डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य / कविता ” एक मिनट की देरी से / कविता “. इस रचना के माध्यम से डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी ने रेलानुभव व्यंग्य एवं कविता के साथ अपनी मौलिक शैली में बड़ी बेबाकी से किया है। )
☆ व्यंग्य / कविता – एक मिनट की देरी से / एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆
अभी-अभी वर्तमान में बहुमूल्य शिक्षा की काशी कहे जाने वाले (केवल शिक्षा के कारोबारियों/ माफियाओं द्वारा) कोटा जंक्शन के प्रतीक्षालय में बैठा हुआ सुखद आश्चर्य से भर उठा हूँ। एक उद्घोषणा हुई है कि एक ट्रेन( इन्दौर जोधपुर एक्सप्रेस )पूरे एक मिनट की देरी से चल रही है और उसके लिए उद्घोषिका को खेद भी है।अभी कान चौकन्ने हैं कि कहीं घंटे को मिनट तो नहीं बोला गया है या फिर मैंने ही गलत तो नहीं सुन लिया है।
जिस दिन की प्रतीक्षा थी आखिर वह दिन आ ही गया कि जब रेलवे ने भी समय की कीमत पहचानी।यह लिखते-लिखते वही स्वर पुन:कानों तक आंशिक परिवर्तन के साथ पहुँच रहा है कि वही ट्रेन पूरे सात मिनट लेट हो चुकी है।दूसरी उद्घोषणा से मिनट और घंटे में भ्रम की गुंजाइश भी खत्म हो चुकी है।
अब आश्वस्त हूँ कि विद्याबालन वाली यह बात कि ‘जहाँ सोच वहाँ शौचालय’ के बाद से आए सोच में परिवर्तन के कारण जैसे हर ग्रामीण के घर में शौचालय हो गया है और वे घर में ही उत्पादन और निष्पादन सब कुछ कर पाने में सक्षम हुए हैं।बस जुत्ताई-बुआई केलिए ही बाहर जाना पड़ता है।अब सोच बदला है वह भी किसी खूबसूरत अदाकारा के कहने से तो क्या नहीं संभव है!कल को रोबोट और रिमोट से फसल बो भी जाएगी और कट के घर भी आ जाएगी।वैसे ही बिना ड्राइवर के हर ट्रेन समय पर चलेगी।
इस संदर्भ में की गई हिंदी व अंग्रेजी की उद्घोषणा को मिला लें तो कुल छह उद् घोषणाएँ हो चुकी हैं और सभी में हमें हुई असुविधा के लिए खेद व्यक्त किया गया है।
लगे हाथ एक और सुखद सूचना कि हमारी देहरादून से कोटा वाली ट्रेन बिफोर टाइम (पूरा आधा घन्टा पहले) ही कोटा जंक्शन पर लग गई थी।मैंने एहतियातन दो टिकट कर रखे थे(भारतीय रेल संबंधी अपनीभ्रांत धारणा वश)एक एसी और एक स्लीपर(बस कुछ समय कमी और कुछ आलस बस सामान्य टिकट लेना ही शेष था।) और दोनों कन्फर्म होकर हमारे संदेश पिटक से झाँक-झाँक कर हमें मुँह चिढ़ा रहे हैं।मैं उनके अंतर्निहित अर्थ भी समझ रहा हूँ कि,’और न कर भरोसा भारतीय रेल पर।अगर यही पाप करता रहा तो आगे भी भोगेगा।’
अभी-अभी उसी ट्रेन 12465 इन्दौर-जोधपुर एक्सप्रेस की उद् घोषणा हुई है कि वह अब भी सात मिनट की ही देरी से चल रही है और इस विश्वास के साथ हुई है कि कुछ कसर रहेगी तो शर्म के मारे शेष दूरी हांफ – हूँफ कर दौड़ के कवर कर लेगी।
अब वह यानी12465 संयान(ट्रेन)ठीक12:39 पर )अपने स्थानक(प्लेटफॉर्म)क्रमांक1पर लग चुकी है।अब तो पूरा भरोसा हो चला है कि जैसे-जैसे स्टेशनों की पटरियों के अंतराल से मल दूर हो रहा है वैसे-वैसे हमारा रेल की स्वच्छता के प्रति विश्वास भी बढ़ रहा है।यही समय के लिए भी लागू होगा।लेकिन मुझे चिंता इस बात की है कि यदि कहीं भारतीय रेल जनरल बोगियों के प्रति भी जाग गई तो मेरी उस कविता का क्या होगा जो किसी सर्द रात के जनरल डिब्बे की यात्रा- सहचरी रही है।
