हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 4 ☆ कविता ☆ वतन के सिपाही ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है वतन  के सिपाही पर एक कविता  / गीत  “ वतन के सिपाही ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 4 ☆

☆ कविता/ गीत  – वतन के सिपाही  ☆

 

वतन के सिपाही फना हो ग‌ए हैं.

वो धरणी को शैय्या समझ सो ग‌ए हैं.

 

देती है माँ पुत्र, बेटा व भाई भी

सुहागिन का सिंदूर तक ले ग‌ए हैं.

 

तपे खूब चिंगारी, अंगार सह कर

मिले घाव सरहद पै’ सब सह ग‌ए हैं

 

अपमान, की मौन पीड़ा सही है

बनाकर वो इतिहास खुद खो ग‌ए हैं

 

बिछड़े हैं वे, देशवासी दुखी हैं

ग‌ए, आँसुओं से वो मुख धो ग‌ए हैं

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆ वक्त के उस मोड़ पर ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “वक्त के उस मोड़ पर ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 21 ☆

☆ वक्त के उस मोड़ पर

वक़्त के किसी-किसी मोड़ पर

ये आदमी भी

न जाने कौनसी छोटी-छोटी चीज़ों में

ख़ुशी ढूँढ़ लेता है, है ना?

 

कभी वो सहर की ताज़गी से मंत्रमुग्ध हो

कोई मुहब्बत की ग़ज़ल गुनगुनाने लगता है,

कभी वो दरिया की लहरों संग बहते हुए

अपने अलफ़ाज़ को साज़ दे देता है,

कभी वो बारिश की नन्ही-नहीं बूंदों में

अपने अक्स को खोज मुस्कुरा उठता है,

कभी वो लहराती हुई सीली हवाओं से

न जाने क्या गुफ्तगू करने लगता है,

कभी वो ऊंचे खड़े हुए दरख़्त को देखते हुए

उसकी हरी-हरी पत्तियों सा खिलखिला उठता है,

कभी वो शाम के केसरियापन से रंगत चुरा

अपनी बातों में उसे चाशनी सा घोल देता है,

और कभी-कभी तो सारी रात बिता देता है

दूधिया चाँदनी के इठलाने को निहारते हुए!

 

शायद ये आदमी

वक़्त के उस मोड़ पर

जान लेता है

कि वो मात्र एक सूखा हुआ पत्ता है

और वो ज़िंदगी के आखिरी पल जी रहा है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तो कुछ कहूँ……  ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

( काफी समय से  ह्रदय  विचलित था। चाहकर भी स्वयं को रोक न सका और जो कुछ मन में चल रहा था लिख दिया। आप निर्भया नाम दें या कुछ भी। कल्पना किया है कि वे सम्माननीय आत्माएं आज  क्या सोचती होंगी। प्रस्तुत है  “तो कुछ कहूँ…… ” ) 

☆  तो कुछ कहूँ……   
 

जिस किसी

‘स्त्री’ देह ने

किसी भी अवस्था में

मृत्यु तक का सफर

तय किया हो बलात।

जिस किसी को

तुम कहते हो ‘स्त्री’

या देवी साक्षात।

किन्तु,

कुछ लोगों के लिए

सिर्फ और सिर्फ

‘स्त्री’ देह हूँ

यदि पढ़-सुन सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

जिस किसी की

तुम बचा न सके

अस्थियाँ तक

मैं उनका प्रतीक हूँ

और

जिस किसी ‘स्त्री’ देह को

तुमने सिर्फ देह समझा था

मैं उन सबका अतीत हूँ

यदि उस अतीत में

झांक सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

हर बार की तरह

हो गई एक अनहोनी।

एक ब्रेकिंग न्यूज़ आई

फैला गई सनसनी।

राष्ट्र के

अंतिम नागरिक से

प्रथम नागरिक तक ने

मानवीय संवेदना

और

राष्ट्रधर्म के तहत

अगली ब्रेकिंग न्यूज़ तक के लिए

बहाये थे आँसू।

फिर व्यस्त हो गए हों

राष्ट्र धर्म कर्म में

तो कुछ कहूँ…….

