हिन्दी साहित्य ☆ डॉ मुक्ता ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ सविता उपाध्याय

डॉ.  मुक्ता

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी,  डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी एवं श्री दिलीप भाटिया जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  डॉ. मुक्ता जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  डॉ सविता उपाध्याय  जी  की कलम से।  हम डॉ सविता उपाध्याय जी के ह्रदय से आभारी हैं। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कई साहित्य मनीषियों ने अपनी लेखनी से सम्मान प्रदान किया है जिनमे डॉ मुक्ता का रचना संसार  – डॉ सुभाष रस्तोगी जी  तथा रानी झांसी जैसी नारीवाद की सर्जक डॉ मुक्ता – सुश्री सिमर सदोष जी की कृतियां प्रमुख है , जिन पर हम भविष्य में  चर्चा करने का प्रयास करेंगे।  बिना किसी अभिमान एवं सहज – सरल स्वभाव की  बहुमुखी प्रतिभा की  धनी डॉ मुक्ता जी को मैंने सदैव स्त्री शक्ति विमर्श की प्रणेता के रूप में पाया है। आपके  स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपकी  लेखनी से  स्त्री विमर्श में स्त्री के सन्दर्भ में कुछ भी छूट पाना असंभव है। आप प्रत्येक पीढ़ी के लिए एक आदर्श हैं। )

सारस्वत परिचय

शिक्षा : कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से1971मे हिंदी साहित्य में एम•ए• तथा1975 में पंजाब विश्व- विद्यालय चंडीगढ़ से पीएच•डी•की डिग्री प्राप्त की।

व्यवसाय :1971से 2003 तक उच्चतर शिक्षा विभाग हरियाणा में प्रवक्ता तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त।

निदेशक,हरियाणा साहित्य अकादमी  (2009 से 2011)

निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी पंचकूला (2011- नवम्बर 2014 )

सदस्य,केन्द्रीय साहित्य अकादमी ,नई दिल्ली ( 2013 से 2017)

साहित्य साधना : बचपन से अध्ययन व लेखन में रुचि तथा 1971 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में कहानी व निबंध लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त।

उपलब्धियां : विशिष्ट हिंदी सेवाओं के निमित्त माननीय श्री प्रणव मुखर्जी,राष्ट्रपति भारत सरकार के कर-कमलों द्वारा सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार से सम्मानित★ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जयंती समारोह तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उत्कृष्ट साहित्यिक व सामाजिक सेवाओं के निमित्त माननीय राज्यपाल श्री जगन्नाथ पहाड़िया,हरियाणा द्वारा सम्मानित★ हरि याणा साहित्य अकादमी के राज्यस्तरीय श्रेष्ठ महिला रचनाकार सम्मान से मुख्यमंत्री महोदय द्वाराअलंकृत ★ बेस्ट सिटीज़न ऑफ इंडिया अवॉर्ड★ साहित्य शिरोमणि की मानद उपाधि से अलंकृत★ इंटर- नेशनल विमेंस डे अवॉर्ड★ उदन्त मार्त्तण्ड सम्मान★ प्रज्ञा साहित्य सम्मान★ विश्ववारा सम्मान★ राज्य- स्तरीय और विश्व शिक्षक सम्मान★ राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड★ हिंदी भाषा भूषण सम्मान ★ राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान★ साहित्य कौस्तुभ सम्मान ★ शिक्षा रतन पुरस्कार★ उदयभानु हंस कविता पुरस्कार★ महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान ★ 2007,2008, 2009 में समाजसेवी महिला सम्मान ★ हेल्र्दी युनिवर्स फाउंडेशन द्वारा वीमेंस अचीवर्स अवार्ड★ मां दरशी शिखर सम्मान★महिला गौरव पुरस्कार★ रानी लक्ष्मीबाई जनसेवा सम्मान★ नारी गौरव सम्मान ★सावित्री बाई फुल्ले अवार्ड★ नारी शक्ति सम्मान★साहित्य कौस्तुभ, साहित्य वाचस्पति व अंतर्राष्ट्रीय साहित्य वाचस्पति की मानद उपाधि से विभूषित★ साहित्य गौरवश्री सम्मान★ मानव गौरव सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ हिंदी रतन सम्मान★ विश्वकवि संत कबीर दास रतन अवॉर्ड  ★ लघुकथा शिरोमणि सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ साहित्य गौरव सम्मान★ कलमवीर सम्मान★ सदाबहार वृक्षमित्र सम्मान★ नारी गौरव सम्मान★ लघुकथा सेवी सम्मान★ महिला गौरव सम्मान★ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान सम्मान★दैनिक जागरण, संस्कार शाला द्वारा सम्मान★ काव्यशाला सम्मान★इन्द्रप्रस्थ लिट्रेचर फेस्टिवल एवं विजयानी फाउंडेशन द्वारा विशेष सम्मान★ इन्डोगमा फिल्म फेस्टिवल पर आई• एफ• एफ• 2019 विशेष सम्मान।

हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका कथासमय (मासिक) तथा सप्तसिंधु त्रैमासिक) का तीन वर्ष तथा हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा (मासिक) का दो वर्ष तक कुशल संपादन 

★दस रचनाओं पर लघु शोध प्रबंध स्वीकृत★दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा चेन्नई द्वारा मुक्ता के साहित्य में स्त्री विमर्श शोध-प्रबंध स्वीकृत★ दो विद्यार्थियों द्वारा शोध-प्रबंध लेखनाधीन ★ राजा राममोहन राय फाउंडेशन तथा केन्द्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दस  रचनाएं अनुमोदित ★ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, काव्यगोष्ठियों व विचार-मंचों में सक्रिय प्रतिभागिता।

प्रकाशित रचनाएं…28 : ◆शब्द नहीं मिलते ◆अस्मिता ◆लफ़्ज़ों ने ज़ुबां खोली ◆अहसास चंद लम्हों का ◆एक आंसू ◆चक्रव्यूह में औरत  ◆एक नदी संवेदना की  ◆लम्हों की सौगा़त  ◆अंतर्मन का अहसास  ◆द्वीप अपने-अपने  ◆संवेदना के वातायन  ◆सुक़ून कहाँ  ◆सांसों की सरगम (काव्य-संग्रह)  ◆मुखरित संवेदनाएं  ◆आखिर कब तक  ◆कैसे टूटे मौन  ◆अंजुरी भर धूप ◆उजास की तलाश  ◆रेत होते रिश्ते  ◆बँटा हुआ आदमी◆ हाशिये के उस पार◆टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी (लघुकथा-संग्रह)  ◆खामोशियों का सफ़र ◆अब और नहीं  ◆सच अपना अपना  ◆इन गलियारों में (कहानी -संग्रह)  ◆चिन्ता नहीं चिन्तन ◆परिदृश्य चिन्तन के  ◆चिन्तन के आयाम ◆वाट्सएप तेरे नाम (निबन्ध-संग्रह)…. ◆क्षितिज चिन्तन के (प्रकाशनाधीन )◆आधुनिक कविता में प्रकृति (समालोचना)◆ अकादमी की कथायात्रा कृति का संपादन ●अस्मिता व ●चिन्ता नहीं चिन्तन का पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद। ◆ डा•मुक्ता का रचना संसार…. डा•सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित।

संप्रति : पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, स्वतंत्र लेखन।

☆ हिन्दी साहित्य – डॉ मुक्ता ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(संकलनकर्ता  –  डॉ सविता उपाध्याय )

हिन्दी साहित्य जगत में डॉ मुक्ता एक बहुचर्चित विश्वविख्यात शक्ति संपन्न लेखिकाओं में से एक हैं। आपने हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विधाओं कविता कहानी उपन्यास साक्षात्कार आदि में रचना की है।

इस संदर्भ में सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित ‘डॉ मुक्ता का रचना संसार’ कार्य अभिनंदनीय है वंदननीय है। आपने डॉ मुक्ता के साहित्यिक संसार को संपादित कर महती कार्य किया है। इस पुस्तक को पढ़कर लगा कि यह एक अथाह सागर है जिसमें इतने मोती हैं कि जिसकी गणना नहीं की जा सकती। रस्तोगी जी ने आपके रचना संसार को मोतियों की माला की तरह पिरोकर पाठकों को हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर सौंप दी है।

आपकी सृजन यात्रा 2007 में प्रकाशित ‘शब्द नहीं मिलते’ से  आज तक अनवरत चल रही है। हिंदी की सभी विधाओं पर अपना अधिकार रखने वाली डॉ मुक्ता को कौन नहीं जानता आपके पास कवि हृदय भी है जो हिंदी साहित्य में आपकी एक अलग ही पहचान बनाता है। आप चिंता नहीं चिंतन करती हैं और इसी के फलस्वरूप आपके आलेख चर्चा का विषय रहे हैं। आपने हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के पद पर रहते हुए अकादमी की साहित्यिक पत्रिका ‘हरिगंधा’ के सम्पादन में अद्भुत योगदान देकर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। आपने लीक से अलग हटकर ‘हरिगंधा’ में नवीन विषयों को समाहित कर विशेषांक सम्पादित किए हैं जो ऐतिहासिक धरोहर बन गए हैं  जिनमें महिला विशेषांक, लघु कथा विशेषांक, दोहा विशेषांक आदि उल्लेखनीय हैं। इसी के साथ, कहानी पत्रिका ‘कथा समय’ तथा शोध पत्रिका ‘सप्तसिंधु’ दोनों ही संग्रहणीय हैं। अब तक आपके 6 कविता संग्रह शब्द नहीं मिलते. अस्मिता, लफ्जों ने जुबां खोली. एहसास चन्द लम्हों का, एक आंसू आदि प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कविताओं में स्त्री की यातना. उसके संघर्ष. उसकी चेतना को साहित्य का आधार बनाया गया है। आपकी कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए ज़द्र्दोज़हद करती कविताएँ हैं जो पुरुष के अधिनायक वादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। डॉ मुक्ता का मानना है की स्त्री व् पुरुष दोनों समाज की धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धुप और छांव, आधी ज़मीन व् आधा आसमां मिलना ही चाहिए।

स्त्री विमर्श के तहत नारी संघर्ष चेतना और समाज के पुरुष वर्ग को चुनौति देती स्त्री आपके रचना कर्म को अलग पहचान देती है। आपने अपने साहित्य में परिवार की संरचना में बदलाव संबंधों में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार परिवार में शारीरिक लैंगिक व मनोवैज्ञानिक अत्याचार हिंसा दहेज से जुड़ी समस्याएँ स्त्रियों पर दोहरा अत्याचार कन्या भ्रूण हत्या परिवार में स्त्रियों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य की उपेक्षा विधवाओं का शोषण अल्पायु में विवाह पर्दा और घूँघट प्रथा आदि इन तमाम कठिनाइयों समस्याओं के बीच संघर्ष करती हुई स्त्री को आपने अपने साहित्य में चित्रित किया है।

शब्द नहीं मिलते  अस्मिता  लफ्जों ने जुबां खोली  अहसास चंद लम्हों का  एक आंसू  चक्रव्यूह में औरत कविता संग्रह बहुचर्चित रहे हैं। इतनी अधिक कविताओं की रचना करने के बावजूद सभी कविताओें की पृष्ठभूमि में भिन्नता अलग रोचकता अलग शैली का होना ही आपके लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण रहा है। ‘शब्द नहीं मिलते’ काव्य संग्रह में 92 कविताएँ हैं जिनमें आस्था विश्वास, गुरु के प्रति समर्पण भाव. सच्चा गुरु ही ईश्वर अराधना के मार्ग में सहायक होता है. गुरु के शरण में जाने से ही मुक्ति का मन्त्र मिलता है. गुरु की कृपा से ही कवयित्री ने सत्य से साक्षात्कार किया है कि प्रभु का बसेरा कहीं बाहर नहीं वह हृदय के भीतर ही विराजमान है।

शब्द नहीं मिलते काव्य संग्रह की कविताएँ स्वयं से साक्षात्कार है और जिसका स्वयं से साक्षात्कार हो जाता है वह भौतिक सुख–सुविधाओं से परे एक अलग ही जहान का प्राणी बन जाता है।भक्ति रस में सराबोर मुक्ता जी की कविताएँ अन्तर्मन को छूकर गहरे अध्यात्म से परिचय करवाती हैं। अस्मिता काव्य संग्रह में चौहत्तर 74 कविताएं हैं जिनका केन्द्र बिन्दु नारी रही है। अहिल्या, गांधारी के उदाहरण देकर कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं जो नारी की अंतस्चेतना को झकझोर कर रख देता है। द्रोपदी मंथरा उर्मिला सीता सभी का उदाहरण देकर बताया गया है कि आदिकाल से ही स्त्री को त्यागने का काम पुरुषों द्वारा किया गया है

एक स्थान पर सीता कहती हैं–

हे राम तुम कहीं भी जा सकते हो

तुम्हें अग्नि परीक्षा नहीं देनी होगी

न ही मैं

तुम्हारा त्याग करुंगी

वह अधिकार तो

मिला है पुरुष को

नारी तो बंदिनी है

चाहे वह राम के राजमहल में

चाहे रावण की

अशोकवाटिका में

वह तो है चिरबंदिनी।

 

कितनी मार्मिक पंक्तियां हैं। आपने न केवल पद्य में वरन गद्य में भी अपना अधिकार सिद्ध किया है। विविध विषयों को लेकर आपने जहां काव्य संसार रचा है वहीं कथा के क्षेत्र में भी आपने विभिन्न पृष्ठभूमि को लेकर कथा साहित्य की रचना की है।

एक कथाकार के तौर यदि हम डॉ मुक्ता के लेखन की बात करें तो आपका हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण व सराहनीय योगदान रहा है। आपने नारी मन में गहरे उतरकर उसकी संवेदना, यातना, संघर्ष, स्त्री की समस्याओं और सवालों से जुड़े अनेक प्रश्नों व अधिकारों को अपने साहित्य में उठाया है। आपके  स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपने  उन्हें कल्पना के माध्यम से मनोबल प्रदानकर संघर्ष करते हुए दिखलाया है। आपने उनका कथाक्रम के अनुसार पुनर्सृजन भी किया है।

आपके अब तक चार कहानी संग्रह खामोशियों का सफर, अब और नहीं, सच अपना अपना, इन गलियारों में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कहानियाँ गहरे प्रतिकार्थ की व्यंजना करती हैं। डॉ मुक्ता  ने स्त्री जीवन के सभी मर्मांतक पीड़ाओं को अन्तर्मन तक महसूस किया है और कहानी का कथ्य बनाया है।

स्त्री जीवन तो सदियों से दुखों और पीड़ाओं से भरा हुआ है। उसकी यह पीड़ा आज की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है। लगातार स्त्री दुखों आपदाओं और मुसीबतों का सामना करती रही है। प्रत्येक काल में स्त्री को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़े अब यह स्त्री बर्दाश्त नहीं करेगी। वह सीता मैय्या ही थीं जो परीक्षा पर परीक्षा देती चली गईं वह भी एक धोबी के कहने पर। आज की सीता जहाँ परीक्षा देने को तैयार है वहीं उससे पहले परीक्षा लेना भी जानती है। केवल स्त्री ही परीक्षा क्यों दे? कितने अपमान इस नारी जाति को सहने होंगे? कितना लांक्षित होना होगा?  स्त्री को पाप की खान नरक का द्वार माया और ठगनी के रूप में चिह्नित कर पुरुष समाज ने बहुत मजाक उड़ाया है।

डॉ मुक्ता ने अपनी कहानियों काश इंसान समझ पाता, अपना घर, अग्निपरीक्षा, अधूरा इंसान, रिश्तों का अहसास,  करवट तथा अपना आशियाँ में स्त्री यातना के विभिन्न पक्षों को उठाया है। लेकिन खास बात यह है कि इसके माध्यम से आपने नारियों के स्वतंत्र व्यक्तित्व और आत्मनिर्भरता को प्रमाणित करने का भी प्रयास किया है। आपके नारी पात्र पुरुष समाज के सारे अत्याचार सहने के बावजूद टूटते नहीं हार नहीं मानते। आपकी कहानियों के नारी पात्र अपने बलबूते पर जीवनभर संघर्ष करते नज़र आते हैं जीवन की कठिनाइयाँ भी उन्हें हरा नहीं पातीं। आपकी आक्रोश कहानी नारी सशक्तिकरण की अद्भुत कहानी है।

ढलती सांझ का दुख धरोहर मसान की डगर पर समझोता शायद वह कभी लौट आए आदि कहानियों में स्त्री यातना के भले ही विभिन्न संदर्भ हों लेकिन यह कहानियाँ यह सवाल उठाती हैं कि स्त्री को ससुराल के नाम पर जो घर मिलता है वह एक छलावा है।

यहाँ यदि हम स्त्री–पुरुष संबंधों की बात करें तो दोनों के बिना ही सृष्टि की कल्पना असंभव है। फिर न जाने क्यों किस बात की लड़ाई बरसों से चली आ रही है। स्त्री–पुरुष संबंध में स्त्री ग्रहण करने वाली प्राप्त करने वाली आत्मसात करने वाली और आत्मसात एवं ग्रहण के परिणामस्वरूप वृद्धि और रचना करने वाली है। वस्तुत स्त्रियों की गुलामी का सबसे बड़ा कारण धार्मिक सामाजिक मान्यताएँ और प्रथाएँ ही रहा है। इनके खिलाफ अभियान छेड़े बिना स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन लाना असंभव था। इसके लिए ही “वीमेन राइट्स” की बात कही गई। स्त्री पहले से ज्यादा सजग व चेतन हो गई है। पूर्वकाल में वह पुरुष के पद्चिह्नों पर चलने वाली थी किन्तु अब वह कदम से कदम मिलाकर एक साथ चलना चाहती है।

इस समाज में यह भ्रम फैला हुआ है। स्त्री विमर्श होना पुरुष विरोधी होना है किन्तु स्त्री तो बस अपने अधिकारों की माँग करती है पुरुष के समान प्रत्येक क्षेत्र में अपना समान अधिकार माँगती है। नियति के अनुसार अपने अधिकारों के लिए लड़ना गुनाह नहीं है क्योंकि अत्याचार करने से अत्याचार सहने वाला ज़्यादा गुनेहगार होता है।

मुक्ता जी की कथाओं में स्त्री पात्र संघर्षशील हैं आपकी नायिकाएं पुरुष वर्चस्व के कारण स्वयं को इस्तेमाल होने देने से इन्कार करती है और संस्कारों का मान करते हुए भी रूढ़ नैतिकता का विरोध करती है। उसका विश्वास है कि हमारे संस्कार हमारी मान्यताएँ जीवन को सही शक्ल देने के लिए हैं। जीवन को जीने की आकांक्षा जिस प्रकार पुरुष में है उस प्रकार स्त्री में भी है। दाम्पत्य संबंधों का सम्मान करते हुए वह अपने दायित्वों का निर्वाह करती है और अपनी अस्मिता का हनन नहीं होने देती। लेखिका की कहानियों में लिव इन रिलेशनशिप का कोई स्थान नहीं है। सकारात्मकता व मानवीय मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा आपके लेखन को शीर्ष तक पहुँचाती है।

आपने तथाकथित संस्कारशील घरों में घुटते दांपत्य और अस्तित्वहीनता की यंत्रणा सहती स्त्री के अंतद्र्वन्द्व को ही नहीं दर्शाया है बल्कि रूढ़ नैतिकता और पुरुष अहं का परीक्षण करती स्त्री की सहज जीवन जीने की आकांक्षा को नए अर्थों में दिखाने का भी प्रयास किया है।

आपकी टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी शत शत नमन किसके लिए पटरियों पर दौड़ती जिंदगी तथा शशांक जैसी कहानियों में जहाँ स्त्री के आँसू स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं वहीं ओजस्विता से भरी हुई प्रत्येक स्थिति में पहाड़ की अचलता दिखाई पड़ती है। भले ही सूरज छिपकर थोड़ी देर अंधेरा फैला दे किन्तु अंधेरे के बाद प्रकाश की उम्मीद ही स्त्री को जीवंत बनाती है।

आपके स्त्री पात्र पुरुष को कहीं भी अस्वीकार नहीं करते बस बराबर में एक सम्मानपूर्ण जगह चाहते हैं। वस्तुत यही तो है स्त्री विमर्श। पुरुष विरोधी होना स्त्री विमर्श नहीं बल्कि समान अधिकारों समान दायित्वों का निर्वाह ही स्त्री विमर्श है जोकि मुक्ताजी के साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

आपकी  स्त्रियाँ दुख व यंत्रणा सहती अपनी अस्मिता को बचाए हुए सदैव संघर्षशील हैं। आपने स्त्रियों के दुख को एक बड़े फलक पर उतारकर दुख निवारण हेतु नई दिशा प्रदान की है।

निष्कर्षत कहा जा सकता है कि मुक्ता जी गंभीर कलात्मक साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट साहित्य की रचना करने वाली लेखिका हैं। आपकी कहानियों में यथार्थता सादगी विचारमयी मर्मबेधी वेदनाएँ हैं। आपके कथानकों के पात्र यथार्थ की भूमि से लिए हुए इतने सहज निश्छल पारदर्शी हैं कि पाठक की अंतरात्मा को झकझोर देने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। पाठक का उनके साथ स्वत ही तारतम्य स्थापित होता चला जाता है।

आपके कथानकों की भाषा वातावरण के अनुरूप अत्यंत हृदयस्पर्शी, सरल, सहज, आंचलिकता को लिए हुए कथा व स्थिति के अनुरूप गढ़ी गई है। आपने स्त्री विमर्श का ढिंढोरा न पीटकर अपनी कथानकों में स्त्री विमर्श के मूल तत्वों को मार्मिकता के साथ रेखांकित किया है। स्त्री स्वातंत्र्य की बातें आपने बहुत स्पष्ट व दृढ़ता के साथ कही हैं। आपके स्त्री पात्र सामाजिकÊ राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आपके पात्र स्त्री के मानसिक पटल को प्रस्तुत करने का अद्भुत सामथ्र्य तो रखते ही हैं साथ ही परंपरागत रूढ़ियों–बंधनों से मुक्त होकर स्वनियंत्रण में रहने की सीख देते हुए भी नज़र आते हैं।

मुक्ता जी एक प्रतिबद्ध लेखिका हैं। शोषण, अत्याचार व अनाचार सहती स्त्रियों की पीड़ा को मरहम देना व समाज की प्रगति ही आपके लेखन का लक्ष्य रहा है। आपने विभिन्न कहानियों के माध्यम से स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को उठाया है। आपके स्त्री पात्र समाज के लिए नई दिशा व नया मार्ग प्रशस्त करने वाले हैं।

