हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ छल ☆ – सुश्री सुषमा सिंह 

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ छल ☆

(सुश्री सुषमा सिंह जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता “छल” एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता है जो पाठक को अंत तक एक लघुकथा की भांति उत्सुकता बनाए रखती है। सुश्री सुषमा जी की प्रत्येक कविता अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उनकी अन्य कवितायें भी हम समय समय पर आपसे साझा करेंगे।)

 

हाथों में थामे पाति और अधरों पर मुस्कान लिए

आंखों के कोरों पर आंसु, और मन में अरमान लिए

हुई है पुलिकत मां ये देखो, मंद मंद मुस्काती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

बार-बार पढ़ती हर पंक्ति, बार-बार दोहराती है

लगता जैसे उन शब्दों को पल में वो जी जाती है

अपलक उसे निहार रही है, उसको चूमे जाती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

परदेस गया है बेटा, निंदिया भी तो न आती है

रो-रो कर उस पाति को ही बस वो गले लगाती है

पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति को, जाने कहां खो जाती है

खोज रही पाति में बचपन, जो उसकी याद दिलाती है

कितनी हो बीमार, हो कितना भी संताप लिए

खिल जाए अंतर्मन उसका, जब बेटे की आती पाति है

फिर से आई एक दिन पाति, वो तो जैसे हुई निहाल

बेटे की पाति पाकर के, खुशी से खिला था उसका भाल

उसे देख पाने की इच्छा, मन में कहीं दबाए थे

अंखियां थी अश्रु से भीगी, सबसे रही छिपाए थी

अंतिम सांसे गिनते-गिनते, सभी पातियां रही संभाल

पीड़ा थी आंखों में उसके, खोज रही थीं अपना लाल

आंचल में उस दुख को समेटे, और दिल पर लिए वो भार

दर्द भरी सखियों को संग ले, अब वो गई स्वर्ग सिधार।

 

बीते दिन किसी ने पिता से पूछा, क्या आई बेटे की पाति है?

मौन अधर अब सिसक पड़े थे, अश्रु बह निकले छल-छल

अब न आएगी कोई पाति, अब न होगा कोलाहल

मैं ही भेजा करता था पाति, मैं ही करता था वो छल

अब न आएगी कोई पाती, अब न होगी कोई हलचल

उस दुखिया मां को सुख देने को, मैं ही करता था वो छल।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆

(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”।  संयोगवश आज ही के अंक में भगवान  शिव जी परआधारित  श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक और रचना “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा” प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सममानीय कवियों का हार्दिक आभार।)

 

विष पी पी मैं हूँ नील कंठ बना।

विष पी कर ही प्रेम के सूत्र बना,

मैं जग में प्रेम अमर कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

विष पी पीकर मैं ही शेषनाग बना,

मैं भू माथे पर धारण कर जाऊंगा।

धरती धर खुद को निद्राहीन बना,

मैं मेघनादों का वध कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

मैं रवि टूट टूट ग्रह तारे नक्षत्र बना,

नभ मंडल आलोकित कर जाऊंगा।

पी वियोग ज्वाला मैं पृथ्वी चंद्र बना,

शीतल हो श्रृष्टि सृजन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

नफरत पी पी कर मैं अग्नि बना,

वन उपवन नगर दहन कर जाऊंगा,

पी पी मैं लोभ द्वेष बृहमास्त्र बना,

अरि दल पल में दहन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

संयोग वियोग अभिसार से जीव बना,

मैं ही नियंता सर्जक बृहमा बन जाऊंगा।

उर पढ़ पढ़ मैं ही असीम ज्ञान बना,

मैं वेद पुराण उपनिषद बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

प्रणय तपस्या में राधा की कृष्ण बना,

श्रृष्टि पालक नारायण मैं बन जाऊंगा।

मैं क्षिति जल पावक गगन समीर बना,

अणु परमाणु बृहम ईश्वर बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा ☆

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता  “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा”। संयोगवश आज ही के अंक में भगवान  शिव जी परआधारित डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जीकी एक और रचना  “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के  सम्माननीय कवियों का हार्दिक आभार।)

 

वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा

शिव के बिना यहाँ तो, कोई मुझे न प्यारा

 

जा ना सके वहाँ तो, दिल मे उसे बिठाकर

हर साँस को बनालो, शिव नाम एक नारा

 

