हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… ☆ – सौ. सुजाता काळे

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का…)

 

तिरंगा ! तू फिरा दे चक्र अशोक का… 

 

हे तिरंगा ! तू फहराता

विशाल नभ पर कायम है ।

 

आन बान और शान में तेरी

हर भारतवासी नतमस्तक है।

 

तेरे अंदर शांति का प्रतीक

फिर क्यों हिंसा की हलचल है?

 

कुसुंबी रक्त सबकी धमनी में

फिर क्यों धर्मा धर्म का भेदा भेद है?

 

हरित धरती से अन्न उपजता

फिर क्यों केसरिया- हरा भेद है?

 

तू लहराता आसमान में

तेरी नज़र सब ओर बिछी है ।

 

सीमाओं को बाँटता मानव

सीमा के अन्दर अंधेर मची है ।

 

गरीबों से लिपटी है गरीबी

सस्ती हुई बेकारी क्यों है?

 

ठेर ठेर चलता विवाद है

धर्म के नाम पर क्यों धूम मची है?

 

तू फिरा दे चक्र अशोक का

और मिटा दे अमानुषता।

 

तुझ सा ऊँचा मानव बन जाए

सदा रहे वह अचल अभेद सा।

 

© सौ. सुजाता काले

पंचगनी, महाराष्ट्रा।

9975577684

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हिन्दी साहित्य- स्वतन्त्रता दिवस विशेष – कविता – ☆ हमारी स्वतन्त्रता ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

स्वतन्त्रता दिवस विशेष

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  द्वारा रचित स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष कविता हमारी स्वतन्त्रता )

 

 हमारी स्वतन्त्रता 

 

कहने को हमें स्वतंत्र हुए वर्षों व्यतीत हुए

पर क्या हम सही मायने में स्वतंत्र हो पाए

पाश्चात्य संस्कृति अपनाने से कब चूक पाए

अपने संस्कारों को हृदय में जगह क्या दे पाए ?

 

यह अनगिनत अनगुथे सवाल जहन में

उतरते जाते हैं बस यूं ही कई बार

क्यों हमारे ख्याल पाश्चात्य संस्कृति में गिरफ्त

होकर रह गये पर रहती निरुत्तर हर बार।

 

कैसी विडंबना यह कि अपनी ही संस्कृति व

संस्कार नीरस लगने लगे हैं?

विरासत में मिले कायदे-कानून भी कहीं न

कहीं पांबदी से लगने लगे हैं।

 

माना तरक्की की है हर क्षेत्र में हमने बहुत

पर असली रूतबा खोने लगे हैं

इस भेड़ चाल में फंस स्वार्थप्रस्थ हो अपनी

कर्मठता व शौर्य को पीछे छोड़ने लगे हैं।

 

स्वछंद सही मायने में दरअसल तभी कहलायेंगे

जब मनोबल कभी किसी हाल में न गिरने देंगें

सुनेंगे सबकी, सीखेंगे, समझेंगें हर किसी से पर

आत्मसम्मान व संस्कारों की बलि न चढ़ने देंगें।

 

उन सब परतन्त्रता की बेड़ियों को तोड़ देगें जो हमारी

जन्मभूमि के हित में न हो जिनके लिए स्वतंत्र हुए

तब जाकर हम सही मायने में यह एहसास फिर कर

पायेंगे वाकई खुली हवा में साँस लेने के काबिल हुए।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ वीर बिजूखा और जुगनू ☆ – सौ. सुजाता काळे

रक्षा बंधन विशेष 

सौ. सुजाता काळे

(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  रक्षा बंधन के अवसर पर उनकी विशेष कविता वीर बिजूखा और जुगनू जो उन्होने उन वीर जवानों के लिए लिखी है जो अपना जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर चुके हैं। रक्षा बंधन पर उनकी विशेष स्मृतियाँ हैं जो हम आपसे साझा कर रहे हैं। उनके ही शब्दों में –    

“हमारी स्कूल महाराणी चिमणाबाई हाईस्कूल, बड़ोदा,   गुजरात से जहाँ मैंने पढ़ाई की, हर साल सैनिकों के लिए राखी और पत्र भेजे जाते हैं और विद्यार्थी स्वयं राखी बनाते हैं । राखी के संग मैंने यह कविता लिखकर भेजी है। हे माँ भारती के वीर सपूतों!  मेरे शूरवीर  भाईयों आपको मेरे शत शत प्रणाम हैं। आपके लिए आपकी बहन की ओर से कविता के रूप में मनोगत प्रस्तुत है। ” – सौ. सुजाता काळे )

 

? वीर बिजूखा और जुगनू  ?