आपके स्त्री पात्र अपने स्त्रीत्व पर गर्व करने वाले, स्वाभिमानी, संघर्षशील व ऐसी अपराजिताऐं हैं जो अंत तक संघर्ष करती रहती हैं। आपने अपनी भावनाओं विचारों व संवेदनाओं में बेहद ईमानदारी व पारदर्शिता का परिचय दिया है। इस प्रकार मुक्ताजी अपने जीवन के अनुभवों व साहित्य के द्वारा स्त्री मुक्ति का आख्यान रचती हैं।

डॉ सविता उपाध्याय 

साहित्यकार व समीक्षक, बी 1146 ग्राउंड फ्लोर इफको कॉलोनी गुरुग्राम, 9871899939

 

डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ जन्मदिवस विशेष ☆ श्री दिलीप भाटिया ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ श्रीमती मिली भाटिया

श्री दिलीप भाटिया 

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जीएवं  डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी  के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – श्री दिलीप भाटिया ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  श्री दिलीप भाटिया जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  उनके प्रशंसकों एवं सुपुत्री डॉ मिली भाटिया जी  की कलम से। मैं  डॉ मिली भाटिया जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया।  भारत सरकार सेवाओं में परमाणु वैज्ञानिक की भूमिका निभाने के पश्चात बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री दिलीप भाटिया जी बच्चों में प्रिय ” दिलीप  अंकल ” के नाम से प्रसिद्ध, तन, मन और धन से समाज के प्रति समर्पित हम  सबके आदर्श हैं।

वैसे हम प्रति रविवार इस स्तम्भ को प्रकाशित करते हैं किन्तु, आज का दिन हम सबके लिए विशेष है और श्री भाटिया जी के लिए उनके प्रशंसकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः हम परिपाटी तोड़ते हुए आज उनके जन्मदिवस पर भेंट स्वरुप यह विचारों का गुलदस्ता प्रस्तुत करते हैं। सर्वप्रथम अनजाने में ही प्राप्त उनका संकल्प – २०२० )

☆ सन्कल्प 2020☆

परमाणु ऊर्जा विभाग से सेवानिवृत्ति के पश्चात् प्रति वर्ष समय के सकारात्मक सदुपयोग हेतु सन्कल्प लेता हूँ। प्रति सप्ताह कम से कम एक शिक्षण संस्थान में विद्यार्थियों को समय प्रबंधन एवं कैरियर चुनाव पर विचार व्यक्त करने के लिए समय देना है। हर वर्ष 75 प्रतिशत से अधिक यह सन्कल्प पूरा हो जाता है। वर्ष 2019 में लक्ष्य प्राप्ति का प्रतिशत  125 रहा क्योंकि नवंबर 2019 में नाथद्वारा दरीबा चित्तोडगढ प्रवास में  12 शिक्षण संस्थानों में लगभग  3000 विद्यार्थियों के साथ समय के सदुपयोग पर विचार व्यक्त किए। सरकारी विद्यालयों की मेधावी बेटियों की उच्च शिक्षा के लिए पेन्शन का 5 प्रतिशत देने का सन्कल्प 100 प्रतिशत पूर्ण हो जाता है। अपनी लिखित एवं प्रकाशित समय एवं कैरियर की पुस्तकों की  सोफ्ट  पी डी एफ प्रति उपहार स्वरूप  1000 विद्यार्थियों को वाट्सएप मेल पर देने का सन्कल्प 75 प्रतिशत से अधिक पूर्ण हो जाता है। प्रति वर्ष अपने जन्मदिन  26 दिसम्बर पर रक्तदान का पुण्य 65 वर्ष की आयु तक करता रहा। पर अब अधिक उम्र होने के कारण इस सन्कल्प को निभाना सम्भव नहीं है। जन्मदिन पर एक पौधा रोपण करने का सन्कल्प प्रति वर्ष पूरा हो जाता है। 2020 में भी इन सभी सन्कल्पो को पूर्ण करने का प्रयास करूंगा। साथ ही जन जागरूकता अभियान में परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर लेख लिखने का सन्कल्प भी प्रति वर्ष निभ रहा है एवं जीवन की अंतिम साँस तक निभाने का प्रयास रहेगा। जीवन सन्ध्या में देश की कुछ सेवा तन मन धन से करते रहने के लिए सकारात्मक सन्कल्प पुरी ईमानदारी से निभा रहा हूँ एवं शेष जीवन में भी निभाते रहने का प्रयास रहेगा। Dileep Bhatia के नाम से  मेरी फेसबुक टाइम लाइन पर इन सभी सन्कल्पो के निभाने के समाचार एवं फोटो प्रमाण स्वरूप देखे जा सकते हैं।

दिलीप भाटिया 

सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक

(19-12-2019 – 10:35)

(ई- अभिव्यक्ति  श्री दिलीप भाटिया जी के प्रशंसकों के उद्गारों के माध्यम से ही आपको उनके व्यक्तित्वा एवं कृतित्व से रूबरू कराने का एक प्रयास है।)

प्रेम की प्रतिमूर्ति 

दिलीप भाटिया जी के बारे में मुझे कोई एक वाक्य में कहने के लिए बोले तो मैं कहूंगा कि “वह  बहुत ही श्रम शील, समाजनिष्ठ, प्रेम की प्रतिमूर्ति, समय के पाबंद एक ऐसे इंसान हैं, जो उम्र के इस पड़ाव पर होते हुए भी, जहां व्यक्ति सारे कार्यों को छोड़कर समाज व परिवार के ऊपर एक बोझ नजर आता है, आप एक युवा के बराबर की ऊर्जा सन्निहित किए हुए समाज को एक नई दिशा देने में प्रयत्नशील हैं”।

आपने अपनी संतान के लिए एक माता, पिता, मित्र और पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाते हुए उन्हें भी समाज निर्माण के कार्य में संलग्न किया। बच्चों से आपका प्रेम इतना है कि उतना माता-पिता भी नहीं कर सकते। प्रेम व आत्मीयता बांटने के कारण ही सारे बच्चे आपको दिलीप अंकल के नाम से जानते हैं। सारे बच्चे आपको इसलिए भी पसंद करते हैं कि आपके द्वारा “अधिक अंक कैसे पाएं”  एवं ” समय प्रबंधन कैसे करें” जैसे टिप्स के माध्यम से उन्हें परीक्षा में सफलता व कैरियर बनाने में मदद मिलती है।

गायत्री परिवार के रचनात्मक कार्यों से जुड़ने के बाद से आप गायत्री चेतना केंद्र में नियमित बाल संस्कार शाला का संचालन करने के साथ-साथ अन्य सामाजिक कार्यों को भी जारी रखे हुए हैं। बच्चों में संस्कार विकसित करने की दिशा में उनके प्रयत्नों को अखिल विश्व गायत्री परिवार, शांतिकुंज, हरिद्वार ने भी सराहा है। आपका पर्यावरण प्रेम किसी से भी छिपा नहीं है । चाहे वृक्ष लगाना हो, उनकी देखभाल करना हो या स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम हो, आपने हमेशा से ही अपने आचरण द्वारा दूसरों को प्रेरणा देने का कार्य किया है। रक्तदान करके पीड़ितों की सेवा करना और उनकी जान बचाना तो आपके जीवन का एक लक्ष्य ही बन चुका है । शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो इतनी बार रक्तदान कर चुका होगा। कोई बच्चा यदि धन के अभाव में पढ़ नहीं सकता तो यह आपसे देखा नहीं जाता। स्कूलों में निर्धन बच्चों को पाठ्य सामग्री मुहैया कराकर आपने हमेशा से ही उनकी सहायता की है।  तमाम स्थानीय विद्यालयों में शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने व विद्यार्थियों हेतु अच्छी सुविधाएं मुहैया कराने हेतु आपने गुप्तदान करके अपनी भामाशाह भावना का परिचय दिया है।

कलम के माध्यम से अपनी भावनाओं को कागज पर व्यक्त करने हेतु आपने कई पुस्तकों का भी लेखन किया है। जहां “भीगी पलकें” जैसी लघुकथा पढ़कर आंखों में आंसू आ जाते हैं वहीं  “छलकता गिलास” और “कड़वे सच” जैसी रचनाएं पढ़कर समाज के प्रति आपकी भावनाएं पाठकों को उद्वेलित कर जाती हैं। तमाम सामाजिक व सरकारी संस्थाओं द्वारा आपका सम्मान किया जाना इस बात का परिचायक है कि समाज के प्रति आपके अंदर कितनी पीड़ा है। बच्चों को संस्कारित करके व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण व समाज निर्माण के पथ पर आगे  बढ़ते हुए, राष्ट्रनिर्माण के जिस लक्ष्य को प्राप्त करने में आप लगे हुए हैं,वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु हम सभी के लिए अनुकरणीय भी है। परमात्मा आपको उचित शक्ति व मार्गदर्शन देते रहें जिससे आप अपने लक्ष्य पर बढ़ते रहें,ऐसी मंगल कामना।

कैसा लगा।मन से लिखा है।आप कैसे हो।जन्मदिन मुबारक हो।

अवधेश नारायण वर्मा

पूर्व चेयरमैन व मुख्य कार्यकारी भारी पानी बोर्ड, परमाणु ऊर्जा विभाग,  मुंबई

 

लोगों के दिलों को जीतने वाले दिलीप सरजी !

वर्षों पूर्व पत्र – मित्रता का चलन था। जो लोग पत्र – मित्रता में रुचि रखते थे , वे रेडियो या पत्रिकाओं पर अपना नाम, पता, शौक आदि का विस्तृत विवरण देते थे। मैं भी उस समय कई भाईयों और एक बहनजी से पत्र – मित्रता करता था। आगे चलकर सभी से सम्पर्क टूट गया। पहला कारण व्यापार में व्यस्तता और दूसरा कारण विषयों की कमतरतता। हर बार नया क्या लिखें? जो भी हो, पत्र – मित्रता में अदभुत आनंद आता था। पत्रों की जगह अब मोबाइल ने ले ली है।

मैं कई लोगों से मोबाइल पर वार्तालाप करता हूं। दिलचस्प बात यह है कि उन महानुभावों से मिलने का सुअवसर अभी तक नहीं मिला है। उन चुनिंदा लोगों में से एक महत्वपूर्ण हस्ती का नाम दिलीप भाटिया जी है। मेरी प्रिय पत्रिका `अहा ! ज़िंदगी´ में कभी – कभार उनके पत्र, लघुकथाएं छपती थी तो मैं उन्हें अवश्य पढ़ता था। मेरे हृदय में उनके प्रति आदरभाव , सम्मान था। एक आदर्शवादी व्यक्ति की छवि अंकित हो चुकी थी मेरे मन में। नागपुर (महाराष्ट्र) से प्रकाशित मासिक `सिन्ध जो शेर´ में उनकी लघुकथाएं और आलेख के साथ उनका फ़ोटो और मोबाइल नंबर देखकर मैं खुद को रोक नहीं सका। दरअसल मैं उन्हें सिंधी भाषी समझता था। उनसे बातचीत करने के बाद गलत फहमी दूर हो गई कि वे सजातिय नहीं हैं। लेकिन बातचीत का जो सिलसिला चल पड़ा वो निरंतर आज भी जारी है।

फ़ेसबुक पर उनके साथ जुड़ने के बाद पता चला कि वे सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यों में सदैव तत्पर रहते हैं। यही नहीं, सेवानिवृत्त के बाद, स्कूली बच्चों के प्रति उनका सहयोग, सदभावना और समर्पण भाव उनकी  सहृदयता दर्शाता है। निस्वार्थ भाव से बच्चों का जो मनोरंजन और मार्गदर्शन करते हैं वो प्रशंसनीय , अभिनंदनीय, अनुकरणीय और वंदनीय है।

अब तो लगभग हर सप्ताह उनसे बातचीत होते रहती है। कभी – कभी, बार – बार फ़ोन करने के बावजूद वे फ़ोन नहीं उठाते हैं तो मन में घबराहट होती है कि कहीं उनकी तबियत तो नहीं बिगड़ी है। उनके साथ कोई रक्त सम्बंध तो नहीं है , मगर मेरे लिए वे भ्राताश्री के समान हैं। मेरी दिली इच्छा है कि वे सौ सालों तक सदैव चुस्त – दुरूस्त – तंदुरुस्त रहें। सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में केक काटकर जश्न मनाएं और मुझे बुलाऐं तो मुझे बेहद प्रसन्नता होगी। सरजी को जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ। आपकी कलम यूं ही बिना रुके, बिना थके, चलती रहे यही अभिलाषा है।

अशोक वाधवाणी ,गांधी नगर, महाराष्ट्र, संपर्क 9421216288 .

  निःस्वार्थ सेवा  

कई बार हम अपने आसपास  ऐसे लोगों पर दृष्टिपात करना भूल जाते हैं जो साधारण परिवार में जन्म  लेकर अपने बलबूते पर कुछ सामाजोपयोगी कार्य करते रहते हैं। कुछ मेरे बाबा  यानि पिता सचिपति नाथकी तरह मौन रहकर बिना प्रचार के काम करते रहते हैं।

कुछ लोग अपने कार्यो को अपनो को बताकर तृप्ति महसूस करते हैं दोनों ही तरीके सही हैं। पर मेरे ख्याल आज के युग में दिलीप अंकल  वाला तरीका  ज्यादा कारगर  हैं। क्योंकि इससे दूसरों से अपने समाजोपयोगी कार्यो के बारे में कहना नहीं पडता । अक्सर बुजुर्गोको अपना गुणगान करतेही सुना जा सकता हैं। केवल अपने व अपने बीवी बच्चो के लिये करना कोई बडी बात नहीं।

समाज सेवा हेतु घर बार भी सभी नहीं छोड सकते है। ऐसे में दिलीप अंकल का परिवार व समाज सेवा का संतुलन सराहनीय व अनुकरणीय हैं।

मुझे याद हैंकि मैंने इनसे पुरानी बाल पत्रिकाये स्कूल के बच्चो के लियो मांगी थी। इन्होने भिजवा दी। इनकी सुरेश सर्वहाराजी और हरदर्शन सहगलजी की बाल पत्रिकाये जब बाल साहित्य से अंजान व वंचित वर्ग के बाल पाठको अपने हाथों से दी तो उन की आंखो में जो भाव मुझे दृष्टिगोचर हुये वो अविस्मरणीय है। दरअसल दिलीप अंकल जैसा इंसान बनने के लिये ढृड इच्छा शक्ति व परोपकारी प्रवृति  का होना आवश्यक हैं।

वैसे ये बेटियो से इतना स्नेह रखते हैं कि इन की मुह बोली बेटियों किसी से सच कहने से नहीं हिचकती । लाख बाधाओ के बावजूद अपनी राह वना लेती हैं।

इनसे जब फोन पर पहली बार बात हुई तो मेरा लेखन  से नाता टूट ही चुका पर इनसे बात करके काफी हौसला मिला । जल्द ही राष्टीय स्तर की पत्रिकाओं  व संकलन में मेरी रचनाये शामिल| हुई।

मेरी लिखी रकत दान व रुचि इनपर आधारित हैं।

हर साल मेरे जन्म दिन पर अंकल पॉस्टकार्ड पर शुभ कामनाये भेजते हैं। इस बार हम हमारे अंकल का जन्मोत्सव इतना जानदार ढंग से मना रहे हैं।

कितने लोगो को नसीव होता है ऐसा दिन।  धन नाम तो बहुतो के पास होता है पर कितने उसका एक। हिस्सा गरीबो कीशिक्षा वास्ते लगा पाते हैं । अंकल स्वस्थ व सक्रिय रहे इसी मंगल कामना  के साथ।

पूर्णिमा मित्रा बीकानेर

 

“मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता  है..”

मेरी पहली कहानी एक पत्रिका मे छपी..और उस कहानी पर प्रतिक्रिया स्वरूप सबसे पहला फ़ोन दिलीप सर का आया.  थोड़ा झिझकते हुए मैंने बात शुरु की…राउतभाटा अनुसंधान केन्द्र और सर का परिचय  सुनते ही लगा कितना प्रभावी व्यक्तित्व है और साथ ही सहजता भी लेकिन संकोचवश बस कहानी पर ही बात हो पायी।

दिलीप सर…जिन्हें मैंने कभी देखा नहीं… बस एक फ़ोन कॉल ने मुझे उनसे जोड़ा। बाद में मैं उनसे बात करने का मौका ढूँढती रही, और अपने दोपहर की नीद से समय निकालकर जब उन्होंने मुझसे बात की तो मै बहुत खुश हो गई। उनकी कई खूबियाँ मेरे सामने आयीं। उनकी सह्रदयता, दूसरों की मदद करने की इच्छा.. बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करना, अपने करियर को लेकर भ्रमित किशोरों की कॉउंसलिंग करना…उन्हें नयी राह सुझाना.. सब कुछ मेरे मन को भा गया..। आज कितने ऐसे उदारमना हैं जो दूसरों के लिये जीते हैं..!!!

यह बस सुनकर जब मैंने कहा कि, आप कितने अच्छे हैं.. और कितने अच्छे काम करते हैं..

इसके जवाब में उनका यह कहना कि, “मैं कुछ नहीं करता..ईश्वर मुझसे यह कराता  है..” मेरे मन को छू गया..

अज्ञात प्रशंसक

 

दिलीप भाटिया-  एक  मिसाल

मेरे लिए परम हर्ष व उल्लास का पर्व है -साहित्य गगन के देदीप्यमान नक्षत्र, रिटायर्ड परमाणु वैज्ञानिक , समाज सेवी ,पर्यावरण प्रेमी परम आदरणीय, दिलीप भाटिया जी की जीवन यात्रा को रेखांकित, शब्दांकित करन,

बल्कि ये कहना अधिक समीचीन होगा कि सूर्य को दीपक दिखाने जैसा कृत्य है।

दिलीप भाटिया जी की कवितायें, कहानियाँ, लघुकथाएँ, पुस्तक समीक्षा, आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ती रहती, और तदन्नतर प्रभावित हुए बिना न रह पाती ।

आपसे जुड़ने का सौभाग्य लगभग दो वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ ,जब *शुभतारिका* में प्रकाशित मेरी रचना को पढ़कर आपने सहृदयता से मुझे बधाई दी ।

मुझे अपार हर्ष की अनुभूति हुई ।

आजीवन  कुशलतापूर्वक पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करते हुए, समाजसेवा करते रहे, गरीब बच्चों की पढ़ाई में मदद करना, संस्कारशाला का आयोजन करना, कैरियर गाइडेंस, इससे महत्त्वपूर्ण अबतक 59 बार रक्तदान कर अनेक व्यक्तियों को जीवनदान देना, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवदान है ।

साहित्य को भी आपने अथक अवदान दिया है, साहित्यिक यज्ञ में आहुति दी है, साहित्य की अनेकों विधाओं में साधिकार लेखनी चलाई है, जिसका प्रमाण आपकी काव्यकृतियाँ स्वयं हैं।

अनगिन सम्मान आपकी साहित्य साधना की कहानी कह रहे हैं ।

अनेक विषम परिस्थितयों का सामना करते हुए भी आपने धैर्य बनाये रखा और जीवन के प्रति सदैव आशावादी दृष्टिकोण रखा।

आप किसी परिचय के मोहताज़ नहीं, न ही किसी सम्मान में वो सामर्थ्य है जो आपके व्यक्तित्त्व को माप सके, आप सहृदय संवेदनशील व्यक्ति हैं, आपका किंचित् भी अनुगमन कर सकूँ तो मुझे स्वयं पर गर्व होगा।

नतशीश नमन आपको

आपकी अनुजा नीलम सिंह

विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं

किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके कृतित्व से जाना जाता है। जैसा उसका कृतित्व होता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है । इस मायने में दिलीप भाटिया जी का व्यक्तित्व बहुआयामी और सामाजिक उपयोगी है।

जीवन में बिरले ही व्यक्ति होते हैं जो पूरी तरह समाज और बच्चे के लिए समर्पित होते हैं। दिलीप भाटिया जी वैसे ही समर्पित व्यक्ति हैं। एक इंजीनियर होते हुए भी इन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए समर्पित कर दिया है  । यह अपनेआप में अनुकरणीय और अद्वितीय उदाहरण है।

एक लड़की के पिता होते हुए भी आप सभी बच्चों के अभिभावक का दायित्व बेहतर ढंग से निभा रहे हैं । जहां कहीं भी आपको बुलावा मिलता हैं या आप को समय मिलता है वहां और जरूरतमंद विद्यालय में पहुंचकर आप विद्यालय और बच्चों की सहायता को तत्पर रहते हैं।

विषय क्षेत्र कोई भी हो, आप बच्चों की सहायता करने को सदैव तैयार रहते हैं। इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए आप ने कई विद्यालयों में अनेक कार्यशाला की हैं। कई बच्चों को समय प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया है । आपको जब भी कहीं से निमंत्रण या आमंत्रित मिलता हैं आप वहां तुरंत बच्चों के कार्य के लिए समर्पित भाव से पहुंच जाते हैं।

आज के आधुनिक युग में जहां माता-पिता अपने बच्चों को समय और श्रम नहीं दे पाते, वहां दिलीप भाटिया जी द्वारा दूसरे के बच्चों को समय और श्रम देकर उनके बहुगुणी विकास में अपना योगदान देना अपने आप में अनुकरण और प्रेरणादायक कार्य हैं। जिस का कोई मूल्य नहीं चुकाया जा सकता हैं ।

यही कार्य और उस की प्रेरणा आपको सदैव हंसमुख मिलनसार और एक और जवान व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। इसकी झलक इनके कार्यों और व्यवहार देखी जा सकती हैं। मुझे गर्व है कि मैं दिलीप भाटिया जी जैसे विशाल प्रेरक व्यक्ति का मित्र हूं । और इन से प्रेरणा लेकर मैं  भी छटांक मात्रा में  दूसरों की रचनात्मक कार्य मे मार्गदर्शन प्रदान करने की कोशिश करता हूं । मैं दिलीप भाटिया जी के दीर्घायु स्वस्थ और प्रेरक जीवन की कामना करता हूं। ये अपना पूरा जीवन इसी तरह के सामाजिक उपयोगी कार्यों में अपने आप को लगाते रहे और सदैव स्वस्थ व दीर्धायु रहें । यही कामना हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला -नीमच (मध्यप्रदेश) पिनकोड -45822

 

……..और बेटी की दृष्टि में   

मेरी नजर में मेरे पापा विश्व के श्रेष्ठतम पापा हैं । वे अत्यंत सरल, सीधे, अधिकतर खामोश रहकर दूसरों के लिए, तन, मन, धन से निःस्वार्थ मदद करने वाले, स्वाभिमानी तथा बच्चों में “प्रिय दिलीप अंकल “ के नाम से जाने जाते हैं।  सहनशक्ति से भरपूर परंतु दिल से कमजोर व नाजुक हैं परंतु मजबूत हैं।  किसी की भी बात में जल्दी आ जाते हैं जिससे लोग उनका फायदा उठाते हैं। परंतु पापा यही कहते हैं कि फायदा भी उसी का उठाया जाता है, जो किसी काम का हो, कहकर मुस्कुरा कर बात खत्म कर देते हैं। समाज में वे लोकप्रिय लेखक एवं वैज्ञानिक (अनेक प्रतिभाओं के धनी) हैं। 16 साल से मेरे पापा कम, मेरी माँ ज्यादा हैं। किसी बात को मनवाने के लिए जब मैं जिद्द करती हूँ तो पहले पिता कि तरह कठोर होकर मना कर देते हैं फिर माँ की तरह हाँ कर देते हैं। लोगों से दिल से रिश्ते निभाते हैं। छोटी छोटी बातों से खुश हो जाते हैं, बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना बहुत मजबूती से करते हैं। अपना दर्द कम ही कहते हैं। मेरी नजर में मेरे पापा मेरे गुरूर हैं। मैं अपने आप को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करती हूँ क्योंकि पीहर पक्ष में सिर्फ एकमात्र आप हैं जिनकी वजह से आपने  माँ की कमी पूरी करने की अथक कोशिश की है। आपने मुझे समाज में सबके सामने स्वाभिमान से खड़ा होना सिखाया है। आप छोटे बच्चों (मेरी बेटी) के सबसे प्रिय दोस्त हैं। बच्चे आपसे बहुत खुश रहते हैं।

आप जो 16 साल से मेरे लिए त्याग कर रहे हैं उसके लिए शब्द कम हैं।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब से “आत्माराम पुरस्कार” प्राप्त कर चुके हैं । कडवे सच, छ्लकता गिलास, भीगी पलकें, समय, जीवन, कैरियर, कलाम साहब आदि पुस्तकें लिख चुके हैं। 59 बार रक्तदान कर चुके हैं। आपकी सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि आप गाँव के स्कूलों में गरीब बेटियों को पाठ्य-सामाग्री, कपड़े, फल, बिस्कित, फीस आदि वितरित करते हैं।

आपकी अगली किताब के लिए यह मेरे छोटे छोटे शब्द हैं।  बाकी मैं आपकी तरह लेखिका नहीं जो बहुत साहित्यिक लिख सकूँ। 26 दिसंबर 2019 “Happy Birthday” की बहुत सारी बधाइयाँ “PAPA THE GREAT” को ।

  • आपकी बेटी  डॉ मिली भाटिया 

( ई – अभिव्यक्ति की और से श्री दिलीप भाटिया जी को जन्मदिवस की अशेष हार्दिक शुभकामनाएं )

सम्प्रति : दिलीप भाटिया 

सेवानिवृत्त परमाणु वैज्ञानिक

238 बालाजी नगर रावतभाटा 323307 राजस्थान मोबाइल फोन नंबर 0 9461591498.

