हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 1 – खुशी तुझे ढूंढ ही लिया ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी

का e-abhivyakti  में हार्दिक स्वागत है। आपकी अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आपने हमारे आग्रह पर यह साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज प्रारम्भ करना स्वीकार किया है, इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी कविता “खुशी तुझे ढूंढ ही लिया”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 1 ☆

☆ खुशी तुझे ढूँढ़ ही लिया

 

आँख खुली नींद में,

मुस्कराती माँ के आँचल में,

पिता के आदर, गुस्सा, प्यार में,

भाई की अनबन तक़रार में,

दीदी की अठखेली मुस्कान में,

हे खुशी, तू तो भरी पड़ी है,

मेरे परिवार के बागियान में।

 

पाठशाला के भरे बस्ते में,

टूटी पेन्सिल की नोक में,

फटी कापी की पात में,

दोस्त की साजी किताब में,

परीक्षा और नतीजे खेल में,

हे खूशी तू खड़ी, खड़ी रंग में,

तेरा निवास ज्ञानमंदिर में।

 

कालेज की भरी क्लास में,

यार-सहेली के शबाब में,

प्यार कली खिली उस साज में,

चिट्ठी-गुलाब-बात के अल्फ़ाज में,

गम-संगम आँसू बरसाती बरसात में,

हे खुशी, तू बसी विरहन आस में,

और पियारे मिलन के उपहास में।

 

समझौते या कहे खुशी के विवाहबंध में

पति-पत्नी आपसी मेल-जोल में,

गृहस्ती रस्में-रिवाज निभाने में,

माता-पिता बन पदोन्नति संसार में,

जिम्मेदारी एहसास और विश्वास में,

हे खुशी, तुझे तो हर पल देखा,

तालमेल करती जिंदगी तूफान में।

 

बचपन माँ के आँचल में,

मिट्ठी-पानी हुंकार में,

यौवन की चाल-ढाल में,

सँवरती जिंदगी ढलान में,

पचपन के सफेद बाल में,

हे खुशी, तू सजती हर उम्र में,

और चेहरे सूखी झुर्रियों में।

 

आँख मूँद पड़े शरीर में,

आँसू भरें जन सैलाब में,

चार कंधों की पालखी में,

रिश्तों की टूटती दीवार में,

चिता पर चढ़ते हार में,

हे खुशी, तुझे तो पाया,

जन्म से श्मशान की लौ बहार में।

 

हे खुशी, एक सवाल है मन में,

क्यों भागे हैं जीव, ख्वाइशों के वन में,

लोग कब समझेंगे तू भी है गम में,

जिस दिन ढूँढेंगे तुझे खुद एहसास में,

और औरों को बाँटते रहे प्यार में,

हे खुशी, खुशी होगी मुझे लिपटे कफन में,

और लोगों के लौटते भारी हर कदम में।

 

हे खुशी आखिर तुझे ढूँढ ही लिया,

जन्म से मृत्यु तक के अंतराल में।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल: [email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4 ☆ चले जाने तलक ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “चले जाने तलक”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4   

 

☆ चले जाने तलक ☆

 

तेरे चेहरे पर यह मुस्कान बनी रहेगी कब तलक?

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक?

 

क्या तेरे मन को यह कोई अधूरी सी ख्वाहिश है

जो तुझे ख़ुशी देगी सिर्फ तेरी गली आने तलक?

 

या फिर यह कोई ठहरी सी दिल की तमन्ना है

जो तेरे साथ चलेगी सिर्फ मेरे वापस जाने तलक?

 

सुन, तू ज़हन को हर एहसास से आज़ाद कर दे,

मुस्कान का रिश्ता हो जहाँ भी झलके तू पलक!

 

ख़ुशी और जुस्तजू अपनी रूह में तू ऐसी भर दे,

कि जब-जब तू पंख फैलाए, नज़र आये फ़लक!

 

तेरे हर लम्हे में तब सुकून होगा जो न बदलेगा

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – क्षण-क्षण ⌚

मेरे इर्द-गिर्द
बिखरे पड़े हज़ारों क्षण,
हर क्षण खिलते
हर क्षण बुढ़ाते क्षण।
मैं उठा,
हर क्षण को तह कर
करीने से समेटने लगा,
कई जोड़ी आँखों में
प्रश्न भी तैरने लगा,
क्षण समेटने का
दुस्साहस कर रहा हूँ,
मैं यह क्या कर रहा हूँ…?
अजेय भाव से मुस्कराता
मैं निःशब्द
कुछ कह न सका,
समय साक्षी है
परास्त वही हुआ
अपने समय को जो
सहेज न सका।
आपका दिन विजयी हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – तो चलूँ….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?संजय दृष्टि  – तो चलूँ….! ?