 

सीना तान खड़े रहते हैं,

सभी दर्द सीने में छुपाकर,

यादों को मन में सहलाते,

बर्फीली श्वेत चादर ओढ़कर ।

 

दिल में संजोई ममता को

बारिश संग आँसू में बहाते,

देख न पाता कोई उनको,

किस सागर में जाकर मिलते।

 

कड़ी धूप को चाँदनी बनाते,

कर्तव्य अपना न बिसराते,

कभी बिजूखा या जुगनू बनकर,

आँखों में तारों को सजाते।

 

बाढ़ में घर कभी डूब रहा हो,

सूखे से खेत भी सूख रहा हो,

माँ भारती की रक्षा के लिए,

अपने खून की चुनरी हैं ओढ़ाते।

 

हाथ न बढ़ा सकता हैं कोई,

भारत माँ की आँचल की ओर,

छेदते हो गोलों से  उनके सीने,

जो कदम उठे  भारत की ओर ।

 

आपकी कृतज्ञ बहन,

 

सुजाता काळे ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ राखी की सौंधी सुगंध ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

रक्षा बंधन विशेष 

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(रक्षा बंधन के विशेष पर्व पर प्रस्तुत है  श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी  अपनी बहनों के लिए रचित कविता “राखी की सौंधी सुगंध“। इस रचना के बारे  श्री भिसे जी के ही शब्दों में

“मेरी सगी बहन तो नहीं है परंतु मेरी ५ चचेरी बहनों का बहुत प्यार मिला. अब वह तो सरुराल चली गई. कभी वह आती हैं तो कभी पतियाँ. परंतु राखी के पर्व पर भाई का इंतजार करना बहन के लिए सौगात से कम नहीं होता है. अपनी बहनों के इंतजार में रची यह रचना. आपको पसंद जरुर आएगी. यह संदेश मेरी उन सभी बहनाओं के लिए है जो अपने भाई से दूर तो है परंतु दिल के करीब…..” – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे)

 

? राखी की सौंधी सुगंध ?

 

मेरी प्यारी बहना,

एक ऐसी राखी जरुर ले आना,

बचपन की यादों की,

सौंधी सुगंध मुझको तू दे जाना.

 

राखी का उत्साह देखा था मैंने,

सुबह उठकर जल्दी माँ से

तोतले बोल रूपए माँगे थे तूने,

याद है आज भी मुझे,

राखी न दे पाई बेबस माँ,

सफ़ेद धागे को कुमकुम कर,

बांध दिया था हाथ पर तूने,

वो राखी का अनुबंद खो गया है कहीं,

वो वापस इस भाई के वास्ते जरुर ले आना

बचपन की …….

 

ढल गया बचपन यौवन हमारे द्वार खड़ा,

यह भाई ही लगता था एक आधार बड़ा,

अब माँ के पास नहीं था कोई बहाना,

राखी के दिन अब एक आँसू नहीं था बहाना,

लाई तू एक राखी मोर पंख से बनी,

नहीं था तेज उसपर था तेरे मुख पर,

देखा जब आरती की थाल जो बनी,

वो राखी के पंख और थाल आज लगती है सूनी

उजड़े सारे रंग उनके वो रंग वापस ले आना,

बचपन की ….

 

हाथ पीले कर एक दिन अपने गाँव तू चली,

राखी पर इंतजार में खड़ा मैं,

प्यार की अपनी वहीँ पुरानी गली,

शाम ढले तू न आई, आई बस एक पाति,

चूमा मैंने, सिर पर ले धरा चिपकाया छाती,

बहना का प्यार उमड़ आया ह्रदय में,

अठखेली देख यह पाति भी गीत है गाती,

‘भाई के प्यार में एक बहना आँसू है बहाती’,

बहना वहीँ पीली हथेली में तेरी मुस्कान ले आना,

बचपन की ….

