हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से ☆ सीख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  सीख .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 3 – विशाखा की नज़र से

 

☆  सीख  ☆

 

उसका लिखा जिया जाए

या खुद लिखा जाए

अपने कर्म समझे जाए

या हाथ दिखाया जाए

घूमते ग्रह, तारों, नक्षत्रों को मनाया जाए

या सीधा चला जाए

कैसे जिया जाए ?

 

क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है

कणों से कोना भर रही है

अंडे सिर माथे ले घूम रही है

बस्तियाँ नई गढ़ रही है

जबकि अगला पल उसे मालूम नही

जिसकी उसे परवाह नही

 

उससे दुगुने, तिगुने, कई गुनो की फ़ौज खड़ी है

संघर्षो की लंबी लड़ी है

देखो वह जीवट बड़ी है

बस बढ़ती चली है

उसने सिर उठा के कभी देखा नही

चाँद, तारों से पूछा नही

अंधियारे, उजियारे की फ़िक्र नही

थकान का भी जिक्र नही

कोई रविवार नहीं

बस जिंदा, जूनून और  जगना.

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अजातशत्रु – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अजातशत्रु ☆

 

उगते सूरज को
अर्घ्य देता हूँ
पश्चिम रुष्ट हो जाता है,
डूबते सूरज को
वंदन करता हूँ
पूरब विरुद्ध हो जाता है,
मैं कितना भी चाहूँ
रखना समभाव,
कोई न कोई
पाल ही लेता है वैरभाव,
तब कालचक्र ने सिखाया
अनुभव ने समझाया-
मध्यम या उत्तम पुरुष
निर्धारित नहीं कर सकता,
प्रथम पुरुष की आँख में
बसती है अजातशत्रुता..!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆ शोर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘शोर ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 9 ☆

☆ शोर

घोर बवंडर की एक शाखा
इन्सा के मन में जुड़ जाने दो
जब जब हिले धरती का हिया
शोर शोर मच जाने दो…..

जो उथल पुथल मचती है भू में
वह मन मन में मच जाने दो
मन में भरा है विष का प्याला
टूट टूट उसे जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

एक सैलाब वन से भी गुजरे
आँधी को मच जाने दो
ढह ढह जाए पेड़ द्वेष के
मधुर बीज बो जाने दो
शोर शोर मच जाने दो…..

© सौ. सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नवरात्रि का अशक्त जागरण ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आज प्रस्तुत है उनकी नवरात्रि पर नवसृजित विशेष कविता “नवरात्रि का अशक्त जागरण”

काव्य भूमिका: 

नवरात्रि का पावन पर्व आते ही सर्वत्र नारी को सम्मानित किया जाता है. उसका गुणगान किया जाता है परंतु क्या यह सभी स्त्रियों के साथ हो पाता है. एक नारी महलो वाली तो दूजी फुटपाथ आश्रयवाली, एक को खाने की कमी नहीं तो दूजी को मिलने की आशा नहीं. आज नारी सा सम्मान हो तो दूसरी औरतों के अपने घर ही नहीं, ऐसी परिस्थिति में ऐसे पर्वों पर नारियों को सम्मानित, गर्वित किया जाता है तो मेरी आँखों के सामने कुल नारी शक्तियों के अस्सी प्रतिशत वे चेहरे घूम जाते हैं. जो सबला तो है पर अबला बन पड़ी है. एक नवरात्रि पर्व में हमने देखा कि दुर्गा स्थापित मंच के एक ओर एक अबला हाथ पसारे भीख माँग रही है और दूसरी और नारी शक्ति का खोखला जागरण हो रहा है. कितनी विसंगती है. यह देख ऐसे मंच के कार्यक्रमों पर हँसी छूटती है और स्त्रीशक्तिपीठ की ओर पीठ करने का मन हो जाता है.  अब तो ‘नारी सर्वत्र पूजते’ इस उक्ति को इतना गढ़ा गया है कि नारी को भी इससे घृणा आने लगी है. इन विचारों को व्यक्त करती व्यंग्य रचना उतर आई, वह आपके सामने प्रस्तुत है.

 – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

 

☆ नवरात्रि का अशक्त जागरण

 

हे माँ आदिशक्ति !

तू अचानक सबको क्यों जगाती है?

नवरात्रि के जब दिन आए,

तब सबको तू याद क्यों आ जाती है?

