हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – यह आदमी मरता क्यों नहीं है? ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆  अपने आप में विशिष्ट है। ई- अभिव्यक्ति परिवार के सभी सम्माननीय लेखकगण / पाठकगण श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी के इस महायज्ञ में अपने आप को समर्पित पाते हैं। मेरा आप सबसे करबद्ध निवेदन है कि इस महायज्ञ में सब अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और यही हमारा दायित्व भी है।)

☆ संजय दृष्टि  –  यह आदमी मरता क्यों नहीं है?

नागरिकों की रक्षा के लिए आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए सशस्त्र बलों के सैनिकों और आतंकी वारदातों में प्राण गंवाने वाले  नागरिकों को श्रद्धांजलि।

 

हार कबूल करता क्यों नहीं है,

यह आदमी मरता क्यों नहीं है?

 

धमाकों से उड़ाया जाता है,

परखच्चों में बदल दिया जाता है,

ट्रेनों की छत से खींच कर

पटक दिया जाता है,

‘ड्रंकन ड्राइविंग’ के

जश्न में कुचल दिया जाता है,

 

दंगों की आग में जलाकर

ख़ाक कर दिया जाता है,

बाढ़ राहत के नाम पर

ठोकर दर ठोकर

कत्ल कर दिया जाता है,

थाने में उल्टा लटकाकर

बेदम पीटा जाता है,

बराबरी की ज़ुर्रत में

घोड़े के पीछे बांधकर

खींचा जाता है,

 

सारी ताकतें चुक गईं

मारते मारते खुद थक गईं,

 

न अमरता ढोता कोई आत्मा है,

न अश्वत्थामा न परमात्मा है,

फिर भी जाने इसमें क्या भरा है,

हजारों साल से सामने खड़ा है,

 

मर मर के जी जाता है,

सूखी ज़मीन से अंकुर -सा

फूट आता है,

खत्म हो जाने से डरता क्यों नहीं है,

यह आदमी मरता क्यों नहीं है?

 

आम आदमी की अदम्य जिजीविषा को समर्पित यह कविता *’शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’* प्रदर्शनी और अभियान में चर्चित रही। विनम्रता से आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ।  

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

यदि आप किसी महाविद्यालय/ कार्यालय/ सोसायटी/ क्लब/ बड़े समूह के लिए इसे आयोजित करना चाहें तो आतंक के विरुद्ध  जन -जागरण के इस अभियान में आपका स्वागत है।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 3 ☆ ज़हर ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “ज़हर ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 3 – ज़हर ☆

 

अध्ययन के नाम पर
अब बताया जा रहा है
कि बीमारियों में
गाँजा
मददगार

—जैसे, सरकारें
चलाने में शराब
मददगार

—जैसे अफीम
धर्म चलाने में, मददगार

—जैसे वोट
लोकतंत्र
चलाने में, मददगार

—जैसे गुंडे
बदमाश, अपराधी
समाज चलाने में
मददगार

—पार्टियां चलाने में
पूंजीपति, मददगार

—कानून व्यवस्था
चलाने में
धंधा, मददगार

—धंधा चलाने में
भ्रष्टाचार, मददगार

—सब कुछ वैसे ही
जैसे, जहर को
मारने में
जहर मददगार

 

(नर्मदा परिक्रमा में, धुरंदर बाबा की धर्मशाला से लौटे तो आते ही हम ने अखबार पढा़–देश भर में गाँजे की खेती वैध करने की तैयारी का समाचार)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 23 – भूख जहां है …. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  भूख से बाज़ार को जोड़ती एक कविता   “भूख जहां है….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 23 ☆

☆ भूख जहां है….☆  

 

भूख जहाँ है, वहीं

खड़ा हो जाता है बाजार।

 

लगने लगी, बोलियां भी

तन की मन की

सरे राह बिकती है

पगड़ी निर्धन की,

नैतिकता का नहीं बचा

अब कोई भी आधार।

भूख जहाँ………….

 

आवश्यकताओं के

रूप अनेक हो गए

अनगिन सतरंगी

सपनों के बीज बो गए,

मूल द्रव्य को, कर विभक्त

अब टुकड़े किए हजार।

भूख जहाँ……………

 

किस्म-किस्म की लगी

दुकानें धर्मों की

अलग-अलग सिद्धान्त

गूढ़तम मर्मों की,

कुछ कहते है निराकार

कहते हैं कुछ, साकार।

भूख जहाँ………….

 

दाम लगे अब हवा

धूप औ पानी के

दिन बीते, आदर्शों

भरी कहानी के,

संबंधों के बीच खड़ी है

पैसों की दीवार।

भूख जहाँ………….

 

चलो, एक अपनी भी

कहीं दुकान लगाएं

बेचें, मंगल भावों की

कुछ विविध दवाएं,

सम्भव है, हमको भी

मिल जाये ग्राहक दो-चार।

भूख जहाँ है,,………

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆ रूहानियत ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “रूहानियत”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 18 ☆

☆ रूहानियत

मिटना ही है एक दिन,

मिट ही जायेंगे तेरे बोल!

