हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हमतुम ****    हम        तुम    ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक भावप्रवण कविता  हमतुम ****    हम        तुम    )

 

हमतुम ****    हम        तुम   

हम तुम—

क्या सिर्फ एक “संज्ञा” बन गये हैं

व्याकरण की सीमा से बंधा

एक परिचय मात्र?

नहीं – – – सुनों बहुत मेहनत की है

साथ साथ चलने—चलते रहने के लिए

बहुत सहनशीलता लगती है

मिले जुले– एक मंजिल पर पहुंचकर

सच होने वाले सपनों को

पाने में।

बहती सदानीरा सी जिंदगी को निर्मल

बनाए रखने में

सुनों – – हम तुम लगे रहे बरसों बरस

जिंदगी को जिंदगी बनाने में

फिर कैसे मान लें कि हम तुम

एक संज्ञा मात्र हैं—जीवन के व्याकरणों में

क्या सिर्फ इसलिए कि

जिंदगी कम पड़ रही है

रिश्तों को निभाने में

या—थक गये हैं रिश्तों को बनाए रखने

की जद्दोजहद में

चलो–बदल दें समीकरण

सौंप दें दायित्व

रिश्तों का रिश्तों पर

भूल जाएं आत्मांश की परिभाषा

भूल जाएं दुनियावी रिश्तों से भी

पूर्व रूहानी रिश्तों की आशा

बस – – बन जाएं “हम   तुम”

-सिर्फ सिर्फ – –

” हमतुम”

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “संसार”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆

☆ संसार ☆

 

संवाद

द्योतक रहे विचार के ,अपने यह संवाद

हों अक्सर संवाद बिन,जग से रोज विवाद

 

पेट

दौलत से धनवान का,कभी न भरता पेट

देते किंतु गरीब को,प्रतिदिन ही अलसेट

 

संसार

हम सब को प्यारा लगे,मायाबी संसार

धन दौलत में लिप्त हो,भूल गए आचार

 

उजियार

लड़ें तिमिर से सदा हम,मन में रख उजियार

तभी सफलता मिलेगी,समझो मेरे यार

 

नेपथ्य

जीवन के इस मंच पर,दिखे न पूरा सत्य

झूठ संवरता ही रहा,सत्य गया नेपथ्य

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – डी एन ए ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – डी एन ए

 

ये कलम से निकले

कागज़ पर उतरे

शब्द भर हो सकते हैं

तुम्हारे लिए…,

पर

मन, प्राण और देह का

डी एन ए हैं

मेरे लिए..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “वीर सुभाष कहाँ खो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ 

 

वीर सुभाष कहाँ खो गए

वंदेमातरम गा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

कतरा-कतरा लहू आपका

काम देश के आया था

इसीलिए ये आजादी का

झण्डा भी फहराया था

गोरों को भी छका-छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान मान करवाया था

 

सत्ता के भुखियारों को अब

कुछ तो सीख सिखा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

कितनी श्रद्धा से लेते

आज तो नेता कहने से ही

बीज घृणा के बो देते

वतन की नैया डूबे चाहे

अपनी नैया खे लेते

बने हुए सोने की मुर्गी

अंडे भी वैसे देते

 

नेता जैसे शब्द की आकर

अब तो लाज बचा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

जंग कहीं है काश्मीर की

और जला पूरा बंगाल

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक यहां होगा

नहीं हो सकें मीठे गान

 

जन्मों-जन्मों वीर सुभाष

सबमें ऐक्य करा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

लिखते-लिखते ये आँखें भी

शबनम यूँ हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखातीं हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएँ

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर-मर जाती हैं

 

देखो इस तसवीर को आकर

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 33 – नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित  माँ नर्मदा वंदना  “ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 33☆

☆ नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा ☆  

 

नर्मदा – नर्मदा, मातु श्री नर्मदा

सुंदरम, निर्मलं, मंगलम नर्मदा।

 

पूण्य  उद्गम  अमरकंट  से  है  हुआ

हो गए वे अमर,जिनने तुमको छुआ

मात्र दर्शन तेरे पुण्यदायी है माँ

तेरे आशीष हम पर रहे सर्वदा। नर्मदा—–

 

तेरे हर  एक कंकर में, शंकर बसे

तृप्त धरती,हरित खेत फसलें हंसे

नीर जल पान से, माँ के वरदान से

कुलकिनारों पे बिखरी, विविध संपदा। नर्मदा—–

 

स्नान से ध्यान से, भक्ति गुणगान से

उपनिषद, वेद शास्त्रों के, विज्ञान से

कर के तप साधना तेरे तट पे यहाँ

सिद्ध होते रहे हैं, मनीषी सदा। नर्मदा—–

 

धर्म ये है  हमारा, रखें स्वच्छता

हो प्रदूषण न माँ, दो हमें दक्षता

तेरी पावन छबि को बनाये रखें

दीप जन-जन के मन में तू दे मां जगा। नर्मदा—–

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ढाई आखर प्रेम का ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – ढाई आखर प्रेम का

(वैलेंटाइन डे’ के संदर्भ में  संजय उवाच के विशेष आख्यान- आमंत्रण से साभार)

प्रेम- जो एक सूत्र में संयुक्त करे।

प्रेम- जो बंधनों से मुक्त करे।

प्रेम- जिसमें परमानुभूति का वास है।

प्रेम- जिसमें परमानंद का निवास है।

प्रेम- निर्मल, उज्ज्वल, शुद्ध भावना है।

प्रेम- ईश्वर तक पहुँचने की संभावना है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भोजपुरी कविता – रोटी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  बदलते हुए ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक अतिसुन्दर भोजपुरी कविता – रोटी । इस रचना के सम्पादन के लिए हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं । )

