हिन्दी साहित्य – कविता – * आग * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

आग

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘आग ’)

 

आग!माचिस की तीली से

लगाई जाए या शॉर्ट सर्किट से लगे

विनाश के कग़ार पर पहुंचाती

दीया हो या शमा…काम है जलना

पथ को आलोकित कर

भटके राही को मंज़िल तक पहुंचाना

 

यज्ञ की समिधा

प्रज्जवलित अग्नि लोक-मंगल करती

प्रदूषण मिटा

पर्यावरण को स्वच्छ बनाती

क्योंकि जलने में निहित है

त्याग,प्यार व समर्पण का भाव…

और जलाना…

सदैव स्वार्थ व विनाश से प्रेरित

 

भेद है,लक्ष्य का…सोच का

क्योंकि परार्थ

व परोपकार की सर्वोपरि भावना

सदैव प्रशंनीय व अनुकरणीय होती

 

आग केवल जलाती नहीं

मंदिर की देहरी का दीया बन

निराश मन में उजास भरती

ऊर्जस्वित करती

सपनों को पंख लगा

नयी उड़ान भरती

आकाश की बुलंदियों को छू

एक नया इतिहास रचती

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * नव कोंपलें * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

नव कोंपलें

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  नारी हृदय  की संवेदनाओं को उकेरती एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘नव कोपलें ’)

 

काश!वह समझ पाता

अपनी पत्नी को शरीक़े-हयात

जीवन-संगिनी सुख-दु:ख की

अनुभव कर पाता

उसके जज़्बातों को

अहसासों,आकांक्षाओं

तमन्नाओं व दिवा-स्वप्नों को

 

वह मासूम

जिस घर को अपना समझ

सहेजती-संजोती,संवारती

रिश्तों को अहमियत दे

स्नेह व अपनत्व की डोर में पिरोती

परिवारजनों की आशाओं पर खरा

उतरने के निमित्त

पल-पल जीती,पल-पल मरती

कभी उफ़् नहीं करती

अपमान व तिरस्कार के घूंटों का

नीलकंठ सम विषपान करती

 

परन्तु सब द्वारा

उपयोगिता की वस्तु-मात्र

व अस्तित्वहीन समझ

नकार दी जाती

 

कटघरे में खड़ा कर सब

उस पर निशाना साधते

व्यंग्य-बाणों के प्रहार करते

उसकी विवशता का उपहास उड़ाते

वह हृदय में उठते ज्वार पर

कब नियंत्रण रख पाती

 

एक दिन अंतर्मन में

दहकता लावा फूट निकलता

सुनामी जीवन में दस्तक देता

वह आंसुओं के सैलाब में

बहती चली जाती

और कल्पना करती

बहुत शीघ्र प्रलय आयेगा सृष्टि में

और सागर की गगनचुंबी लहरों में

सब फ़नाह हो जायेगा

अंत हो जायेगा असीम वेदना

असहनीय पीड़ा व अनन्त दु:खों का

उथल-पुथल मच जायेगी धरा पर

सब अथाह जल में समा जायेगा

 

फिर होगी स्वर्णिम सुबह

सूर्य की रश्मियों से

सिंदूरी हो जायेगी धरा

नव कोंपलें फूटेंगी

अंत हो जायेगा स्व-पर

राग-द्वेष व वैमनस्य का

समता,समन्वय

सामंजस्य और समरसता

का साम्राज्य हो जायेगा

नव जीवन मुस्करायेगा

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हिन्दी साहित्य – कविता – * हे राम! * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

हे राम!

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘हे राम!’)

 

हे राम!

तुम सूर्यवंशी,आदर्शवादी

मर्यादा-पुरुषोत्तम राजा कहलाए

सारा जग करता है तुम्हारा

वंदन-अभिनन्दन,तुम्हारा ही अनुसरण

 

तुम करुणा-सागर

एक पत्नीव्रती कहलाते

हैरान हूं….