यह जान धूल मिट्टी, आकार तू बनाया

हर एक आदमी को, तूने किया सितारा

 

कैलाश घर तुम्हारा, दिल में किया बसेरा

जाने कहा कहाँ पर, संसार हैं तुम्हारा

 

कश्ती तुफान में थी, मैंने तुम्हे पुकारा

आँखे खुली खुली थी, था सामने किनारा

 

भगवान दान माँगे, मैने नही सुना था

सजदा किया हमेशा, सौदा किया न यारा

 

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆ –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक बेहतरीन गजल। एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार की कलम से लिखी गई गमगीन गजल से निःशब्द हूँ।)

 

खुशनुमा माहौल में ग़म को उठाए कैसे
ऐसे हालात ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे

तेरी शहनाई बजी डोली उठी आँगन से
अश्क नादाँ जो बहे उस को छुपाएं कैसे

मोम का दिल हैं मेरा ओ तो पिघल जायेगा
मोम पत्थर सा बनाए तो बनाएं कैसे

गिर गये प्यार के अंबार से तो दर्द हुआ
दर्द सीने में तो हमदर्दी जताए कैसे

मान हम जायेंगे दे के तसल्ली झूठी
मानता दिल ए नही उस को मनाए कैसे

जल गए याद सें लिपटे ही रहे हम तेरे
जल गया हैं जो उसे फिर से जलाए कैसे

वह उठाकर जो चले हैं ये जनाजा मेरा
हाथ उठते ही नहीं दे तो दुआए कैसे

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संवेदना के वातायन ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

☆ संवेदना के वातायन ☆  

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। एक माँ के जज़्बातों को एक माँ ही महसूस कर सकती हैं। डॉ मुक्ता जी  की परिकल्पना में निहित माँ -बेटे के स्नेहिल  सम्बन्धों  और माँ के वात्सल्यमयी  अपेक्षाओं को इससे बेहतर लिपिबद्ध करना असंभव है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन ।)

 

काश!

काश! वह  समझ पाता

मां के जज़्बातों को

अहसासों को

मन में बसे प्यार के

अथाह सागर को

उसकी दुआओं को

शुभाशीषों को

वह पल-पल उसकी राह तकती

देर से  लौटने तक जगती

उस की सलामती की दुआ करती

क्योंकि वह उसकी

ज़िन्दगी है, धड़कन है।

 

और वह कितनी

आसानी से कह देता है

‘क्यों जगती रहती हो…

सो जाया करो

व्यर्थ परेशान होती हो’

कहकर पल्ला झाड़ लेता है

और मां क्षुब्ध हो

कर उठती है चीत्कार।

 

‘क्या कमी रह गई

उसकी परवरिश में

क्यों नहीं दे पाई वह

उसे सुसंस्कार

क्यों ज़माने की

चकाचौंध को देख

उस ओर बढ़ गये

उसके नापाक़ कदम’

 

उसकी हर इच्छा पर

बलिहारी जाने वाली मां

अब उसे अवगुणों की खान

नज़र आने लगी

क्योंकि बड़ा हो गया है वह

रुतबा है उसका समाज में

लगता है भूल गया है

वह सलीका ज़िन्दगी का

तज मान-मर्यादा

छोटे-बड़े का अंतर

वह ख़ुद को ख़ुदा मानने लगा है

नहीं झलकता अब उसके नेत्रों से

स्नेह-सम्मान व अपनत्व भाव—

और वह सबको

एक लाठी से हांकने लगा है।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ पृथ्वी दिवस पर विशेष – विपदा भू पर आई ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