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘

डॉ. रामवल्लभ आचार्य

ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी  एवं श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

 

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ हिन्दी साहित्य – डॉ. रामवल्लभ आचार्य ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  डॉ. रामवल्लभ आचार्य  जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी  की कलम से। मैं  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र ‘ जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया।  विविध पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ रामवल्लभ आचार्य जी  हम सबके आदर्श हैं। )

(संकलनकर्ता  –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ )

चार मार्च उन्नीस सौ तिरेपन के दिन भोपाल में जन्में डा. वल्लभ आचार्य जी के पिताजी  शहर के प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ,ज्योतिषी व कर्मकांडी विद्वान् थे तथा श्री राधा वल्लभ मंदिर के पुजारी एवं शासकीय शिक्षक थे।

आपने बी. एस. सी. तथा बी. ए. एम. एस.(बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एंड सर्जरी) की उपाधि अर्जित की तथा १९७८ से  चिकित्सा व्यवसाय में  संलग्न हैं ।आप नेशनल. इन्टीग्रेटेड मेडिकल एसोसिएशन के जिला शाखा सचिव, प्रांतीय सचिव, कोषाध्यक्ष,  राष्ट्रीय संयुक्‍त सचिव, एवं अनेक प्रांतीय व राष्ट्रीय समितियों के सदस्य, संयोजक व चेयरमेन रहे हैं। अनेक चिकित्सा शिविरों के आयोजन, धर्मार्थ चिकित्सा केन्द्रों के संचालन तथा समाज सेवा की अन्य गतिविधियों में संलग्न रहे डा. आचार्य को राज्य स्तरीय धन्वन्तरि सम्मान, डा. व्ही.  पी. शर्मा मेमोरियल गोल्ड मेडल अवार्ड तथा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किये गये  । आप वर्ष १९९९ से पारिवारिक मासिक स्वास्थ्य पत्रिका  आरोग्य सुधा” का संपादन एवं प्रकाशन कर रहे हैं।

छात्र जीवन से ही डा. आचार्य की रुचि साहित्य और पत्रकारिता में रही। आपने राष्ट्र का अह्वान, गोरा बादल, महाकौशल तथा जागरण के संपादकीय विभागों में कार्य किया तथा आपके धर्म, आध्यात्म, विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति संबंधी लेखों तथा कविता, गीत, व्यंग्य, कहानी, साक्षात्कार तथा अन्य रचनाओं का प्रकाशन धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता, चंपक, बाल भारती, कल्याण, नव भारत, नई दुनिया, भास्कर, जागरण सहित अनेक पत्र पत्रिकाओं में हुआ ।

आप आकाशवाणी एवं दूरदर्शन द्वारा अनुमोदित गीतकार हैं । आपके लिखे गीतों, संगीत रूपकों, नाटक-प्रहसन, टेलिफिल्म व धारावाहिकों का प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों, राष्ट्रीय व विदेश प्रसारण सेवा द्वारा किया गया। आपने फिल्म “अहिंसा के पुजारी” के लिये गीत तथा अनेक नाटकों व धारावाहिकों के लिए शीर्षक गीत भी लिखे । प्रसिद्ध गायकों यथा- हरि ओम शरण, अनूप जलोटा, अनुराधा पौड़वाल, उदित नारायण, रूप कुमार राठौर, कल्याण. सेन, घनश्याम वासवानी, राजेंद्र काचरू, शेवन्ती सान्याल, प्रभंजय चतुर्वेदी, प्रकाश पारनेरकर, आदि के स्वरों में आपके भक्तिगीतों के कैसेट्स व सीडीज वीनस, टी सीरीज, ई एम आई आदि कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी किये।  आपके भजनों को साध्वी ऋतंभरा सहित अनेक प्रवचनकारों और भजनमंडलियों द्वारा गाया जाता है। आपके देशभक्ति गीत व सरस्वती वंदना का गायन अनेक विद्यालयों में किया जाता है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इतिहास पर लिखे आपके संगीत रूपक “मुक्ति का महायज्ञ” की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति भारत भवन सहित देश के अनेक मंचों पर की जा चुकी है।

डॉ. आचार्य की प्रकाशित पुस्तकें हैं – “राष्ट्र आराधन”, “गीत श्रंगार”, “सुमिरन”, गाते गुनगुनाते”, “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो” तथा “पांचजन्य का नाद चाहिये” (सभी गीत संकलन)। “शब्दायन” व “गीत अष्टक” (द्वितीय) सहित अनेक संकलनों में भी आपकी रचनायें प्रकाशित हुई। आपको “अभिनव शब्द शिल्पी”, ” राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान”, ” साहित्य श्री”, “तुलसी साहित्य सम्मान”, “जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान”, “चन्द्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान”, “राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान”, “विशिष्ट साधना सम्मान” एवं “भारत भाषा भूषण” सहित अन्य सम्मान प्राप्त हुए हैंसाहित्य सागर पत्रिका द्वारा आप पर विशेषांक का प्रकाशन किया गयाआप भोपाल की प्रथम साहित्यिक संस्था “कला मंदिर” के अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के जिलाध्यक्ष, प्रांतीय महामंत्री एवं राष्ट्रीय सचिव के दायित्व का निर्वाह कर चुके हैं तथा सम्प्रति मध्य प्रदेश लेखक संघ के प्रादेशिक अध्यक्ष हैं

 

संकलन –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 22 ☆ साक्षात्कार ☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत.
हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त 1924 को हुआ। वे एक समर्थ कवि, उपन्यासकार और कहानीकार हैं। किसी भी वाद के कृत्रिम दबाव में न आकर उन्होंने अपना लेखन सहज ही परिवर्तित होने दिया।
हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार डॉ राम दरश मिश्र जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 22  साहित्य निकुंज ☆

☆ डॉ राम दरश मिश्र जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत  निकट रही )

हिंदी साहित्य के वरिष्ठ और श्रेष्ठ साहित्यकार, विविध विधाओं में सिद्धहस्त, पुरोधा पीढ़ी के साहित्यकार, आलोचक की दृष्टि रखने वाले, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ. रामदरश मिश्र जी जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन रचना-कर्म में पूरी सक्रियता और मनोयोग से लगाया और जो भी हिंदी साहित्य को दिया वो प्रेरणादायी है।

आपने अनेक कविता संग्रह ,कहानी संग्रह ,अनेक उपन्यास ,समीक्षा,ललित निबंध,यात्रा वृतांत ,डायरी ,आत्मकथा ,आलोचना, संस्मरण ,संचयन संपादन आदि हिंदी साहित्य को भेंट किये। आपके लेखन में गाँव की मिटटी की गंध समाहित है। आप विविध विधाओं के निष्णात आज आयु के दसवें दशक में भी गति शील है।

अनेक पुरस्कार से सम्मानित मिश्र जी को अभी हाल ही में  “आग की हँसी” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।

जब मै उनसे मिली तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा सपना साकार हो गया  हो। जिन्हें मैंने बचपन में  पढ़ा और फिर पढाया आज मै उनका साक्षात् दर्शन कर रही हूँ और उनकी कविता उनके मुख से सुन रही हूँ। ये मेरे लिए बहुत हो गौरव की बात है।प्रस्तुत है उनके साथ की गई बातचीत के अंश …………

डॉ.भावना शुक्ल – अभी-अभी आपने बताया आपका गज़ल संग्रह आ रहा है हम यहीं से शुरुवात करते है आप हमें नए ग़ज़ल संग्रह में से कुछ अंश ग़ज़ल के सुनाइये।

डॉ राम दरश मिश्र – भावना बेटी मैंने बातों के दौरान कविताये तो सुना डाली पर ग़ज़ल नहीं सुनाई। मेरे मन की बात कही| मुझे बहुत पसंद है …………

याद आना था न ,पर याद आया ,

एक  भूला-सा  पहर  याद आया।

बेचते-बेचते   गया   थक   मै ,

आज बाज़ार में घर याद  आया।

पाया क्या-क्या न मगर क्या खोकर,

भूल  बैठा  हूँ, ठहर , याद  आया।

भूल  बैठा  था  जिसे  पा  मंजिल,

कच्चे  रास्तों  का सफ़र याद आया।

छाँह में  पलते  हुए  अश्मों की ,

अपने आँगन का शजर याद आया।

कोई  है  जो  कि  भूला-भूला सा,

फूल –सा जिन्दगी भर याद आया।

डॉ.भावना शुक्ल – बहुत ही शानदार ग़ज़ल सुनाई। यथार्थ का बहुत ही उम्दा चित्रण किया है। आप सुदीर्घकाल से साहित्य साधना कर रहे ,आप अनुभव संपन्न हैं| सबसे पहले हम जानना चाहेंगे कृपया आप हमें  काव्य भाषा के सन्दर्भ में कुछ बताइए ?

डॉ राम दरश मिश्र – मैंने अपनी सृजन यात्रा कविता से ही प्रारंभ की थी और आज तक उसे शिद्दत से जी रहे हैं। मेरा  पहला काव्य संग्रह ‘पंथ के गीत’ 1951 में प्रकाशित हुआ था। तब से आज तक कई संग्रह आ चुके हैं। इनमें कुछ ‘बैरंग-बेनाम चिटठियां’, ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’, ‘दिन एक नदी बन गया’, ‘जुलूस कहां जा रहा है’, ‘आग कुछ नहीं बोलती’ और ‘हंसी होंठ पर आंखें नम हैं’ जैसी बेहतरीन रचनाएं शामिल हैं।

कविता की भाषा सहज होनी चाहिए।भाषा ऐसी हो जिसमे खुलेपन की आड़ लेकर ‘कविता’को नग्न न किया जाये।अनेक कवि अपनी सहज भाषा के साथ फैंटेसी की चमक पैदा करते हैं।इसके साथ ही लोक गाथाओं का सानिध्य भी पा लेते हैं।एक बहुत मूल्यवान प्रसंग है।फ़िराक साहब का साक्षात्कार कुछ लोग ले रहे थे किसी से उनसे पूछा आपकी दृष्टि में विश्व का सबसे महँ ग्रन्थ कोण-सा है ?फ़िराक जी ने उत्तर दिया,’रामचरितमानस’|क्योकि रामचरितमानस सबसे सहज ग्रन्थ है और सहज लिखना बहुत कठिन होता है ;और उस जमाने के सारे भक्त कवि बड़े सहज  थे।

डॉ.भावना शुक्ल – हम आपके लेखन प्रेरणा के सन्दर्भ में जानना चाहेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – जब मै छठी कक्षा में था तब मुझे इतना महसूस हुआ था की मैंने कविता लिखी है।कविता मेरे  भीतर की उपज थी।लेकिन कई वर्षों तक शिक्षा के क्रम में उस देहाती परिवेश में ही रहा जिनमे नए साहित्य की सर्जना का कोई वातावरण नहीं था।बस में अपनी गति से लिखता जा रहा था छन्द अलंकार आदि का अभ्यास कर रहा था और हिंदी साहित्य के जो गुरु थे उनसे प्रोत्साहन प्राप्त कर रहा था।कविता में और भाषा में जो निखर स्वत: आ रहा था,वो आ रहा था लेकिन मुझे ठीक ज्ञान नही था कि उस समय कविता का मिजाज और भाषा का रूप कैसा है।सन १९४५ में बनारस पहुँचने के बाद मैंने अपने को नए साहित्यकार के रूप में पाया और वहाँ से मेरी काव्य यात्रा प्रारंभ हुई।

साहित्य लेखन के लिए जिस संवेदना एवं भावुकता की आवश्यकता होती है। वह मेरी माँ में और मेरे पिताजी में थी।लोक साहित्य के साथ इन दोनों का गहरा जुडाव था।मुझे इन दोनों से ही प्रेरणा मिली जिसके आधार पर मेरी साहित्यिक रचना शुरू हुई और धीरे –धीरे परिवेश के प्रभाव में उसमे गति आ गई ,नई-नई दिशाएं खुलती गई। मेरी रचना को निखारने में मेरे गुरुओं और साहित्यिक मित्रों ने अपनी भूमिका निभाई।

डॉ.भावना शुक्ल –  कविता की आलोचना के विषय में आपके क्या विचार है ?गुटबाजी की राजनीति से कविता पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

डॉ राम दरश मिश्र – हिंदी साहित्य जगत में आलोचकों ने कविता की शानदार आलोचना लिखी है और हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है।साहित्य में समरसता का माहौल देखते ही देखते न जाने कहाँ को गया।पिछले पांच -छह: दशकों में आलोचकों की गुटबाजी ने हिंदी कविता को काफी नुक्सान पहुँचाया है।आलोचकों ने सही व निष्पक्ष आलोचना लिखने के स्थान पर टुच्ची राजनीति को बढ़ावा दिया है। पुराने और नए कवियों को आगे बढाने और पीछे ढकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी-कभी बिना पढ़े ही सरसरी तौर पर कविता देखी और आलोचना लिख दी, क्योंकि कवि को अधिक भाव नहीं देना है।और कभी कविताओं का अतिरंजित मूल्यांकन करते है।मुझे ऐसे आलोचकों और उनकी आलोचना पर आश्चर्य होता है जिन्हें निराला, दिनकर और मुक्तिबोध से भी अधिक वजनदार और महत्वपूर्ण लगती है युवा पीढी की कवितायेँ।

डॉ.भावना शुक्ल – क्या पुरस्कार लेखन की उत्कृष्टता का प्रमाण है ?

डॉ राम दरश मिश्र – हाँ अच्छे लेखन को सम्मान मिलता है और सहज भाव से मिलता है, तो सम्मान और लेखक दोनों गौरवान्वित होते हैं।सम्मान उत्कृष्ट लेखन के लिए एक तरह से सामाजिक तज्ञता है।लेकिन यह भी सही है कि आजकल सम्मान और पुरस्कार को पाने के लिए लेखकों में दौड़ धूप मची रहती है और अनेक तिकड़म भिडाये जाते है।ऐसी स्थिति में यदि सम्मान या पुरस्कार मिल भी जाता है तो अच्छा नही लगता ,लोगो के मन में आदर भाव नहीं रह जाता।

डॉ.भावना शुक्ल – आप अपनी विधागत रचना प्रक्रिया और रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ कहना चाहेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – मैं आपको बेटी एक बात बताना चाहता हूँ कि मैंने लिखने की प्रक्रिया के विषय में कुछ भी नही सोचा, जो मन में आया लिखता चला गया।मेरे जीवन में बहुत से अनुभव है उसे मैं  में डायरी में उतार रहा हूँ।मैंने यह अनुभव किया की मैंने अपनी शक्ति भर साहित्य रच चुका हूँ और रचता जा रहा हूँ।

मै ‘अपने लोग ‘को अपना सर्वश्रेष्ठ उपन्यास मानता हूँ ‘और जल टूटता हुआ’ को भी इसी के समकक्ष रखता हूँ।मै कहना यह चाहता हूँ मै अपने हर प्रकार के लेखन से संतुष्ट हूँ।उपन्यास और आत्मकथा भी दी साहित्य को।एक लम्बी आत्मकथा है उपन्यास के रूप में जिसमे बचपन से लेकर आज तक के समय में व्याप्त परिवेश की विविधता का चित्रण हुआ है।यह मेरी राम कहानी नही है ,यह एक सामाजिक दस्तावेज भी है।श्री लाल शुक्ल ने एक बार कहा था अरे मिश्र जी , तुम्हारी आत्मकथा तो शिक्षा जगत का इतिहास बन गई है।अगर आत्मकथा अपने जीवन की घटनाओं और प्रसंगों की कहानी –मात्र है,तब तो वह गौण मानी जाएगी।

मैंने गीत, ग़ज़ल, छोटी कविताओं के साथ-साथ बड़ी लम्बी कवितायेँ भी लिखी है मुझे अब तड़प नहीं है कि मै यह नहीं लिख पाया वो नही लिख पाया और न ही की मै कल महान लेखक बनूँगा। मैं अपने लेखन से संतुष्ट हूँ।और आज भी लिख रहा हूँ।

डॉ.भावना शुक्ल – आपको लेखन के कारण कोई संघर्ष करना पड़ा ?

डॉ राम दरश मिश्र – मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में लिखने के कारण संघर्ष नहीं करना पड़ा, वरन इसके विपरीत सम्मान और यश मिलता रहा। हाँ, लेखक बनने के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। शुरू के दिनों में भेजी गई कवितायेँ छपती नहीं थी। मैंने हार नहीं मानी। मेरे गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने मुझसे कहा ,” तुम पान नहीं खाते हो, सिगरेट नहीं पीते हो , दूसरे खर्चे भी तुम्हारे नहीं हैं, इसलिए तुम डाक खर्च करो और भेजा करो।एक दिन तुम्हारी कवितायेँ जरुर छपेंगी।” गुरुदेव की सीख मैंने शिरोधार्य कर ली ।डाक से कवितायेँ पत्रिकाओं को भेजता रहा। मेरे संघर्ष का प्रतिफल साहित्य समाज के सामने है।

डॉ भावना शुक्ल – आपने विविध विधाओं में लिखा किस विधा ने आपको बहुत आकर्षित किया  ?

डॉ राम दरश मिश्र – जी हाँ मैंने विविध विधाओं में लेखन किया है है और सभी मुझे प्रिय भी है और आकर्षित भी करती है साहित्यकार की हैसियत से, लेकिन एक लेखक की हैसियत से कविता ही मेरे बहुत निकट रही है।लेखन का प्रारंभ कविता से ही किया, उसके बाद कहानी में आया, फिर उपन्यास में आया ओए गाहे –बगाहे अनेक विधाओं में लिखा। एक बात की है रेखांकित करने की है कि बहुत से लोगों ने कविता से शुरुवात की और कथा में आकर कविता को छोड़ बैठे। जब वे लोग कहते है कि वे कविता से कहानी  में आया, तो मै कहता हूँ मै कविता के साथ आया। कविता मेरी आधोपांत चलती रही और उसके साथ कथा साहित्य भी चलता रहा।वह मुझसे बाद में जुदा लेकिन यह कविता की तरह ही प्रिय रहा। खास करके उपन्यास तो मुझे बहुत प्रिय रहा,क्योकि जो बात मै कविता –कहानी में नहीं कह सकता , वह उपन्यास में मैंने कही।जीवन को जिस समग्रता से कोई और विधा नहीं देख पता।एक बार जब मै उपन्यास में फंसा तो फंसता ही गया और लगभग ग्यारह उपन्यास आ गये। एक बात और है कि कविता मुझे प्रिय है और कविता मेरी हर विधा के साथ लगी रही। चाहे निबंध लिख रहा हूँ , चाहे कहानी लिख रहा हूँ ,चाहे मेरी आत्मकथा हो, कविता का एक जो अपना दबाव या प्रसन्न प्रभाव है ,मेरे अन्य लेखन पर भी रहा है।कविता ही ने मुझे बहुत आकर्षित किया है।

डॉ.भावना शुक्ल – नवोदित रचनाकारों  को आप कुछ मार्गदर्शन करेंगे ?