 

जिम्मेदारियाँ आ गई तुझपर और,

मुझपर भी कुछ आए बंधन,

चाहे बहें मेरी आँखें याद से तेरी,

सिंचाई करना उससे तेरा जीवन हो नंदन,

राखी के दिन याद तू जरुर करेगी मुझको,

एक ही तो भाई है दिल सताएगा तुझको,

संभालकर रिश्तों की डोर दोनों घर की,

लाँघकर परिधि यादें और जज्बात से निकलकर,

वहीँ बचपन की प्यारी बहना जरुर तू ले आना,

बचपन की….

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – कविता ☆ रक्षा बंधन ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

रक्षा बंधन विशेष 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित  कविता “रक्षा बंधन”।)

 

? रक्षाबंधन ?

 

राखी है प्रीति मे पगे उपहार का बंधन

भाई बहिन के अति पवित्र प्यार का बंधन

 

नाजुक हैं पर मजबूत है ये रेशमी धागे

बंधन न बडा कोई भी इन धागो के आगे

सुकुमार उँगलियों का मधुर प्यार है इनमें

कोमल कलाइयों की भी झनकार है इनमें

प्यारी बहिन का भाई पे अधिकार का बंधन। राखी है…..

 

यह रस्म नहीं मन की छुपी आस है इनमें

भाई बहिन के रिश्तों का विश्वास है इनमें

इन धागों से दो दूर के संसार बंधे है

भारत की भावनायें और संस्कार बंधे है

राखी है प्यार भरे दो परिवार का बंधन। राखी है…..

 

भाई बहिन के प्रेम की पहचान है राखी

भावों का एक सुख भरा एहसास है राखी

बन्धुत्व के विस्तार का त्यौहार है राखी

राखी बंधी कलाई का प्रिय प्यार है राखी

बहिनों के मन के सपनों की मनुहार है राखी। राखी है…..

 

है हिंद के इतिहास का एक रंग भी इसमें

जब हिंदू बहिन से बाँधा राखी हुमायूँ ने

राखी थी लाज राखी की रानी को बचाने

धर्मो का मर्म समझ भेदभाव भुलाके

राखी है स्नेह के मधुर व्यवहार का बंधन । राखी है…..

 

जब धरती को हर्षाती हैं सावन की घटायें

मनमोर को वनमोर सा रिझाती है घटाये

रक्षा औं प्रीति के गूँथे कई तार है इसमें

भावों का मधुर रसभरा भंडार है इसमें।

इतना सुखद न कोई भी संसार का बंधन। राखी है…..

 

इन रेशमी धागों में है एक सुख भरा संसार

हर मन में जो भर जाता है सावन का मधुर प्यार

आपस के प्रेम भाव का उद्गार है राखी

सावन के सरस माह का श्रृंगार है राखी

भारत के सदाचार सरोकार का बंधन। राखी है…..

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 10 – किसे पता था….? ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। 

कुछ दिनों से कई शहरों में बड़े पैमाने पर सिंथेटिक दूध, नकली पनीर, घी तथा इन्ही नकली दूध से बनी खाद्य सामग्री, छापेमारी में पकड़ी जाने की खबरें रोज अखबार में पढ़ने में आ रही है। यह कविता कुछ माह पूर्व “भोपाल से प्रकाशित कर्मनिष्ठा पत्रिका में छपी है। इसी संदर्भ में आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  कविता   “किसे पता था….?। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 10 ☆

 

☆ किसे पता था….? ☆  

 

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वांस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे संवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पंखेरू उड़ जाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,सांझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बंधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में

ऐसे भटकाएगा

बंधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 1 – खुशी तुझे ढूंढ ही लिया ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी

का e-abhivyakti  में हार्दिक स्वागत है। आपकी अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। आपने हमारे आग्रह पर यह साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज प्रारम्भ करना स्वीकार किया है, इसके लिए हम आपके आभारी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी कविता “खुशी तुझे ढूंढ ही लिया”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 1 ☆

☆ खुशी तुझे ढूँढ़ ही लिया

 

आँख खुली नींद में,

मुस्कराती माँ के आँचल में,

पिता के आदर, गुस्सा, प्यार में,

भाई की अनबन तक़रार में,

दीदी की अठखेली मुस्कान में,

हे खुशी, तू तो भरी पड़ी है,

मेरे परिवार के बागियान में।

 

