हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 63 ☆ उजालों के गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “उजालों के गीत…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 63 ☆ उजालों के गीत… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

उजालों के गीत

रातों में लिखे हैं।

 

परिंदों की कथाओं में

चुप रहे सारे शिखर

और बादल ने बहाया

ढेर सा पानी मगर

 

घड़े पानी के

बहुत ऊँचे बिके हैं।

 

हर सबक़ झूठा लगा

अधूरी प्रविष्टियाँ

बाँच पाए नहीं अब तक

ज़िंदगी की चिट्ठियाँ

 

प्रेम के व्यवहार

घृणा से चुके हैं ।

 

क़ैद होकर रह गईं हैं

अपनी सभी पहचान

घोंसलों से दूर होती

साहस भरी उड़ान

 

सभी परिचय

डरे बैठे थके हैं।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 67 ☆ लिख दिया गर नसीब में क़ातिब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लिख दिया गर नसीब में क़ातिब“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 67 ☆

✍ लिख दिया गर नसीब में क़ातिब… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

खोलकर दिल सभी से मिलते हैं

ग़म छुपाकर ख़ुशी से मिलते हैं

कौम -ओ -मज़हब कभी न हम पूछें

जब किसी आदमी से मिलते हैं

 सोच बदली न पद न दौलत से

हम सदा सादगी से मिलते हैं

दूर रहने में हैं भला उनसे

लोग जो बेख़ुदी से मिलते हैं

समझे बिन दिल नहीं मिलाते हम

जब किसी अजनबी से मिलते हैं

चाह जिनकी हो वस्ल की गहरी

वो बड़ी बेकली से मिलते हैं

आम से खास हो गए जबसे

वो बड़ी बेरुखी से मिलते हैं

.

छोड़ते छाप हैं वही अपनी

जो भी जिंदादिली से मिलते हैं

.

गर्व जिनकी था हमको यारी पर

अब वही दुश्मनी से मिलते है

.

क्या हुआ प्यार कर बता उससे

सारे चहरे  उसी से मिलते हैं

.

ऐंब गैरों के आप को दिखते

क्या नहीं आरसी से मिलते हैं

.

वक़्त कैसा ये आ गया है अब

हक़ भी जो सरकशी से मिलते हैं

.

भूल जाते  थकन सभी दिन की

घर पे नन्ही परी से मिलते हैं

.

बात उनकी सदा सुनी जाती

जो बड़ी आजज़ी से मिलते हैं

.

लिख दिया गर नसीब में क़ातिब

सिंधु में वो नदी से  मिलते हैं

.

दुश्मनी व्यर्थ लगता मान लिया

तब ही वो दोस्ती से मिलते हैं

.

रोज़ मिलने को मन करे उनसे

जो सदा ताज़गी से मिलते है

.

टिमटिमाना वो भूले तारों सा

जब अरुण रोशनी से मिलते हैं

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ घुंगराले बाल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆ घुंगराले बाल☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(स्मृतिशेष स्व. मामाजी को सादर समर्पित। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि) 

कुछ दिन पहले,

मेरे नब्बे साल के मामाजी का फोन आया,

“ये तेरे बालों को क्या हुआ?”

“बालाजी को अर्पण किये है”

“इससे क्या होता है ?”

पढा था कहीं,

“बालाजी को बाल देने से,

हम जिन्दगी के सारे ऋणों से

मुक्त होते हैं।”

 

“ये अंधविश्वास है ʼ”– मामाजी बोले !

 

“और ऐसा भी लगता है,

नए बाल शायद सरल-सीधे आए” – मैं 

 

“क्यूं ? तुमको घुंगराले बाल क्यूं पसंद नहीं?”

 

“मेंटेन करना कठिन है ।”

 

“हाँ….” कहकर मामाजीने फोन बंद किया ।

 

बचपन में कहते थे लोग,

“घुंगराले बालों वाली लडकियाँ,

मामा के लिए भाग्यशाली होती है”!