 

लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ

छुपाते रहे चेहरा

लिखते रहे

मेरा काला भविष्य सुनहरा

और

चौथा स्तम्भ

तीनों स्तंभों पर

देता रहा पहरा

मैं देखती रही निःशब्द

यदि तुम कुछ देख सकते हो

तो कुछ कहूँ……

 

एक स्तम्भ करता रहा

एक दूसरे पर दोषारोपण

किसकी जुबान कब फिसल गई

किसके समय कितनी देह

कुचल दी गई

गिनाते रहे हादसों के आंकड़े

यदि आंकड़े बढ़ने

कुछ कम हो गए हों

तो कुछ कहूँ……

 

कोई स्तम्भ ढूँढता रहा

कानून की धाराएँ

किस धारा में

किस दोषी को बचाया जा सकता है

किस धारा में

मुझे दोषी बनाया जा सकता है

कितने सामाजिक दबाव में

मुझे निर्दोष बनाया जा सकता है

यदि दोषारोपण थम जाये

तो कुछ कहूँ……

 

एक स्तम्भ ढूँढता रहा

किसके क्षेत्र में

पड़ी रही मेरी ‘स्त्री’ देह

यदि जीवित रहती तो

नजरें झुकाये देती  रहती

न सुन सकने लायक

प्रश्नों के उत्तर

उन प्रश्नों ने वही कुछ

मेरी आत्मा के साथ किया

जो कुछ

मेरी देह के साथ हुआ

लज्जा से झुकी आँखें

यदि उठ सकती हों

तो कुछ कहूँ……

 

चौथा स्तम्भ के चौथे नेत्र

तो तब तक ढूंढ चुके थे

मेरी ‘स्त्री’ देह

ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए

तैयार कर रहे थे

कुछ तथाकथित विशेषज्ञों को

शाम की निरर्थक वार्ता के लिए

यदि उनकी टी आर पी

बढ़  चुकी हो

तो कुछ कहूँ……

 

क्या फर्क पड़ता है ?

दोषी को सजा मिलती है

या

निर्दोष को

जीवित रहती तो

‘स्त्री’ देह सहित

पल पल मरती

यदि जी भी जाती

तो क्या कर लेती ?

कानून के हाथ बड़े हैं

या

अपराधी के हाथ

यही नापती रह जाती

एक एक पल

सबकी निगाहों से

मेरी ‘स्त्री’ देह रौंदी जाती।

जीते जी ससम्मान जी पाती

तो कुछ कहूँ……

 

ऐसे नाम में क्या रखा है

जिसमें कोई नया उपनाम

कैसे जुड़ सकता है?

निर्भया नाम के साथ

जीवन के उस मोड़ से

कोई कैसे मुड़ सकता है ?

यदि कोई मुड़ने दे

या कोई मुड़ सकता हो

तो कुछ कहूँ……

 

देख सकती हूँ

संवेदनशील दुखी चेहरे

हाथों में मोमबत्तियाँ लिए

‘स्त्री’ अस्मिता के नारों के साथ।

यदि उनके हाथों की तख्तियाँ

गिर गई हों

और

मोमबत्तियाँ बुझ चुकी हों

तो कुछ कहूँ……

 

मेरी ‘स्त्री’ देह को

‘स्त्री’ देह ही रहने दो

‘स्त्री’ देह को

जाति-धर्म-संप्रदाय से मत जोड़ो

सर्वधर्म सद्भाव के

ताने बाने को मत तोड़ो

यदि मेरी ‘स्त्री’ देह में

छोटी सी गुड़िया

प्यारी सी बहना

किसी की प्रेयसी या पत्नी

किसी की बेटी या माँ

देख सको

तो कुछ कहूँ ……

 