 

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने कागज़ के माथे पर

कलम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का लिख लूँ

तो चलूँ…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(कविता संग्रह ‘योंही’)

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 – मोर के आँसू ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  नौवीं  कड़ी में उनकी  एक अद्भुत कविता   “मोर के आँसू ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 ☆

 

☆ मोर के आँसू ☆ 

 

जंगल में मोर नाचा …..

किसने देखा?

इसने देखा? उसने देखा?

 

पर अब पता चला कि-

किसी ने भी नहीं देखा।

 

काले-काले  मेघ देखकर,

मोरनी नाचती रहती है,

और

नाम मोर का लगता है।

 

मोरनी जब थक जाती है,

अपने पैर देखकर रोती है।

तब मोर को दया आती है,

और

वह भी आँसू बहा देता है।

 

सारा खेल यहीं हो जाता है,

फिर मोरनी आँसू पी लेती है,

एक जीवन की शुरुआत होती है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ दोहा छंद ☆ – चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

(सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश” जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। प्रस्तुत है उनके कुछ दोहे-छंद। ) 

 

☆ दोहा छंद☆ 

 

घर घर होना चाहिये, नारी का सम्मान।

सच्चे अर्थों में यही, है जगकी पहचान।।

 

नारी जगकी रचयिता, नारी जगका सार।

नारी से ही सज रहा, सुंदर सा घरद्वार।।

 

नारी प्रतिमा प्रेम की, नारी हर श्रृंगार।

बाहर से शीतल मगर, भीतर से अंगार।।

 

नारी तुम नारायणी, नारी तुम्हीं हो वेद।

सुप्त ह्रदय में स्वामिनी, भरती हो संवेद।।

 

नारी की महिमा बड़ी, जान रहे सब देश।

नारी प्रतिभा बहुमुखी, कहती है “चन्द्रेश”

 

कवियित्री चन्द्रकांता सिवाल ” चंद्रेश ”
न्यू दिल्ली – 110005
ई मेल आई डी– [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆ नज़रें पार कर ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  ऐसी ही एक प्राकृतिक आपदा पर आधारित भावप्रवण कविता  ‘नजरें पार कर’।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 2 ☆

☆ नजरें पार कर

 

उस गली से गुजरते हुए
खटकता है मुझे,
जहाँ आखेटक होते हैं खड़े
ताकते हुए।
जो नारी होने का अहसास
करवाते हैं ।
कुछ कठपुतलियाँ भी साथ
हो लेती हैं।
बहेलिया अपना काम करते हैं,
मैं अपना।
क्योंकि, उस गली के किनारे
कुछ पेड़ -पौधे उगाए गए हैं ।
जिनमें तुलसी, गुलाब,  गेंदें
चमेली और रातरानी
के फूल महकते हैं ।
मैं उनको निहारने का
आनंद उठाने के लिए
उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर।

उन फूलों का हिल डुलना
भाता है मन को।
बंधनहीन लहराती सुगंध
छू लेती है मन को।
उनसे मन भर लेने को
मैं उस गली से गुजरती हूँ,
नजरें पार कर ।

क्योंकि, फूल
आखेटक, बहेलिया या कठपुतली
नहीं हैं ।
इसलिए मैं उस गली से
गुजरती हूँ ।
नजरें पार कर ।

 

© सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अखंड रचना! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अखंड रचना! 

गहरी मुँदती आँखें,

थका तन,

छोड़ देता हूँ बिस्तर पर,

सुकून की नींद

देने लगती है दस्तक,

सोचता हूँ,

क्या आखिरी नींद भी

इतने ही सुकून से

सो पाऊँगा…?

नींद, जिसमें

सुबह किये जानेवाले

कामों की सूची नहीं होगी,

नहीं होगी भविष्य की ऊहापोह,

हाँ कौतूहल ज़रूर होगा

कि भला कहाँ जाऊँगा…!

होगा उत्साह,

होगी उमंग भी

कि नया देखूँगा,

नया समझूँगा,

नया जानूँगा

और साधन की अनुमति

मिले न मिले तब भी

नया लिखूँगा..!