 

सरल-सीधे  बालों की चाह होने पर भी,

अब मैं घुंगराले बाल ही माँगती हूँ…

मामाजी का भाग्य बना रहे ।

☆  

© प्रभा सोनवणे

१६ जून २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रकृति…  ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता प्रकृति… ।)  

☆ कविता प्रकृति… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

लोभ, मोह, क्रोध, काम,

है नियम मानव प्रकृति के,

मत होना कभी भी हवाले,

बल्कि उनको कर बस में,

देखो! प्रकृति है बड़ी सुंदर

देखो! हर तरफ हरियाली

नदी और समुंदर में उफ़ान,

पानी का झरना बह रहा,

इतनी मनमोहक! है प्रकृति,

सूरज और चांद की रोशनी,

आसमान घिरा काले बादलों से,

कभी श्याम घने तो कभी सफेद,

कभी बारीस तो कभी धूप,

कभी कडकती बिजली

कभी शांत वातावरण

शाम की यह किरणें,

हवा चल रही मंद-मंद,

कभी तेज़ हवा में,

बह चले लोग-ढूँढते चिराग,

अपनो को देकर दर्द,

धरती को रंगीन बना देती,

कभी खुशी तो कभी गम,

कभी मस्ती तो कभी दर्द-विरह,

कभी हँसी ठहाके तो कभी मातम,

जन्म और मरण के बीच,

अच्छे – बुरे की परिभाषा ढूँढते,

बस चल रही जिंदगी,

स्वीकार कर लो तो खुश,

अगर मना करो तो नाखुश,

जिंदगी भरी पड़ी है चीज़ों से,

हंमेशा मुस्कुराते रहो,

चाहे हो विरह कामना,

चाहे हो खुशी…

बस आंसू के साथ,

मुस्कुराते रहना ही है जिंदगी,

यही तो है ईश्वर की दुनिया

यही तो है प्रकृति।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 64 – दम भले ही हमारा निकलता रहे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – दम भले ही हमारा निकलता रहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 64 – दम भले ही हमारा निकलता रहे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

जब तलक चाँद छत पर टहलता रहे

खौफ तनहाइयों का भी टलता रहे

*

अपने होंठों से, साकी पिलाये जो तू 

दौर, फिर मयकशी का ये चलता रहे

*

गर्म साँसें जो साँसों से मिलती रहें 

इन शिराओं का शोणित पिघलता रहे

*

पत्थरों से भी रसधार आने लगे 

तू जो हौले से इनको मसलता रहे

*

वो न आएँगे मेंहदी लगाये बिना 

दम, भले ही हमारा निकलता रहे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 137 – सजा राम का सरयू तट है ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – सजा राम का सरयू तट है। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 137 – सजल – सजा राम का सरयू तट है… ☆

सजा राम का सरयू तट है।

खड़ा कृष्ण का वंशी वट है।।

*

कौन भला है कौन बुरा अब

सबका मन देखो नटखट है।

*

मानव भूला जिम्मेदारी,

जात-पाँत की कड़वाहट है।

*

नेताओं के बदले तेवर,

सबकी भाषा अब मुँहफट है।

खुला द्वार भ्रष्टाचारों का,

देखो लगा बड़ा जमघट है।

*

धर्म धुरंधर बने सभी अब,

घर-बाहर इनके खटपट है।

*

आतंकी घुसपैठी करते,

यही समस्या बड़ी विकट है।

*

हाथों में आया मोबाइल,

मेल-जोल का अब झंझट है।

*

कलम उठा कर लिखता कविता

मेरे मन की अकुलाहट है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 28 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 28 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

उच्चरित शब्द

अभिदा है,

शब्द की

सीमाएँ हैं

संज्ञाएँ हैं

आशंकाएँ हैं,

चुप्पी

व्यंजना है,

चुप्पी की

दृष्टि है

सृष्टि है

संभावनाएँ हैं!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 10:44 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही देंगे  🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ माँ !! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कविता माँ !!

☆ कविता ☆ माँ !! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

मुझे बचपन का बहुत कुछ याद नहीं पड़ता।

उस पल का तो कुछ भी नहीं, जब मैं गर्भ में था ॥

 

कष्ट, डर, भूख और याद

अनुभूति की इन्ही विधाओं से मैंने तुम्हें पहली बार जाना था।

 

कुछ और पलों को, मैंने संभावनाओं और आकांक्षाओं वाले कमरे में जिए।

उसी कमरे के दाहिने वाले दरवाज़े से बाहर सड़क शहर जाती थी ॥

 

कुछ कुछ याद है, तब का जब मैं पहली बार घर छोड़ रहा था।

याद नहीं की मैंने पूछा नहीं या तुमने बताया नहीं, की अब घर छूट रहा था ॥

 

विस्थापन सदा सुखद नहीं रहते।

नहीं याद मुझे की मेरे जाने के बाद, तुमने मुझे कितने पलों तक वहीं से देखा था ॥

 