अत्यंत दुखी हूँ

माँ और पिता के लिए

उनके आँसू तो

कब के सूख चुके हैं

मेरी अस्थियां बटोरते

मेरी कल्पना मात्र से

बुरी तरह टूट चुके हैं

यदि मुझे ससम्मान वापिस

वो दिन दुबारा दिला सको

तो कुछ कहूँ ……

 

मुझको अब उनकी आंखे

कैसे भूल पाएँगी

मेरी स्मृतियाँ

उनको जीवन भर रुलाएगी।

मेरी नश्वर ‘स्त्री’ देह

अपना सम्मान और

अपना अस्तित्व खो चुकी हैं

अगली निर्भया की प्रतीक्षा में

सो चुकी हैं

ऐसे में अब कुछ कहूँ भी

तो क्या कहूँ …..

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन – प्रक्रिया ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – लेखन – प्रक्रिया  ☆

लिखने की प्रक्रिया में

वांछनीय था

पैदा होते लेखन के

आलोचक और प्रशंसक,

उलटबाँसी देखिए,

लिखने की प्रक्रिया में

पैदा होते गए लेखक के

आलोचक और प्रशंसक!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ ग़ज़ल – माँ ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी  हिंदी साहित्य  की गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी  एक  बेहतरीन ग़ज़ल  “माँ ”. )

☆  ग़ज़ल – माँ  ☆

 

आज दौलत के लिए माँ को सताता  क्यों है,

माँ तेरी है तो निगाहें तू चुराता क्यों है।

 

जान देता था कभी मुझपे मेरे लख्ते जिगर,

आज हर बात पे तू माँ को रुलाता क्यों है।

 

मैंने ग़ुरबत में मुसीबत से तुझे पाला है,

ऐ मेरे लाल कहर मुझपे तू ढाता क्यों है।

 

वास्ते तेरे दुआ मैने किया शामो सहर,

इस तरह माँ को बता छोड़ के जाता क्यों है ।

 

तेरी खुशियों में तेरी माँ की दुआएँ शामिल ,

छोड़ के माँ को तू ये आँसू पिलाता क्यों है।

 

“शुभदा” बच्चों से यही कहती है ऐ मेरे लाल,

सारा पर काट कर ममता को उडाता क्यों है।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ बेटी के नाम पिता की पाती ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

 

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा एक लाख पचास हजार के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’आज प्रस्तुत हैं  उनकी एक भावप्रवण एवं संदेशात्मक कविता  “बेटी के नाम पिता की पाती”.)

☆  बेटी के नाम पिता की पाती ☆ 

 

बेटी

मैं तुम्हें नहीं बनाना चाहता

चाँद की तरह

बल्कि बनाना चाहता हूँ तुम्हें

सूर्य-सा

ताकि कुदृष्टि डालनेवालों की

झुक जाएँ नजरें

झुलस जाए चेहरा

 

मैंने नहीं है किया

तुम्हारा कन्यादान

दान तो किसी वस्तु

को है दिया जाता

तुम नहीं हो वस्तु

बल्कि हो मेरे ह्रदय

का एक अंश

मैं तोड़ रहा हूँ भ्रम

बल्कि है दिया मैंने

प्यार से उपहार में

प्रेम के बंधन में

बैठाया है चंदन की डोली में

अपना पूरा जीवन अर्पण

समर्पण करके

ताकि तुम जी सको

खुशियों से

युगों-युगों तक

 

निभाती रहना सम्बन्धों को

सहजता

और शांति से

अब हैं तुम्हारे दो घर

एक पति का

दूसरा पिता का

जिसका दरवाजा सदा खुला रहेगा

जब चाहे

तब आना-जाना

बेरोकटोक

 

