हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 205 ☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 205 ☆

☆ बाल गीत – सदा साहसी विजयी होता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सत्य राह पर चलकर बच्चो

जग में नाम कमाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 

मन में दृढ़ विश्वास जगाकर

मुड़कर कभी न देखो तुम।

सहज , सरलता हैं आभूषण

कर्तव्यों को परखो तुम।

भटक न जाना अपने पथ से

आगे बढ़ते जाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

कर्मनिष्ठ ही भाग्य बदलते

खुद की वे तकदीर बनें।

सदा देशहित जो जन जीएं

वे ही वीर नजीर बनें।।

 *

सदा साहसी विजयी होता

साधो तीर चलाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

सदा समय का मूल्य समझना

पल – पल का उपयोग करें।

सौरभ में गौरव भर जाए

तन – मन हित ही योग करें।।

 *

सदा गलतियाँ निरखें – परखें

फूलों – सा खिल जाओ जी।।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

 *

स्वप्न हवा में कभी न पालो

मिले सफलता खुद श्रम से।

हैं विज्ञान – ज्ञान ही पूँजी

सदा बचो संशय , भ्रम से।

 *

आलस और दिखावा छोड़ो

हँसो – हँसाओ गाओ जी।

संकल्पित हो बढ़े चलो तुम

जीवन को महकाओ जी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #230 – कविता – ☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता नदियों में न पानी है…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #230 ☆

☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

नदियों में न पानी है

पूलों की जुबानी है

अपनी पीड़ाएँ ले कर चली

सिंधु प्रिय को सुनानी है।

*

सिर्फ देना है जिसका धरम

तौल पैमाना कोई नहीं

कौन है देखने वाला ये

कब से नदिया ये सोई नहीं,

*

खोज में अनवरत चल रही

राह दुर्गम अजानी है

पूलों की जुबानी है….।

*

चाँद से सौम्य शीतल हुई

सूर्य के ताप की साधिका

स्वर लहर बाँसुरी कृष्ण की

प्रेम रस में पगी राधिका,

*

साक्ष्य शुचिता के तटबंध ये

दिव्यता की कहानी है

पूलों की जुबानी है….।

*

फर्क मन में कभी न किया

कौन छोटा, बड़ा कौन है

हो के समदर्शिता भाव से

खुद ही बँटती रही मौन ये,

*

भेद पानी सिखाता नहीं

सीख सुंदर सुहानी है

पूलों की जुबानी है….।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 54 ☆ दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 54 ☆ दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

मन के आँगन में हलचल

शायद दुख ने करवट बदली

दर्द हुआ है घायल।

*

आँखों ने पिए सभी आँसू

पलकों ने गीलापन

सपने बुझे-बुझे से दीपक

खोज रहे उजलापन

*

उम्र बहे गालों पर ऐसी

ज्यों विधवा का काजल।

*

अब तो धुँधवाती सी भर है

अपनेपन की समिधा

होम हुए जा रहे प्राण हैं

साँसों की पा सुविधा

*

धू-धू करके जला आग में

संबंधों का काठ महल ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – वह  ? ?

वह

(1)

वह ताकती है

ज़मीन अकारण,

उसके भीतर समाई है

पूरी की पूरी एक धरती

इस कारण…!

 

(2)

वह चलती है

दबे पाँव,

उसके पैरों के नीचे

दबे हैं

सैकड़ों कोलाहल!

 

(3)

वह करती है प्रेम

मौन रहकर,

इस मौन में छिपी हैं

प्रलय की आशंकाएँ

जन की संभावनाएँ!

 

(4)

वह अंकुरित करती है

सृष्टि का बीज,

धरती पर हरापन

उसका मोहताज है!

 

(5)

वह बोलती बहुत है,

उसकेबोलने से

पिघलते हैं

उसके भीतर बसे

अधूरी इच्छाओं के ग्लेशियर!