वही मुँडेर जहाँ से मैं कूद नहीं पाता था, उसी को लांघते देख तुमने मुझे विदा किया था ॥

 

 – २ –

 

अनंत में शून्य से इस शहर में,

इकाई से शुरू हुए जीवन में,

टाइम मशीन मेरे साल निगलती रही ॥

 

तुम आती रही, जब जब मैंने बुलाया।

तब भी, जब जब तुम्हें आना था ॥

 

माँ तुम्हारे सुनहरे होते बालों में

एक आज, मुझे दो कल सा प्रतीत होता था ॥

 

मेरे बच्चों को बड़ा किया

पर मैं ना देख पाया बचपन उनका, जैसे नहीं जानता था मैं बचपन मेरा ॥

 

मैंने नहीं देखे मेरे खिलौने

जैसे नहीं देखी, मैंने तुम्हारी भी डिग्रियाँ ॥

 

मेरे जीवन की त्रासदी यह होगी, कि मैं तुम्हें बूढ़ा होते देख रहा हूँ।

जैसे इस सभ्यता की एक त्रासदी यह,

कि  गाँव से विस्थापन ने, माँ को गाँव और बेटों को शहर कर दिया ॥

 

अब जब तुम यहाँ नहीं होती

तब भी रहती हो तुम थोड़ा थोड़ा,गाँव से लाए गए बर्तन बिस्तरों में।

दिखती हो तुम हमेशा, दीवार पर टंगी मेरा बचपन ढोती तस्वीरों में ॥

 

©  श्री आशीष गौड़

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पॉडकास्ट हैंडल :  https://open.spotify.com/show/6lgLeVQ995MoLPbvT8SvCE

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 14 – नवगीत – माँ शारदा वंदन… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –माँ शारदा वंदन

? रचना संसार # 13 – नवगीत – माँ शारदा वंदन…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

हे शारदे करुणामयी माँ,भक्त को पहचान दो।

श्वेतांबरा ममतामयी माँ,श्रीप्रदा हो ध्यान दो।।

गूँजे मधुर वाणी जगत में,वल्लकी बजती रहे।

कामायनी माँ चंद्रिका सुर,रागिनी सजती रहे।।

वागीश्वरी है याचना भी,भक्त का उद्धार हो।

विद्या मिले आनंद आए,प्रेम की रसधार हो।।

आभार शुभदा है शरण लो,बुद्धि का वरदान दो।

 *

उल्लास दो नव आस दो प्रिय,ज्ञान की गंगा बहे।

चिंतन मनन हो भारती का,लेखनी चलती रहे।।

मैं छंद दोहे गीत लिख दूँ,नव सृजन भंडार हो।

आकाश अनुपम गद्य का हो,प्रार्थना स्वीकार हो।।

भवतारिणी तम दूर हो सब,नित नवल सम्मान दो।

 *

तुम प्रेरणा संवाहिका हो,चेतना संसार की।

वासंतिका हो ज्ञान की माँ,पद्य के शृंगार की।।

साहित्य में नवचेतना हो,कामना कल्याण भी।

संजीवनी हिंदी सुजाता,श्रेष्ठ हो मम प्राण भी।।

आलोक प्रतिभा हो धरा की,लक्ष्य का संधान दो।

 *

भामा कहें महिमामयी माँ,प्राणदा भावार्थ हो।

त्रिगुणा निराली साधना हो,भावना परमार्थ हो।।

हर क्षेत्र में साधक सफल हो ,चँहुदिशा जय घोष हो।

विपदा टरे उत्कर्ष हो माँ,ज्ञान संचित कोष हो।।

उत्थान हो इस देश का भी,शांति का परिधान दो।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #241 ☆ भावना के दोहे – – मेघ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – मेघ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 241 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – मेघ ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घिरे मेघ अब कह रहे,  सुनो गीत मल्हार।

बरसेंगे हम झूम के, नाचेगा संसार।।

**

मेघ गरजते दे रहे, प्यारा सा संदेश।

देखो साजन आ रहे, वापस अपने देश।।

**

रिमझिम रिमझिम आ रही, है वर्षा की  फुहार।

 आ जाओ अब सजन तुम, आया है त्योहार।।

**

मौसम है बरसात का, गिरी कृषक पर गाज।

खेत लबालब हैं भरे , मेघ बरसते आज ।।

**

जगह – जगह पर बाढ़ है,  उजड़ रहे घरबार।

खोज रहे हैं हम सभी , नहीं बचा  परिवार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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