हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शब्दों के पार भावार्थ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – शब्दों के पार भावार्थ ☆

 

तुम कहते हो शब्द,

सार्थक समुच्चय

होने लगता है वर्णबद्ध,

तुम कहते हो अर्थ,

दिखने लगता है

शब्दों के पार भावार्थ,

कैसे जगा देते हो विश्वास

जादू की कौनसी

छड़ी है तुम्हारे पास..?

सरल सूत्र कहता हूँ

पहले जियो अर्थ

तब रचो शब्द,

न छड़ी, न जादू का भास

बिम्ब-प्रतिबिम्ब एक-सा विन्यास,

मन के दर्पण का विस्तार है

भीतर बाहर एक-सा संसार है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 15 – आ गए विज्ञापनों के दिन ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर  सामयिक रचना  आ गए विज्ञापनों के दिन। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 15 ☆

 

आ गए विज्ञापनों के दिन ☆  

 

आ गए, विज्ञापनों के दिन

पल्लवित-पुष्पित जड़ों से

दम्भ में, फूले तनों के दिन।

 

पुष्प-पल्लव,हवा का रुख देख कांपे

टहनियां  सहमी हुई, भयभीत भांपे

देख  तेवर हो गई,  गुमसुम जड़ें भी

आसरे को  दूर से, खग – वृन्द झांके

मौसमों के साथ अनुबंधित समय भी

हर घड़ी को, बांचने में लीन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

आवरण – मुखपृष्ठ  पन्ने भर  रहें  हैं

खुद प्रशस्ति गान, खुद के कर रहे हैं

डरे हैं खुद से, अ, विश्वसनीय हो कर

व्यर्थ ही प्रतिपक्ष  में, डर भर रहे  हैं,

एक, दूजे के परस्पर, कुंडली-ग्रह

दोष-गुण ज्योतिष, रहे हैं गिन

आ गए, विज्ञापनों के दिन।

 

खबर के  संवाहकों का, पर्व आया

चले चारण-गान, मोहक चित्र माया

विविध गांधी-तश्वीरों की, कतरनों में

बिक गए सब, झूठ का बीड़ा उठाया,

मनमुताबिक, दाम पाने को खड़े हैं

राह तकते, व्यग्र हो पल-छिन

आ गए विज्ञापनों के दिन।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – गीत (जल संरक्षण पर) ☆ यही सृष्टि का है करतार ☆ – डॉ. अंजना सिंह सेंगर

डॉ. अंजना सिंह सेंगर

(डॉ. अंजना सिंह सेंगर जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.  साहित्य प्रेम के कारण केंद्र सरकार की सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अधिकारी। सेवानिवृत्त होकर पूरी तरह से साहित्य सेवा एवं  समाज सेवा में लीन।  आपकी चार पुस्तकें प्रकाशित एवं कई रचनाएँ विभिन्न संकलनों में प्रकाशित. आकाशवाणी केंद्र इलाहाबाद एवं आगरा से विभिन्न साहित्यिक विधाओं का प्रसारण.  कई सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध. कई  राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत /अलंकृत.  आपकी  उत्कृष्ट रचनाओं का ई-अभिव्यक्ति में सदैव स्वागत है. आज प्रस्तुत है एक गीत – जल संरक्षण पर ” यही सृष्टि का है करतार”.)

 

☆ यही सृष्टि का है करतार

एक गीत  -जल संरक्षण पर

 

जल से है जन्मी यह पृथ्वी

जल जन-जीवन का आधार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

महासिन्धु को देतीं उबाल

जब सूरज की किरणें तपती

तब जलधर की अमृत वृष्टि से

धरती माँ की चूनर सजती

अम्बर भी बन जाता दानी

प्रकृति-नटी करती श्रृंगार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

पथ उत्पादन का प्रशस्त कर

कण कण हरियाली भर गाते

दहके जड़-चेतन के अन्तस

जल पी पीकर ख़ुश हो जाते

जल-विहीन धरती का आँचल

कब किसका है पाया प्यार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

व्यर्थ कहीं भी इसे बहाना

भूल हुई भारी है अब तक

विश्व-युद्ध के द्वार खड़ा जग

जल हेतु देता है दस्तक

अगर न चेते इतने पर भी

होगा निश्चय नर-संहार।

बिना जल न जी सकता कोई

यही सृष्टि का है करतार।।

 

कीमत अमृतमय पानी की,

कब जानोगे बोलो आज,

भरे बांध हों, पोखर, झरने,

नदिया की बच जाए लाज।

नारायण रूपी ये जल ही,

देता श्री का है संसार।

बिना जल न जी सकता कोई,

यही सृष्टि का है करतार।

 

©  डॉ. अंजना सिंह सेंगर  

जिलाधिकारी आवास, चर्च कंपाउंड, सिविल लाइंस, अलीगढ, उत्तर प्रदेश -202001

ईमेल : [email protected]

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 6 – काँटे बन चुभ गए ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “काँटे बन चुभ गए”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 6☆

 

☆ काँटे बन चुभ गए

 

 

जिंदगी के रंगीन सफर में,

सबको अपना मान गए,

फूल बनके पास आए कईं,

काँटे बन चुभ गए.