 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा“)

✍ कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मदद को मुफ़लिसों की हाथों को उठते नहीं देखा

किसी भी शख़्स को इंसान अब बनते नहीं देखा

 *

हवेली को लगी है आह जाने किन गरीबों की

खड़ी वीरान है मैंने कोई  रहते नहीं देखा

 *

मसीहा था गरीबों का हुआ क्या तख़्त को पाकर

कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा

 *

किसी की आह लेकर ज़र जमीं कब्ज़े में मत लेना

गलत दौलत से मैंने घर कोई हँसते नहीं देखा

 *

परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम

वो क्या जानें जिन्होंने सूर्य को उँगते नहीं देखा

 *

अगर बे-लौस रहना है तो चुप रहिए यही जायज़

इबादतगाह जब तुमने कोई ढहते नहीं देखा

 *

जहां में जो भी आया है हों चाहे ईश पैग़ंबर

समय की मार से उनको यहाँ बचते नहीं देखा

 *

बनेगा वो कभी क्या अश्वरोही एक नम्बर का

जिसे गिरकर दुबारा अस्प पे चढ़ते नहीं देखा

 *

जमा बारिश के पानी से पडेगें सोच में कीड़े

विचारों को जमा पानी सा जो बहते नहीं देखा

 *

बड़े बरगद की  छाया से अरुण कर लो किनारा तुम

कभी इसके बराबर का कोई बढ़ते नहीं देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ आईसीयू की खिड़की !! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कविता  साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”!

आईसीयू की खिड़की !! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

[1]

आईसीयू में बीमार को बिस्तर पर लिटा के ।

दीवार की दूसरी और , सिरहाने दुख रहते हैं॥

 

अस्पताल जीवन का आख़िरी घर है ।

यहाँ आख़िरी कमरे को आईसीयू कहते हैं॥

 

सारी ज़िंदगी का निचोड़ , हरपल याद आता है ।

रिश्ते का जोड़ , एक महीन धागे सा लहराता है॥

 

पिता आख़िर बार बाबूजी , माँ सिर्फ़ एक और बार माँ सुनना चाहती है ।

दिन का पहर , घड़ी का घंटा , पूरी कहानी दोहरा जाती है ॥

 

पहले पल का दुख , तीसरे और पाँचवे पहर के दुख से अलग लगता है ।

विडंबना देखो, आख़िरी सा प्रतीत होता , वह लम्हा ख़ुद को दोहराने लगता है ॥

 

दिन बदलते , बाहर सिरहाने का दुख , अब अपने से बड़ा दुख खोजने लगता है।

आँखें पोछ , गलियारे में एक चिथड़े सुख की भी आस रखता है ॥

 

[२]

 

दुख के आँसू हिसाब से बहते हैं।

पहले कैंटीन , फिर आसपास के भी सभी ठिकाने खंगाले जाते हैं॥

 

अंत आते , अंत की बात रहती है ।

कई तरहाँ बदलते , इन दुखों में अजीब सी बेचैनी दिखती है ॥

 

“ यह सब कैसे शुरू हुआ “ हरबार दोहराया जाता है ।

आख़िरी समय में हर रिश्ता धुंधला जाता है ॥

 

मुझे हमेशा से लगता है ,

पहले दिन हुई मौत , कई दिनों तक झूलते अस्तित्व वाली मौत से अलग दिखती है ।

मातम और वियोग , यहाँ अपेक्षाओं और रिश्तों के फ़ासलों से नापे जाते हैं॥

 

चुप खड़ी खिड़कियों से गर्दन हिलाते कबूतर सुनाई देते हैं।

उन्हीं खिड़कियों से ही , उनके गिरते पंख ही दिखाई देते हैं॥

 

आख़िरी सांस के समय , मृत्यु की अपेक्षा अब वियोग और विरह को प्राथमिकता देते हैं।

कुछ जल्दी , कुछ देर में , सभी रोना रोक देते हैं॥

 

[३]

मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी , ना ही मृत्यु और ना ही वियोग समझने में है।

मुझे समझना है , आँख का पहला आँसू किस आँख से आता है ?

क्यों , बड़े दुख के सामने छोटे दुख अपना वेग खो देते हैं,?

कैसे , एक चिथड़ा सुख उस गहन दुख में आस देता है?