डॉ राम दरश मिश्र – मार्गदर्शन तो दो तरह से होता है। एक तो यह कि आप जो लिख रहे हैं ,वह अपने समय के साथ हो और आने वाली पीढ़ियों को  महसूस हो कि आज के लेखन का यह सही स्वरुप हो सकता है। यानी कि वे आपके साहित्य को पढ़कर मार्ग पाएँ।और इस सन्दर्भ में एक बात बड़े महत्त्व की है। आपकी सर्जना और आपके विचार ऐसे हो जो नई पीढ़ियों को किसी तरह बांधते नहीं हों। ऐसा न हो कि आप उन्हें एक ख़ास विचार धारा में, एक ख़ास तरह के शिल्प में जकड दें और वे उसी जकडबंदी में मुबतला होकर अपना रचना कार्य करते रहें।

दूसरा रास्ता यह होता है कि नए लेखक आपसे मिलें। अपनी रचनाएं दिखाएँ आपको। आप अपनी रचना का सही-सही आकलन करके उनको उनकी शक्ति और अशक्ति की पहचान कराएँ। या उनकी रचना के प्रकाशन और प्रचार के लिए यथा संभव कुछ करें। मेरे पास जो भी नवोदित  आते है मै उन्हें खुले मन से सुनता हूँ उन्हें मार्गदर्शन करता हूँ।बस मै एक बात और कहना चाहता हूँ जितना पढोगे उतना ही लेखन निखरेगा।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – सफरनामा ☆ नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #3 – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

(विगत सफरनामा -नर्मदा यात्रा प्रथम चरण  के अंतर्गत हमने  श्री सुरेश पटवा जी की कलम से हमने  ई-अभिव्यक्ति के पाठकों से साझा किया था। इस यात्रा की अगली कड़ी में हम श्री सुरेश पटवा  जी और उनके साथियों द्वारा भेजे  गए  ब्लॉग पोस्ट आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। इस श्रंखला में  आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। आज प्रस्तुत है नर्मदा यात्रा  द्वितीय चरण के शुभारम्भ   पर श्री सुरेश पटवा जी का आह्वान एक टीम लीडर के अंदाज में । )  

☆ सफरनामा – नर्मदा परिक्रमा – दूसरा चरण #3  – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से ☆ 

☆ 07.11.2019 बेलखेडी से गंगई ☆
(10.5 किलोमीटर 17846 क़दम) 

बेलखेडी के मंदिर के खुले प्रांगण में रात गुज़ारी, वहाँ चार-पाँच सेवक चाय भोजन की व्यवस्था करते रहे। दाल चावल रोटी का सेवन किया। उसके बाद आठ-दस लोग प्रांगण में आकर बैठे, उनसे सनातन धर्म में दीपक की महत्ता पर चर्चा हुई कि हम रोज़ दीपक क्यों जलाते हैं। हमारी देह पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के पंचभूत से अस्तित्व में आती है और आत्मा की ज्योति जीव रूप में प्रतिष्ठित होती है। दीपक पृथ्वी की मिट्टी से बनता है, उसमें तेल रूप में जल, और वायु  व आकाश के खुलेपन में अग्नि प्रज्वलित करके दीपक जलाया जाता है। इस प्रकार दीपक जीवंत देह का प्रतीक है। पंचभूत और आत्मा के सम्मान स्वरुप दीपक जलाया जाता है।

उसके बाद गांधी जी के जीवन पर बातचीत हुई लोगों को स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं और गांधी जी की भूमिका पर संवाद हुआ।

(नर्मदा यात्रा द्वितीय चरण का शुभारम्भ – प्रथम दिवस)

सुबह एक-एक गिलास दूध पीकर आठ बजे गाँव से नर्मदा की गोदी में उतर कर चल पड़े। रास्ता बड़ा कठिन था, किसानों ने खेतों को गोड़ दिया है या फ़सल बोकर स्प्रिंकलर चलने से रास्ते पर कीचड़ हो जाने से जूतों में दो-दो किलो मिट्टी चिपकने से चलना दूभर था। बड़ी मुश्किल से रुक-रुक कर चलते रहे।  क़रीबन तीन बजे धुरन्धर बाबा के आश्रम में पहुँचे। धुरन्धर बाबा बिहार से आकर नर्मदा के किनारे एक पहाड़ी पर आश्रम बनाकर रहने लगे हैं। गाँजे की पत्ती और चाय उनका भोजन है।

एक बार सरकारी आबकारी विभाग ने धुरन्धर बाबा को गाँजे के पौधे साक्ष्य स्वरुप लेकर नरसिंहपुर कलेक्टर के सामने  पेश किया। धुरन्धर बाबा ने दलील रखी कि गाँजे की पत्तियाँ मेरा भोजन है, नहीं खाऊँगा तो मर जाऊँगा और हत्या का आरोप आपके माथे पर आएगा। कलेक्टर साहब ने आबकारी अधिकारी को धुरन्धर बाबा की पेशकारी पर डाँट पिलाई। उस दिन के बाद धुरन्धर बाबा निर्विघ्न गाँजे की खेती करके पत्तियों को भोजन और चाय सेवन से ज़िंदा हैं। उनके बाल दस फ़ुट लम्बे हैं, बाबा का कहना है की  जिन लड़कियों या औरतों को केश की लम्बाई बढ़ानी है वे गाँजे की पत्तियों का नियमित सेवन करें। बाबा मज़बूत पाए के काऊच पर आसन जमाए रहते हैं, गाँजा रगड़ते और बाँटते हैं उनके पास आठ-दस कुत्ते पले हैं जिनको भी गाँजे के धुएँ और पत्तियों के सेवन की आदत पड़ गई है।

(नर्मदा यात्रा द्वितीय चरण का शुभारम्भ – दूसरा दिवस)

पहले हमारा सामना उनके एक धूर्त सेवक से हुआ, जो खींसे निपोरकर  किसी भी बात का मुंडी हिलाकर जबाव देता था। पहले बोला आश्रम में दाल-चावल भर हैं। रात में केवल दाल-चावल खाने से रात में बार-बार पेशाब  से नींद टूटती है और अच्छी नींद  नहीं होने से शरीर टूटने लगता है जबकि हमें रोज़ दस किलोमीटर चलना होता है। हम गाँव से आलू, भटे और टमाटर ख़रीद लाए तो वह बोला आपही बना लो, जब धुरन्धर बाबा को पता चला तो उन्होंने स्वयं सब्ज़ी और हमारी आठ चपाती के बराबर एक 10-12 mm मोटाई का टिक्क बनाकर परसा जिसे मुश्किल से खपा पाए।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जन्मदिवस विशेष – पापा जी यानी मेरे पिताजी: डॉ.सुमित्र ☆ डॉ.भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनके पिताश्री  एवं मेरे गुरवर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र ” जी के जन्मदिवस पर उनकी स्मृतियाँ। )

☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जन्मदिवस विशेष – पापा जी यानी मेरे पिताजी: डॉ.सुमित्र ☆

 

पिता को पापा कहना कब शुरू किया यह याद नहीं . लगता है यह संबोधन तुतलाहट से निकला होगा. हम भाई-बहनों को कभी-कभार डांट जरुर पड़ी है, मार नहीं. शायद एक आद बार भैया के कान पकड़े गए हों.  गर्व यह कि हमें पापा जी का लाड़ दुलार तो मिलता रहा किंतु, उन की व्यस्तता के कारण हमारी स्कूल की देखभाल का जिम्मा ममतामयी मां ही संभालती रहीं .

घर का वातावरण धार्मिक, साहित्यिक सांस्कृतिक था. घर में गोष्ठियां होती. हम शालीन श्रोता होते, सुनते सुनते सो जाते. कुछ बड़े होने पर तैयारियों में हाथ बटाने लगे. फिर जाना कि हमारे पिता कवि लेखक पत्रकार और शिक्षक हैं. मां भी शिक्षिका हैं लेखिका है.

(डॉ। राजकुमार तिवारी “सुमित्र” एवं उनकी बेटी डॉ भावना शुक्ल)

माँ बताती थी– भावना तुम्हारा जन्म एल्गिन अस्पताल में हुआ था. और पहले ही दिन पिताजी के कवि मित्र सरदार सरवण सिंह पैंथम ने तुम्हारे हाथों में चांदी का रुपया देकर शुभाशीष दिया था. पिता का परिचय संसार व्यापक सभी वरिष्ठ साहित्यकारों का स्नेहाशीष उन्हें प्राप्त था.  कविवर नर्मदा प्रसाद खरे, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, झंकनलाल वर्मा छेल जी, मनोज जी, श्रीबाल पांडे, गोविंद तिवारी उन्हें पुत्रवत मानते थे.

बाल्यकाल में ही मुझे महीयसी महादेवी वर्मा, डॉक्टर रामकुमार वर्मा, सेठ गोविंददास, व्यौहार राजेंद्र सिंह, कालिका प्रसाद दीक्षित जानकी वल्लभ शास्त्री, विद्यावती कोकिल, सरला तिवारी, शकुंतला सिरोठिया, रत्न कुमारी देवी आदि के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

घर की गोष्ठियों में रामकृष्ण दीक्षित विश्व, तरुण जी, पथिक जी, मधुकर खरे, ओंकार तिवारी, अजय वर्मा, डॉक्टर नरेश पांडे, देशभक्ति नीखरा, राज बिहारी पांडेय और चाचा गणेश प्रसाद नामदेव का स्नेह प्राप्त हुआ.

पिताजी शिक्षक भी रहे, प्राइमरी से लेकर महाविद्यालय-विश्वविद्यालय तक के. लेकिन कैसे शिक्षक? छात्र छात्राओं की ना तो ट्यूशन की ना उन से नाम इकराम लिया. बल्कि साल में एक माह का वेतन उनपर ही खर्च कर देते थे.

साथी शिक्षक ऐसे सगे कि क्या होंगे? सदा भाईचारा रहा.

पिताजी प्रारंभ से ही पत्रकारिता, विशेष रूप से साहित्य पत्रकारिता से जुड़े रहे. पहले अंशकालिक फिर पूर्णकालिक. नारी निकुंज के संपादन के समय में बारह-चौदह घंटे प्रेस में बिताते.

प्रतिष्ठितों को मान और नवोदिता को प्रोत्साहन इनका चलाएं एक संबोधन यही उनका संकल्प रहा. प्रेस में आने वालों की चाय तक कभी नहीं पी जो भेंट आती उसे बटवा देते.

सभी साहित्यकारों और संस्थाओं से जुड़ाव था. मित्र संघ की विशिष्ट गोष्ठियां, हिंदी मंच भारतीय अन्य आयोजन संचालनकर्ता यही होते. बहुत प्रचलित हुआ” एवं प्रयोजन|

गोष्ठी, आयोजन स्मारिका और सतत लेखन रात के दो-तीन बजे तक जागरण | सुबह फिर चुस्त-दुरुस्त|

पिता के मित्रों की संख्या बहुत है किंतु विरोधी स्वर मना रहे हो ऐसा भी नहीं. किंतु, उन्होंने कभी भी ना तो किसी के विरुद्ध कुछ कहा ना लिखा. उनका कहना है- समय उत्तर देगा|

पिताजी राज्य श्री परमानंद पटेल के प्रिय पात्र थे. लोगों ने उड़ाया की सुमित्र जी खूब माल काट रहे हैं जब की असलियत यह है उन्होंने कभी उनसे किसी भी प्रकार का आर्थिक लाभ नहीं लिया. बीमार होते हुए भी पटेल साहब अपनी पत्नी के साथ हमारे घर पधारे मेरी शादी में, पिताजी भेंट लेने को भी राजी नहीं थे. बामुश्किल उन्होंने शगुन की एक साड़ी स्वीकार की.

पिताजी का कहना है कि हमारी और कुछ तो नहीं है—– न लेने की शक्ति और संकल्प जरूर है.

व्यस्त दिनचर्या में पिताजी कब पढ़ लेते हैं कब लिख लेते हैं पता ही नहीं चलता.

वह केवल अपने ही नहीं पढ़ते ज्ञान का वितरण करते हैं, अधिकृत गाइड नहीं है. किंतु उन्होंने पीएचडी और एमफिल के 30-35 छात्र-छात्राओं का सामग्री प्रदान की .

पिता के जीवन का संघर्ष उनकी मां के देहावसान से शुरू हुआ और अब आयु के आठवें दशक में प्राण प्रिय पत्नी का वियोग, ऊपर से स्वस्थ, भीतर से टूटे. भैया हर्ष, भाभी मोहिनी उनकी देखभाल में तत्पर हैं. प्रियम उनकी जीवनशक्ति है. हम लोग फोन के माध्यम से संपर्क बनाए रहते हैं.

संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले पिता के स्वभाव में तुनकमिजाजी है. क्रोध कम होता है. आता है तो भयंकर. अच्छी बात यह कि पूरा जल्दी उतर जाता है.

स्मरण शक्ति बहुत अच्छी है किंतु, भूल जाते हैं कि कल कौन आया था, चश्मा या किताब कहां रखी है.

यात्रा प्रिय रही है.

पिता की दुर्बलता को शक्ति बनकर संभालती थी मेरी मां.

मैं अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानती हूँ, मुझे विरासत में साहित्यिक निधि मिली. बचपन से मैंने साहित्य की उंगली पकड़कर भी चलना सीखा है. लेकिन तब से लेकर आज तक जो कुछ भी लेखन किया है बिना पिता को सुनाएं दिखाएं रचना पूर्ण  नहीं होती. आज भी गलतियों पर डांट पड़ती है.

मुझे गर्व है कि मैं साहित्यकार पिता डॉक्टर सुमित्र और साहित्य साधिका मां स्मृति शेष डॉक्टर गायत्री तिवारी की बेटी हूँ.

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 19 ☆ साक्षात्कार ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.

वरिष्ठ रचनाकार, काव्य जगत से अपने लेखन की शुरुआत करने वाली, श्रेष्ठ व्यंग्य लेखिका अनेक सम्मान से सम्मानित आज की श्रेष्ठ कथा लेखिका बहुमुखी प्रतिभा की धनी सूर्यबालाजी से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व तथा विविध लेखन विधा के संदर्भ में सूर्यबाला जी ने बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुति दी है। प्रस्तुत है सूर्यबाला जी से डॉ भावना शुक्ल जी की बातचीत…..

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार सूर्यबाला जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 19  साहित्य निकुंज ☆

☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है….)

डॉ भावना शुक्ल – आपके लेखन में स्त्रीत्व की सुगंध समाहित है आपका सम्पूर्ण लेखन स्त्री वाद पर ही आधारित है,  इस पर प्रकाश डालिए?

सूर्यबाला – सच पूछिए तो मैंने मात्र स्त्री-केंद्रित लेखन, यानी स्त्री समस्याओं से जुड़ा लेखन कम ही किया है। लेकिन यह सच है कि मेरे लेखन के केंद्र में स्त्रीत्व एक सुगंध की तरह व्याप्त है। मैं प्रकृति की इस रचना, स्त्री को बहुत अनूठे गुणों, और छबियों से युक्त मानती हूं, विलक्षण मानती हूं, स्त्री और, स्त्री-शक्ति को। मेरे पास मेरा अपना स्त्री-वाद है वह फार्मूले वाला वाद नहीं, स्त्री-भाव वाला स्त्री-वाद। इस भाव और वाद के केंद्र में वह स्त्री है जिसकी कोशिशों से ही यह विश्व सुंदर बन सकता है, स्त्री चाहेगी तभी, अन्यथा नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – ‘सुबह के इंतजार तक’ शीर्षक उपन्यास की मानू बलात्कार के अवांछित आघात को किस तरह वहन करती है ? क्या स्नेह और सहानुभूति ही उसका आधार है?

सूर्यबाला – इस छोटी की उपन्यासिका ‘सुबह के इंतजार तक…’ की किशोर नायिका मानू अपने भाई की पढ़ाई का छूट जाना (पिता की छंटनी के कारण) बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह आज से तीस वर्ष पहले की कहानी है। अपने मामा के कारखानें के किसी वर्कर के कुकृत्यों का अभिशाप भुगतती मानू, अपने माता-पिता को इस आघात से भी विगलित नहीं देख पाती और एक अंधेरी सुबह, छोटे भाई के साथ घर छोड़ देती है। एक तरह से माता-पिता को जैसे मुक्त कर देती है। असंभव सी लगती इस कहानी में मानू उस विनम्र लेकिन दृढ़ संकल्पी स्त्री की छवि निर्मित करती है जो आक्रामकता से नहीं बल्कि विनम्र आत्मस्वीकार से अपने आस-पास वालों को वश में करती है। मेरे पास ऐसी बहुत सी स्त्री छबियां है जो कंदील की तरह मेरे जीवन और लेखन में जहां तहां जगमगाती दिख जायेगी आपको। मेरे पहले उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ की शिवा ने भी अपने संवेदनशील स्त्री चरित्र से पाठकों को मुग्ध किया है। ये स्त्रियां आज के समय में भी लेने से ज्यादा देने के सुख में विश्वास करती हैं। यूं भी यह सिर्फ स्त्री का गुण नहीं, वरन मानवीय गुणों की श्रेणी में आता है।

डॉ भावना शुक्ल – आपका नया आया उपन्यास “कौन देस को वासी….वेणु की डायरी“ इन दिनों विशेष रूप से चर्चा में है? आपको क्या लगता है। इसकी किस विशेषता की वजह से पाठक इसे सराह रहे हैं?

सूर्यबाला – बहुत मुश्किल है बताना। स्वयं मुझे आश्चर्य हो रहा है। कभी सोचा नहीं था कि इस तेज रफ्तार समय में इस लगभग चार सो पृष्ठ वाले उपन्यास को पाठक इतने धैर्य से पढ़ेंगे और मुक्तभाव से सराहेंगे। लोगों को यह भी अच्छा लगा कि इस पूरे उपन्यास के इतने चरित्रों मैं किसी चरित्र के साथ जजमेंटल नहीं हुई हूं। वे इस उपन्यास के प्रमुख चरित्रों वेणु के साथ ही नहीं, बल्कि उसकी मां, तीनों बहनों वसुधा, वृंदा, विशाखा तथा विदेश में मिले स्त्री चरित्रों के साथ भी इतना जुड़ाव महसूस करेंगे। एक पाठक ने लिखा है, इस उपन्यास को मैंने सिर्फ पढ़ा नहीं जिया है। कभी वेणु बन कर तो कभी मां, कभी विशाखा बन कर तो कभी वसु…. एक कारण शायद यह भी हो कि मैंने मात्र पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों को कथा रूप में समांतर पाठकों के सामने रख दिया है और निर्णय उनके ऊपर छोड़ दिया है। मैं स्वयं निर्णायक नहीं हुई हूं। पाठक पूरी तरह स्वतंत्र है परंपराओं और आधुनिकता तथा पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के बीच से रास्ता निकालने के लिए।

डॉ भावना शुक्ल – इन दिनों विवाह स्थायी क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

सूर्यबाला – कोई एक स्थूल कारण नहीं। पर कुछ चीजें शीशे की तरह साफ है। समय की रफ्तार बहुत तेज है। किसी के पास आपसी संबंध, दायित्व निभाने का समय नहीं। समय नहीं तो ‘साथ’ नहीं, और साथ की कामना  की चाहना धीरे-धीरे रितती चली जाती हैं। हर किसी के लिए विश्वास और संबंधों से ज्यादा कैरियर प्रमुख हो गया है। जीवन के सारे बहुत महत्वपूर्ण संबंध भी ‘अर्थ शास्त्र से जुड़ गए हैं। सबसे बढ़कर अब स्त्री ने अपने साथ निभाने वाली भूमिका से, त्याग और समर्पण वाले आदर्शों से किनारा कर लिया है। तो विवाह संस्था औंधे मुंह गिरेगी ही। आज भी जहां स्त्री, परिपक्व समझदार होती है, वह पति परिवार को बखूबी संभाल ले जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है दिनोंदिन तलाक की समस्या का बढ़ते जाना। यूं भी असफल विवाह के लिए तलाक एक सीमित समधान है मैंने कहीं लिखा था, तलाक स्वर्ग की गारंटी नहीं।

हमें दूसरों की भावना को समझने उसकी पसंद नापसंद की कद्र करनी होगी। बात बड़ी नहीं होती, बड़ी बना दी जाती है। सिर्फ एक दूसरे की भावना और पसंद को समझ कर हम एक दूसरे का दिल जीत सकते हैं। आज हर व्यक्ति बेसब्र है, हर किसी को अपनी शर्तों पर जीना है। ऐसे में ‘सहभाव’ और सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

डॉ भावना शुक्ल – क्या आज की स्त्री मुक्त हो पाई है। या वह मार्ग तलाश रही है, क्यों?

सूर्यबाला – ये मुक्ति, मुक्ति का शोर मचाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो वास्तविक मुक्ति का मतलब भी नहीं जानते। ‘मुक्ति’ नापतौल कर, गज फुट से मापी और मांगी जाने वाली चीज नहीं है। मुक्ति एक मानसिकता है, एक विचार है जो आपकी दृष्टि को फैलाव देता है। इससे आप दूसरो को भी रोशनी देते हैं। मुझे नहीं लगता है कि बहुत सी स्त्रियों को पता भी है कि आखिर उनकी तलाश है क्या? कैसी मुक्ति? किससे मुक्ति? मैंने बहुत सी साक्षर, महिलाओं को इतनी तंग मानसिकता का देखा है कि आश्चर्य हुआ है….. उन्हें सिर्फ अपनी स्पेस चाहिए। मुक्त तो वह स्त्री हुई न जो दूसरों की ‘स्पेस’ की चिंता करती हो, या वह जो दूसरों की स्पेस पर भी अपना वर्चस्व चाहती हो।

डॉ भावना शुक्ल – आज के समय में पाठक की मर्मज्ञता क्या दृश्य माध्यम से पूर्ण हो सकती है?

सूर्यबाला – शायद आपका आशा यह है कि क्या दृश्य माध्यम आज एक मर्मज्ञ पाठक/श्रोता या दर्शक की अपेक्षा पूरी करने की स्थिति में हैं? तो बिलकुल नहीं। दृश्य माध्यम पूरी तरह हवाई, अतिशयोक्ति पूर्ण चीजें परस रहे हैं। उन्हें सिर्फ टी.आर.पी. की चिंता है। वे दर्शकों की रूचियों का परिष्कार नहीं उसे प्रदूषित कर रहे हैं। वे टी.आर.पी. का बहाना लगा कर अत्यंत फूहड़, अव्यवहारिक और सतही मनोरंजन दे रहे हैं, और  दोष दर्शकों के माथे मढ़ रहे हैं, यह कहकर कि उन्हें यही पसंद आता है। यदि दर्शकों को पसंद आ भी रहा हो तो भी उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का ध्यान रखकर वह देना चाहिए जो लोगों के लिए श्रेयस्कर हो। वह नहीं जो मात्र उनके आर्थिक लाभ का माध्यम बनें।

डॉ भावना शुक्ल – कहानी या उपन्यास लिखते समय आप किस मानसिक स्थिति से गुजरती है?

सूर्यबाला – मैं कभी पहले से विषय निश्चित कर, योजना बना कर नहीं लिखती। रचना, कृति मेरे अंदर वर्षों, महीनों बड़े सपनीले मनोरम और आभासी रूप में रहते रहे हैं तब किसी दिन भावना का आवेग चरम पर होने पर कलम कागज पर चलने लगती है। वह एक बेसुधी की सी स्थिति होती है उस स्थिति, भावना से जुड़ा सबकुछ हम उतारते चले जाते हैं…. वहां भावना और आवेग प्रधान होते हैं। समय, सुविधा और स्थितियां जितनी देर साथ देती हैं, उतना लिखती हूं। या फिर उस समय अंदर का भी आवेग थमा, ‘इंधन’ चुका तो कलम फौरन रोक देती हूं।

इस लिखे हुए को मैं पूरी तरह बंद कर आंखों से ओझल कर देती हूं। दो चार दिन या हफ्ते बाद खोल कर पढ़ती हूं…. जहां कहीं जो अटकता है, या बहुत भावावेगी लगता है, उसे काटती तराशती संतुलित करती हूं। प्रेशर या दबाव बाहर का नहीं मेरे अंदर बैठे अदृश्य आलोचक या पाठक का कह लीजिए, उसका होता है। यही होना चाहिए भी, ऐसा मैं मानती हूं।

डॉ भावना शुक्ल – आपने व्यंग्य विधा में भी कलम चलाई है आपकी दृष्टि इस ओर कैसे गई?