असहाय

बेचारी

और अबला

समझने की भूल से भी भूल न करना

तुम जीना अन्नपूर्णा बनकर

शक्ति दुर्गा सीता बनकर

न उदास होना

न घुट-घुट के जीना

सबको अपना बनाना

प्यार बरसाना

हँसना-मुस्कराना

 

मुस्कराना भी

जैसे फूल हैं मुस्कराएते

गुनगुना भी

जैसे भौंरे हैं गुनगुनाते

हमेशा खड़ा रहेगा

तुम्हारा पिता

छाँव और

दीवार बनकर अंतिम श्वांसों तक

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857, e-mail –  [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 13 – क्या खोया क्या पाया ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना क्या खोया क्या पाया अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 13 – विशाखा की नज़र से

☆ क्या खोया क्या पाया   ☆

 

फिर एक साल बीत रहा

गणना का अंक जीत रहा

इस बीतते हुए वर्ष में

जीवन की उथल -पुथल में

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया …

 

नव विचारों का घर बनाया

पुराने को दूर भगाया

उघड़े चुभते बोलों से

सच को समक्ष लाया

सच के इस भवन में

ऐ ! मेरे मन तूने ,

क्या खोया ,क्या पाया ….

 

फिर से दिन वही आएंगे

क्रम से त्यौहार चले आएँगे

इतने रंग-बिरंगी उत्सवों में

अपने रंग -ढंग छुपाए

ऐ ! मेरे मन तूने

क्या खोया ,क्या पाया ..

 

इमारते गढ़ती जाए

आसमां को छू वो आए

नए परिधान में लिपटे हम

हर जगह घूम कर आएँ

इस घूम -घुम्मकड़ जग में

इन भूलभुलैया शहर में

सपनों की उठती लहर में

गोते लगाए मन तूने

क्या खोया क्या पाया

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य # 3 ☆ कविता – अप्सरा . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर कविता  अप्सरा . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #3 ☆ कविता – अप्सरा . . .☆ 

बादलो से झांकती  धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं ,

जब भी मिलती है शरमाया करती हैं ,

अपने आँचल में तारों को रखती हैं ,

चंचल चितवन चंचल सा मन रखती हैं ,

आँखों से जैसे शरारत झलकती हैं ,

गलियों से जब भी गुजरती हैं ,

खुशबू से आँगन भरती हैं ,

जब भी मुझसे बातें करती हैं ,

कानों में जैसे रस घोलती हैं ,

हर झरोखे से झांकती नज़र ,

बस उसको ही देखा करती हैं ,

हाँ वो अप्सरा सी लगती हैं ,

पर ख्वाबों में ही आया करती हैं ,

बादलो से झांकती धूप सी लगती हैं ,

जंगल में नाचते मोर सी लगती हैं . . .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – (जापानी काव्य विधा तांका) ☆ चंद चंद्र तांका  ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  जापानी काव्य विधा  तांका  में एक अतिसुन्दर रचना चंद चंद्र तांका। उनके ही शब्दों में – “जापानी काव्य विधा तांका बहुत उत्तम होती है। इसमें पांच-सात पांच सात सात शब्दों में अपनी मुकम्मल बात की जाती है।  हर पंक्ति का अपना अर्थ होता है।”)

 

चंद चंद्र तांका ☆

 

प्रकृति वधू

चंद्रिम मेखला धारे

पुलक उठी

मयंक ना निरखें

हुलसे  घूंघट में

 

उनींदा चांद

मनुहाया शर्माया

चांदनी छेडे़

आसमान चितेरा

चंद्र उर्मि उकेरे

 

मुंडेर पर

महके रात रानी

हंसी ठिठोली

सोन चिरैया उड़ी

ले चोंच भर खुशी।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मुक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – मुक्ति ☆

 

देह चाहती है मुक्ति

और आत्मा को

परमात्मा से मोह है,

यूँ देखूँ हर पग सीधी राह

यूँ सोचूँ तो ऊहापोह है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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