किसी ने क्यों नहीं पूछा,तुमसे यह प्रश्न

क्यों किया तुमने धोबी के कहने पर

अपनी जीवनसंगिनी सीता

को महल से निष्कासित

 

क्या अपराध था उसका

जिसकी एवज़ में तुमने

उसे धोखे से वन में छुड़वाया

इसे लक्ष्मण का भ्रातृ- प्रेम कहें,

या तुम्हारे प्रति अंध-भक्ति स्वीकारें

क्या यह था भाभी अर्थात्

माता के प्रति प्रगाढ़-प्रेम व अगाध-श्रद्धा

क्यों नहीं उसने तुम्हारा आदेश

ठुकराने का साहस जुटाया

 

इसमें दोष किसका था

या राजा राम की गलत सोच का

या सीता की नियति का

जिसे अग्नि-परीक्षा देने के पश्चात् भी

राज-महल में रहना नसीब नहीं हो पाया

 

विश्वामित्र के आश्रम में

वह गर्भावस्था में

वन की आपदाएं झेलती रही

विभीषिकाओं और विषम परिस्थितियों

का सामना करती रही

पल-पल जीती,पल-पल मरती रही

 

कौन अनुभव कर पाया

पत्नी की मर्मांतक पीड़ा

बेबस मां का असहनीय दर्द

जो अंतिम सांस तक

अपना वजूद तलाशती रही

 

परन्तु किसी ने तुम्हें

न बुरा बोला,न ग़लत समझा

न ही आक्षेप लगा

अपराधी करार किया

क्योंकि पुरुष सर्वश्रेष्ठ

व सदैव दूध का धुला होता

उसका हर ग़ुनाह क्षम्य

और औरत निरपराधी

होने पर भी अक्षम्य

 

वह अभागिन स्वयं को

हर पल कटघरे में खड़ा पाती

और अपना पक्ष रखने का

एक भी अवसर

कभी नहीं जुटा पाती

युगों-युगों से चली

आ रही यह परंपरा

सतयुग में अहिल्या

त्रेता में सीता

द्वापर में गांधारी और द्रौपदी का

सटीक उदाहरण है सबके समक्ष

जो आज भी धरोहर रूप में सुरक्षित

अनुकरणीय है,अनुसरणीय है।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य-कविता – तुम्हें सलाम – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“तुम्हें सलाम “
(अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की महिलाओं को समर्पित एक कविता)
दुखते कांधे पर
भोतरी कुल्हाड़ी लेकर  ,
पसीने से तर बतर
फटा ब्लाऊज पहिनकर ,
बेतरतीब बहते
हुए आंसुओं को पीकर,
भूख से कराहते
बच्चों को छोड़कर ,
जब एक आदिवासी
महिला निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
कांधे में कुल्हाड़ी लेकर
अंधे पति को अतृप्त छोड़कर,
लिपटे चिपटे धूल भरे
कैशों को फ़ैलाकर,
अधजले भूखे चूल्हे
को लात मारकर ,
और इस हाल में भी
खूब पानी पीकर,
जब निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
फटी साड़ी की
कांच लगाकर,
दुनियादारी को
हाशिये में रखकर,
जीवन के अबूझ
रहस्यों को छूकर,
जंगल के कानून
कायदों को साथ  लेकर,
अनमनी वह
आदिवासी महिला,
दौड़ पड़ती है
जंगल की तरफ ,

© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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हिन्दी साहित्य – कविता – * बेटी * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

बेटी 

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी  रचित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर का एक सार्थक कविता ‘बेटी’।) 

 

बेटी शब्द का आगाज होते ही
हृदय में सम्पूर्ण माँ बनाने की अद्वितीय अनुभूति होती है
बगैर बेटी जन्मे मानो नारी अधूरी होती है।

 

उसका पहली बार माँ बोलना
हृदय को मुदित ममतामयी कर जाता है
हर उदित उमंग उल्लासित कर
गरिमामयी पद अतुल्य अभिनंदन पाता है।

 

कदम पहला उसका उठते ही बेचैन
मन मुद्रा मुसकुराती छवि हो जाती है
उसकी इक-इक भाव भंगिमा
एकटक निहारते नैनों की चमक अद्भुत हो जाती है

 

विस्मय से भरता जाता उसका बड़ा होना
घर पूरा गूँजता मानों चिड़िया चहचहाती है
पग घूम-घूम जहाँ-जहाँ रखती
धरा धन्य हो अपार आभार प्रकट कर जाती है।

 

बेटी कभी नहीं होती पराई
जिस्म से कभी नहीं अलग होती परछाई
बड़ी होने पर भी वही आँचल आगोश सदैव लालायित रहते हैं ।
बोझ नहीं आन वह कलेजे का टुकड़ा गौरवान्वित हो कहते हैं।

