हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #242 – कविता – ☆ पावस प्रणाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता पावस प्रणाम” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #242 ☆

☆ पावस प्रणाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

धरा की अम्बर से मनुहार

रम्य ऋतु पावस के उपहार

बँधे झूले अमुआ की डार

हुई स्वीकृत सब निविदाएँ

ऐसे स्नेहिल मौसम में

कुछ गीत गुनगुनाएँ

चलो हम सावन हो जाएँ।।

 

ताप मिटा तन का वसुंधरा पावस नीर नहाई

हरी ओढ़नी ओढ़ प्रफुल्लित मन ही मन मुस्काई

मची बादल बिजुरी में रार

बँटे नहीं उसका अपना प्यार

कुपित हो चमके बारम्बार7

आँख धरती को दिखलाए

ऐसे स्नेहिल मौसम में

कुछ गीत गुनगुनाएँ

चलो हम सावन हो जाऍं।।

 

ताल-तलैया भरे

बाँध ने तोड़ी निज मर्यादा

नदी विहँसती चली लक्ष्य

प्रियतम सिन्धु का साधा

झमाझम पावस की बौछार

झींगुरों की अविचल गुंजार

प्रकृति में बज उठे सितार

बीज खेतों में अँकुराए

ऐसे स्नेहिल मौसम में

कुछ गीत गुनगुनाएँ

चलो हम सावन हो जाएँ।।

 

पशु पक्षी वनचर विभोर

नव युगल मुदित बौराये

बाँच रहा सावन प्रेमिल

पावस की पुनित ऋचाएँ

पुण्यमय पर्व तीज त्योहार

सृष्टि में आया नवल निखार

प्रीत की बहती रहे बयार

करें नित नई सर्जनाएँ

ऐसे स्नेहिल मौसम में

कुछ गीत गुनगुनाएँ

चलो हम सावन हो जाएँ।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 66 ☆ यादों की परछाँई… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “यादों की परछाँई…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 66 ☆ यादों की परछाँई… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

बतियाते हैं

दिन भर दिन से

रात बदलते करवट कटती।

 

तिथि बाँचते

पोथी पत्तर

तीज पर्व हैं आते-जाते

कृष्ण पक्ष से

शुक्ल पक्ष तक

सूरज रखते चाँद उठाते

 

नक्षत्रों के

चरण पकड़ते

भाग्य रेख कब बढ़ती घटती ।

 

गये दिनों का

लेखा जोखा

ख़ालीपन हाथों में लेकर

चुपके-चुपके

वर्तमान को

भरते रहे तसल्ली देकर

 

बैठ अनागत

आहट सुनते

केवल उम्र पहाड़ा रटती।

 

उढ़ा मखमली

चादर तन की

रिश्तों की बगिया महकाई

जोड़-जोड़ कर

सिलते हरदम

संबंधों की फटी रज़ाई

 

अब यादों की

परछाँई में

अपनेपन की छाँव भटकती।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 70 ☆ फूल की उम्र चंद लम्हों हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “फूल की उम्र चंद लम्हों हैं“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 70 ☆

✍ फूल की उम्र चंद लम्हों हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ये करामात है बहारों की

बाढ़ आई है जो नज़ारों की

पीठ पर ज़ख्म देखने वालों

ये इनायत है मेरे यारों की

 *

चाँद का हाथ बाँटने के लिए

कहकशाँ आ गई सितारों की

 *

फूल की उम्र चंद लम्हों हैं

उम्र लम्बी बड़ी है खारों की

 *

आदमी ढो रहे हैं ग़म के पहाड़

चाह मत करिए ग़म गुसारों की

 *

पहले कुदरत जता दे खतरे को

समझें हम बात कब  इशारों की

 *

आपके गर कलाम में है दम

क्या जरूरत है इश्तहारों की

 *

धन कुबेरों के साथ है संसद

फ़िक़्र किसको है खाक़सारों की

 *

आग दमकल नहीं बुझा सकती

भड़की नफ़रत के जो शरारों की

 *

ये भी विज्ञान की है भेंट अरुण

छीन रोज़ी ली दस्तकारों की

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 67 – देखकर चाँद भी तुमको, जल जाएगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – देखकर चाँद भी तुमको, जल जाएगा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 67 – देखकर चाँद भी तुमको, जल जाएगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कल की बातें न कर, देखा कल जाएगा 

ये मिलन का मुहूरत निकल जाएगा

*

आज भी तेरा कल, कल में बदला अगर 

देखना, दम हमारा, निकल जाएगा

*

हुस्न पर थोड़ा परदा रखा कीजिए

देखकर, चाँद भी तुमको, जल जाएगा

*

हस्न के ये शरारे, न भड़काइये 

पास आने से, पत्थर पिघल जाएगा

*

वादियों में अकेले न घूमा करो 

कोई भँवरा, कभी भी मचल जाएगा

*

रूप पर अपने, इतना न इतराओ तुम 

एक दिन, रूप-यौवन भी ढल जाएगा

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विदेह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विदेह ? ?

