँ का सम्मान,

दूध का कर्ज है चुकाना,

आज तुम्हें आगे बढ़ना,

अपनों का हाथ थामना।

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – प्रार्थना के स्वर ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे  प्रार्थना के स्वर। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – प्रार्थना के स्वर ✍

 

भाव संपदा हो घनी, हो चरणों की चाह।

शब्द ब्रह्म आराधना, घटे नहीं उत्साह।।

 

करुण, वीर ,वात्सल्य रस ,श्रंगारिक रसराज।

रस की हो परिपूर्णता, माने रसिक समाज।।

 

सत शिव -सुंदर काव्य ही,मौलिक रचे रचाव।

नयन प्रतीक्षा में निरत ,हार्दिक रहे प्रभाव।।

 

रस ही जीवन प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन ।

पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन ।।

 

प्रथम वर्ण उपचार से, रचता रंग विधान।

प्रेम रंग में जो रंगी, उसको खोजे प्राण।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

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