 

जब तक मिलती हमसे सेवा,

कभी न खफ़ा हो गए,

देखकर अपना हाथ खाली,

पल में दफ़ा हो गए,

मिठास भरें हम जीवन में,

पल में जहर घोल गए,

फूल बनके…

 

बेटा-भाई-दोस्त कहकर,

दिल में इतने घुल गए,

स्वार्थ का पर्दा जब खुला,

दिल में ही छेद कर गए,

जिनको हमने सब कुछ माना,

झूठा विश्वास भर गए,

फूल बनके…

 

मीठी बातें, मीठी मुस्कानें,

वाह, वाह, हमारी कर गए,

मुँह मुस्कान, दिल में जलन,

मुखौटे यार चढ़ा गए,

वक्त भँवर में जब भी झुलसे,

कौन हो तुम? हमको ही पूछ गए,

फूल बनके…

 

अपना पथ, अपनी मंजिल,

इस सच्चाई को हम जान गए,

बाकि सब स्वार्थ के संगी,

दुनिया के रंगरेज जान गए,

अपनी मंजिल बने अपनी दुनिया,

अब खुद को आजमाना सीख गए.

 

फूल बनके पास आए कईं,

काँटे बन चुभ गए.

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9 ☆ इश्क ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “इश्क”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 9

☆ इश्क 

 

जाते हुए मुसाफ़िर के

सीने से लगकर

लाख गुज़ारिश की जाए,

हज़ारों मन्नतें माँगी जाएँ,

इश्क़ की दुहाई दी जाए,

पर उसे अगर जाना होता है

तो वो ठहरता नहीं है…

 

बाद अजब है यह इश्क़ भी,

जब बोलना चाहिए

वो लबों पर ऊँगली लगाकर

ख़ामोश हो जाता है,

और जाने वाले को

रोकता भी नहीं!

 

शायद वो भी जाने के बाद

जान ही जाएगा

इकरार का एहसास,

पर तब तक

बहुत देर हो चुकी होगी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्मदिवस विशेष ☆ राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ☆ – श्री कुमार जितेंद्र

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्मदिवस विशेष 

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर जी के जन्मदिवस 23 सितम्बर पर श्री कुमार जितेंद्र जी की  विशेष कविता राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर.

☆ राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ☆

 

आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस कवि ।

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर कहलाए ।।

सिमरिया घाट में जन्मे दिनकर ।

राष्ट्रकवि से विभूषित दिनकर ।।

संस्कृत, बांग्ला, उर्दू ज्ञाता दिनकर ।

ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर ।।

राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएं ।

क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणात्मक कविताएं ।।

राष्ट्रभाषा की समस्या से चिंतित थे दिनकर ।

राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता लिखी पुस्तके ।।

दिनकर साहित्य अनुपम मोती उभरा ।

आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में ।।

आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस कवि ।

राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर कहलाए ।।

 

जयंती पर शत शत नमन 

 

©  कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से ☆ पूर्व/पश्चिम☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना  पूर्व/पश्चिम.  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से

 

☆ पूर्व/पश्चिम ☆

 

कितना अंतर है हम दोनों के मध्य

मैं पूर्व तू पश्चिम ,जब मै उदित तू अस्त

पर कभी मेरे द्वारा अर्पित सूर्य को अर्ध्य

अब तेरे सागर में हिलोरे लेता है

तेरे मनचंद्र को प्रभावित करता है

 

जिस ओंकार स्मरण से

मेरी धरती का मन भर गया

तू उसका अनुसरण करने लगा

ध्यान, योग, वेदों में भ्रमण करने लगा ।

 

जिस पौरुष को तूने 200 वर्ष तक दमित किया ,

उसकी कई पीढ़ियों को संक्रमित किया ।

अब उसके मानसरोवर में संशय के बत्तखों को स्वतंत्र कर,

तू कैलाश आरोहण करने लगा, परमसत्य खोजने चला ।

 