पाठशाला के भरे बस्ते में,

टूटी पेन्सिल की नोक में,

फटी कापी की पात में,

दोस्त की साजी किताब में,

परीक्षा और नतीजे खेल में,

हे खूशी तू खड़ी, खड़ी रंग में,

तेरा निवास ज्ञानमंदिर में।

 

कालेज की भरी क्लास में,

यार-सहेली के शबाब में,

प्यार कली खिली उस साज में,

चिट्ठी-गुलाब-बात के अल्फ़ाज में,

गम-संगम आँसू बरसाती बरसात में,

हे खुशी, तू बसी विरहन आस में,

और पियारे मिलन के उपहास में।

 

समझौते या कहे खुशी के विवाहबंध में

पति-पत्नी आपसी मेल-जोल में,

गृहस्ती रस्में-रिवाज निभाने में,

माता-पिता बन पदोन्नति संसार में,

जिम्मेदारी एहसास और विश्वास में,

हे खुशी, तुझे तो हर पल देखा,

तालमेल करती जिंदगी तूफान में।

 

बचपन माँ के आँचल में,

मिट्ठी-पानी हुंकार में,

यौवन की चाल-ढाल में,

सँवरती जिंदगी ढलान में,

पचपन के सफेद बाल में,

हे खुशी, तू सजती हर उम्र में,

और चेहरे सूखी झुर्रियों में।

 

आँख मूँद पड़े शरीर में,

आँसू भरें जन सैलाब में,

चार कंधों की पालखी में,

रिश्तों की टूटती दीवार में,

चिता पर चढ़ते हार में,

हे खुशी, तुझे तो पाया,

जन्म से श्मशान की लौ बहार में।

 

हे खुशी, एक सवाल है मन में,

क्यों भागे हैं जीव, ख्वाइशों के वन में,

लोग कब समझेंगे तू भी है गम में,

जिस दिन ढूँढेंगे तुझे खुद एहसास में,

और औरों को बाँटते रहे प्यार में,

हे खुशी, खुशी होगी मुझे लिपटे कफन में,

और लोगों के लौटते भारी हर कदम में।

 

हे खुशी आखिर तुझे ढूँढ ही लिया,

जन्म से मृत्यु तक के अंतराल में।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल: [email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4 ☆ चले जाने तलक ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “चले जाने तलक”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4   

 

☆ चले जाने तलक ☆

 

तेरे चेहरे पर यह मुस्कान बनी रहेगी कब तलक?

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक?

 

क्या तेरे मन को यह कोई अधूरी सी ख्वाहिश है

जो तुझे ख़ुशी देगी सिर्फ तेरी गली आने तलक?

 

या फिर यह कोई ठहरी सी दिल की तमन्ना है

जो तेरे साथ चलेगी सिर्फ मेरे वापस जाने तलक?

 

सुन, तू ज़हन को हर एहसास से आज़ाद कर दे,

मुस्कान का रिश्ता हो जहाँ भी झलके तू पलक!

 

ख़ुशी और जुस्तजू अपनी रूह में तू ऐसी भर दे,

कि जब-जब तू पंख फैलाए, नज़र आये फ़लक!

 

तेरे हर लम्हे में तब सुकून होगा जो न बदलेगा

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्षण-क्षण ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – क्षण-क्षण ⌚

मेरे इर्द-गिर्द
बिखरे पड़े हज़ारों क्षण,
हर क्षण खिलते
हर क्षण बुढ़ाते क्षण।
मैं उठा,
हर क्षण को तह कर
करीने से समेटने लगा,
कई जोड़ी आँखों में
प्रश्न भी तैरने लगा,
क्षण समेटने का
दुस्साहस कर रहा हूँ,
मैं यह क्या कर रहा हूँ…?
अजेय भाव से मुस्कराता
मैं निःशब्द
कुछ कह न सका,
समय साक्षी है
परास्त वही हुआ
अपने समय को जो
सहेज न सका।
आपका दिन विजयी हो।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – तो चलूँ….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?संजय दृष्टि  – तो चलूँ….! ?

 

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने कागज़ के माथे पर

कलम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का लिख लूँ

तो चलूँ…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(कविता संग्रह ‘योंही’)

 

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