 

देखना, समझना, रचना अखंड रहे।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ हर हर गंगे ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “हर हर गंगे ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी की कविता  गंगा जी की गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा और इस अद्भुत यात्रा में उनके विभिन्न स्वरूप,उनके विभिन्न पड़ाव, उत्तुंग पर्वत शिखरों से हरे भरे मैदानों से होते हुए गंगा सागर में विलीन होते हुए विभिन्न धर्मों, संप्रदायों को सर्वधर्म समभाव व एकता का  संदेश देती  हैं। )

 

 ☆ हर हर गंगे ☆

गंगोत्री के उत्तुंग शिखर से,

आती हो बन  पापनाशिनी।

कल कल करती,  हर-हर करती,

बन जाती हो जीवनदायिनी।

 

तीव्र वेग से धवलधार बन

हरहराती, आती बल खाती।

चंचल नटखट बाला सी,

इतराती,  इठलाती आती।

 

मन खिल उठता मेरा,

दिव्य रूप देखकर तेरा,

हर-हर गंगे,  हर-हर गंगे।।

 

जब मैदानों में चलती हो,

तो मंथर-मंथर बहती हो।

अपने दुख अपनी पीड़ा को,

कभी न व्यक्त करती हो।

 

सब तीरथ करते अभिनंदन,

स्पर्श जब तुम उनका  करती हो।

सुबह शाम सब करते वंदन,

जब मध्य उनके तुम बहती हो।

 

जनमानस श्रद्धापूर्वक

करते रहते जयजयकार,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरे पावन जल मिट्टी से,

समस्त जग है जीवन पाता।

वृक्ष अन्न फल-फूल धरा से,

गंग कृपा से, है  मानव उपजाता।

 

तीर्थराज का कर अभिनंदन,

जब काशी तुम आती हो।

अर्धचंद्र का रूप धर,

भोले का भाल सजाती हो।

 

मनोरम दृश्य देख, हो प्रसन्न

देवगण भी बोल उठते,

हर-हर गंगे, हर-हर गंगे।।

 

अपने पावन जल से मइया,

शिव का अभिषेक तुम करती हो।

भक्तों के पाप-ताप हरती,

जन-जन का मंगल करती हो।

 

सारा जनमानस काशी का,

हर हर बंम बंम बोल रहा है।

ज़र्रा ज़र्रा, बोल रहा है

हर हर गंगे, हर हर गंगे।।

 

सूर्यदेव की स्वर्णिम आभा,

जब गंगा में घुल जाती है।

स्वच्छन्द परिन्दो की टोली,

उनके ऊपर मंडराती है।

 

घाटों की नयनाभिराम झांकी,

बरबस मन को हरती है।

जाने अनजाने दिल के भीतर से

ये आवाज उभरती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

कहीं मन्दिरों के भीतर,

हर-हर का नाद सुनाई देता।

कहीं अजानों की पुकार में,

वो ही तत्व दिखलाई देता।

 

गिरजों और गुरूद्वारों में भी,

वो ही छटा दिखाई देती।

हर जुबान हर दिल  के भीतर,

वो ही आवाज़ सुनाई देती।

हर हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

तेरा पावन जल ले अंजलि भर,

कोई श्रद्धांजलि देता है

कोई मुसलमां तेरा जल ले,

रोज़ वजूकर लेता है।

 

सिख ईसाई गंगा जल से

पूजा अपनी करते हैं।

सदा सर्वदा हर दिलसे

यही सदा, सदा सुनाई देती है।

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

बहते-बहते मंथर-मंथर,

जब सागर में मिल जाती हो।

सागर का मान बढ़ाती,

गंगासागर कहलाती हो।

 

सागर की अंकशायिनी बन,

लहरों पे इठलाती हो।

उत्ताल तरंगें बोल उठती,

हर-हर गंगे हर-हर गंगे।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 9 – कौन दूध इतना बरसाता है? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “कौन दूध इतना बरसाता है?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कौन दूध इतना बरसाता है? ☆  

 

सौ घर की बस्ती में

कुल चालीस गाय-भैंस

फिर इतना दूध कहाँ से

नित आ जाता है।

 

चार, पांच सौ के ही

लगभग आबादी है

प्रायः सब लोग

चाय पीने के आदि है

है सजी मिठाईयों से

दस-ग्यारह होटलें

वर्ष भर ही, पर्वोत्सव

घर,-घर में, शादी है।

नहीं, कहीं दूध की कमी

कभी भी पड़ती है,

सोचता हूँ, कौन

दूध इतना, बरसाता है

सौ घर की………….।

 

शहरों में सजी हुई

अनगिन दुकाने हैं

दूधिया मिष्ठान्नों की

कौन सी खदाने हैं

रंगबिरंगे रोशन

चमकदार आकर्षण

विष का सेवन करते

जाने-अनजाने हैं।

जाँचने-परखने को

कौन, कहाँ पैमाने

मिश्रित रसायनों से

जुड़ा हुआ, नाता है

सौ घर की……….।

 

नए-नए रोगों पर

नई-नई खोज है

शैशव पर भी,अभिनव

औषधि प्रयोग है

अपमिश्रण के युग में

शुद्धता रही कहाँ

विविध तनावों में

अवसादग्रस्त लोग हैं।

मॉलों बाजारों में

सुख-शांति ढूंढते

दर्शनीय हाट,

ठाट-बाट यूँ दिखाता है

सौ घर की बस्ती में….।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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