अब मैं इस रेल कथा काअपनी उसी रेलानुभव वाली कविता के साथ यह कहते हुए उद्यापन करना चाहूँगा कि जैसे रेल के ‘दिन बहुरे’ सब विभागों के बहुरें।अब बिना किसी देरी और खेद व्यक्त किए वह कविता (इस घोषणा के बाद जिसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है) बेज़रूरत आप पर लाद रहा हूँ-
☆ एक सर्द रात की रेल यात्रा ☆
एक सर्द रात की रेलयात्रा
करते हुए
भीड़ का सुख भोगा
परस्पर सटे तन
सुख दे रहे थे
मेरी तरह और भी दस-पांच
(बैठने की जगह
पाए लोग)
स्वर्ग में थे
बाकी टेढ़ी-मेढ़ी मुंडियों के साथ
लार की कर्मनाशा बहाते
स्वर्ग-नर्क के बीच
झूला झूल रहे थे
अचानक लगा कि
लोग अपने स्वभाव के प्रतिकूल
जागरूक हो गए हैं
और
मारकाट में फँसकर
जैसे भाग रहे हों बदहवास
नींद ऐसे टूटी कि जैसे
अभी-अभी हमारी नींद पर से ही
गुज़री हो
मालगाड़ी धड़धड़ाते हुए
हम सुपरफास्ट में बैठे-बैठे
उबासी ले रहे हैं
आखिरकार
झाँक ही लेते हैं मुण्डी लटकाकर
उत्सुकतावश
लोग बताते हैं
‘मालगाड़ी के गुज़रने से
पूरे एक घंटे पहले से
खड़ी है
जस की तस,ठस की ठस
निकम्मी मनहूस
हाँ,
बीच-बीच में गैस छोड़ कर
अपने ज़िंदा रहने का सबूत
ज़रूर दे देती है
कुर्सियों पर लदी
चौराहों पर अलाव तापती
मुर्दहिया पुलिस की तरह
तन-मन से जर्जर
बूढ़ों की तरह
ठंडी आह भी भर लेती है
यदा-कदा
ऐसे में,
ठहरी हुई ज़िंदगी से भी
सर्द लगती है
अपनी यह सवारी गाड़ी
सड़ही सुपरफास्ट?
या तो माल बहुत मँहगा हो गया है
या फिर,
इंसान इतना सस्ता
कि
चाहे जहाँ मर खप जाए
कोई नहीं लेता खबर
उसके सड़ने से पहले
ज़िंदा हो तब भी
जब चाहो,जहाँ चाहो
उसे रोक लो,उतार दो, धकिया दो,
मौका लगे थपड़िया दो
कभी-कभी बिना बेल्ट,
बिल्ले और डंडे के भी
बंदूक तो बहुत बड़ी चीज़ होती है
आम आदमी तो सींक से
और,
कभी-कभी तो छींक से भी
काँप उठता है
शायद सब व्यवस्थापक
यह भाँप गये हैं कि-
इनमें से कोई उठापटक करेगा भी तो
अपनी ही बर्थ या सीट
या ठसाठस भरे जनरल कोच की
गैलरी से लेकर-
शौचालय तक,
अपना ही साथ छोड़ रही
दाईं या बाईं टाँग पर
काँख-कूँख के खड़ा रहेगा
या लद्द से बैठ जाएगा
या फिर,
अपनी ही टाँगों की
अदला-बदली कर लेगा
या यह भी हो सकता है कि
गंदे रूमाल से नाक साँद
साँस लेने के बहाने
उतर कर बैठ जाए
बगल वाली पटरी पर,
मूँगफली के साथ समय को फोड़े
बीड़ी सुलगाए, पुड़िया फ़ाड़
मसाला फ़ाँके, तंबाकू पीटे,
सिग्नल झाँके
(नज़र की कमजोरी के कारण)
तड़ाक से उठे
फिर सट्ट से बैठ जाए
यों ही हज़ारों हज़ार कान
तरसतें रहें हार्न को
पर,
गुरुत्त्वाकर्षण से चिपकी रहे पहिया
पटरी से
गर्द-गुबार भरे
दो-चार कानों पर
नही रेंगे जूँ तो नही ही रेंगे
पहले भी
इसी तरह चलती रही है
हमारी व्यवस्था की रेलगाड़ी
अपने चमचमाते पहियों की
कर्णकटु खिर्र-खिर्र के साथ.
लेकिन,
फिर भी नहीं पालते झंझट
लोग,
नहीं उलझते अपने शुकून से
यहाँ तक कि
व्यवस्था भी नहीं चाहती छेड़ना
किसी के शुकून को।
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सूरत, गुजरात