बूझता हूँ पहेली-

कटोरे में कटोरा

पुत्र, पिता से गोरा,

भीतर झाँकता हूँ, 

अपनी देह के भीतर

एक और देह पाता हूँ,

इस देह का भान

सांसारिक प्रश्नों को

कर देता है बौना,

अपनी आँख से

अपनी आँख में देखो,

देह से विदेह कर देता है

इस देह का होना…!

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 3:22 बजे, 12 जुलाई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 140 –मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – बदल गया है आज जमाना। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 140 – मनोज के दोहे ☆

(दोहा – सृजन हेतु शब्द – वारिद, वर्षा, पुरवा, पछुआ, पावस)

वारिद लाए विपुल जल, बुझी धरा की प्यास ।

धरती ने फिर ओढ़ ली, हरित चूनरी खास।।

*

वर्षा ने हर्षित किया, जड़ चेतन संजीव।

मंदिर में कृष्णा हँसे, शांत दिखे गांडीव।।

*

पुरवा सुखद सुहावनी, कर मन को आल्हाद।

हर लेती मन के सभी, क्षण भर में अवसाद।।

*

पूरब में पछुआ बही, बदली उनकी चाल।

फटी जीन्स की आड़ में, दिखें युवा बेहाल।।

*

पावस ने सौगात दी, हरियाली चहुँ ओर ।

झूम उठा मन बावला, झरनों का सुन शोर।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

दिवोदास की पत्नी

निश्चित समय के लिये।

माधवी मां बनी

और जन्म लिया

पुत्र प्रतर्दन ने ।

समयावधि बीती

उपस्थित हुए

गालव ।

माधवी ने

फिर त्यागा

राजमहल

और सद्यः जात शिशु ।

हवा में

उड़ते रहे

राजमहल के परदे

बजती रहीं

घंटियाँ

और सिसकता रहा शिशु ।

चलती रही

गंगा की

प्रवहमान परम्परा

छूटते रहे

अभिशप्त वसु ।

अब

गालव का

पड़ाव था

भोजनगर ।

भेंट हुई

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 202 – “जीवन का संघर्ष कठिन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जीवन का संघर्ष कठिन...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 202 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जीवन का संघर्ष कठिन...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

वो जो हैं कमजोर, लड़कियां

कचरा बीन रहीं

पता चला है सगी बहिन

गिनती में तीन रहीं

 

ताड़ी  पीकर बाप

पड़ा रहता है झुग्गी में

भाई भी जो व्यस्त ताश

की इक्की दुग्गी में

 

झुग्गी पर जो ढकी

प्लास्टिक की चिन्दी चिन्दी

बरस रहे पानी मे स्थिति

थी गमगीन रही

 

यह दीवार वेशरम के

डंडो से गई गढ़ी

बारिश में वे हरियाये

थी उलझन बहुत बड़ी

 

जैसे तैसे रोक रहीं थीं

घर की बौछारें

जीवन का संघर्ष कठिन

कथनी प्राचीन रही

 

एक फटी पन्नी को

लेकर फिर से वे आयीं

किन्तु पड़ोसी की नजरों

को वे तीनों भायीं

 

अधोवस्त्र थे फटे

सो रहीं थीं बेसुध होकर

घुसा पडौसी, जिसे मार

विजयी वे तीन रहीं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04 – 8 – 2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  लेखन ? ?

(कविता संग्रह ‘योंही’)

जीवन की वाचालता पर

ताला जड़ गया,

मृत्यु भी अवाक-सी

सुनती रह गई

बगैर ना-नुकर के

उसके साथ चलने का

मेरा फैसला…,

जाने क्या असर था

दोनों एक साथ पूछ बैठे-

कुछ अधूरा रहा तो

कुछ देर रुकूँ…?

मैंने काग़ज़ के माथे पर

क़लम से तिलक किया

और कहा-

बस आज के हिस्से का

लिख लूँ,

तो चलूँ…!

© संजय भारद्वाज  

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆ # “सावन की झड़ी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सावन की झड़ी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆

☆ # “सावन की झड़ी” # ☆

 “

 

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

भीगा भीगा है तन

भीगा भीगा है मन

भीगा भीगा है मौसम

भीगा भीगा है बदन

इंतजार कर रही है

बूंदों की लड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

उफ़! यह कैसा भीगने का डर

बारिश आ रही है रूक रूक कर

आ भी जाओ थोड़ी हिम्मत कर

कहीं बीत ना जाये भीगने का पहर

कब तक यूं ही रहोगी

दरवाजे पर खड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

तू दुपट्टा अपने सर पर डाल

भीगने दे अपने रेशम से बाल

तू तेज़ कर देना अपनी चाल

आरक्त हुए हैं तेरे भीगकर गाल

मदिरा से भरी हुई है

तेरी आंखें बड़ी-बड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

सावन की फुहारों में

भीगती जवानी है

कितना खुशकिस्मत

वर्षा का पानी है

हर एक बूंद की

अपनी कहानी है

साजन से मिलने

आतुर दिवानी है

सावन में मिलन की

कभी बीते ना यह घड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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