© ऋतु गुप्ता

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मराठी साहित्य – कविता * जागतिक महिला दिवस निमित्त * शौर्यराणी * सुश्री स्वप्ना अमृतकर

* शौर्यराणी *

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(जागतिक महिला दिना ८ मार्च २०१९ निमित्त माझी स्वरचित रचना)
कन्या माता भगिनी पत्नी
स्त्री जन्माची हीच कहाणी,
प्रभात होता ती फुलराणी
रात्र होता ती रातराणी,
सुकले डोळ्यांतले पाणी
शांतच होती तरी ती राणी,
वाईट प्रसंगांची सुरुच पर्वणी
मौन दिले तीने सोडूनी,
नवनवीन रूप स्वीकारूनी
लढते ती रुद्र अवतार घेऊनि,
दुःखांच्या सुरांची गाणी
आताशा बदलली तीची वाणी
अखेर आजची मर्दिनी
बनली स्वतः साठीच शौर्यराणी,
© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पहले क्या खोया जाए * – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

पहले क्या खोया जाए  
पशमीना की शाल-से
पिता जी भी थे तो बेशकीमती
पर खो दिए मुफ्त में
माँ है
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो
खोती  ही नहीं
कुछ समझती भी नहीं
ऊपर से गाती रहती है
‘खोने से ही पता चलती है कीमत
बेटे!
पिता जी तो समझदार थे
समय पर
खोकर  बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी
किसी समय, एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी
पर पता नहीं
यह क्यों  नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर
देर क्यों कर रही है
निरर्थक ही
हम  भरसक कोशिश में रहते हैं
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में
छोड़ भी देते हैं
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर
कभी बेज़रूरत ठिठक कर
और
जानना चाहते हैं कीमत
माँ  की भी
सोचता हूँ
होने  की कीमत जान न पाया  तो
खोने की ही जान-समझ लूँ
कुछ तो कर लूँ  समय पर
कीमत समझने का ।
यही कामयाब तरीका चल रहा है
इन दिनों
इसी तरीके से  तो एक-एक कर
खोते रहे  हैं रिश्ते दर रिश्ते
दादा-दादी,नाना-नानी
ताऊ,ताई,मामा-मामी
और पिताजी भी
अब तो
‘एंजेल’ या ‘मार्क्स’ भी तो नहीं  बचे हैं
इस गरीब के पास
या तो एक अदद माँ बची है
या फिर  एक अदद फटा कंबल
कीमत दोनों  की जानना ज़रूरी है
अब इतने छोटे  भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर
बिताई जा सकें  सर्द रातें
फिर कोई तो बताए
आखिर पहले क्या खोया जाए ?
अधफटा कंबल या
अस्थि शेष माँ?
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * समुद्र पार उड़ी जाती * – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

समुद्र पार उड़ी जाती
नदी की धार पर  उछलती
मछली हो
कि धारा भी
गहरे सरोवर की
कमल नाल हो
कि अथाह अक्षुण्ण नीली जलराशि  भी
अपने बारे में  कुछ भी बताती क्यों नहीं
ओ मेरी प्राण प्रिये!
बर्फ पर पसरी हुई दूधिया चाँदनी हो
कि सात घोड़ों के रथ पर सवार
सूरज की स्वर्ण रश्मि भी
फ़सलों की बालों पर तैरती शबनम हो
कि हरित धान्य भी
पवित्र दूर्वा हो पावन संस्कारों  की
कि आरती उतारी जाती थाल की
जलती हुई टिकिया भी हो  कपूर की
जब  हाथ बढ़ाता हूं
तुम्हारी आरती को
लौ से ऊष्मा भर देती हो
और सिर्फ झांक कर आखिर क्यों रह जाती हो
अपने बारे में कुछ बताती क्यों नहीं
समुद्र पार उड़ी जाती
ओ मेरी प्राण गंध प्रिये!
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * निर्भया * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

निर्भया 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता ‘निर्भया’’)