 

अब नारी शक्ति का होगा बोलबाला,

हो बच्ची, बालिका, सबला या अबला,

नौ रोज नारियों के भाग जाग जाएँगे,

सभी को माता-बहन कहते जाएँगे,

पूजा की थाल भी सजेगी,

माता-बेटी-बहन की पूजा भी होगी,

ठाठ-बाट में समागम होंगे,

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ सब कहेंगे,

नारी को हार-फूल से पुचकारेंगे,

नवदुर्गा, नवशक्ति नव नामकरण करेंगे,

कहीं गरबा तो कहीं डांडियाँ बजेगा,

माँ शक्ति के नाम कोई भोज तजेगा,

रोशनाई होगी, होगी ध्वनि तरंगे,

तीन सौ छप्पन दिन का नारी प्रेम

पूरे नौ दिन में पूरा करेंगे,

आरती कोई अबला या सबला उतारेगी,

अपने-आपको धन्य-धन्य कहेगी,

हर नारी नौ दिन जगत जननी कहलाएगी,

बस! नौ दिन ही तू याद सबको आ जाएगी.

 

परंतु ?

हे माँ आदिशक्ति!

नौ दिन का तेरा आना,

फिर चले जाना,

दिल को ठेस पहुँचाता हैं,

नौ दिन के नौ रंग,

दसवे दिन बेरंग हो जाते हैं

और भूल जाते हैं सभी,

तेरे सामने ही किए सम्मान पर्व.

अगले दिन पूर्व नौ दिन की नारी,

हो जाती है विस्थापित कई चरणों में,

कभी दहलीज के अंदर स्थानबद्ध,

देहलीज पार करें तो जीवन स्तब्ध,

दिख जाती है कभी दर-सड़क किनारे,

पेट के सवाल लिए हाथ पसारे,

कभी बदहाल बेवा बन सताई,

तो शराबी पति से करती हाथा-पाई,

कही झोपड़ी में फटे चिथड़न में,

एक माँ बच्चे को सूखा दूध पिलाती,

बेसहारा औरत मदद की गुहार किए

चिलचिलाती धूप में चीखती-चिल्लाती,

कभी तो रोंगटे खड़े हो जाते है,

जब अखबारवाले तीन साल की मासूम को

बलात्कार पीड़ित लिख देते हैं,

आज दो टूक वहशी-असुर,

न जाने किस खोल में आएँगे,

कर्म के अंधे वे सब के सब

न उम्र का हिसाब लगाएँगे,

हे शक्तिदायिनी!

माफ करना मुझे,

मैं आस्तिक हूँ या नास्तिक पता नहीं,

तेरे अस्तित्व पर आशंका आ जाती है,

सुर में छिपे महिषासुरों को हरने

क्यों कर न तू आ पाती है?

आज की नारी का अवतार तू,

हो सकती ही नहीं,

नहीं तो चंद पैसों के लिए,

दलालों के हाथ बिकती ही नहीं,

नारी शक्ति तेरी हार गई है,

सुनकर संसार की बदहालात को

कोख में ही खुद मिट रही हैं,

कुछ लोग तो जानकर बिटिया,

कोख में मार देते हैं,

शायद भविष्य के डर से,

जन्म से पहले ही स्वर्ग भेज देते हैं,

क्या उनका यह सोचना गलत है,

यदि हाँ!

तो तेरा होना भी गलत है.

लोगों की सोच बोलो कैसे बदलेगी?

फिर दिन बीत जाएँगे

नवरात्रि का अशक्त जागरण,

दुनिया पुन: पुन: खड़ा कर जाएगी.

हे ! माँ आदिशक्ति

तू फिर सबको क्यों जगाती है,

नवरात्रि नारी सम्मान का पर्व आया,

तू सबको याद क्यों दिलाती है

फिर वही रंग और बेरंग का,

डांडिया खेल शुरू कर जाती है,

नवरात्रि के दिन जब आए,

तब सबको क्यों याद आ जाती है?

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 16 ☆ कैसे  कहूँ ? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक  प्रेरणास्पद एवं भावप्रवण कविता  “कैसे  कहूँ ? ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 16  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ कैसे  कहूँ ?

 

भाव मन में

बहने लगे

अनायास

कैसे  कहूँ ?

 

कुछ न आता समझ

व्यक्त कैसे करूं

मन की बातें

कैसे  कहूँ ?

 

दिल पर

छाई है उदासी

बेवजह

कैसे  कहूँ ?

 

उनके शब्दों में

है जान

मिलती है प्रेरणा

कैसे  कहूँ ?

 

बिखरे शब्द

लगे  सिमटने

मिला आकर

कैसे  कहूँ ?

 

आयेगा वो पल

चमकेगी किस्मत

समझोगे तब

कैसे  कहूँ ?

 

है मंजिल सामने

वहीं है खास

हो जाती हूं नि:शब्द

कैसे  कहूँ ?

