हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 36 ☆ माटी से नाता रखें …… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक कविता  “माटी से नाता रखें ……”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 36 ☆

☆ माटी से नाता रखें ..... ☆

माटी की इस देह का, करते क्यों अभिमान

माटी में ही जा मिले, माटी की संतान

 

माटी से ही उपजते, हीरा मोती,लोह

सोना,चांदी जवाहर, रख माटी से मोह

 

रखी साथ वन गमन में , जन्म भूमि की धूल

सिखलाया प्रभु राम ने, कभी न भूलें मूल

 

पावन माटी देश की, जिस पर हों कुर्बान

माटी के सम्मान का, रखें हमेशा ध्यान

 

माटी में ही खेल कर, गाए मन के गीत

माटी चन्दन माथ का, रख माटी से प्रीत

 

माटी में ही मिल गए, क्या राजा क्या रंक

माटी की पहचान कर, माटी माँ का अंक

 

माटी की खातिर हुए, कितने वीर शहीद

माटी की पहिचान को, सकता कौन खरीद

 

होना सबका एक दिन, माटी में ही अंत

पहुचाती सबको वहाँ, जहाँ अनंतानंत

 

जीवन में गर चाहिए, सुख समृद्धि “संतोष”

माटी से नाता रखें,  माटी जीवन कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि  ☆  पुनर्पाठ – चुप्पियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  पुनर्पाठ – चुप्पियाँ

दस घंटे, चुप्पी और एक लघु कविता संग्रह का जन्म-

घटना 2018 की जन्माष्टमी की है। उस दिन मैंने लिखा,

“जन्माष्टमी का मंगल पर्व और माँ शारदा की अनुकंपा का दुग्ध-शर्करा योग आज जीवन में उतरा। कल रात लगभग 9 बजे ‘चुप्पी’ पर एक कविता ने जन्म लिया। फिर देर रात तक इसी विषय पर कुछ और कविताएँ भी जन्मीं। सुबह जगा तो इसी विषय की कविताओं के साथ। दोपहर तक कविताएँ निरंतर दस्तक देती रहीं, कागज़ पर जगह बनाती रहीं। रात के लगभग अढ़ाई घंटे और आज के सात, कुल जमा दस घंटे कह लीजिए सृजन के। इन दस घंटों में ‘चुप्पी’ पर चौंतीस कविताएँ अवतरित हुईं। इससे पहले भी अनेक बार कई कविताओं की एक साथ आमद होती रही है। एक ही विषय पर अनेक कविताएँ एक साथ भी आती रही हैं। अलबत्ता एक विषय पर एक साथ इतनी कविताएँ पहली बार जन्मीं। एक लघु कविता संग्रह ही तैयार हो गया। ज्ञानदेवी माँ सरस्वती और सर्वकलाओं के अधिष्ठाता योगेश्वर श्रीकृष्ण के प्रति नतमस्तक हूँ।”

‘चुप्पियाँ’ क्षितिज प्रकाशन के पास प्रकाशनार्थ है। लॉकडाउन खुलने के बाद संग्रह आएगा।

आज से प्रतिदिन इस विषय पर दो रचनाएँ साझा करूँगा।  समय निकाल कर  पढ़िए इन रचनाओं को और अपनी राय अवश्य दीजिए।

☆ चुप्पियाँ – 1

वे निरंतर

कोंच रहे हैं मुझे,

……लिखो!

मैं चुप हो गया हूँ..,

अपनी सुविधा

में ढालकर,

मेरे लेखन की

शक्ल देकर,

अब बाज़ार में

चस्पा की जा रही है

मेरी चुप्पी..,

बाज़ार में मची धूम पर

क्या कहूँ दोस्तो,

मैं सचमुच चुप हूँ!

(1.9.18, रात 8.59 बजे)

☆ चुप्पियाँ – 2

मेरे भीतर जम रही हैं

चुप्पी की परतें,

मेरे भीतर बन रही है

एक मोटी-सी चादर,

मैं मुटा रहा हूँ…,

आलोचक इसे

खाल का मोटा होना

कह सकते हैं..,

कुछ अवसरसाधु

इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं,

मैं चुप हूँ, डरता हूँ

कहीं पिघल न जाए चुप्पी

इसके लावे की जद में

आ न जाएँ सारे आलोचक,

सारे अवसर साधु,

विनाश की कीमत पर

सृजन नहीं चाहता मैं!