कितनी और निर्भया बनेंगी
दरिंदगी का शिकार
मनचलों की हवस
मिटाने का उपादान
कब तक लूटी जाएगी
मासूमों की इज़्ज़त
कार,बस या ट्रेन के डिब्बे में
स्कूल,कार्य-क्षेत्र,पार्क के
किसी निर्जन कोने में
या घर के अहाते में
गिद्धों द्वारा नोच-नोच कर
फेंक दिया जाएगा बीच राह
अप्राकृतिक यौनाचार
या अमानवीय व्यवहार कर
कर दी जाएगी उनकी हत्या
घर-परिवार,समाज के बाशिंदे
करायेंगे विरोध दर्ज
कैंडल मार्च कर जुलूस निकालेंगे
और धरना देंगे इंडिया गेट पर
परंतु हमारे देश के कर्णाधारों के
कानों पर जूं नहीं रेंगेगी
और हर दिन ना जाने
कितनी निर्भया होती रहेंगी
उनकी वासना की शिकार
द्रौपदी की भांति नीलाम होगी
उनकी इज़्ज़त चौराहे पर
और कानून
बंद आंखों से हक़ीक़त जान
वर्षों बाद अपना निर्णय देगा
कभी सबूतों के अभाव में
और कभी गवाहों को मद्देनज़र
कर देगा गुनहगारों को
बाइज़्ज़त बरी
कभी नाबालिग
होने की स्थिति में
तीन साल के लिए जेल भेज
कर लेगा अपने कर्त्तव्य की इतिश्री
और सज़ा भुगतने के पश्चात्त्
वे दरिंदे पुन: वही सब दोहरायेंगे
पूर्ण आत्मविश्वास से
दबंग होकर
हां!
यदि किसी जज को
निर्भया में
अपनी बेटी का
अक्स नज़र आएगा
तो वह उसे बीस वर्ष के
कारावास की सज़ा सुना
अपना दायित्व निभायेगा
क्योंकि फांसी की सज़ा पाने पर
वह अपील में जायेगा
या राष्ट्रपति से
 लगायेगा प्राणदान की गुहार
यह सिलसिला निरंतर चलता रहेगा
और कभी थम नहीं पायेगा
मैं चाहती हूं
ऐसा कानून बने देश में
बलात्कारियों को नपुंसक बना
भेज दिया जाए
आजीवन जेल में
प्रायश्चित करने के निमित्त
ताकि उनके माता-पिता को भी
गुज़रना पड़े
वंशहीन होने के दर्द से
जो अपने पुत्रों को
छोड़ देते हैं निरंकुश
मासूमों का करने को शीलहरण
संबंधों की अहमियत को नकार
मर्यादा को ताक पर रख
सब सीमाओं का अतिक्रमण कर
हत्या,लूट व बलात्कार जैसे
जघन्य कर्म करने को नि:संकोच
जिसे देख सीना छलनी हो जाता
सुनामी जीवन में आ जाता
काश!
हमारे देश में
कानून की अनुपालना की जाती
और दुष्कर्म करने वालों से
सख्ती से निपटा जाता
तो बेटियां अमनो-चैन की सांस ले पातीं
मदमस्त हो,थिरकतीं-चहकतीं
उन्मुक्त भाव से नाचतीं
घर-आंगन को महकातीं
स्वर्ग बनातीं
और निर्भय होकर जी पातीं।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, ईमेल: drmukta51 @gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता – * मुक्तक * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

मुक्तक

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है सार्थक मुक्तक) 

 

मौन की भाषा

ग़र समझ ले इंसान
मिट जाए द्वैत भाव औ द्वंद्व
            ◆◆◆
रिश्ते आज नीलाम हो रहे
संदेह,संशय,शक,अविश्वास
दसों दिशाओं में
सुरसा की मानिंद फैल रहे
किस पर विश्वास करे इंसान
            ◆◆◆
रिश्तों की डोरी
अलमस्त
भर देती जीवन में उमंग
बरसाती अलौकिक आनंद
महक उठता मन आंगन
            ◆◆◆
खुद से खुदी तक का सफ़र
तय करने के पश्चात् भी
इंसान भीड़ में
स्वयं को तन्हा पाता
अजनबी सम
            ◆◆◆
काश!इंसान समझ पाता
रिश्तों की अहमियत
सम्बंधों की गरिमा
बहती स्नेह, प्रेम की निर्मल सलिला
और जीवन मधुवन बन जाता
            ◆◆◆

© डा. मुक्ता,

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत,drmukta51 @gmail.com

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