 

और क्यो ही , कुछ समय बाद मृत्यु से पैदा हुआ दुख धुँधलाने लगता है !?

कुछ सालों बाद , अस्पताल का वही आख़िरी कमरा भी भूला दिया जाता है ?

दिन याद रहता है , पहर भुला दिया जाता है ?

 

मौत की क्रिया , उसके समय होती बेचैनी , बेबसी , लाचारी  क्यों भुला दी जाती है ?

 

सिर्फ़ अस्पताल याद रहता है ।

आईसीयू की वह खिड़की भुलाई जाती है ॥

 

आख़िर में मृत्यु की अहमियत , उसका वियोग उतनी ही देर रहती है ।

जितनी आईसीयू की खिड़की की अहमियत रहती है !!

 

विराम!!

 

©  श्री आशीष गौड़

वर्डप्रेसब्लॉग : https://ashishinkblog.wordpress.com

पॉडकास्ट हैंडल :  https://open.spotify.com/show/6lgLeVQ995MoLPbvT8SvCE

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 54 – याचनाओं का भरण होने लगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – याचनाओं का भरण होने लगा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 54 – याचनाओं का भरण होने लगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

प्यार का, उनके हृदय में अंकुरण होने लगा

आजकल उनका, द्रवित अंतःकरण होने लगा

*

रूठने का भी बहाना अब नहीं वे ढूंढ़ते

हर जटिल प्रश्नों का भी सरलीकरण होने लगा

*

अब हमारी भावनाओं का अनादर भी नहीं 

एक दूजे की सदिच्छा का वरण होने लगा

*

ना-नुकुर उनके दिखावे के लिये हैं मात्र अब 

हर निवेदक याचनाओं का भरण होने लगा

*

उनके कोमल हाथ का, जब स्पर्श मुझसे हो गया 

देह में, रोमांचक तब से स्फुरण होने लगा

*

कसमसाकर उनने बाँहों में मुझे जब से भरा

धमनियों में, तेज रक्तिम संचरण होने लगा

*

नींद भी आती नहीं, उनके बिना तो आजकल 

रात को भी, याद के सँग, जागरण होने लगा

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 130 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 130 – मनोज के दोहे ☆

उड़ी चिरैया प्राण की, तन है पड़ा निढाल।

रिश्ते-नाते रो रहे, आश्रित हैं  बेहाल।।

 *

जीव धरा पर अवतरित, काम करें प्रत्येक ।

देख भाल करती सदा, धरती माता नेक।। 

 *

गरमी से है तप रहा, धरती का हर छोर।

आशा से है देखती, बादल छाएँ घोर।।

 *

दिल में उठी दरार को, भरना मुश्किल काम।

ज्ञानी जन ही भर सकें, उनको सदा प्रणाम।।

 *

ग्रीष्म तपिश से झर रहे, वृक्षों के हर पात।

नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

8/5/2024

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मेरी जिजीविषा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मेरी जिजीविषा  ??

दायित्व की

साँकलों में बाँधकर

स्थितियों के कुंदों और

बटों से वे मारते रहे,

विवशता के

दरवाज़े की ओट में

असहमति के

जूतों से कुचलते रहे,

जाने क्या है

बार-बार उठ खड़ी हुई

मेरी जिजीविषा

हर बार स्त्री सिद्ध हुई!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 190 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 190 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

संभवतः

शिष्य के

हठ की

अहंकार की

विदीर्ण करने

मौन मुखरित हुआ

‘वत्स

स्वीकारता हूँ तुम्हारा आग्रह

जाओ –

गुरु दक्षिणा हेतु लाओ

आठ सौ श्यामकर्ण अवश्वमेधी अश्व।

सुन, गुरु वचन

अवाक् गालव

स्तब्ध मन,

क्षणांश में

हुआ सचेत

और

बोला

‘जो आज्ञा गुरु देव।’

प्रणाम अर्पित कर

गालव ने छोड़ा आश्रम ।

वनमार्ग पर

चलते चलते

सोचा

आठ सौ श्याम कर्ण अश्व

कहाँ पाऊँ

कैसे जुटाऊँ?

विपत्ति में

स्मरण आते हैं

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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