कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं साहित्यकार श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे जी की कालजयी कविता “कैसे कह दूँ…?” का अंग्रेजी भावानुवाद “How can I say ?” ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है।
भावनुवादों में ऐसे प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं।
आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को परिचित कराएँ।
श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे जी न सिर्फ एक अर्थशास्त्र की ज्ञाता हैं, अपितु साहित्य के क्षेत्र में भी एक उच्च कोटि की रचनाकार हैं। पठन-पाठन में आरम्भ से ही उनकी रुचि रही है । एक कवियत्री के रूप में उनकी रचनायें कल्पना की उड़ान भरते हुए मानवीय संवेदनाओं के चरम को छूते हुए पाठक को भीतर तक झकझोर कर रख देती हैं। वे चार वर्षों तक विश्व गाथा नामक पत्रिका से जुड़ी रहीं। अपने विचारों को काव्य स्वरुप में परिवर्तित करने की अपार क्षमता की स्वामिनी, मंजुला जी के शब्द हृदय को छू जाते हैं। प्रस्तुत है उनकी एक भावपूर्ण रचना… *कैसे कह दूँ…*
☆ श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे जीकी मूल कालजयी रचना – कैसे कह दूँ… ☆
कैसे कह दूं. स्वप्न विपुल हैं
पर कोई संसार नहीं है ।
प्रेम पूर्ण इस जीव जगत से.
कैसे कह दूं प्यार नहीं है ।
मन चंचल और विमल अभीप्सा,
अंतःकरण सदा अनुरागी ।
महके उपवन. औे’ नंदनवन,
खिलें प्रीति के सुमन गुलाबी ।
यूं समझूं अब अर्थ प्रेम का
है संकोच कहां स्वीकारूं ।
वनमाली की इस बगिया को.
पुलकित हो कर नित्य निहारूं ।
☆ English Version of Classical Poem of Shrimati Manjula Argare Shinde ☆
☆ “How can I say ? – by Captain Pravin Raghuwanshi ☆
How can I say that
dreams’re in abundance
But there is no physical
existence of them…
How can I ever say
that there is no
endearment of this
love-filled world…
Flickering mind and
translucent longings
Conscience, always
admiringly devoted…
Fragrant gardens, and the
Astral garden ‘Nandanvan’,
Blossom with myriad
hued roses of love…
Now, I understand the
true meaning of love,
But, still hesitant
where to accept it…
Keep beholding the divine
garden constantly,
Being enamoured with
the ethereal gardener…!
© Captain Pravin Raghuvanshi, NM