विपदा भू पर आई

(अंतर्राष्ट्रीय पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष   सुश्री मालती मिश्राजी  की  अतिसुन्दर सामयिक कविता।)
धरती से अंबर तक देखो,
घटा धुएँ की छाई।
दसों दिशाएँ हुईं प्रदूषित,
विपदा भू पर आई।
नदियाँ नाले एक हो रहे,
रहे धरा अब प्यासी।
नष्ट हो रही हरियाली भी
मन में घिरी उदासी।
पीने का पानी भी बिकता,
बाजारों  में भाई…….
धरती से अंबर तक देखो,
घटा धुएँ की छाई।
हरियाली की चादर ओढ़े,
थी धरती मुस्काती।
लहर-लहर निर्मल धलधारा,
देख सदा हर्षाती।
वन-कानन अरु पर्वत ऊँचे,
गौरव-भू कहलाते।
मस्त पवन फिर दसों दिशा में,
नित सौरभ फैलाते।
मधुर भोर की शीतल बेला
आज पड़े न दिखाई…….
धरती से अंबर तक देखो,
घटा धुएँ की छाई।
उन्नति की खातिर मानव ने
जंगल नदियाँ पाटे।
हरियाली को छीन धरा से,
नकली पौधे बाँटे।
जहर घोलकर अब नदियों में
बनाये कारखाने।
धरती का सौंदर्य मिटा कर,
मन ही मन  हर्षाने ।
अपने सुख खातिर मानव ने,
भू की खुशी मिटाई…….
धरती से अंबर तक देखो,
घटा धुएँ की छाई।
©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? ये जीवन दुश्वार सखी री ? – सुश्री सुषमा भंडारी

सुश्री सुषमा भंडारी

? ये जीवन दुश्वार सखी री ?

(सुश्री सुषमा भंडारी  जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं ।आपको यह कविता आपको ना भाए यह कदापि संभव नहीं है।  आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )

 

ये जीवन दुश्वार सखी री

मरती बारम्बार सखी री

ये जीवन दुश्वार सखी री

 

जब घन घिर- घिर आये सखी री

पी की याद दिलाये सखी री

मुझमें रहकर भी क्यूं दूरी

ये मुझको न भाये सखी री

 

ये जीवन ——

 

कान्हा हो या राम सखी री

हो जाउँ बदनाम सखी री

उसकी खातिर छोडूं दुनिया

भाये उसका धाम सखी री

 

ये जीवन——-

 

बन्धन माया- मोह है सखी री

झूठी  काया – कोह सखी री

वो प्रीतम मैं उसकी प्रीता

मन अन्तस अति छोह सखी री

 

ये जीवन——-

 

निराकार से प्यार सखी री

वो सब का आधार सखी री

जड़-चेतन सब अंश उसी के

करता वो उद्धार सखी री

 

ये जीवन ——————

 

© सुषमा भंडारी

फ्लैट नम्बर-317, प्लैटिनम हाईटस, सेक्टर-18 बी द्वारका, नई दिल्ली-110078

मोबाइल-9810152263

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆

(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

 

 

तैरती थी जिसमें कई महीने,

वो गर्भ का एक सागर था।

सृष्टि पाली जिसमें बड़े करीने,

ममता का सुरक्षित सागर था।।

 

उसकी बंद पलकों में अंधेरा था,

आज खुली पलकों में सवेरा है।

गर्भ एक घुप सागर घनेरा था,

अब ये एक अनुपम बसेरा है।

 

उनींदी आंखों से मुझे निहारती,

शायद मैं कौन प्राणी हूँ सोचती।

मैं कहॉ आ गई हूं ये विचारती,

अनगिनत सपने मन में पोषती।।

 

अष्टमी में सद्यः जन्मी आई मेरे सामने,

थी मुझे जिसकी उत्कट प्रतीक्षा।

लेकर आई वो अनगिनत मायने,

पूर्ण करने हम सबकी उर इच्छा।।

 

बेटियों के रूप में मैं ही तो जन्मा हूँ,

बेटियों के रूप में मैं ही तो जी रहा हूं।

अब नातिन में मैं अष्टमी में पुनः जन्मा हूँ,

शिवानी बन मैं फिर जी रहा हूं।।

 

सृष्टि का वो स्वयं एक रूप है,

वो शिवानी का तो ही प्रतिरूप है।

पर नारी हेतु समाज कितना कुरूप है,

यद्यपि वो नव दुर्गा का ही स्वरूप है।।

 

बेटियां सरस्वती लक्ष्मी दुर्गा ही बने,

चूड़ियाँ पहन वो घर में ही न बंद रहें।

धरती आकाश सागर उड़ने हेतु ही बने,

पंख पसारें उड़ें खुश्बू बन महकती रहें।।

 

लक्ष्मी हैं सरस्वती हैं रति भी वही हैं,

मर्दन करें दरिंदों का और चहकती रहें,

वक्त आने पर नवदुर्गा का स्वरूप वही हैँ।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? मैं प्रेम चंद नहीं ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? मैं प्रेम चंद नहीं ?