अब तू ही कल आकर,

वही ज्ञान पूर्व को बताएगा,

संस्कृत का महत्व जतायेगा ।

फिर हम,

उसी पश्चिम सागर के जल से सूर्य अर्ध्य का दर्प करेंगे,

सप्तऋषियों को चकित करेंगे ।

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संस्कृति का अवसान ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता संस्कृति का अवसान.   डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज संस्कृति का अवसान किस तरह हो रहा है ,उस  पर अपनी बेबाक राय रखी है. आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें , इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ संस्कृति का अवसान ☆

 

जब से हमने पाश्चात्य संस्कृति

की जूठन को हलक़ से उतारा

हमारी संस्कृति का हनन हो गया

 

हम जींस कल्चर को अपना

हैलो हाय कहने लगे

मां को मम्मी, पिता को डैड पुकारने लगे

उनके प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव

जाने कहां लुप्त हो गया

 

हम जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर

आपस में लड़ने-झगड़ने लगे

लूट-खसोट, भ्रष्टाचार को

जीवन में अपनाने लगे

स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग भाव

खु़द से मुंह छिपाने लगे

 

नारी की अस्मत चौराहे पर लगी लुटने

पिता, पुत्र, भाई बने रक्षक से भक्षक

बेटी नहीं अपने घर-आंगन में सुरक्षित

अपने ही, अपने बन, अपनों को छलने लगे

पैसा, धन जायदाद गले की फांस बना

अपहरण, डकैती, हत्या उनके शौक हुए

कसमे, वादे, प्यार

वफ़ा के किस्से पुराने हुए

 

राजनीति पटरानी बन हुक्म चलाने लगी

भाई भाई को आपस में लड़वाने लगी

रिश्तों के व्याकरण से अनजान

इंसान खु़द से बेखबर हो गए

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 16 ☆ हैरान हूँ ! ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  कविता हैरान हूँ !  डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज के हालात  पर अपनी बेबाक राय रखी है.  जयंती, विशेष दिवस हों या कोई त्यौहार या फिर कोई सम्मान – पुरस्कार ,  कवि सम्मलेन या समारोह एक उत्सव हो गए हैं और  ये सब हो गए हैं मौकापरस्ती के अवसर.  अब आप स्वयं पढ़ कर  आत्म मंथन करें इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 16 ☆

 

☆ हैरान हूं! ☆

 

हैरान हूं!

आजकल कवि-सम्मेलनों की

बाढ़ देख कर

डर है कहीं सैलाब आ न जाये

 

जयंती हो या हो पुण्यतिथि

होली मिलन हो या दीवाली की शाम

ईद हो या हो बक़रीद

हिंदी दिवस हो या शिक्षक दिवस

या हो नववर्ष के आगमन की वेला

सिलसिला यह अनवरत चलता रहता

कभी थमने का नाम नहीं लेता

 

वैसे तो हम आधुनिकता का दम भरते हैं

लिव-इन व मी टू में खुशी तलाशते हैं

तू नहीं और सही को आज़माते हैं

परन्तु ग़मों से निज़ात कहां पाते हैं

 

आजकल कुछ इस क़दर

बदल गया है, ज़माने का चलन

मीडिया की सुर्खियों में बने रहने को

हर दांवपेच अपनाते हैं

पुरस्कार प्राप्त करने को बिछ-से जाते हैं

पुरस्कृत होने के पश्चात् फूले नहीं समाते हैं

और न मिलने पर अवसाद से घिर जाते हैं

जैसे यह सबसे बड़ी पराजय है

जिससे उबर पाना नहीं मुमक़िन

 

आओ! अपनी सोच बदल

सहज रूप से जीएं

इस चक्रव्यूह को भेद

मन की ऊहापोह को शांत करें

अनहद नाद की मस्ती में खो जाएं

स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ

अलौकिक आनंद में डूब जाएं

जीवन का उत्सव समझ

जीते जी मुक्ति पाएं

जीवन को सफल मनाएं

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 14 ☆ माँ तुझे प्रणाम  ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की एक हृदयस्पर्शी कविता  “माँ तुझे प्रणाम ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 14  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ माँ तुझे प्रणाम 

 

माँ

जीवन है

तुम्हारा नाम है

ईश्वर से पहले

तुमको प्रणाम है

तेरी याद में अब जीना है

धरती और आकाश बिछौना है

मन हैं बहुत बैचेन

बिन तेरे नहीं हैं चैन

मन नहीं करता

कलम उठाने को

लगता है

शब्द

हो गये हैं निर्जीव

लेकिन

यादें हैं सजीव

क्योंकि

जिंदगी नहीं रूकती

जिंदगी चलने का नाम है

चाहता है मन

करना है बहुत से काम

लिखना है माँ के नाम

माँ तुझे प्रणाम.

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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