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆ लगी मोह से माया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “लगी मोह से माया ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 4 ☆

☆  लगी मोह से माया  ☆

 

लगी मोह से माया  ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया।।

 

धन पाकर इतराये ।

खुद अपने गुण गाये ।।

समझ न सच को पाया ।

लगी मोह से माया। ।।

 

नजरों की मर्यादा ।

समझें इसे लबादा ।।

अपना कौन पराया ।

लगी मोह से माया ।।

 

ये सब रिश्ते नाते ।

हैं दुनियाई खाते ।।

जग में उलझी काया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठी चमक दिलाशा ।

बढ़ती मन की आशा ।।

मन जग में भरमाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठ फरेब निराले  ।

हैं सब के मन काले ।।

यह कलयुग की छाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

अब हैं नकली चेहरे ।

जहां नहीं सच ठहरे ।।

“संतोष”समझ पाया ।

लगी मोह से माया  ।।

 

झूठहिं मन बहलाया ।

कोई समझ न पाया ।।

लगी मोह से माया ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-2 ☆ चौराहे पर गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

☆ चौराहे पर गांधी ☆

(मित्रों, आज महात्मा गाँधी का जन्मदिन है।  आज लाल बहादुर शास्त्री का ‘भी ‘ जन्मदिन है।  इन दिनों गाँधी बहुत याद आ रहे हैं।  पता नहीं क्यों लाल बहादुर शास्त्री इसी दिन याद आते हैं ! मुझे गाँधी जी पर लिखी  अपनी  एक कविता याद आ रही है –चौराहे पर गांधी। ‘ उसे साझा करने का मन हुआ सो कर रहा हूँ – प्रेम जनमेजय )

 

मंसूरी में, लायब्रेरी चौक  पर

राजधानी की हर गर्मी से दूर

आती -जाती भड़भडाती

सैलानियों की भीड़ में     अकेला खड़ा

सफेदपोश, संगमरमरी, मूर्तिवत, गांधी।

क्या सोच रहा होगा —

अपने से निस्पृह

भीड़ के उफनते समुद्र में

स्थिर,निस्पंद,जड़

नहीं होता इतना तो कोई हिमखंड भी

खड़ा ।

क्या सोच रहा है, गांधी ?

सोचता हूँ मैं ।

 

कोटि- कोटि पग

इक इशारे पर जिसके, बस

नाप लेते थे साथ- साथ हज़ारों कदम

अनथक

वो ही  थका -सा

प्रदर्शन की वस्तु बन साक्षात

अकेला

संगमरमरी  कंकाल में,       किताबी

मूर्तिवत खड़ा-सा

क्या सोच रहा है, गांधी ?

 

स्वयं में सिमटी सैलानियों की भीड़

नियंत्रित करतीं वर्दियां

कारों की चिल पौं को

पुलसिया स्वर से दबातीं सीटियां

एक शोर के बीच

दूसरे शोर की भीड़ को

जन्म देती

मछली बाजार -सी कर्कश दुनिया

किसी के पास समय नहीं

एक पल भी देख ले गांधी को

अकेले अनजान खड़े, गांधी को ।

 

क्या सोचता होगा गांधी ?

भीड़ में भी विरान खड़ा

क्या, सोचता होगा गांधी !

 

सोचता हूं,

सोचता होगा

भीड़ के बीच क्या है प्रासंगिकता… मेरी ?

मैं तो बन न सका

भीड़ का भी हिस्सा

बस, खड़ा हूं शव-सा औपचारिक

इक माला के सम्मान का बोझ उठाए

किसी एक तारीख की प्रतीक्षा में

अपनेपन की सच्चाई को तरसता

अनुपयोगी, अनप्रेरित अनजान बिसुरता ।

 

हमारे पराएपन को झेलता

हमारा अपना ही

बंजर बेजान खड़ा है गांधी ।

मेरा गांधी, तेरा गांधी

अनेक हिस्सों में बंटा गांधी

सड़कों और चैराहों को

नाम देता गांधी

हमारी बनाई भीड़ में

वीरान- सा चुपचाप,

खड़ा है, अकेला गांधी ।

क्या सोचता है गांधी ?

क्या, सोचता है गांधी !

 

©  प्रेम जनमेजय

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

व्यंग्य कविता – हे राम! ☆

 

हे राम!