 

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।

1.9.18, रात 9:56 बजे

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 26 ☆ तुम भारत हो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर रचना  “तुम भारत हो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 26 ☆

☆ तुम भारत हो ☆

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

खगकुल का वंदन है देखे

अब भोर हँसे

स्व शांत चित्त ये सागर भी

मन मोर बसे

प्रियवर के  अनगिन हैं मोती

चिर जीव रसे

 

पवन सुखद है तरुणाई

सुंदर वरणम

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

है अतुल सिंधु पावन बेला में

प्रीत बिंदु

अब अपना स्व लगता है

मीत बन्धु

मनवा ने छोड़े द्वंद्व

रच रहा नए छंद

 

प्राची में है लाली छाई

कमलम अरुणम

तुम भारत हो पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

दृग में चिंतन, उर में मंथन

है अब आया

ये धरा बनी कुंदन चन्दन

है मन भाया

है वंदन करती पोर-पोर

खिलती काया

 

है सत चित भी अब

आनन्दम करुणम

तुम भारत ही पहचान करो

खुद की खुद में

बुद्धम शरणम

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 46 – समय के साथ……. ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  आपकी एक कालजयी रचना समय के साथ…….। डॉ सुरेश कुशवाहा जी का यह गीत दो वर्ष पूर्व लिखा गया था किन्तु , उसकी सामयिकता का अनुमान आप स्वयं पढ़ कर ही लगा सकते हैं। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 46 ☆

☆ समय के साथ……. ☆  

परिवर्तन  की  पीड़ाओं  को,

आत्मसात यदि नहीं किया तो

नवागमित खुशियों से हम, वंचित रह जाएंगे।

 

खंडित होते  संस्कारों में

मन रखने के व्यवहारों में

कितनी सांसें ले पाएंगे

केवल नकली उपचारों में।

इन  स्वच्छंद हवाओं से

सौहार्द, समन्वय नहीं किया तो

निरंकुशी मौसम के वार, न फिर सह पाएंगे…..।

 

सरिता के प्रतिमुख प्रवाह में

तेज  हवा  के इस  बहाव में

कितने पग हम चल पाएंगे

जीवन की इस जीर्ण नाव में,

अवरोधों  को  हृदयंगम  कर,

साथ समय का नहीं दिया तो

पार पहुंचने को अब, उतना तैर न पाएंगे…..।

 

संशय रहित सुखद सपना हो

चिंतित मन जब भी अपना हो

सम्यक चिंतन दूर करे भ्रम

विश्वासों  की  संरचना  हो,

यदि  उद्विग्न, उदास-श्वांस

समिधा से हमने हवन किया तो

वातायन को फिर कैसे, पावन कर पाएंगे…..।

 

लक्ष्य स्वयं ही तय करना है

दीप  कई  पथ  में  धरना है

नेह नीर सूखने नहीं दें

जीवन यह अक्षय  झरना है,

यदि बीजों को नहीं सहेजा,

प्रकृति का प्रतिकार किया तो

पाया जो जग से फिर क्या, वापस कर पाएंगे…..।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – पाखंड ☆

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ

नगण्य का अगणित करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा

आदमी का मुखौटा जड़े  पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

# नियमों का पालन करें। स्वस्थ एवं सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

3.5.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆ कविता – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और  मौलिक कविता जैसा बोया  काटा कहते हैं……  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस कविता के माध्यम से  वयोवृद्ध पीढ़ी के प्रति  युवा पीढ़ी को अपनी धारणा  परिवर्तन हेतु प्रेरित करने का प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 24 ☆

☆ कविता  – जैसा बोया  काटा कहते हैं…… ☆

 

लड़खड़ाती जिंदगी को थामकर तो देखिए

सूख गया सावन जो सींचकर तो देखिए

 

खीज भी उतारें न कठोरता रखे  नहीं

लाड़ प्यार  इनपर लुटाकर तो देखिए

 

ऊँगली पकड़ इनसे चलना है सीखा

काँधे पै दोनों हाथ धरा कर तो देखिए

 

बचपन, जवानी, बुढ़ापा अभी छा गया

तनिक मीठी  बात बोलकर तो देखिए

 

जैसा बोया  काटा कहते हैं  आप हम

खुशी पायें आप जुगत लगाकर तो  देखिए

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विशेषज्ञ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – विशेषज्ञ ☆

 

विशेषज्ञ हूँ,

तीन भुजाएँ खींचता हूँ

तीन कोण बनाता हूँ,

तब त्रिभुज नाम दे पाता हूँ..,

तुम क्या करते हो कविवर?

विशेष कुछ नहीं

बस, त्रिभुज में

चौथा कोण देख पाता हूँ..!

 

# कृपया घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

अपराह्न 1:15 बजे 2.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता तुम्हारी ☆ श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

( श्री भगवान् वैद्य ‘ प्रखर ‘ जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी एवं मराठी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपका संक्षिप्त परिचय ही आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचायक है।

संक्षिप्त परिचय : 4 व्यंग्य संग्रह, 3 कहानी संग्रह, 2 कविता संग्रह, 2 लघुकथा संग्रह, मराठी से हिन्दी में 6 पुस्तकों तथा 30 कहानियाँ, कुछ लेख, कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। हिन्दी की राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधाओं की 1000 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। आकाशवाणी से छह नाटक तथा अनेक रचनाएँ प्रसारित
पुरस्कार-सम्मान : भारत सरकार द्वारा ‘हिंदीतर-भाषी हिन्दी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार’, महाराष्ट्र राजी हिन्दी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा कहानी संग्रहों पर 2 बार ‘मूषी प्रेमचंद पुरस्कार’, काव्य-संग्रह के लिए ‘संत नामदेव पुरस्कार’ अनुवाद के लिए ‘मामा वारेरकर पुरस्कार’, डॉ राम मनोहर त्रिपाठी फ़ेलोशिप। किताबघर, नई दिल्ली द्वारा लघुकथा के लिए अखिल भारतीय ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018’

हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ जी  द्वारा सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  की एक भावप्रवण मराठी कविता कविता तुझी’ का  हिंदी भावानुवाद ‘कविता तुम्हारी’  जिसे हम आज के ही अंक में  ही प्रकाशित कर रहे हैं।

☆ कविता तुम्हारी ☆

यह कविता तुम्हारी

तुम्हारे लिए

सामने बरसता धुआंधार पानी

सम्पुष्ट कर रहा है

रोम रोम में बोया गया

तुम्हारा स्पर्श…

घर ने कब का नकार दिया मुझे

मंदीर भी नहीं कोई निगाह में

या कोई धर्मशाला,जर्जर ही सही

 

नीला आकाश

रूठकर दूर चला गया है मुझसे

धूप का छोटा-सा टुकडा भी नहीं

उष्मा के लिए

इस दिशाहीन सफर में साथ है

तुम्हारी अनगिनत यादें

और…अब…

उन की छितरी हुई कविताएं….

 

श्री भगवान् वैद्य ‘प्रखर’ 

30 गुरुछाया कॉलोनी, साईं नगर अमरावती – 444 607

मोबाइल 8971063051

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सत्य ☆

परम सत्य,

शाश्वत सत्य,

अंतिम सत्य,

अपना पांडित्य

अपने को छलता रहा,

बिना किसी विशेषण के

सत्य अपनी राह चलता रहा।

 

# कृपया घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

 रात्रि 1.43 बजे, 29.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ अनकहा प्रेम / Untold Love – सुश्री निर्देश निधि ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

Captain Pravin Raghuvanshi ji  is not only proficient in Hindi and English, but also has a strong presence in Urdu and Sanskrit.   We present an English Version of Ms. Nirdesh Nidhi’s  Classical Poetry  अनकहा  प्रेम  with title  “Untold Love” .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

आपसे अनुरोध है कि आप इस रचना को हिंदी और अंग्रेज़ी में  आत्मसात करें। इस कविता को अपने प्रबुद्ध मित्र पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनकी प्रतिक्रिया से  इस कविता की मूल लेखिका सुश्री निर्देश निधि जी एवं अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी को अवश्य अवगत कराएँ.

 

सुश्री निर्देश निधि

 ☆ अनकहा प्रेम ☆ 

रजबहे के साथ लगी,

उस टूटी पुलिया से भी

हो गया है प्रेम मुझे

खड़े रहकर जिस पर

प्रतीक्षा करते हो तुम घंटों

मुझसे क्षणिक मिलन की

मेरी साइकिल के पहिए भी तो जैसे

खोने लगते हैं वृत्त अपना

होकर, चौकोर

हो जाना चाहते हैं स्थिर

ठीक सामने तुम्हारे

टूटी पुलिया वाले उस मोड़ पर

तुम्हारे सांकेतिक चुंबन की दहक से

पिघल सी जाती है

मेरी सांवली देह उस पल

बागड़ियों की भट्टी में धधकते लौहसी

जिसे महसूस करते होगे

तुम जरूर अपनी देह पर

ढलकते हुए देर तलक

इस अनकहे, स्थायित्व भरे

प्रेम के भार से झुकी तुम्हारी दृष्टि

जिसे पर थोड़ा सा भार सौंपती हूं मैं

अपनी दृष्टि के गुरुत्व से

मेरी छुअन लेकर

तुम्हारे तन से टकराई

बौराई पवन से बढ़ती तुम्हारी धड़कन

अपने सीने में जस की तस सुनती हूं मैं,

सुनो,

जो तुम साथ दो तो

माद्दा रखती हूं मैं

अपने इस अनछुए, अपूर्ण,

अनकहे, कमनीय प्रेम को पूर्णता देने का

धता बताकर सभी

आप-खाप पंचायतों की,

सतर्क पहरेदारी को।

 

© निर्देश निधि

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 ☆ Untold Love…☆

I’ve fallen in love

with the broken culvert too,

situated alongside the canal,

standing on which,

you would wait for hours,

for a momentary meeting with me…!

 

Even the round wheels of my bicycle

would begin to lose their

shape to the square ones

to become stationary,

right in front of you

at that turn near

the  broken culvert…!

 

The flame of your

symbolic kiss would melt

my dusky body

like the molten lava

of  blazing volcano

Which you must also

be experiencing, rolling down

on your body, endlessly…!

 

Your unspoken, lasting,

lovelorn glance

Bowing further

laden with the gravitational

pull of my gaze…!

 

The maddening wind,

fragrant after caressing me,

Would be smacking your body,

Your heartbeats,

rising uncontrollably

in your chest,

which I could hear explicitly, as it is…!

 

Listen, if you commit

to be with  me

I’ve the courage to manifest

the completeness of our

this untouched, incomplete,

untold, enticing love,

and defy the vigilant watchfulness of

all the  community sentinels,

like Aap-Khap Panchayats!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

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