सूर्यबाला – व्यंग्य लेखन भी मेरी कलम की स्वतः स्फूर्त विधा है। मैंने कहानियां लिख चुकने के महीनों वर्षों बाद व्यंग्य लिखना नहीं प्रारंभ किया, बल्कि व्यंग्य, कहानियां और उपन्यास सब साथ साथ ही चले। वह आठवें नवें दशक का समय था जब मैं एक साथ कहानियां, व्यंग्य, उपन्यास और बाल साहित्य चारों विद्याओं के धाराप्रवाह लिख रही थी। अंदर जितना जो था, वह भी संभाषित विधाओं को सौंप रही थी।

लेखन में हमेशा मैंने एक अनुशासन भी बरता, जब जो विधा, जो रचना नहीं संभली, फौरन छोड़ दी। अतः मेरे पूरे लेखन में सायास कुछ भी नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – उपन्यास कहानी व्यंग पर आप ने धारदार कलम चलाई है क्या कभी आपके मन में कविता लिखने का भाव नहीं उपजा ?

सूर्यबाला – लीजिए, मेरी शरूआत ही कविताओं से हुई है। यह पहली कविता भी अनायास ही लिख गई। मैंने कभी उस आठ नौ वर्ष की उम्र में कविता लिखने की सोची भी नहीं थी। एक दिन अनायास ही अकेले में सूझ गई, कुछ कविता टाइप पंक्तियां-

तुम बांसुरी हमारी, हो प्राण से प्यारी….

उस उम्र के लिहाज़ से इस पहली कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी भी ठीक ठाक ही लगती है- कृष्ण की बांसुरी पर सम्मोहित गोपियों के लिए वे पंक्तियां हैं-

यदि मार्ग में कोई रोक सके
तो प्राण उठा रख देती हैं।
प्राणों की बलि रखकर फिर भी….
आना वे नहीं भूलती हैं।

किशोर वय की प्रायः सभी कविताएं उत्तर प्रदेश के उन दिनों के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र ‘आज’ में छपती रहीं। उन्हीं किन्हीं दिनों क्रमशः कविता का जादू उतरता गया, कहानियां अपना वर्चस्व बढ़ाती गयीं।

डॉ भावना शुक्ल – लेखन आपके जीवन में क्या मायने रखता है क्या यह आपका अनिवार्य अंग बन गया है?

सूर्यबाला – अब इसमें दुविधा संशय नहीं रह गया है कि लिखना मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन गया है। मुझे लिख कर शांति मिलती है सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है। जीवन में इससे बढ़ कर कुछ चाहिए भी नहीं। मेरी जरूरतें बहुत सीमित हैं। कुछ प्यार भरे रिश्ते, अपना भरापूरा कुटुंब और अपनी कलम, बस…..

लोग अकसर मुझे फोन कर करके दूसरों को मिले पुरस्कारों का हवाला देकर टटोलते भी हैं कि फलां फलां को मिल गया… अमूक पुरस्कार….. लेकिन आपको….. मुझे हंसी आती है…. उन्हें कैसे समझाऊं कि एक अच्छी रचना पूरी करने के बाद का सुख लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। उसे उसी नशे में धुत होना चाहिए। मेरी जिद् ही कहिए कि आधी सदी से ऊपर हो गए, मैंने आज तक किसी पुरस्कार के लिए अपनी कोई पुस्तक नहीं भेजी। किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ी। ऊपर ऊपर इसका नुकसान भी उठाया। पर इस जिद ने मुझे बहुत रिलेक्श रखा। अब तक के जीवन में, छोटे या बड़े, जो पुरस्कार स्वयं मेरे पास आए, उन्हें बेशक मैंने सरआंखों से लगाया। ये बिन मांगे मिले मोती थे।…..

डॉ भावना शुक्ल – अंत में आप अपनी किसी भी विधा का एक प्रेरणात्मक अंश हमारे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कीजिए ?

सूर्यबाला – मेरे नये आये उपन्यास ‘कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी’ के परिशिष्ट का एक अंश जहां वेणु का अमेरिका में पला बढ़ा और भारत पर हंसने वाला बेटा, बेटू अपने पिता को उस डच बॉस जॉन मार्टिन के बारे में बता रहा है कि किस तरह उसका ‘योगी बॉस’ इंडिया से प्रभावित है-

‘.—-’ एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो मद्राः’ और ‘संतोष परम् सुखम्’ कोट करता रहता है दूसरी तरफ ‘इंडियन वे ऑफ मगिंग’, ‘इंडियन वे ऑफ लर्निंग,’ ‘इंडियन वे ऑफ लिविंग’ तक विश्लेषित करते हुए कहता है कि- नाउ इज़ द टाइम जब ‘वेस्ट’ को ‘ईस्ट’ से जूझ कर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं इंडियंस। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन इंश्योरेंस ऐंड बैंकिंग तक…. दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियंस का ही बोलबाला है।’

सूर्यबाला

बी. 504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड देवनार मुंबई-88

मो. 9930968670, Email- [email protected]

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆.

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार चित्र मुद्गल जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया. ) 

 

☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत

 

(“लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है, उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है, कुछ नहीं कह पाते, कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं”)

 

जानी मानी वरिष्ठ कथा लेखिका अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित चित्रा मुद्गल जी का नाम ही परिचय का बोध कराता है। मैं उन्हें नमन करती हूँ। आज मेरे लिए बहुत ही हर्ष का विषय है और स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ जो मुझे उनसे साक्षात्कार लेने का अवसर प्रपट हुआ। प्रस्तुत है चित्रा मुद्गल जी से डॉ.भावना शुक्ल की लंबी वार्ता। मैं अपनी ओर से तथा आपके असंख्य पाठकों की ओर से आपको विगत दिनों प्राप्त सम्मानों पुरस्कारों के लिए बधाई देती हूँ।                            – डॉ भावना शुक्ल 

 

डॉ.भावना शुक्ल – आपके उपन्यासों में जीवन के यथार्थ को दर्शाया गया है, जैसे विज्ञापन की दुनिया में एक स्त्री किस प्रकार अपनी जमीन तलाश रही है उसकी जद्दोजहद को आपने किस प्रकार व्यक्त किया है. इस उपन्यास को लिखते समय आपकी मनो दशा क्या थी ?

चित्रा मुद्गल – पहली बात मैं कहना चाह रही हूँ कि जिस वक्त हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को एक विशेष उठाए गए आंदोलनों की तरह रेखांकित नहीं किया जा रहा था उस समय मुझे लगा कि इस चीज की बहुत जरूरत है, क्योंकि मुझे यह एहसास हो रहा था की विमर्श जो है कहीं न कहीं जिस दृष्टि से स्त्री के संघर्ष को, स्त्री की पीड़ा को, स्त्री के उत्पीड़न को, उसके बुनियादी अधिकारों को जिस तरह से उठाया जाना चाहिए उस तरह से उठाया नहीं जा रहा है बल्कि उसको थोड़ा सा फॉर्मूला बद्ध किया जा रहा है। पहले हंस पत्रिका थी और 10 वर्ष बहुत ही अच्छी पत्रिका जो सामाजिक सरोकारों से हो सकती है वह हंस थी और 90 के आसपास आते-आते सारिका बंद हो गई थी, धर्मयुग बंद होने की कगार पर था, साप्ताहिक हिंदुस्तान बंद होने की कगार पर था, तो वमुझे यह लगा कि जिस तरह की कहानियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. हंस के माध्यम से वह कहीं ना कहीं सृजनात्मकता में स्त्री विमर्श की एक गलत तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है और उसको फार्मूला बनाया जा रहा है। लिखने वालों के माध्यम से सभी स्त्रियां जो उस समय नई पीढ़ी की लेखिकाएं थी उनको यह बात बहुत आकर्षित कर रही थी।  उसी समय वैश्विक पटल पर भी हम यह देख रहे थे स्त्री संघर्ष की जो बातें हो रही थी उन  बातों में केंद्रीय भूमिका स्त्री की ‘देह’ थी. बातों से मेरा तात्पर्य है थोड़ी चिंता हुई उसके बाद पहले मैं डेटा एडवरटाइजिंग कमेटी से भी जुड़ी थी, लैंड ऑफ एडवरटाइजिंग से भी जुड़ी थी मुझे इन सब बातों ने बहुत चिंतित किया.  सही दिशा जो है वह होनी चाहिए विदेशों में जो चर्चा चल रही है स्त्री विमर्श को लेकर के वह चीज हमारे भारतीय स्त्री के लिए सही नहीं है।  हमारी लड़ाई है कि स्त्री को एक मस्तिष्क के रुप में पहचाना जाए। हमारी लड़ाई है हमारे पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्री को लेकर जरूरी हैं वह जाननी है, उसे संरक्षण की जरूरत होती है, वह अपने दिमाग से कुछ सोच नहीं पाती है, वह बच्चों के भविष्य को लेकर कोई निर्णय नहीं ले पाती है, बच्चों को क्या पढ़ना चाहिए उसके बारे में वह अवगत नहीं होती है, अवगत होना चाहिए वह होती नहीं है, वह अपनी चूल्हे चौके तक सीमित व्यक्तित्व, सारी चीजें बड़ी भ्रामक थी और इसको ही पितृसत्ता ने चला रखा, सदियों से स्त्री को उसी के अनुकूल अनुरूप उठा ले रखा तो उनका स्वार्थ सिद्ध होता था और उस समय उनको जो स्त्री चाहिए वो एक गुलाम।  जरूर चाहिए गुलाम और स्त्री में कोई अंतर नहीं कर पाते थे, वह सब मुझे उस समय बहुत गलत लगा कि एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते समाज को एक गलत संदेश सर्जना के माध्यम से फैलाए जा रहे हैं और जो हमारी नई पीढ़ी एक जागरुक पीढ़ी है भविष्य की नई पीढ़ी है. जैसे पुरानी पीढ़ी की लेखिकाएं लिखा करती थी जैसे मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती और इसी तरह से कविताओं में स्नेहमयी चौधरी उसके पहले शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महीयसी महादेवी वर्मा हालांकि महादेवी वर्मा ने अपने समय में स्त्री विमर्श को जीवन से सिद्ध किया यानी वह एक कवयित्री ही नहीं थी यदि वह कहती है…. “मैं नीर भरी दुख की बदली …और इसी तरह उन्होंने स्त्री पुरुष की परस्परता बराबरी और समानता को लेकर और सामाजिक विषमता को लेकर के बड़े उम्मीदों के साथ और यह भी कहा कि भविष्य होना क्या चाहिए…….. ” आओ हम सब मिलकर झूले….  और उसको उन्होंने अपने जीवन में उतारा भी और वह खुद शिक्षाविद थी उसके बावजूद उन्होंने इस बात की आवश्यकता महसूस की कि   स्त्री के आत्म संपन्न होने के लिए, आत्मनिर्भर होने के लिए अपनी सत्ता के लिए यह चाहिए की वह शिक्षित हो और शिक्षित होकर वह आत्मनिर्भर बने. उन्होंने कन्या विद्यापीठ की स्थापना की। स्त्रियों को सक्षम करने के लिए उस जमाने में यह लगा कि यह सब पटरी से उतर रहा है, शिक्षित हो मस्तिष्क की प्रतिष्ठा और स्थापना ना करके आप अपनी ‘देह’ पर ही लौट रहे हो, मैं चाहे जिस तरह इस्तेमाल करूं यौन आतुरता को लेकर भी पितृसत्ता ने उसकी कभी भी परवाह नहीं की। सिर्फ एक बच्चा पैदा करने की मशीन उसे बना दिया गया था उसका भी हक है कि उसकी परवाह की जानी चाहिए। स्त्री विमर्श का एक मुद्दा यह नहीं है लेकिन मुझे लगा कि एक समय ऐसा लिखना चाहिए और लड़ाई है। क्या यह स्त्रियों को जानना चाहिए कि लड़ाई केवल 24/28/34 बने रहने की नहीं है, लड़कियों को यह बताना कि आपको अपने ही को  संवारने में ही खुला जीवन जीना अपने और किसी को अगर नहीं देखना अपनी आंखों का संयम बरतें, आंखों को घुमा ले। तुम इन वस्त्रों में क्यों नहीं रह सकते? ऐसे क्यों रहोगे? लड़कों को चाहिए कि वह अपनी नजरें झुकाए. जैसे एक वट वृक्ष की खूबी होती है। समय, प्रतिभा और क्षमता जो दूसरों को छांव दे सके जो उसके व्यक्तित्व में है जो उसे इतना सा बना दे। मैंने “एक जमीन अपनी” 1990 में लिखने की आवश्यकता महसूस की और भावना मैंने लिखा लेकिन मुझे नहीं मालूम कि मैंने कैसा लिखा और क्या लिखा, फिर भी  मेरे मन में संतुष्टि है विज्ञापन जगत का जो दायरा है जो औरत को प्रभावित करता है केवल उसकी सुंदरता को ध्यान में रखकर.

अभी आजकल मैं एक विज्ञापन देख रही हूं भावना मुझे बहुत आकर्षित करता है एक मां अपने बच्चे के साथ व्यायाम कर रही है। उसको फिटनेस देना चाह रही है और वह भी व्यायाम कर रहा है जब वह गिरता है तो वह कहती है कि जब तुम गिरोगे तब मैं भी गिरूंगी और कहती है कि जब मैं जीतूंगी तभी जब तुम मुझसे आगे जाओगे। मतलब एक औरत बच्चे को क्या नहीं बना सकती, जो भविष्य की पीढ़ी है। इस तरह संकीर्ण मनोवृत्ति जो पितृसत्ता ने सदियों सदियों से अपनाया है उसको लेकर मुझे लगा जो स्त्री विमर्श का भ्रामक अर्थ जा रहा है उससे लड़ना है.

 

सुश्री चित्र मुद्गल जी का साक्षात्कार लेते हुए डॉ. भावना शुक्ल  

 

डॉ.भावना शुक्ल- एक साक्षात्कार में आपने पितृसत्ता से मुक्ति का विचार दिया है यानी आप मातृ सत्ता के पक्ष में है कृपया स्पष्ट कीजिये ?

चित्रा मुद्गल – पितृसत्ता से मुक्ति का मतलब हो सकता है जो उसने स्त्री को क्या बना कर रखा हुआ था उससे मुक्ति चाहिए और उससे मुक्ति बिना अपने व्यक्तित्व को गढ़े हुए, बुने हुए नहीं मिल सकती और उसके लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। जो कुछ कहा उसने सर झुकाकर मान लिया। मानेंगे अगर सही कहा यदि एक परामर्श के रूप में साझेदारी के रूप में है। हमे नहीं लगता कि आप उस साझेदारी की भावना को लेकर चल रहे हैं। पितृसत्ता को बदलना होगा, उसका आवाहन उसकी सत्ता, उस मातृसत्ता को उस शक्ति को आप तभी स्वीकार करते हैं जब नवरात्रि आती है। तो हमें ऐसे तीज और त्योहारों और पर्व तक बांध के मत रखो और उसको बता कर हमें मूर्ख मत बनाओ और वह सत्ता मूर्तियों से बाहर निकल कर के आप की कलाई नहीं पकड़ सकती थी। आप शोषण कर रहे हैं, दमन कर रहे हैं इसलिए यह ठीक कह रही हो यह बात मैंने कही थी।

डॉ.भावना शुक्ल – आपके लेखन में आपके पति स्मृति शेष अवध नारायण जी मुद्गल की कितनी प्रेरणा रही कितना सहयोग रहा ?

चित्रा मुद्गल – एक बात मैं कहना चाहती हूँ जब हम दोनों ने यह निश्चय किया कि हम परिणय सूत्र में बंधेंगे तो हमारे सामने यह समस्या थी कि मेरे घरवाले इसके लिए राजी नहीं थे। मैं बहुत संपन्न घर से हूं लेकिन विपन्न मानसिकता है उन लोगों की, मैं उस घर से हूँ, जहाँ पिता इतने बड़े नेवल अधिकारी हैं, बाबा डॉक्टर हैं, चाचा पुलिस कमिश्नर हैं, एक होता है ऐसी मानसिकता जो क्षत्रिय में हम लड़कियों को शिक्षा तो देंगे क्योंकि आज का वक्त चीज की मांग करता लेकिन हम उनके मन को नहीं जानेंगे, नहीं पूछेंगे, हम जहां चाहेंगे वही व्याह करेंगे. खानदान से खानदान होता है और मैं इसके लिए राजी नहीं थी। मैं अपनी मां की विरासत को नहीं जी सकती थी। मेरे मन में हमेशा यह आक्रोश रहा कि मैं सर पर पल्ला देकर के चुटकियों में अपना पल्ला साधे हुए घर की डाइनिंग टेबल पर क्या लगेगा केवल इसकी चिंता में ही लगी रहूं, मैं उसकी चिंता जरूर करूंगी लेकिन इसके साथ-साथ इस बात की चिंता करूंगी कि मुझे मेरी अस्मिता को वह सम्मान मिल रहा है की नहीं जो एक स्त्री होने के नाते मिलना चाहिए, और पहचाना जाना चाहिए, स्वीकार किया जाना चाहिए, यहां एक मस्त छवि है जो तुम्हारी मस्तिष्क पर जो तुम्हारे मस्तिष्क से बराबरी करता है। यह कई मायनों में उस से गहरा चेतन है, तुम्हारी संवेदना की वनस्पति उसकी संवेदना का असीम विस्तार है। क्योंकि, स्त्री जिस प्रसव पीड़ा को झेलती है तो कोई उसको सपने में भी नहीं झेल सकता। पुरुष को यह लगता है कि मैं संरक्षण दे रहा हूं, खाना कपड़ा दे रहा हूं और क्या चाहिए? पर भाई तुमको तो घर का काम करना ही पड़ेगा अपना, यह सारी चीजें मुझे स्वीकार नहीं थी और जब मुद्गल जी से जब मैंने ब्याह करने का निश्चय किया बहुत विरोध हुआ और मैंने मुद्गल जी से बात कही हम शादी बहुत सादगी से करेंगे। हमने पांच रूपए माटुंगा आर्य समाज मंदिर में भरकर विवाह किया। मुश्किल से 7 लोग थे जो धर्मयुग के सब एडिटर थे, माधुरी में थे, सारिका में थे, नवभारत टाइम्स में थे, यह लोग थे हरीश तिवारी उन्होंने मेरे भाई की भूमिका निभाई और उसके बाद तो मित्रों का कहना था कि गोरेगांव बांगुर नगर में “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संपादक है तीन सौ का छोटा मकान लेकर अपन रहिए, मैंने कहा नहीं मैं उसी झोपड़पट्टी में जिस झोपड़पट्टी के बीच मैं काम करती हूं, दुनिया के किसी भी कोने से वहाँ मैं थी।  वहाँ निर्धन लोग हैं लेकिन वे वहाँ मेरी बहुत इज्जत करते हैं और जो बड़े बूढ़े लोग युवा पीढ़ी पर भरोसा करते हैं, मेरे सुझावों को मानते हैं, मेरे संकेतों को समझते हैं, मैं उनके लिए धरना दे सकती हूँ, जेल जा सकती हूँ, मैं भूख हड़ताल कर सकती हूँ, उनके अधिकार को बढ़ाने के लिए और वह मुझ पर भरोसा करते हैं, और मैं उन पर भरोसा करती हूँ, मैं वहीं रहना चाहूंगी जिस तरह से वह रहते हैं.

तो हमने वहाँ एक खोली ली उसका किराया उस जमाने में 25 रूपए था और बिजली नहीं थी नल रात को 2:00 बजे आता था। वह जो पाँच/छह कमरों की  छोटी सी चाल थी जिसको रवींद्र कालिया सुपर डीलक्स चाल कहते थे मैं कहती थी जहाँ मै रहूंगी वह डीलक्स ही होनी चाहिए क्योंकि स्वर्ग तो वहीं होता है जहां शांति होती है उन लोगों ने मुझे आश्वस्त किया था आप हमारे साथ रहिए कोई दिक्कत नहीं बाद में बिजली हमने ली सामूहिक रूप से पैसा भर के सामूहिक रूप से और पंखा नहीं था तो कमलेश्वर भाई साहब अस्सी रूपए का ओरिएंट का पंखा  मुझे खरीद के दिया था बोले चित्रा इसे लगवा लो क्यों परेशान होती हो। वहीँ मैंने अपना काम शुरू किया। वहीं से अवध जी भांडुप स्टेशन आते थे और वह भांडुप से सेंट्रल मुंबई बोरीबंदर की ट्रेन पकड़ते थे और ठीक उसको सड़क क्रॉस करके सामने टाइम्स ऑफ इंडिया का ऑफिस था.