माती सा तेरा जिस्म,

इसका कहाँ कहीं कोई मोल?

 

आवाज़ का ये जो दरिया है

किसी दिन ये सूख जाएगा;

और ये जो चाँद सा रौशन चेहरा है

अमावस्या में ढल जाएगा!

 

ये जो मस्तानी सी तेरी चाल है,

इसका कहाँ कुछ रह जाएगा?

ये जो छोटा सा तेरा ओहदा है,

ये तो उससे भी पहले ख़त्म हो जाएगा!

 

ये जो तेरी इतराती हुई हँसी है,

ये भी चीनी सी घुल जायेगी;

ये जो बल खाती तेरी अदाएं हैं,

ये तुझसे चुटकी में जुदा हो जायेंगी!

 

सुन साथी, इन बातों पर तू गुमान न कर,

ये सब तो ख़ुदा की ही देन हैं!

सर झुका ले ख़ुदा के आगे,

ये तेरा हर जलवा ख़ुदा का प्रेम है!

 

जिस दिन तू रूहानियत के

कुछ करीब आ जाएगा;

उसी दिन सुन ए साथी,

तू मुकम्मल हो जाएगा!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 ☆ घर/नवगीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर/नवगीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 – घर/नवगीत ☆

 

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–मेरा घर तो, नदी किनारे

घने नीम की, छाया में था

जिस में बैठ, परिंदे दिन भर

गाना गाते थे..

–इस घर में वह, छांव कहां है?

लिपा-पुता, आँगन था मेरा

धूप, हवा, पानी की जिसमें

कमी नहीं थी..

मेरा घर तो, फूलों वाला

खुशबू वाला, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–हंस-हंस कर हम, सुबह-शाम

मिलते थे खुल कर

बिना बात की, बात नहीं थी

मेरे घर में…

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है

 

(नर्मदा की वैचारिक यात्रा में गरारूघाट पर लिखा गीत)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 ☆ नर्मदा की आवहवा ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “नर्मदा की आवहवा”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 1 – नर्मदा की आवहवा ☆

बेटे ने,

सामान उठाते हुये कहा-

पापा! अपनी आदत के बोझ को

थोड़ा कम करिये

—पिता ने, हंसते हुये कहा-

बेटा! समय के उधड़े होने के बावजूद

इस झोले में मुझे

यादों का भार बिल्कुल नहीं लगता…

—मैं, तो सिर्फ इसलिये कह रहा हूँ पापा

कि जब आप पिछली बार आये थे

तो होशंगाबाद, इटारसी की

कितनी सारी सब्जियाँ लाद लाये थे

परेशानी उठाने की कोई

फालतू जरूरत नहीं है पापा

यहां बेंगलौर में,

सब मिलता है

इस बार मम्मी ने कहा-

लेकिन बेटा ! इस बार हम

करेली का गुड़,

नरसिंहपुर की मटर

और

जबलपुर के सिंघाड़े लाये हैं…

—बेटा, हँसा….

— पिता ने कहा-

मैं, क्या यह नहीं जानता कि

दुनिया में हर जगह,

हर चीज मिलती है?

लेकिन इन में नर्मदा का पानी

मिट्टी और आवहवा है

जिसके दम पर तुम

दुनिया भर में उड़ते-फिरते हो,

समझे …

पापा! आप भी बस..

—पापा ने बहू से कहा—

मेरे इस झोले को

संभाल कर रखना, संध्या!

लौटते समय मैं/

इसी झोले में

कावेरी का पानी

मिट्टी और आवहवा लेकर

भोपाल जांउगा मैं…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से ☆ पाठशाला ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पाठशाला अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 10 – विशाखा की नज़र से 

☆ पाठशाला ☆

 

लगती है परिंदों की पाठशाला ,

वृक्ष की कक्षाओं में ।

गूँज उठती हैं हर दिशा ,

इस पाठ के दुहराव में ।

 

चीं -चीं करती माँ चिड़ियाँ ,

क्या कुछ नन्हे को सिखलाती है ।

कुछ आरोहित स्वर में ,

घटनाक्रम समझाती है ।

 

मैं खिड़की से देख दृश्य ,

भ्रमित हर बार हो जाती हूँ ।

इतने शब्द है मेरे पास ,

पर ना अंश को समझा पाती हूँ ।

 

नन्हे परिन्दें माँ की सीख

आत्मसात कर जाते है ।

अंश मेरी सीख पर

प्रश्न चिन्ह लगाते है ।

 

क्या मस्तिष्क का विकसित होने

विकास की निशानी है ।

या परिदों सा जीवन जीना ,

जीवन  की कहानी है ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता/ग़ज़ल ☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆ – सुश्री शुभदा बाजपेई

सुश्री शुभदा बाजपेई

 