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

सब्जी लेने क्यों जाना

तीन मील दूर मंडी तक

क्यों जाना

सवेरे-सवेरे

मिस्त्री,

मज़दूर खोजने

चौराहे पर

खपाने दिमाग

टुटपुँजिया गृहस्थी पर

जीना ही क्यों वह ज़िंदगी

जो तपाए जीवन भर

क्यों सुनना कोई दुःखद समाचार

किसी घटना के घटने का

क्यों हो मेरी नज़र में

किसी दुखियारी का दुःख

या नीलगायों के फ़सल चर लेने पर

आँगन  में पड़ी

उलटी सरावन -सी

किसान की लाश

मैं प्रेमचंद नहीं

जो दीये की रोशनी में

आँखें फोड़ूँ

एक उपयोगितावादी

साहित्यकार हूँ

फिर क्यों न किसी वातानुकूलित कक्ष में

बैठ कर

गढ़ूँ लल्लनटॉप पटकथाएं

या फिर

गूगल पर खोजूँ कोई उपयोगी चरित्र

और लिखूँ

किसी ऐसे नेता की वैसी जीवनी

जिस पर मिल सके

भारत रत्न

पद्मश्री, पद्म भूषण

और कुछ नहीं तो

साहित्य अकादमी,

ज्ञान पीठ या व्यास सम्मान।

 

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

? सुनहरे पल……… ?

 

(सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी का हार्दिक e-abhivyakti में स्वागत है। “सुनहरे पल…….” एक अत्यंत मार्मिक एवं भावुक कविता है। इस भावप्रवण एवं सकारात्मक संदेश देने वाली कविता की रचना करने के लिए सुश्री बलजीत कौर जी की कलम को नमन। आपकी रचनाओं का सदा स्वागत है। )  

 

कुछ पल……

ठहरे तो होते,

 

क्यों तोड़ दी उम्मीद तुमने!

क्यों छोड़ दिए हौंसले तुमने!

 

ये असफलताएँ,

वो कष्ट!

ये रोग,

वो दर्द!

ये बिछोह,

वो विराग!

इतने भी तो नहीं थे वो ख़ास!

क्यों छोड़ दी तुमने वो आस!

 

जानते हो कोई कर रहा था,

तुम्हारा इन्तज़ार!

किन्हीं झुर्रिदार चेहरे,

धुंधली निगाहों के थे तुम,

एकमात्र सहारा !

पर तुमने तो एक ही झटके में,

उन्हें कर दिया बेसहारा!

 

तुम्हारा यह दर्द

क्या इतना…….?

हो गया था असहनीय!

कि अपने जीते-जागते उस

अदम्य-शक्ति से भरपूर

शरीर को, बिछा दिया!

मैट्रो की पटरी पर

और …………..

उफ़!

गुज़र जाने दिया,

उन सैंकड़ों टन वजनी डिब्बों को

अपने ऊपर से…………

वो चटख़ती हड्डियों की आवाज़………..

वो बहते रक्त की फुहार………..

क्या उस क्षण……!

जीवन के वो सुनहरे पल,

नहीं आए थे तुम्हें याद!

कि कहीं से बढ़कर,

रोक लेते तुम्हें कोई हाथ!

 

काश…….!

कि देख पाते तुम….

उसके बाद का

वो मंज़र…….

लोगों के चेहरों पर चिपके

मौत का वो ख़ौफ़………!

प्लेटफॉर्म पर पसरा

वो सन्नाटा………!

 

और एक वो तुम

कि जिसने………

जीवन की असफलताओं,

अपनी कमजोरियों,

से घबराकर

लगा लिया

मौत को यूँ गले!

और फिलसने दिया

एक खूबसूरत ज़िंदगी को

अपने इन्हीं हाथों से

रेत के मानिंद

 

जानते हो ……..

कुछ सुनहरे पल

कर रहे थे

तुम्हारे धैर्य की परीक्षा!

एक खुशहाल ज़िंदगी…….!

उज्ज्वल भविष्य…….!

पलक-पाँवड़े बिछाए……..

बस! तुम्हारे उन

दो सशक्त

कदमों का ही

कर रहा था इंतज़ार……..

हाय!

 

कुछ पल……..

ठहरे तो होते……..!

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय

 

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