उसके बाद कुछ धमकियां मेरे घर से थी मार देंगे, परेशान करेंगे और बीच में करीब डेढ़ 2 महीने हम लोग दिल्ली आए हम लोग इन लोगों की आंखों के सामने से हट जाएंगे तो थोड़ा सा इन लोगों को ये होगा की हमने जो किया है उसको यह अपनी प्रतिष्ठा के प्रश्न से बाहर निकलकर सोचेंगे ये अधिकार है।

तो हम लोग दिल्ली आकर के रहे और दिल्ली आकर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के पास मॉडल टाउन में रहे. मन्नू दी और राजेंद्र यादवजी शक्ति नगर में रहते थे हम उनके यहाँ रहे उन्होंने हम दोनों को बहुत प्यार से रखा और सर्वेश्वर दादा तो सब को बड़े गर्व से कहते थे कि चित्रा मेरी बहू है, उसकी धर्मयुग में कहानी पढ़ी क्या? सबको कहते थे हमारी बहू बहुत सुंदर है देखा तुमने, दादा यह सब बात करते समय ऐसे बोलते जैसे कोई बच्चा हो जाता है। दादा इतने बड़े कवि इतने बड़े सृजनकार रहे, हम लोगो के प्रति आगाध स्नेह रहा। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकती हूँ। और वहीँ मुझे मॉडल टाउन में रामदरश मिश्र जी से मिली वहीं अजीत कुमार से मिली, स्नेहमयी चौधरी से मिली, विश्वनाथ त्रिपाठी से मिली, देवीशंकर अवस्थी जी से मिली।  मतलब हमे इतना प्यार मिला, बड़ी ताकत मिली और फिर हम वापस लौटे क्योंकि छुट्टियां बढ़ाई नहीं जा सकती थी। अवध जी को नोटिस मिल गया था या तो नौकरी से रिजाइन कर दो या नौकरी पर बने रहना है तो तुरंत वापस आकर ज्वाइन कीजिए। फिर हम अपनी उसी चाल में गए।

तुमने जो उस साझेदारी की बात करी तो वह इस बात का ख्याल रखते थे वह हमेशा कहते रहते थे कि तुम को लिखना है तुम लिखो उस वक्त कांच का लैंप चलता था उसमें लिखते थे और बत्तियों वाला स्टोव 5 रूपए का हमने लिया था। तब मेरे मित्रों ने मिलकर के जैसे ममता कालिया भी थी और वह वहाँ पर अंग्रेजी की लेक्चरार थी एसएनडीटी कॉलेज में, और इन सब ने मिलकर के मेरी गृहस्थी की जरूरत के छोटे छोटे बर्तन मुझे लाकर के दिए। सब ने बहुत साथ दिया। मैंने जिस तरह से चाहा था कि अवध जी जैसा इतना जागरुक और तेजस्वी व्यक्तित्व  का साथ जो मुझे मिलेगा एक सही साथी के रूप में मिलेगा और मुझे वही मिला मेरे पहले लिखे हुए कच्चे-पक्के के पाठक सबसे पहले वही होते थे। उसी समय उन्होंने कवंध, संपाती यह सब कहानियां धर्म युग में लिखी।  निःसन्देह, भावना मैं आज भी इस बात को कह सकती हूँ।  लोगों को लगता है कि मैं बहुत अच्छी लेखिका हूँ फिर भी मुझे हमेशा लगता रहा कि अवध जी  में जो लेखन की प्रतिभा थी वह बहुत गजब की थी, गहरी थी और उनकी कहानियां मिथकीय कहानियां होती थी और आज भी वह प्रसंग कितना प्रसांगिक है। सहयोग उनसे हमें बराबर मिला।

डॉ.भावना शुक्ल – आपकी दृष्टि में संयुक्त परिवारों की आज कितनी आवश्यकता हैं ?

चित्रा मुद्गल – संयुक्त परिवारों की बहुत आवश्यकता है। यह जो कहा जाता है कि संयुक्त परिवार तो टूट कर रहेंगे और तब तक साथ रहेंगे जब तक बच्चों को शिक्षा की जरूरत है और उसके बाद हमें नहीं मालूम के बाद हमें नहीं मालूम कि वह कहाँ रोजगार पाएंगे शिक्षित होकर के अपने देश में ही पाएंगे या विदेश जाएंगे कुछ इसका भरोसा नहीं।  संयुक्त परिवार से मेरा तात्पर्य यह रहता है कि देश में रहे विदेश में रहें, वह जहां भी रहे वह अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति सचेत रहें। अक्सर देखने में यह आया है जो टूट रहे हैं विदेश की बात तो छोड़ दीजिए अपने ही देश में कोई बच्चा पुरी चला जाता है कोई बच्चा कलकत्ता चला जाता है, कोई बेंगलुरु चला जाता है, और बड़े  हो जाने के बाद ब्याह हो जाने के बाद क्योंकि दोनों को नौकरी करने की आवश्यकता है जीवन स्तर जो है महंगाई से आक्रांत है बिल्कुल जरूरी होता है। यह कि घर वह किराए पर लेते हैं तो उनको 40000 भरना है। एक अकेला व्यक्ति कमाकर 40000 का दो रूम का फ्लैट नहीं ले सकता और अगर ले सकेगा तो वह घर नहीं चला पाएगा। स्त्री के लिए भी काम करना आवश्यक है, वह मुझे स्वीकार है लेकिन वह अपने संघर्ष के साथ-साथ वह माँ-बाप के उस संघर्ष को भूल गए। मैंने अपनी जवानी, जवानी की तरह नहीं जी, अपने सपने सपनों की तरह नहीं जी, ऐसी साड़ी की कामना माँ को भी है, वह दुकान पर जाती है, वह प्रगति मैदान में जाती है, मेले में देखती है 6000 का टैग देखती है और अपने को सिकोड़ लेती है, यानी अपने सपनों को अपनी कामनाओं को सिकोड़ लेती है। पिता रेमंड का सूट ले सकते हैं लेकिन नहीं चलो सरोजिनी नगर से सेकंड हैंड 100 रूपए का कोई कोट ले लेंगे सर्दियां बिताने के लिए क्योंकि बच्चे को इंजीनियर बनाना है, बच्चे के हॉस्टल का खर्चा भेजना है, क्योंकि बच्चे को एमबीए की फीस देनी है, बच्चों को पढ़ाना है, एक व्यक्ति कमाता था तो वह अपनी पत्नी के लिए साड़ी लेकर नहीं आता था, वह साड़ियां ले करके आता था जो अपनी मां के लिए भी अपनी बहन के लिए भी भाभी के लिए भी। लेकिन ये बात अलग है की बहुत स्त्री ने स्त्री का शोषण किया लेकिन मैं जो बात कहना चाहती हूँ। पारिवारिक जीवन की यह जीवन शैली है एक विकासशील देश की तो उसके लिए तो सब लोगों के लिए अलग-अलग सामान की व्यवस्था होगी। विदेशी फैक्ट्रियां यहाँ पर चलती रहे और इसीलिए फैमिली के और इसी न्यूक्लियर फैमिली के दबाव बनाकर के मानसिकता के अनुकूल आपको ढाल करके वह अपनी जरूरतों को पूरा करेंगे। भारतीय कुटुंबीय जीवन और बिखर रहा है यह बड़ी चिंता की बात है और मैंने एक उपन्यास “गिलिगुडू” लिखा है गिलि का अर्थ है चिड़ियाँ और गुडू का मतलब कलरव मलयालम में कहते हैं गिलिगुडू करो – मतलब है चिड़ियों की चहचाहट, और कुटुम्बिय चहचहाहट भी समाज की जीवन शैली से तिरोहित हो जाता है दूर हो जाता है उस समाज की जीवंतता संवेदना पोखर ही नहीं अंजलि पर जल भरने जैसा नहीं है ना पीने के काम आ सकता ना प्यास की तृप्ति के काम आ सकता है न ही कपड़े धोने के काम आ सकता है। यह छोटेपन का उदाहरण है अपने अलावा किसी के बारे में नहीं सोचता। यह जो हमारे देश में आ गया है, बहुत दुखद लगता है। लोग कहते हैं अरे यह क्या है अपने-अपने रोजगार क्या कर सकते हैं .आप बेंगलुरु में रह रहे हैं पिता बीमार हैं मां बीमार है आप को समय नहीं है.पत्नी के पास समय नहीं है पत्नी के पास 2 घंटे ब्यूटी पार्लर में बिताने के लिए समय है लेकिन इनके लिए समय नहीं है अनुत्तरदायित्वपूर्ण जो जीवन शैली है यह सोचकर चलोगे कि तुम जो अपने माँ बाप के साथ कर रहे हो जिन्होंने अपने सपनों अपने कामनाओं को निचोड़कर तुम पर निछावर कर दिया तुमको सबको सक्षम बनाने में तुम्हारे बच्चे जो हम दो हमारे दो हम दो हमारे एक वह देख रहा है वह दादी नानी से दूर देख रहा है घर में हर चीज की उपस्थिति है, बढ़िया सोफे हैं, फ्रीज है, दो दो गाड़ियां है सब कुछ है, घर में दादी नानी नहीं, खांसता हुआ बूढा नहीं है, क्योंकि खांसता हुआ बूढा आपको शर्म देता है। भीष्म साहनी की एक कहानी है… “चीफ की दावत” बुजुर्ग अपने आप में एक ऐसी उपस्थिति है जो अपने अनुभव के साथ उपस्थित है कला और संस्कृति  का वह वात्सल्य और वह प्रेम वह मोह माया का सब स्नेह का एक ऐसा पुंज है जो अपने बूढ़े आँचल में एक छतनार पेड़ की तरह आसरा दे सके. वह चीफ जो है वह माँ की बनाई फुलकारी वो तारीफ करता है पूछता है यह किसने बनाई तो वह शर्म महसूस करता है यह बताने में कि यह माँ ने बनाई है। यह महिलाये पहले घर में  चूल्हा-चौका करती हैं जब फुर्सत पाती थी तुम मूंज भिगोकर के कठौते में रंगों को रख कर के और उनमे लाल हरे पीले भिगोकर के डलवे बनाती थी। टोकरियाँ बनाती थी, वह बैना बनाती थी, पंखे बनाती थी, और ऐसे बढियां कि मैं क्या बताऊं।  भावना, जिनको मैं गांव जा कर देखती थी तो मैं 8/10 पंखे ले आती थी। मेरी सहेलियों ने तो उन पंखे की डंडी हटाकर उसको मोड़कर उसमे जिप लगवा ली और पर्स बना लिए, अब ये सारी चीजें सब खो गई हैं। आज खरीदी हुई चीजें या किस्तों पर ली गई और उससे अपने घर को सजा रहे हैं अब यह तो क्या हुआ है कि हम भीतर से इतने खाली हो चुके हैं हम सोचने लगे हैं कि बीमा बहुत जरूरी है बुढ़ापे के लिए क्योंकि आज आपकी तीमारदारी करने के लिए घर में कोई उपलब्ध नहीं होगा। हम सोचते हैं कि पंजाब में रहने वाला पंजाबी बोलने वाला जो व्यक्ति है वह भी हमारा भाई बंध है उससे भी हम वही नैतिक मूल्य और जीवन मूल्यों की अपेक्षा करेंगे कि वह कोई बहन बिटिया को देखेगा तो अपनी बहन बिटिया को याद करेगा और आपके सिर पर हाथ रखेगा आज वह चीज सब खत्म हो गए और यह गिलि गुडू मुझे बहुत अच्छा लगा और इसका स्वागत लोगों ने जिस तरह से किया इसमें केवल बुढ़ापे की चिंता ही नहीं थी बुढ़ापे की स्थिति को दर्शाया है इस उपन्यास को लिखने उस संस्कृति को भी मैंने दिखाया और किस तरह से बच्चे वीडियो गेम खेल रहे हैं और वह गली मोहल्ले के बच्चों से मिलना नहीं चाहते है, चिड़िया मार रहे हैं और बड़े खुश हो रहे हैं कि उन्होने 10 चिड़िया मार दी यह खेल कैसा खेल है? किसी देश की सीमा के संरक्षण के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने का जज्बा नहीं पैदा कर रहा हिंसा सिखा रहा है हिंसा हमारी यह जरूरी है कि सीमा पर जाकर के लड़ना है कि देश की सीमाओं की रक्षा करें करने के लिए हमारे सैनिक जो है अपने देश को बचाने के लिए लड़ते हैं, हिंसा हमारी जिंदगी में केवल आल्हाद देने के लिए केवल खिलवाड़ के लिए नहीं। हिंसा हमारे भारतीय जीवन शैली का अंग नहीं है. यहां महावीर हुए हैं यह गाँधी ने भी अपनी पूरी लड़ाई अहिंसा के बूते ही की है। इसकी चिंता मैंने अपने उपन्यास गिलि गुडू में की है। मैं यह मानती हूँ चिड़ियों का कलरव आज भी कस्बे या किसी गांव देहात में या शहर में सांझ की बेला में चिड़िया के समूह लौटते हैं। पक्षियों के समूह जब लौटते हैं अपने बच्चों को छोड़ गए हैं घोंसलों में वे खुश होते हैं उनके लिए दाना पानी लेकर आते हैं, कलरव करते आते है और वही समवेत स्वर हमारे जीवन सुख का आधार है उसके लिए सवाल तुम्हारा जो है वह मेरी चिंता है आप कहीं भी रहिए देश-विदेश में रहिए आप दोनों कमाइए आप के बूढ़े मां बाप को अपने घर में रख कर के उनकी देखभाल करिए। इस सत्य को स्वीकारने में शर्म नहीं आनी चाहिए। अपने देश में वहीं जीवन शैली अपनाने वाले को मै तो कभी माफ़ नहीं कर सकती।

डॉ.भावना शुक्ल – आज देश में नारी उत्पीडन से हम सब तिलमिला उठे है आपने ‘आंवा’ उपन्यास लिखा है इसमें भी नारी के उत्पीडन दर्शाया गया है किस दृष्टि कोण  से इसकी रचना की है, हमें अपनी अभिव्यक्ति दीजिये ?

चित्रा मुद्गल – “आवा” उपन्यास में मैंने कई शताब्दियों की स्थितियों को दर्शाया गया है माँ की सोच है वह बीसवीं शताब्दी की है, स्मिता जो है वह 21वीं सदी की है वह अलग दृष्टिकोण रखती है, और नमिता जो है वह मुंबई जैसे आर्थिक राजधानी में रहते हुए गगनचुंबी इमारतों के बीच में वह एक ऐसे घर में रहती है जहां आम सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं तो “आंवा” जो है वह समय का आंवा है.

डॉ.भावना शुक्ल – थर्ड जेंडर के विषय में आपके क्या विचार है आपने कभी इसे अपनी कहानी का विषय नहीं बनाया?

चित्रा मुद्गल – नहीं मैंने कभी कोई कहानी इस विषय पर नहीं लिखी मैंने इस विषय पर कभी सोचा ही नहीं था कि मैं इस विषय पर कभी लिखूंगी, कभी लोकल ट्रेन में चढ़ जाए एक ही जैसी तालियां बजाते हुए कभी मेरा इनकी तरफ ध्यान नहीं गया।  दूर से बस देख लिया है।  कभी डब्बे में वह चढ़ जाते थे तो औरतें पीछे सिकुड़ जाती थी। और पुरुष डिब्बे में जब वे चढ़ते थे तो पुरुष उनके साथ ठिठोली करते थे बस यही मैंने देखा। मैं एक बार 1981 में दिल्ली से मुंबई वापस जा रही थी। बच्चों की छुट्टियों में मै दिल्ली रहने के लिए आती थी। दिल्ली स्टेशन छोड़ने के बाद बिटिया मेरी बहुत रो रही थी मैं उसे थपका रही थी और उसे कह रही थी बेटा चलो अब हम अपनी सीट पर चलते हैं और जैसे ही हम अपनी सीट पर आए मेरी सीट पर तभी इतने में एक लड़का आकर बैठ गया मैंने कुछ कहा नहीं मैंने सोचा कि इसकी बर्थ भी यहीं होगी. वह  बैठा रहा गाड़ी छूटने के करीब आधे घंटे के बाद टी.टी.आई आता है वह उस बच्चे से पूछता है बच्चे ने  कहा ट्रेन छूट रही थी मैं इसमें चढ़ गया आगे बदल दूंगा मेरा जनरल टिकट  कंपार्टमेंट में है मै चला जाऊंगा ट्रेन दिल्ली स्टेशन से छूटने के बाद रात को 11:00 बजे भरतपुर पहुंचती है मैंने कहा मेरी एक सीट बच्चे की भी है। हमने कहा बैठे रहने दीजिए। बड़ा हैंडसम सा लड़का था तो पहली मुलाकात मेरी उस बच्चे से हुई बातचीत के दौरान मैंने पूछा कहां जाएंगे तो उसने कहा “नालासोपारा” तो मैंने कहा कि यह तो पश्चिम एक्सप्रेस है यह नालासोपारा तो रुकती नहीं है तो क्या करेंगे आप तो उसने कहा कि मैं बोरीवली उतर कर  लोकल पकड़ कर चला जाऊंगा रात भर स्टेशन पर ही रहूंगा। कल मेरी माँ पूजा करने के लिए मंदिर जाने के लिए निकलेगी मुझ से प्लेटफार्म पर मिलेगी। तब मैंने कहा वह प्लेटफार्म पर क्यों ? मैं घर नहीं जा सकता तो वह घर क्यों नहीं जा सकता जब यह प्रकरण जब बातचीत में खुला वह प्रकरण खुलने के बाद मेरी आंख से झर-झर आंसू बहने लगे और मैं सुनकर अवाक रह गई, दंग रह गई और वह भी रो रहा था सामने की सीट पर एक दंपत्ति बैठे थे आगे बैठे थे सामने में बैठे थे सारे लोग सोने का उपक्रम कर रहे थे क्योंकि हमारे कंपार्टमेंट में हमारी 3 सीटें थी बाकी तो कोई आए नहीं थे मैं तो एकदम सन्न रह गई मैंने कहा देखो यह मुंबई पहुंचेगी रात को 3:30 तुम इतनी रात को कहां जाओगे तो तुम बोरीवली नहीं जाऊंगी मैं मुंबई सेंट्रल में उतरूंगी और वहां से मुझे पास पड़ेगा तुम रात को स्टेशन पर कहां सोओगे तो तुम मेरे साथ मेरे घर पर चलो उससे मैंने कहा मुझे बात करते करते आत्मीयता उससे ज्यादा हो गई थी तब मैंने उससे कहा कि तुम मुझे अपनी मां का फोन नंबर एड्रेस सब दो तो मुझे लगा पहली बार मुझे लगा कि मुझे कुछ करना चाहिए तो पहली बार मुझे इस विषय से मेरी मुलाकात हुई जिस तरह से मुलाकात हुई एक ऐसा बच्चा है मैंने इसके बारे में सिर्फ एक यात्रा वृतांत में लिखा “फर्लांग का सफरनामा” पहली बार एक समाज सेविका हो करके मैंने इस ओर कभी नहीं सोचा पर मेरी निगाह नही गई। ‘फर्लांग का सफरनामा’ एक अनुभव लोखंडवाला स्टेशन से लोखंडवाला तक . दिल्ली आने के बहुत दिनों से यह  बच्चा पढ़ना चाहता था मैंने सोचा इग्नू में उसका प्राइवेट फॉर्म भरवाकर के उसकी पढ़ाई जारी रखी। मन में एक बीज पड़ गया था और एक अपराध बोध महसूस हुआ था मेरा वह विषय नहीं था मन में सवाल था मां और बेटा यह क्या है और उनके साथ क्या हो रहा है किसी ने क्या किया? क्या नहीं किया? किस की वजह से समाज ने उनके साथ क्या किया? किस की वजह धर्म के साथ क्या किया किसी की वजह राजनीति ने इनके साथ क्या किया और खुद मां-बाप ने उनके साथ क्या किया? क्यों किसी चीज का किसी को दबाव नहीं होता तो लोग खुद मानते कि इस तरह के बच्चे को घर में नहीं रखना है? वो हमारी विरासत नहीं है। जिससे उनके घर की लड़कियों की शादी नहीं होगी। घर में किसी को खबर हो गई तो उस घर की बेटियों का ब्याह होना बंद हो जाएगा।

मुझे ट्रांसजेंडर पर अलग तरह की चीज लिखना है मुझे वह नहीं लिखना है जो सबके सामने होता है कि वह डांस करती है आती है ताली बजाती वह करते हैं मुझे समाज को मां बाप को धर्म को राजनीति को जो नियंता है इन को कटघरे में लेना है और सर्जना में ढाल करके लेना है सर्जना में होगा तो मन के संवेदन को जाएगा जब वह मनुष्य के संवेदन को कोई खरोंचेगा तब पपड़ियाँ उघडेगी कहीं यह महसूस होगा कि कुछ गलती हुई है उस माँ को भी महसूस होगा कि अपनी कोख पर उसका अधिकार नहीं है यह स्त्री विमर्श की बहुत बड़ी लड़ाई है. तो  नालासोपारा पोस्ट बॉक्स नंबर 203 में हमने कई अंश को उठाया और उपन्यास मेरा 2016 में आया और ‘वागर्थ’ में ‘जनपद’ में उसके दो तीन अंश में आए और 2011 में उस अंश को पढ़कर  एक जज ने मुझे चिट्ठी लिखी मत देने के लिए ट्रांसजेंडर को स्वीकार किया है। हर युवा पीढ़ी की हर बच्चे इस उपन्यास को पढ़ें अगर मां बनी हम दो हमारे दो चाहिए हम दो हमारे एक चाहिए एक बच्चा पैदा हो जाए तो उसे स्वीकार करें। इस उपन्यास के अंत में एक माँ क्या करती है मेरी गुजारिश है इसे आप भी पढ़े और सभी लोग पढ़े। इस उपन्यास का साल भर के अंदर तीसरा एडिशन आ गया।

डॉ.भावना शुक्ल – क्या आपने अपने उपन्यासों, कहानियों में अपने जीवन को उजागर किया  है ?

चित्रा मुद्गल – ऐसा तो अभी तक नहीं हुआ है हां ‘आंवा’ में अपने ट्रेड यूनियन के अनुभव को ही मैंने विषय-वस्तु बनाया है एक जो मेरे भीतर कहीं न कहीं ट्रेड यूनियन को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं, इतनी लड़ाई लड़ने के बावजूद क्या होता है और 6 महीने के बाद ताले बदली हो जाने के बाद फिर पता चलता है कि अगर ताला खुलता है, 10टक्के  पर समझौता होता है, उनके अंदर की जो दुर्दशा है उसका इस्तेमाल नेता तो अपने राजनीतिक जीवन के लिए करता है यह कमजोर है तो इतने पर भी खुश हो जाएंगे चलो हमारी चूल्हे राख पड़ी हुई थी किसी तरह चूल्हा तो जले, वे टूट कर इस पर समझौता कर लेंगे, बिखर कर कर लेंगे, अपने बच्चों को रोड के किनारे डिब्बे लेकर भीख मांगते देखना कटोरा लेकर भीख मांगता हुआ ना देखने के लिए समझौता कर लेंगे, यह जो नेता है मजदूरी मजदूरों की गरीबी की जरूरतों को अपने लड़ाई का मुद्दा बनाकर उनकी हित की लड़ाई का मुखौटा चढ़ाकर जो लड़ाई लड़ते हैं आखिर में वो यहां आकर क्यों पहुंच गए मेरे मन में बहुत आक्रोश है। और मुझे लगता रहा है कि अगर तो इसका समाधान कर दें देश के सारे मजदूरों का घर समाधान मिल जाएगा कायदे कानून से वो अधिकारों की बहाली के लिए लड़ रहे हैं सब उनको मिल जाएंगे तो इनके नेतृत्व का क्या होगा यही है समय का आंवा।

डॉ.भावना शुक्ल – पुराने लेखकों में और आज के इस दौर के लेखकों में साहित्यिक दृष्टि से क्या अंतर आप मानती है?