(प्रत्येक रविवार श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली माई  –  दमयंती“ पढ़ना न भूलें)

☆ भोजपुरी कविता –  रोटी 

रोटी में जान हौ रोटी  में परान हौ,
 गरीबन के भूख मिटावत बा रोटी।
  लड़िका सयान हो या बुढ़वा जवान हो,
    सबके पेटे क आग बुझावत बा रोटी।
चाहे दाता हो, या भिखारी हो,
 चाहे  बड़कल अधिकारी हो
  या नामी-गिरामी नेता हो ,
    सबही के देखा नचावत हौ रोटी।
गेहूं क रोटी औ मडुआ क रोटी,
 बजड़ी क रोटी अ घासि क रोटी।
  रोटी के रूप अनेकन देखा,
    अपमान क रोटी त मान क रोटी।
रोटी खातिर रात दिन बुधई, किसानी करें,
 रोटी खातिर राजा-रंक घरे-घरे भरै पानी।
  नित नया इतिहास बनावत  हौ रोटी,
    भूखि क मतलब समझावत हवै रोटी।
देखा केहू सबके बांटत हौ रोटी,
 न केहू के तावा पर आंटत हौ रोटी ।
  रोटी की चाह में सुदामा द्वारे-द्वारे घूमें,
    राणा खाये नाही पाये घासि क रोटी।
जब से जहान में अन्न क खेती भईल,
 तब से ही बनत बा बाड़ै  में भोजन रोटी।
  काग भाग सराहल  जाला,
    छिनेले जो हरि हाथ से रोटी।
इंसान रोटी क रिस्ता पुराना बाड़ै,
 सुबह शाम दूनौ जून खाये चाहै रोटी।
  जीवन क पहिली जरूरत हौ रोटी,
    जीवन क पहिली चाहत बा रोटी

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 11 ☆ कविता – कठिन पंथ साहित्य-सृजन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता  “कठिन पंथ साहित्य-सृजन।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 11 ☆

☆ कठिन पंथ साहित्य-सृजन ☆

 

तान सुनाते अधर-अधर

अधरों पर मुस्कान सुघर

 

प्रेम से दिल की खुलती गाँठ

बहते आँसू झर-झर-झर

 

सच्चाई को आँख दिखा

दुष्ट कर्म कहते हैं मर

 

कठिन पंथ साहित्य-सृजन

कवि कोमलता का दिलवर

 

ताल – सरोवर नद निर्झर

सुरभि समीरण लहर लहर

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 25 ☆ जीत ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “जीत ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 25 ☆

☆ जीत

धुंध भरी रातों में

अंधियारों की बातों में

मर से जाते हैं एहसास

लगता है नहीं है कोई आसपास

 

छोटी सी होती है रात

बदल जाते हैं जज़्बात

सुबह पंख फैलाती है

सारे ग़म ले जाती है

 

जाड़ा भी कुछ घड़ी का मेहमान है

उसमें भी कुछ ही पल की जान है

वो भी कुछ दिनों में उड़ जाता है

और आफताब फिर हमसफ़र बन जाता है

 

जब भी ग़म की ठंडी से जकड जाएँ जोड़

जान लेना कायनात के पास है उसका तोड़

मरे हुए एहसास फिर से जग जायेंगे

बस, शायद वो किसी और रूप में सामने आयेंगे

 

आसपास भी किसी की ज़रूरत इतनी नहीं बड़ी

रूह की चमक से ज़िंदगी की रात जड़ी

उस चमक से बुझा लेना ज़हन की प्यास

कोई और नहीं तो ख़ुदा होता ही है पास

 

ज़िंदगी नदी सी है बढती ही जायेगी

उसकी लहर फैलने को लडती ही जायेगी

बना लेगी वो अपने कहीं न कहीं रास्ते

कभी भी रोना नहीं किसी उदासी के वास्ते

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 5 ☆ मन के कागज़ी नाव पर सवार …. शब्द ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” लिखने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक रचना “मन के कागज़ी नाव पर सवार …. शब्द”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #5 

☆ मन के कागज़ी नाव पर सवार …. शब्द  ☆

 

पानी की फुहार

शीतल बयार

बादलों के बीच से झाँकता

धूप का टुकड़ा

मीलों दूर

परदेस में

फिसलता है

पुराने शहर की

पुरानी इमारतों पर

पुराने किलों-महलों पर

नदी की सतह पर

और झील पर

हर दोपहर

जहां-जहां तक

जाती है नज़र।

 

और फिर,

अचानक

शब्द बहने लगते हैं,

मन के कागज़ी नाव पर सवार

काली सड़कनुमा नदी पर

दूर तक

मोड़ पर

ढलान पर

और

जो खो जाती है

झील तक

नदी तक

और

पुराने शहर की

गलियों तक।

 

और फिर

एकाएक बिखर जाती है

मिट्टी की सौंधी खूशबू

अपने वतन की

पूरी फिज़ा में

सारे जहां में ।

 

शब्दों की फुहार

शब्दों की बयार

भिगोने लगती है

मन के कागज़ी नाव पर सवार

शब्दों को

अन्तर्मन को

नेत्रों को

और

सुदूर पहाड़ की ढलान पर

काली नदीनुमा सड़क के किनारे बसे

मकानों की छतों को

और

मकानों को

जहां रहता है

मेरे ह्रदय का टुकड़ा

धूप के टुकड़े की

छाँव तले ।

 

© हेमन्त बावनकर

बेम्बर्ग 27 मई 2014

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