(सुश्री शुभदा बाजपेई जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप हिंदी साहित्य  की ,गीत ,गज़ल, मुक्तक,छन्द,दोहे विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं। सुश्री शुभदा जी कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं एवं आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर  कई प्रस्तुतियां। आज प्रस्तुत है आपकी एक आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल  “मेरे घर का मंज़र देखना ”. )

 

☆ मेरे घर का मंज़र देखना ☆

 

तुम कभी  आकर के मेरे घर  का मंज़र देखना,

दर्द के बिस्तर पे  फ़ैली ग़म की चादर देखना।

 

रात की तन्हाई में जब मैं लिखूंगी खत कभी,

आग में लिपटे  हुए  अक्षर उठाकर देखना।

 

खुद समझ जाओगे तुम पीडा मेरे मन की जनाब,

एक पल मेरी जगह पर खुद को लाकर देखना।

 

आईनो को छोडकर खुदको कभी तन्हाई में,

दीन-ओ-ईमान की मूरत बना कर देख्नना।

 

लोग धोखा खायेंगे इस बार भी ‘शुभदा’ सुनो

खोखली मुस्कान चेहरे पर सजाकर देखना।

 

© सुश्री शुभदा बाजपेई

कानपुर, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मृत्यु ! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  मृत्यु!

मृत्यु क्या है..?

फोटो का फ्रेम में टँक जाना,

जीवन क्या है…?

फ्रेम बनवाना, फोटो खिंचवाना,

एक सिक्के के दो पहलू हैं,

कभी इस ओर आना

कभी उस पार जाना…!

आजका दिन सार्थक बीते।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  विधुर बंधुओं को समर्पित एक कविता – आर्तनाद

श्री सूबेदार पाण्डेय जी के शब्दों में  – ‘आर्तनाद’ का अर्थ है, दुखियारे के दिल की दर्द में डूबी आवाज।  कवि की ये रचना उसी बिछोह के पीड़ा भरे पलों का चित्रण करती है। जब जीवन में साथ चलते-चलते जीवनसाथी अलविदा हो जाता है, तब रो पड़ती हैं दर्द में डूबी आँसुओं से भरी आँखें, और जुबां से निकलती है गम के समंदर में डूबी हुई आवाज। यह रचना समाज के विधुर बन्धुओं को समर्पित है।)

☆ विधुर बंधुओं को समर्पित – आर्तनाद  ☆

 

हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई,
अब मैं तुमसे मिल न सकूंगा।
अपने सुख-दुख मन की पीड़ा,
कभी किसी से कह न सकूं गा।

 

घर होगा परिवार भी होगा,
दिन होगा रातें भी होगी।
रिश्ते होंगे नाते भी होंगे,
फिर सबसे मुलाकातें होगी।

 

जब तुम ही न होगी इस जग में,
फिर किससे दिल की बातें होंगी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।1।।

 

मेरे जीवन में ऐसे आई तुम,
जैसे जीवन में बहारें आई थी।
सुख दुःख में मेरे साथ चली,
कदमों से कदम मिलाई थी।

 

जब थका हुआ होता था मैं,
तुमको ही सिरहाने पाता था।
तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श,
मेरी हर पीड़ा हर लेता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।2।।

 

इस जीवन के झंझावातों में,
दिन रात थपेड़े खाता था।
फिर उनसे टकराने का साहस,
मैं तुमसे ही तो पाता था ।

 

रूखा सूखा जो भी मिलता था,
उसमें ही तुम खुश रहती थी,
अपना गम और अपनी पीड़ा,
क्यों कभी न मुझसे कहती थी।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।3।।

 

मेरी हर खुशियों की खातिर,
हर दुख खुद ही सह लेती थी।
मेरे आँसुओं के हर कतरे को,
अपने दामन में भर लेती थी।

 

जब प्यार तुम्हारा पाता तो,
खुशियों से पागल हो जाता था।
भुला कर सारी दुख चिंतायें
तुम्हारी बाहों में सो जाता था।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।4।।

 

तुम मेरी जीवन रेखा थी,
तुम ही  मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,
तुम ही तो आवाज थी।

जब नील गगन के पार चली,
मेरे शब्द खामोश हो गये।
बिगड़ा जीवन से ताल-मेल,
मेरे हर सुर साज खो गये।
।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।5।।

मँझधार में जीवन नौका की,
सारी पतवारें जैसे टूट गई हो।
तूफानों से लड़ती मेरी कश्ती,
किनारे पर जैसे डूब रही हो।

मेरे जीवन से तुम ऐसे गई,
मेरी बहारें जैसे रूठ गई हो।
इस तन से जैसे प्राण चले,
जीने की तमन्ना छूट गई हो।

शेष बचे हुए दिन जीवन के,
तुम्हारी यादों के सहारे काटूंगा,
अपने पीड़ा अपने गम के पल,
कभी नहीं किसी से बाटूंगा।

तुम्हारी यादों को लगाये सीने से,
अब बीते कल में मैं खो जाउंगा।
ओढ़ कफन की चादर इक दिन,
तुमसा गहरी निद्रा में सो जाऊंगा।

।। हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई ।।6।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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