चित्रा मुद्गल – इतना ही अंतर है कि उन्होंने अपने समय को लिखा। अपनी इस समय की विसंगतियों और संघर्षों को लिखा अपने समय के आम आदमी के बुनियादी हकों को लेकर को लेकर भावनात्मक अधिकारों को लेकर के लिखा था उनके साथ जो भी ज्यादतियां होती रहीं, बहुत से लोगों ने इतिहास को ले करके भी लिखा और स्त्री विमर्श जैसे आपको स्त्री विमर्श यशपाल की दिव्या में मिलेगा, विस्थापन विभाजन झूठा सच में मिलेगा, 12 घंटे में बेबसी मिलेगी, नाच्यो बहुत गोपाल में स्त्री का वो रूप मिलेगा जो ब्राह्मण पति को छोड़कर अपने दलित प्रेमी के साथ चली जाती है और पत्नी बनकर रहती है और अंत में वह कहती है पति तो पति होता है चाहे वो दलित हो या सामान्य। उसके आगे जो पिछली पीढ़ी का प्रेमचंद से जिस तरह से अवगत हुए आधुनिक पहलुओं से अवगत हुए सब लोग गांव में रहते रहे हैं लेकिन इस दृष्टि से किसी ने भी विचार नहीं किया। एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखते रहे।  स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी है, साहित्य है, बहुत दिनों तक वह प्रतिध्वनियां भी रहे सर्जना में उसके बाद जो अटा हुआ समय था, जो करवट लेता हुआ समय था और एक वह समय जो विश्व से सीधे सीधे व्यापार शुरू हुआ उदारीकरण के दौर में, 90 के दौर में, जब उदारीकरण हुआ व जीवन शैली ने नया रूप लेना शुरू किया। जब हम लोगों ने लिखना शुरू किया तो उदारीकरण इस तरह से नहीं हुआ था तब तो अगर कोई विदेश जाता था और पूछता था दिदिया  आपके लिए क्या ले आए तो हम कहते थे कि ऐसा है हमारे लिए वहां से लिपस्टिक ले आना, मेरे देखते-देखते उदारीकरण के चलते किसी को विदेश से मंगाने की जरूरत नहीं आपके स्टोर में मिलती है. हमारी जीवनशैली बदलने लगी। कई तरह की चीजों को इस्तेमाल करने लगे उनका जो सोच था उनका जो विज्ञान है। वही जो आजकल लेखन है, समकालीन लेखन है जो समकालीनता मेरी थी जो मेरे समय की अंतर संगठन नई जीवन जीवन शैली से ऊपर मेरे समय के लेखन के अनुभव बताते कि मैं उनको लिखूँ उनको मैं देखूं जो समय का अभाव था आजादी के बाद जो प्रचलित किया गया, आजादी के बाद जवाब प्रज्वलित किया गया क्योंकि इसमें सब चरित्र नैतिकता है। सब ध्वस्त हो गए, क्योंकि हमने उनसे भी ज्यादा बुरा करना शुरु कर दिया। जो लैंग्वेज कहते रहेंगे हमारे समय की नई नई चुनौतियां नहीं आज जो नई पीढ़ी आ रही है उसकी चुनौतियां और अलग है अपने समय का दस्तावेज होती है सर्जनात्मकता लेखक अगर अपने समय के सरोकारों से नहीं जुड़ा है। मुझे नहीं लगता कि वह अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा।

डॉ.भावना शुक्ल – आपको अपना कौन-सा उपन्यास या कहानी अधिक प्रिय है और वह क्यों?

चित्रा मुद्गल – आजकल अभी मैंने “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा” की जो लड़ाई मैंने लड़ी है अपने क्षेत्र में लड़ी है लिखा है उपन्यास के रूप में आजकल कोई मुझे टेलीफोन करता है और कहते हैं दीदी इसे पढ़कर तो मेरे आंसू नहीं रुक रहे मैं परेशान हूं मैं शॉक्ड हूं मुझे लगा कि हम स्त्रियों ने अपने कितने अधिकार छोड़ दिए हम स्त्री होकर पैदा हुए हमारे अंदर एक अदद कोख है, आज जो लड़ाई भ्रूण हत्या के मामले में लड़ी जा रही है, और यह ट्रांसजेंडर की लड़ाई मुझे लगता है कि मैंने शायद एक अच्छी कोशिश की है। हां मेरी 49 पुस्तके हो गई है। और ‘नक्टोरा’ आ जायेगा तो मेरी 50 किताबे हो जाएँगी। 7 बच्चो की किताबे 3 बच्चों के ऊपर नाटक है, कथा रिपोतार्ज है 12 कहानी संकलन है 4 उपन्यास लिखे हैं, कितनी किताबें हैं लेकिन मैं जब भी इस बारे में सोचती हूँ और इस सवाल से जूझती हूँ अब तक अपनी प्रिय चीज को लिखना अभी बकाया है मेरे लिए मेरी कलम के लिए वह प्रिय जो मेरे चेतन को झकझोर देगा जब मैं उसको अपने दिल से और दिमाग से एक गंभीरता से उसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति दूंगी शायद मैं उस चीज को अपनी प्रिय चीज के रूप में जन्म दूँगी अभी तक तो मैं कुछ कह नहीं सकती  आज कल मैं इमानदारी से कहूं भावना मैं नालासोपारा से गुजर रही हूँ।

अगर अच्छी कोई कहानी पढ़ती है उसके पहले आपने उस लेखक का नाम नहीं जाना होता नहीं सुना होता वह कहानी पढ़ते हुए पढ़ने के बाद निकलते हैं घर से साड़ी पहनकर और जाते हैं कहीं और बैठते हैं मंच पर और बीच-बीच में वह याद आ जाती है। कहानी ने आपके मर्म को छू लिया है, कहानी जब पीछा करती है, हफ्तों महीनों सालों इसका मतलब है कि वह कहानी अपने सामाजिक सरोकारों को पूरा कर रही है, चाहे वह अपने पति पत्नी के बीच के तनाव की कहानी है चाहे सामाजिक विसंगति को लेकर हो चाहे राजनीति विसंगति को लेकर हो चाहे किए जानेवाले ओ जानेवाले नकाब पर नकाब उद्घाटित करने वाले कहानी हो यानी व्यक्तित्व के चेहरे पर चेहरा चढ़ाए रखने की मजबूरी की व्यवस्था की कहानी हो। कोई भी कहानी हो वह बहुत गहरे उतर कर के डूब के लिखी गई है वह पीछा करती है कभी-कभी ऐसा होता था एक नया नाम सारिका में आते हुए कभी पढ़ती थी नया ज्ञानोदय में भागवत में नई पीढ़ी को पढ़ती थी। परिकथा में पढ़ती हूँ, हंस में पढ़ती हूं पहले पहले मुझे कहानी भी याद है शीर्षक भूल गई।  कभी इस बात का गर्व नहीं करती मैंने ऐसा लिख दिया कोई और नहीं लिख सकता। लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है। कुछ नहीं कह पाते कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं। जो नहीं कह पाते अपनी पीड़ा को कुछ ना कहने वाली की आवाज कह लेखक अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त कर पाने वाले आवाज में उसकी आवाज शामिल होती है, चित्रा मुद्गल की आवाज में उन सब की आवाज शामिल है, जो मैं शब्दों में ढालकर लिखती हूँ, पता नहीं कैसा लिखती हूँ पर मुझे भरोसा है नई पीढ़ी पर है।

डॉ.भावना शुक्ल – सम्मानों का दौर चल रहा है आपके क्या विचार है ?

चित्रा मुद्गल – मुझे लगता है कि कभी आपने सम्मान को इसलिए ग्रहण नहीं किया होगा कभी मौका आएगा तो आप उसको लौटा आएंगे क्योंकि सम्मानों की जो कामना भरी हुई है जिसकी वजह से तमाम ईर्ष्या द्वेष हैं, सृजनकारों की दुनिया में कि मैं भी बहुत महत्वपूर्ण लिख रहा हूँ लिख रही हूँ इनको कैसे मिल गया उसने कभी नहीं सोचा होगा यह एक चालाकी है यह चालाकी है जिन चीजों से आप असहमत है।  पुरस्कार वापस करने से क्या होगा वह तो उनके लिए है कि वह डिग्रियां बांट रहे हैं। मैं नहीं समझती कि यह सही काम था। मैं एक लेखक हूँ। भावना, लेखन की ताकत को जानती हूँ क्योंकि जब भी कोई विसंगति मन को कचोटती है मन के भीतर अंतर्द्वंद पैदा करती है रातों की नींद उचट जाती है। चलते-फिरते बोलते तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है मेरे अवचेतन में मुझे लगता है कि लिखना आसान काम नहीं है बड़ी हिम्मत जुटाने पड़ती है।

डॉ.भावना शुक्ल – आप हमारे पाठकों दर्शको लेखकों को लेखन प्रकिया के सन्दर्भ बताएं, या  कोई सन्देश दे जिससे वे अपने लेखन को बेहतर बना सकें ?

चित्रा मुद्गल फार्मूला में ना जाए लिखने का शौक है तो यह मत सोचो कि क्या लिखा जा रहा है क्यों मन में ऐसा होता है शायद ऐसा ही छपेगा आज परिकथा में कविताएं भरी रहती हैं। वही बातें जो लोग कहते हैं आप किस दृष्टि से लिखना चाहते हैं और आप जब परिवर्ती लेखन को पढ़ेंगे नहीं कि क्या लिखा जा चुका है और जो लिखा जा चुका है अपने समय का और उसके आगे जिस तरह की चुनौतियां आ रहीं हैं उसका मोर्चा क्या होना चाहिए उसमें क्या चीज है? गलत आ गया उसे कैसे लड़ा जाना चाहिए? पहली चीज अपने अनुभवों से सीखिए अपने अनुभवों से जो समाज आपको सामने मिला है और समाज क्या है यहां से मेट्रो पकड़ेंगे। मेट्रो पकड़कर विश्वविद्यालय जाएंगे उसके बाद के लिए राजीव गांधी चौक उतरेंगे विश्वविद्यालय तक पहुंचने के लिए अपनी कक्षा तक पहुंचने के लिए हमको राजीव गांधी चौक के एक बहुत बड़े पीर के जिले से टकराना पड़ेगा एक समंदर लहरा रहा होता है, वह चुप हो रहे होते हैं,  हड़बड़ी में होते हैं। कैसे पकड़े इस हड़बड़ी में, आप भी होते और आपके साथ और भी लोग होते हैं कहां किस की कहानी लगती है? कहां किसका पर्स गिर जाता है? कहां किसके पास से मोबाइल निकल जाता है? तो यह कौन लोग हैं ? यह तो अपना लोगे आप अपने अनुभवों की खिड़की को खुला रखें उसे पढ़ें सोचे रोज रात में मंथन करें डायरी लिखे क्या महसूस किया जब आप देखेंगे तो आपको विषयों की कमी नहीं नजर आएगी।  फॉर्मूला पिछले 15 वर्षों से चल रहा है।  जरूरी नहीं है कि भावना भी उसी पर लिखें।  जरूरी नहीं है जान्हवी भी उसी पर कविता लिखे दे, वही वही बातें मैं यह कहना चाहती हूँ, लिखना चाहते हो या चाहती हो। लिखने की ललक लिखने से पहले मैं पढ़ने को मानती हूँ। पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़कर के विज्ञान की रसायनों की केमिस्ट्री को समझ पाएंगे, लेकिन समाज की जो केमिस्ट्री है समाज के अलग-अलग व्यक्तित्व सोचने समझने की जरूरत बन रही है उसको समझने के लिए जरूरी है पढ़ना, यदि आप ‘झूठा सच’ पढ़ेंगे तो आपने विभाजन को नहीं देखा विभाजन के क्या परिणाम होते हैं? क्या दुष्परिणाम होते हैं कैसे आपके ताऊ, चाचा, चाची गहने लूटने के लिए उनके हाथ काट लेते हैं? क्योंकि उनके पास समय नहीं है? अपने घर से बेघर कर दिया गया इसको आप जब तक नहीं जानेंगे अपने वर्तमान समाज को जो 10 दिनों से ऐतिहासिक घटनाओं की कड़वी स्मृतियों को इतिहास में दर्ज किया लेकिन जब सर्जना में दर्ज होता है, लेकिन इतिहास में तो राजे-रजवाड़ों की वह बड़े नेताओं की बात होगी लेकिन उस आम आदमी को लेकर नाम का जिक्र नहीं होगा । जब जन की बात होगी तब आप समझ सकेंगे आप समाज के आंदोलन से आप समझेंगे इतिहास आपको नहीं देगा पाठ्यक्रम में रेशमा अशोका होंगे, वाजिद अली शाह होंगे कि आम आदमी?  उसमें आम आदमी किस रूप में होगा कि अशोक, अकबर के जमाने में यह था वह था और उनके जमाने में इंतजार की प्रजा सुखी थी या नहीं थी। इसका अगर इतिहास जानना है, साहित्य पढ़ना पड़ेगा साहित्य ही बताएगा, जो प्रेमचंद का गोदान ने बताया, प्रेमचंद की निर्मला औरतों की मन की बात कही उसने नहीं सुना था कि उसकी दोहाजू से शादी हो जाए लेकिन जब दोहाजू का बेटा भी उसकी उम्र का है उसके मन में कुछ नहीं है फिर भी आप वह कलुष मन में डाल रहे हो, मनोवैज्ञानिक पक्ष जब तक आप इसको पढ़े बिना नहीं समझ सकेंगे।  मैं यह नई पीढ़ी को कहना चाहती हूँ पहले बहुत पढ़ो आज मुझे बहुत सारी रचनाएं ऐसी लगती है यह तो लिखा जा चुका है इसमें मैंने ही नहीं लिखा, मन्नू भंडारी की कहानी, महादेवी जी ने ‘श्रंखला की कड़ियों’ में क्या लिख दिया उसे पढो और सबसे पहले अपने अनुभवों को पढ़ो और वह अपने समाज को,अपने इतिहास को आप अपने साथ नहीं रख सकते अगर आपको लिखना है तो आप सबसे पहले पढ़ें और अपने अनुभवों की किताब लिखिए।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆ (30 सितम्बर 2019 -2020 रजत जयंती वर्ष) ☆

 ☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(प्रसिद्ध साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार 30 सितम्बर 2019 को रजत जयंती वर्ष में प्रवेश कर रही है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से इस सफल यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं .  इस अवसर पर संस्था के संस्थापक अध्यक्ष  श्री संजय भारद्वाज  जी से  सुश्री वीनु जमुआर जी की बातचीत)

वीनु जमुआर- सर्वप्रथम हिंदी आंदोलन परिवार के रजत जयंती वर्ष में कदम रखने के उपलक्ष्य में अशेष बधाइयाँ और अभिनंदन। अब तक की अनवरत यात्रा से  देश भर में चर्चित नाम बन चुका है हिंआप। हिंआप की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए। इसकी स्थापना का बीज कब और कैसे बोया गया?

संजय भारद्वाज- हिंआप का बीज इसकी स्थापना के लगभग सोलह वर्ष पूर्व 1979 के आसपास ही बोया गया था। हुआ यूँ कि मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। बाल कटाने के लिए एक दुकान पर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं जिनमें अँग्रेजी की पत्रिका, शायद ‘दी इलस्ट्रेटेड वीकली’ भी थी। अँग्रेजी थोड़ी बहुत समझ भर लेता था। पत्रिका में बिहार की जेलों में बरसों से बंद कच्चे महिला कैदियों की दशा पर एक लेख था। इस लेख में अदालती कार्रवाई पर एक महिला की टिप्पणी उद्वेलित कर गई। रोमन में लिखी इस टिप्पणी का लब्बोलुआब यह था कि ‘साहब, अदालत की कार्रवाई कुछ पता नहीं चलती क्योंकि अदालत में जिस भाषा में काम होता है, वह भाषा हमको नहीं आती।’ यह टिप्पणी किशोरावस्था में ही खंज़र की तरह भीतर उतर गई। लगा लोकतंत्र में लोक की भाषा में तंत्र संचालित न हो तो लोक का, लोक द्वारा, लोक के लिए जैसी परिभाषा बेईमानी है। इसी खंज़र का घाव, हिंआप का बीज बना।

(साक्षात्कार लेतीं सुश्री वीनू जमुआर )

वीनु जमुआर- किशोर अवस्था में पनपा यह बीज संस्थापक की युवावस्था में प्रस्फुटित हुआ। इस काल की मुख्य घटनाएँ कौनसी थीं जो इसके अंकुरण में सहायक बनीं?

संजय भारद्वाज- संस्थापक की किशोर अवस्था थी तो बीज भी गर्भावस्था में ही था। बचपन से ही हिंदी रंगमंच से जुड़ा। महाविद्यालयीन जीवन में प्रथम वर्ष में मैंने हिंदी मंडल की स्थापना की। बारहवीं के बाद पहला रेडियो रूपक लिखा और फिर चर्चित एकांकी, ‘दलदल’ का लेखन हुआ। आप कह सकती हैं कि बीज ने धरा के भीतर से सतह की यात्रा आरम्भ कर दी। स्नातक होने के बाद प्रारब्ध ने अकस्मात व्यापार में खड़ा कर दिया। नाटकों के मंचन के लिए समय देने के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। 1995 में पीलिया हुआ। पारिवारिक डॉक्टर साहब ने आत्मीयता के चलते एक तरह से अस्पताल में नज़रबंद कर दिया। पुणे में दीपावली पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक विशेषांकों की परंपरा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े हिंदी में शहर के पहले साहित्यांक ‘अक्षर’ का विचार जन्मा और दो महीने बाद साकार भी हुआ। साहित्यकारों से परिचय तो था पर साहित्यांक के निमित्त वर्ष में केवल एक बार मिलना अटपटा लग रहा था। इस पीड़ा ने धीरे-धीरे  बेचैन करना शुरू किया, बीज धरा तक आ पहुँचा और जन्मा हिंदी आंदोलन परिवार।

वीनु जमुआर- युवावस्था में जब युवा अपने भविष्य की चिंता करता है, आपने भाषा एवं साहित्य के भविष्य की चिंता की। क्या आप रोजी-रोटी को लेकर भयभीत नहीं हुए?

संजय भारद्वाज- हिंदी मेरे लिए मेरी माँ है क्योंकि इसने मुझे अभिव्यक्ति दी। हिंदी मेरे लिए पिता भी है क्योंकि इसने मुझे स्वाभिमान से सिर उठाना सिखाया। अपने भविष्य की चिंता करनेवाले किसी युवा को क्या अपने माता-पिता की चिंता नहीं करनी चाहिए? रही बात आर्थिक भविष्य की तो विनम्रता से कहना चाहूँगा कि जीवन में कोई भी काम भागनेवाली या भयभीत होनेवाली मनोवृत्ति से नहीं किया। सदा डटने और मुकाबला करने का भाव रहा। रोजाना के लगभग चौदह घंटे व्यापार को देने के बाद हिंआप को एक से डेढ़ घंटा नियमित रूप से देना शुरू किया। यह नियम आज तक चल रहा है।

वीनु जमुआर- आपकी धर्मपत्नी सुधा जी और अन्य सदस्य साहित्य सेवा के आपके इस यज्ञ में हाथ बँटाने को कितना तैयार थे?

संजय भारद्वाज- पारिवारिक साथ के बिना कोई भी यात्रा मिशन में नहीं बदलती। परिवार में खुला वातावरण था। पिता जी, स्वयं साहित्य, दर्शन और विशेषकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। परिवार में वे हरेक के इच्छित को मान देते थे। सो यात्रा में कोई अड़चन नहीं थी। जहाँ तक सुधा जी का प्रश्न है, वे सही मायने में सहयात्री सिद्ध हुईं। हिंआप को दिया जानेवाला समय, उनके हिस्से के समय से ही लिया गया था। उन्होंने इस पर प्रश्न तो उठाया ही नहीं बल्कि मेरा आनंद देखकर स्वयं भी सम्पूर्ण समर्पण से इसीमें जुट गईं। यही कारण है कि हिंआप को हमारी संतान-सा पोषण मिला।

(हिंदी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘विश्व वागीश्वरी पुरस्कार’ श्री-श्री रविशंकर जी की उपस्थिति में पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी पाटील द्वारा प्रदत्त)

वीनु जमुआर-  मराठी का ’माहेरघर’ (पीहर) कहे जानेवाले पुणे में हिंआप की स्थापना कितना कठिन काम थी?

संजय भारद्वाज- महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति प्रेम और सम्मान की एक परंपरा रही है। अनेक संतों ने मराठी के साथ हिंदी में भी सृजन किया। हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा महाराष्ट्र से थेे। देश को आद्य हिंदी प्रचारक महाराष्ट्र विशेषकर पुणे ने दिये। संभाषण के स्तर पर धाराप्रवाह हिंदी न आनेे के बावजूद स्थानीय नागरिकों ने हिंआप को साथ दिया। हाँ संख्या में हम कम थे। किसी हिंदी प्रदेश में एक किलोमीटर चलने पर एक किलोमीटर की दूरी तय होती। यहाँ चूँकि प्राथमिक स्तर से सब करना था, अत: पाँच किलोमीटर चलने के बाद एक किलोमीटर अंकित हुआ। इसे मैं प्रारब्ध और चुनौती का भाग मानता हूँ। अनायास यह यात्रा होती तो इसमें चुनौती का संतोष कहाँ होता?