तुम

कितने काम के थे

यह राम जानें

किसी के लिए

किसी काम के थे भी या नहीं

यह भी राम जानें

पर

तुम्हारे आशीष से

बदले हुए देश में

हम जो देखते हैं वह ये है

कि तुम्हारी एक सौ पचासवीं जयंती पर

बड़ी रौनक है/धूम है

मेले लगे हैं जगह-जगह

प्रदर्शनी में

खूब बिक रहे हैं

फैशन में भी हैं

तुम्हारी लाठी और चश्मे

जहाँ देखो

तुम्हारे बंदरों की ही नहीं

हर आंख पर तुम्हारा ही चश्मा है

हर हाथ में तुम्हारी ही लाठी

लेकिन खरीदने वालों को

इनके इस्तेमाल का पता नहीं

आयोजकों का भी नहीं है कोई स्पष्ट निर्देश

कि कब और कैसे करें इस्तेमाल

इसीलिये ‘ सूत न कपास’ फिर भी लट्ठम लट्ठा है

बाकी तो सब ठीक-ठाक है

तुम्हारे इस देश में

बस खादी के कुर्ते और टोपियाँ

‘खादी भण्डार’ के बाहर धरने पर हैं

और रेशमी धागों वाली कीमती मालाएँ

सजी हैं भीतर

तुम्हारे नाम की एक माला

हमारे गले में भी

उतनी ही शोभती है जितनी

कि तुम्हारे नाम के पेटेंट धारकों के

(तथाकथित सुधारकों के)

इसी माला को पहनकर

हम बड़े मज़े से

मुर्गा उदरस्थ कर अहिंसा पर बोलते हैं

और इस तरह आपके हृदय परिवर्तन पर

‘सत्य और अहिंसा के साथ प्रयोग’करते हैं

सुना है

पहनकर तुम्हारा गोल-गोल चश्मा और

हाथ में लाठी लेकर

कोई

माँगने वाला है

शन्ति का नोबेल पुरस्कार

तुम्हारे लिए

इसी 2अक्तूबर को

यकीन मानिये बापू!

तुम्हारी अहिंसा में बहुत दम है

तुमने बस एक बार किया था माफ़

अपने हत्यारे को

पर लाल-लाल कलंगी वाला मुर्गा

हमें रोज़ माफ़ करने हमारे घर आता है

खुद ही

‘हे राम’ कहकर अपनी खाल उतरवाता है

और हांडी में पक जाता है

अहिंसा का ऐसा उदात्त उदाहरण

क्या किसी और देश में मिल पाता है

आके देखना कभी राजघाट

अपनी नंगी आंखों से

कि जिसने किया था तुम्हारे लहू से तिलक

वही बिना नागा

हर 30 जनवरी को

तुम्हारी समाधि पर फूल चढ़ाता है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -२ ☆ प्रश्नचिन्ह ☆ श्री रमेश सैनी

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी   की महात्मा गांधी जी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी  के जन्मदिवस पर एक कविता. श्री रमेश सैनी जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. )

 

☆ प्रश्नचिन्ह ☆

 

हम हर वर्ष

मनाते हैं, जयंती

गाँधी और नेहरू की

खाते है,कसम

पदचिंहों पर चलने की

कसम वही रेखा है,

रेत पर खींची हुई

जिन्हें हर वर्ष

हम पीटते हैं

भूल गए हम उन्हें

उनके स्मारक बनाकर

चढ़ा देते हैं, पुष्प

वर्ष में एक बार जाकर

क्या ?

वतन पर मरने वालों का यही बाँकी निशां होगा ?

 

रमेश सैनी

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2 ☆ पूछ रहे बैकुंठ से बापू ☆ श्री मनोज जैन “मित्र”

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री मनोज जैन “मित्र”

 

(श्री मनोज जैन “मित्र” जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. विगत 22 वर्षों से ग्रामीण अंचलों में सद् साहित्य के प्रचार हेतु निपोरन प्लस एवं दिया बत्ती नामक पत्रिकाओं के 36अंकों का निरंतर संपादन एवं प्रकाशन.  प्रस्तुत है श्री मनोज जैन “मित्र” जी की कविता “पूछ रहे बैकुंठ से बापू”.)

 

पूछ रहे बैकुंठ से बापू

 

सिर्फ किताबों में मिलती है,

गांधी जी की अमर कहानी

नई पीढ़ी तैयार नहीं है,

सुनने तेरी कथा पुरानी

 

त्याग, तपस्या,आदर्शों के,

तिथि बाह्य सब तथ्य हो गए

जिनको बापू ने त्यागा था,

आज वही सब पथ्य हो गए

 

किसको चिंता रही देश की,

अब आहार बन गया भारत

चाटुकारिता की स्याही में,

निष्ठा की छुप गई इबारत

 

जनहित पर निज हित चढ़ बैठा,

अपना उल्लू सीधा करते

मरे वतन की खातिर बापू,

ये वेतन की खातिर मरते

 

बढ़ते हैं अपराध दिनों दिन,

अमन-चैन है आहत,खंडित

भ्रष्टाचार हुआ सम्मानित,

सत्य हुआ निर्वासित,दंडित

 

सर्वोपरि राष्ट्र की सेवा,

अब ऐसे अरमान कहां हैं?

पूछ रहे बैकुंठ से बापू,

मेरा हिंदुस्तान कहां है?

 

© मनोज जैन “मित्र”

पता- मुख्य पथ निवास, जिला मंडला (मध्य प्रदेश)

मो.9424931962

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