वीनु जमुआर- हिंआप की यात्रा में संस्था की अखंड मासिक  गोष्ठियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- बहुभाषी मासिक  साहित्यिक गोष्ठियाँ हिंआप की प्राणवायु हैं। संस्था के आरंभ से ही इन गोष्ठियों की निरंतरता बनी हुई है। हमने हिंदी की प्रधानता के साथ मराठी और उर्दू के साहित्यकारों को भी हिंआप की गोष्ठियों से जोड़ा। यों भी हिंदी अलग-थलग करने में नहीं में नहीं अपितु सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। इन तीन भाषाओं के अतिरिक्त सिंधी के रचनाकार अच्छी तादाद में संस्था से जुड़े। राजस्थानी, गुजराती, कोंकणी, बंगाली, उड़िया और सामान्य रूप से समझ में आनेवाली विभिन्न भाषाओं/ बोलियों के रचनाकार भी हिंआप की गोष्ठी में आते रहे हैं। अनुवाद के साथ काश्मीरी और कन्नड़ की रचनाएँ भी पढ़ी गई हैं। एक सुखद पहलू है कि प्राय: हर गोष्ठी में एक नया रचनाकार जुड़ता है। साहित्य के साथ-साथ इन गोष्ठियों का सामाजिक पहलू भी है। महानगर में लोग महीने में एक बार मिल लेते हैं, यह भी बड़ी उपलब्धि है। हमारी मासिक गोष्ठियाँँ अनेक मायनों में जीवन की पाठशाला सिद्ध हुई हैं। संस्था के लिए गर्व की बात है कि गोष्ठियों की अखंड परंपरा के चलते हिंआप की अब तक 238 मासिक गोष्ठियाँ हो चुकी हैं।

वीनु जमुआर- किसी संस्था को जन्म देना तुलनात्मक रूप से सरल है पर उसे निरंतर चलाते रहने में अनेक अड़चनें आती हैं। हिंआप की यात्रा में आई अड़चनों का खुलासा कीजिए।

संजय भारद्वाज- संभावना की यात्रा में आशंका भी सहयात्री होती है। स्वाभाविक है कि आशंकाएँ हर बार निर्मूल सिद्ध नहीं हुईं। हमारे देश की साहित्यिक संस्थाओं की संगठनात्मक स्थिति कमज़ोर है। दो ही विकल्प हैं कि या तो आप इसे ढीले-ढाले तरीके से चलाते रहें अन्यथा इसे संगठनात्मक रूप दें। जैसे ही इसे संगठनात्मक रूप देंगे, अनुशासन आयेगा। एक अनुशासित संस्थान जिसमें कोई वित्तीय प्रलोभन न हो, चलाना हमेशा एक चुनौती होती है। अनेक बार अपितु अधिकांश बार अपने ही घात करते हैं। साथी कोई दस कदम साथ चला कोई बीस, कोई सौ, कोई चार सौ। यद्यपि उन साथियों से कोई शिकायत नहीं। उनकी सोच के केंद्र में उनका अपना आप था, हमारी सोच के केंद्र में हिंआप था।….व्यक्ति हो या संस्था दोनों को अलग समय अलग समस्याओं  से दो हाथ करने पड़ते हैं। आरम्भिक समय में यक्ष प्रश्न होता था कार्यक्रम के लिए जगह उपलब्ध करा सकने का। गोष्ठियों का व्यय भी एक समस्या हो सकता था, जिसे हम लोगों ने समस्या बनने नहीं दिया। विनम्र भाव से कहना चाहता हूँ कि कोई व्यसन के लिए घर फूँकता है, हमने ‘पैेशन’ के लिए फूँका। साथ ही यह भी सच है कि जब-जब हमने घर फूँका, ईश्वर ने नया घर खड़ा कर दिया। उसके बाद तो हाथ जुड़ते गये, साथी बढ़ते गये। आज संस्था के हर छोटे-बड़े आयोजन का सारा खर्च हिंआप के सदस्य-मित्र मिलकर उठाते हैं। …..समयबद्धता का अभाव भी बड़ी समस्या है। साहित्यिक कार्यक्रमों में समय पर न आना एक बड़ी समस्या है। चार बजे का समय दिया गया है तो पौने पाँच, पाँच तो निश्चित बजेगा। कल्पना कीजिए कि 130 करोड़ के देश में रोजाना पचास गोष्ठियाँ भी होती हों, औसत दस आदमी एक घंटा देर से पहुँचते हैं तो पाँच सौ लोगों के चलते 500 मैन ऑवर्स बर्बाद होते हैं। यह मात्रा महीने में पंद्रह हज़ार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की बर्बादी का है। एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की ऊर्जा का क्षय राष्ट्र का बड़ा क्षय है। इसे बचाना चाहिए। हिंआप में हमने इसे बहुत हद तक नियंत्रित किया है।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

वीनु जमुआर- उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुत उन्नत नहीं था। ऐसे में लोगों को सूचनाएँ पहुँचाने का क्या माध्यम था?

संजय भारद्वाज- मासिक गोष्ठियों की सूचना देना उन दिनों अधिक समय लेनेवाला और अधिक श्रमसाध्य था। तब हर व्यक्ति के घर में फोन नहीं था। हमने लोगों के पते कीएक सूची बनाई। सुबह जल्दी घर छोड़ने के बाद रात को लौटने में देर होती थी। हम पति-पत्नी रात को बैठकर पोस्टकार्ड लिखते। सुबह व्यापार के लिए निकलते समय मैं उन्हें पोस्ट करता। अधिकांश समय ये पोस्टकार्ड लिखने की जिम्मेदारी सुधा जी ने उठाई। लोगों का पता बदलने पर सूची में संशोधन होता रहता। फिर अधिकांश सूचनाएँ लैंडलाइन पर दी जाने लगीं। इससे सूचना देने का समय तो बढ़ा, साथ ही फोन का बिल भी ज़बरदस्त आने लगा। मैं 1997-98 में लैंडलाइन का मासिक बिल औसत रुपये 1500/- भरता था। फिर मोबाइल आए। आरंभ में मोेबाइल लक्ज़री थे और इनकमिंग के लिए भी शुल्क लगता था। शनै:-शनै: मोबाइल का चलन बढ़ा। फिर लोगों को एस.एम.एस. द्वारा सूचनाएँ देने लगे। फिर चुनिंदा लोगों को ईमेल जाने लगे। वॉट्सएप क्राँति के बाद तो संस्था का पटल बन गया और एक क्लिक पर हर सूचना जाने लगी।

वीनु जमुआर- हिंआप की गोष्ठियों की एक विशेषता है कि महिलाएँ बहुतायत से उपस्थित रहती हैं। स्त्रियों की दृष्टि से देखें तो गोष्ठियों का वातावरण बेहद ऊर्जावान, सुंदर, पारिवारिक और उत्साहवर्धक होता है। अपनीे तरह की इस विशिष्ट उपलब्धि पर कैसा अनुभव करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- महिलाएँ मनुष्य जीवन की धुरी हैं। स्त्री है तो सृष्टि है। स्त्री अपने आप में एक सृष्टि है। भारतीय परिवेश में पुरुष का करिअर, उसका व्यक्तित्व, विवाह के पहले जहाँ तक पहुँचा होता है, उसे अपने  विवाह के बाद वह वहीं से आगे बढ़ाता है। स्त्रियों के साथ उल्टा होता है। खानपान, पहरावे से लेकर हर क्षेत्र में उनके जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाता है। अधिकांश को अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों का कत्ल करना पड़ता है और परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। हमारे साथ ऐसी महिलाएँ जुड़ीं जो विवाह से पहले लिखती-छपती थीं। विवाह के बाद उनकी प्रतिभा सामाजिक सोच के संदूक में घरेलू ज़िम्मेदारियों का ताला लगाकर बंद कर दी गई थीं। हिंआप से जुड़ने के बाद उन्हें मानसिक विरेचन का मंच मिला। मेलजोल, हँसी-मज़ाक, प्रतिभा प्रदर्शन और व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले। हिंआप में उनकी प्रतिभा को प्रशंसा मिली और मिले परिजनों जैसे मित्र। कुल मिलाकर सारी महिला सदस्यों को मानो ‘मायका’ मिला। आपने स्वयं देखा और अनुभव किया होगा। वैसे भी स्त्री के लिए मायके से अधिक आनंददायी और क्या होगा! वे आनंदित हैं तो सृष्टि आनंदित है। हिंआप के बैनर तले सृष्टि को आनंदित देखकर हिंआप के प्रमुख के नाते सृष्टि के एक जीव याने मुझे तो हर्ष होगा ही न। अपने जैविक मायके से परे महिलाओं को एक आत्मिक मायका उपलब्ध करा पाना मैं हिंआप की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

वीनु जमुआर- साहित्यिक क्षेत्र में हिंआप की  चर्चा प्राय: होती है। आपकी  गोष्ठियाँ अब पुणे से बाहर मुंबई और अन्य शहरों में भी होने लगी हैं। इस विस्तार को कैसे देखते हैं आप?

संजय भारद्वाज- मेरी मान्यता है कि सफलता का कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं होता। आप बिना रुके, बिना ठहरे, आलोचना-प्रशंसा के चक्रव्यूह में उलझे बिना निरंतर अपना काम करते रहिए। यात्रा तो चलने से ही होगी। ठहरा हुआ व्यक्ति चर्चाएँँ कितनी ही कर ले, यात्रा नहीं कर सकता। कहा भी गया है, ‘य: क्रियावान स: पंडित:।’ क्रियावान ही विद्वान है। हिंदी आंदोलन क्रियावान है। क्रियाशीलता की चर्चा समाज में होना प्राकृतिक प्रक्रिया है। जहाँ तक शहर से बाहर गोष्ठियों का प्रश्न है, यह हिंआप के प्रति साहित्यकार मित्रों के विश्वास और नेह का प्रतीक है। भविष्य में हम अन्य नगरों में भी हिंआप की गोष्ठियाँ आरंभ करने का प्रयास करेंगे। दुआ कीजिए कि अधिकाधिक शहरों में हिंआप पहुँचे।

वीनु जमुआर- अनुशासित साहित्यिक संस्था के रूप में हिंआप की विशिष्ट पहचान है। इस अनुशासन और प्रबंधन के लिए आप मज़बूत दूसरी और तीसरी पंक्ति की आवश्यकता पर सदा बल देते हैं। इस सोच को कृपया विस्तार से बताएँ।

संजय भारद्वाज- किसी भी संस्था का विकास और विस्तार उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, उनके परिश्रम और लक्ष्यबेधी यात्रा से होता है। कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को पहचान कर अवसर देने से बनता है संगठन। हिंआप में हमने प्रतिभाओं को निरंतर अवसर दिया। इससे हमारी दूसरी और तीसरी पंक्ति भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए आरम्भ में मैं गोष्ठियों का संचालन करता रहा। कुछ स्थिर हो जाने के बाद संचालन के लिए गोष्ठियों में अनेक लोगों को अवसर दिया गया। हमने वार्षिक उत्सव का संचालन हर बार अलग व्यक्ति को दिया। संचालन महत्वपूर्ण कला है। आज हिंआप में आपको कई सधे हुए संचालक हैं। प्रक्रिया यहाँ ठहरी नहीं अपितु निरंतर है। वार्षिक उत्सव में संस्था का पक्ष, गतिविधियाँ और अन्य जानकारी अधिकांशत: कार्यकारिणी के सदस्य रखते हैं। इससे उनका वक्तृत्व कौशल विकसित हुआ। सक्रिय सदस्यता या दायित्व को 75 वर्ष तक सीमित रखने का काम आज सरकार और सत्तारूढ़ दल के स्तर पर किया जा रहा है। बहुत छोटा मुँह और बहुत बड़ी बात यह है कि किसी साहित्यिक या ऐच्छिक किस्म की गैर लाभदायक संस्था, स्थूल रूप से किसी भी गैरसरकारी संस्था के स्तर पर  देश में इस नियम को आरम्भ करने का  श्रेय हिंआप को है। हमने वर्ष 2012 से ही 75 की आयु में सेवा से निवृत्ति को हमारी नियमावली में स्थान दिया। नये लोग आयेंगे तो नये विचार आयेंगे। नई तकनीक आयेगी। यदि यह विचार नहीं होता तो आज तक हम पोस्टकार्ड ही लिख रहे होते। विभिन्न तरह के कार्यक्रम करते हुए अनेक बार अनेक तरह की स्थितियाँ आती हैं। इनकी बदौलत आप एक टीम की तरह काम करना सीखते हैं। टीम में काम करते हुए अनुभव समृद्ध होता है और आवश्यकता पड़ने पर कब दूसरी और तीसरी पंक्ति एक सोपान आगे आ जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। इससे संस्था के सामने शून्य कभी नहीं आयेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के सदस्य अभिवादन के लिए ‘उबूंटू’ का प्रयोग करते हैं। यह ‘उबूंटू’ क्या है?

संजय भारद्वाज- ‘उबूंटू’ को समझने के लिए एक घटना समझनी होगी। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भरकर पेड़ के नीचे रख दीं। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा सबसे दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरी के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह क्या है तो बच्चों ने उत्तर दिया, ‘उबूंटू।’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू का अर्थ है, ‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ। सामूहिकता का यह अनन्य दर्शन ही हिंआप का दर्शन है।

वीनु जमुआर- वाचन संस्कृति के ह्रास आज सबकी चिंता का विषय है। हिंआप की गोष्ठियों में वाचन को बढ़ावा देने के लिए आपने एक सूत्र दिया है। क्या है वह सूत्र?

संजय भारद्वाज- डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था, “सौ पृष्ठ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।” समस्या है कि हममें से अधिकांश का वाचन बहुत कम है। अत: एक सूत्र देने का विचार मन में उठा। विचार केवल उठा ही नहीं बल्कि उसने वाचन और सृजन के अंतर्सम्बंध को भी परिभाषित किया। सूत्र यों है-‘जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा।’ हम हमारी गोष्ठियों में रचनाकारों से कहते हैं कि आपने जो नया रचा, वह तो सुना जायेगा ही पर उससे पहले बतायें कि नया क्या पढ़ा?

वीनु जमुआर- ढाई दशक की लम्बी यात्रा में ‘क्या खोया, क्या पाया’ का आकलन कैसे करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- पाने के स्तर पर कहूँ तो हिंआप से पाया ही पाया है। अनेक बार देश के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अपरिचित लोगों से बात होती है। …“आप संजय भारद्वाज बोल रहे हैं? …हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज.?”  इसके बाद आगे संवाद होता है। इससे अधिक क्या पाया जा सकता है कि व्यक्ति की पहचान संस्था के नाम से होती है। ‘उबूंटू’ का यह सजीव उदाहरण हैं। खोने के स्तर पर सोचूँ तो हिंआप ने दिया बहुत कुछ,  साथ ही हिंआप ने लिया सब कुछ। संग आने से संघ बनता है, संघ से संगठन। इकाई के तौर पर मेरे निजी सम्बंधों का अनेक लोगों के साथ विकास और विस्तार हुआ। इन निजी सम्बंधों को संगठन से जोड़ा। संगठन के विस्तार से कुछ लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाएँ बलवती हुईं। निर्णय लिए तो मित्र खोये। ये दुख सदा रहेगा पर संस्था व्यक्तिगत आकांक्षा के लिए नहीं अपितु सामूहिक महत्वाकांक्षा के लिए होती है। संस्था के विकास के लिए अध्यक्ष कोे समुचित निर्णय लेने होते हैं। अध्यक्ष होने के नाते  निर्णय लेना अनिवार्य होता है तो मित्र के नाते सम्बंधों की टूटन की वेदना भोगना भी अनिवार्य होता है। मैं दोनों भूमिकाओं का ईमानदारी से वहन करने का प्रयास करता हूँ।

(गांधी जी की सहयोगी रहीं डॉ. शोभना रानाडे और भारत को परम कंप्यूटर देने वाले डॉ विजय भटकर, साहित्यकार डॉ दामोदर खडसे द्वारा हिंदी आंदोलन परिवार के वार्षिक अंक ‘हम लोग’ का विमोचन. इस पत्रिका में प्रतिवर्ष १०० से अधिक रचनाकारों को स्थान दिया जाता है.)

वीनु जमुआर- नये प्रतिमान स्थापित करना हिंदी आदोलन परिवार की विशेषता है। यह विशेषता संस्था की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ और ‘हिंदीभूषण और हिंदीश्री सम्मान’ में भी उभरकर सामने आती है। इसकी भी थोड़ी जानकारी दीजिए।

संजय भारद्वाज- हिंआप की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ संभवत: पहली पत्रिका है जिसमें प्रतिवर्ष औसत 101 रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसमें लब्ध प्रतिष्ठित और नवोदित दोनों रचनाकार होते हैं। इस वर्ष से पत्रिका का ई-संस्करण आने की संभावना है। जहाँ तक पुरस्कारों का प्रश्न है, विसंगति यह है कि हर योग्य पुरस्कृत नहीं होता और हर पुरस्कृत योग्य नहीं होता। हमने इसे सुसंगत करने का प्रयास किया। हिंआप द्वारा दिये जानेवाले सम्मानों के माध्यम से हमने योग्यता और पुरस्कार के बीच प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है।

वीनु जमुआर- हिंआप ने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी साहित्य के अंग के रूप में स्वीकार किया है। इस पर रोशनी डालिए।

संजय भारद्वाज- मैं मानता हूँ कि साहित्य अर्थात ‘स’ हित। समाज का हित ही साहित्य है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकल्पों द्वारा हम समाज के वंचित वर्ग के साथ जुड़ते हैं। अनुभव का विस्तार होता है। एक घटना साझा करता हूँ। हमने दिव्यांग बच्चों का एक कार्यक्रम रखा। इसमें दृष्टि, मति और वाचा दिव्यांग बच्चे थे। दृष्टि दिव्यांग (नेत्रहीन) बच्चे जब नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे तो हमने लोगों से निरंतर तालियाँ बजाने को कहा क्योंकि वे तालियों की आवाज़ सुनकर ही उनको मिल रहे समर्थन का अनुमान लगा सकते हैं। जब वाचा दिव्यांग ( मूक-बधिर) बच्चे आए तो तालियों के बजाय दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्थन का आह्वान किया क्योंकि ये बच्चे देख सकते थे पर सुन नहीं सकते थे। कितना बड़ा अनुभव! हरेक के रोंगटे खड़े हो गये, हर आँख में पानी आ गया।…हिंआप के सदस्य रिमांड होम के बच्चों के बीच हों या वेश्याओं के बच्चों के साथ, फुटपाथ पर समय से पहले वयस्क होते मासूमों से मिलते हों या चोर का लेबल चस्पा कर दिये गये प्लेटफॉर्म पर रहनेवाले बच्चों से, महिलाश्रम में निवासियों से कुशल-मंगल पूछी हो या वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को सिर नवाया हो, कैदियों को अभिव्यक्ति के लिए  मंच प्रदान कर रहे हों या भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कोष में यथासंभव सहयोग कर रहे हों, वसंत पंचमी पर पीतवस्त्रों में माँ सरस्वती का पूजन कर रहे हों या भारतमाता के संरक्षण के लिए दिन-रात सेवा देनेवाले सैनिकों के लिए आयोजन कर रहे हों, पैदल तीर्थयात्रा करनेवालों की सेवा में रत हों या श्रीरामचरितमानस के अखंड पाठ द्वारा वाचन संस्कृति के प्रसार में व्यस्त, हर बार एक नया अनुभव ग्रहण करते हैं, हर बार जीवन की संवेदना से रूबरू होते हैं। साहित्यकार धरती से जुड़ेगा तभी उसका लेखन हरा रहेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- भविष्य की आँख से तत्कालीन वर्तमान देखने के लिए समकालीन वर्तमान दृढ़ करना होगा। वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा के आयातित मॉडेल के चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा तुलनात्मक रूप से कम हैं। हम हिंआप मेें युवाओं को विशेष प्रधानता देना चाहते हैं। हम वर्ष में एक आयोजन नवोदितों के लिए करते आये हैं। इसकी संख्या बढ़ाने और कुछ अन्य युवा उपयोगी साहित्यिक गतिविधियों का विचार है। गत पाँच वर्ष से हम हमारे पटल पर ई-गोष्ठी कर रहे हैं। अब तक 38 ई-गोष्ठियाँ हो चुकीं। हम स्काइप आधारित गोष्ठियों का भी विचार रखते हैं। पुस्तकालय और वाचनालय का प्रकल्प तो है ही। हम दानदाता की तलाश में हैं जो हिंदी पुस्तकों के पुस्तकालय और वाचनालय के लिए स्थान उपलब्ध करा दे।

वीनु जमुआर- अंत में एक व्यक्तिगत प्रश्न। हिंदी आंदोलन के संस्थापक-अध्यक्ष की पहचान  कवि, कहानीकार, लेखक, संपादक, समीक्षक, पत्रकार, सूत्र-संचालक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समाजसेवी के रूप में भी है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्वहन में आपको अपना कौनसा रूप सबसे प्रिय है?

संजय भारद्वाज- मैं सृजनधर्मी हूँ। उपरोक्त सभी विधाएँ या ललितकलाएँ  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सृजन से जु़ड़ी हैं। ये सब अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। मैं योजना बनाकर इनमें से किसी क्षेत्र में विशेषकर सृजन में प्रवेश नहीं कर सकता। अनुभूति अपनी विधा स्वयं चुनती है। वह जब जिस विधा में अभिव्यक्त होना चाहती है, हो लेती है और मेरी कलम उसका माध्यम बन जाती है। हाँ यह कह सकता हूँ कि मेरे लिए मेरा लेखन दंतकथाओं के उस तोते की तरह है जिसमें जादूगर के प्राण बसते थे। इसीलिए मेरा सीधा, सरल परिचय है, ‘लिखता हूँ, सो जीता हूँ।’

 

सम्पर्क- संजय भारद्वाज 

9890122603

Please share your Post !

Shares

जीवन-यात्रा- सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की  वरिष्ठ एवं प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी  भारतीय जी साहित्य ही नहीं  अपितु समाज सेवा में भी लीन हैं. हमें गर्व है कि आप ई-अभिव्यक्ति  की एक सम्माननीय लेखिका हैं.   इस साक्षात्कार  के माध्यम से आपने अपने जीवन  की  महत्वपूर्ण  साहित्यिक उपलब्धियां  एवं साहित्यिक तथा सामाजिक जीवन पर विस्तृत चर्चा की है. आपकी जीवन यात्रा निश्चित ही नवोदितों के लिए प्रेरणास्पद है. सुश्री  निशा नंदिनी  जी  का इस साक्षात्कार के लिए आभार. )

 

☆ जीवन यात्रा – सुश्री निशा नंदिनी भारतीय ☆

 

१. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं शिक्षण ?

जी, मेरा जन्म रामपुर उत्तर प्रदेश में 1962 में हुआ। मेरे पिता रामपुर शुगर मिल में चीफ इंजीनियर थे। विद्या मंदिर गर्ल्स इंटर कॉलेज द्वारा इलाहाबाद बोर्ड से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद रुहेलखंड विश्व विद्यालय बरेली से बी.ए प्रथम श्रेणी में तथा  एम.ए हिन्दी में प्रथम श्रेणी में पास किया। 21 वर्ष की आयु में (बी. एड) के प्रारंभ में ही सन 1984 में ग्वालियर मध्य प्रदेश में विवाह हो गया। लगभग दो वर्ष ग्वालियर के “के.आर जी कॉलेज” में अध्यापन कार्य किया।

चूंकि पति असम के तिनसुकिया शहर में व्यवसाय करते थे, तो नौकरी छोड़कर हम तिनसुकिया आ गए। तिनसुकिया में हमने विभिन्न स्कूल व कॉलेज में लगभग 30 वर्ष अध्यापन किया।

तिनसुकिया में रहते हुए ही समाज शास्त्र व दर्शनशास्त्र में एम. ए. भी किया।  2018 में लेखन की व्यस्तता के चलते विवेकानंद केंद्र विद्यालय से स्वेच्छिक रिटायरमेंट ले लिया। वर्तमान में असम हाइट्स स्कूल में सलाहकार व काउंसलर हैं। हमारे तीन बच्चे हैं। एक बेटा और जुड़ाव बेटियां – रोचक, रुमिता और रुहिता। वर्तमान में तीनों अमेरिका, जर्मनी और बैंकॉक में कार्य कर रहे हैं।

 

२. लेखन में आगमन एवं प्रारंभिक लेखन की प्रेरणा ?

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। कक्षा तीसरी-चौथी से ही पुस्तकों की कविताओं को याद करके विद्यालय में उनकी प्रस्तुति  करना बहुत अच्छा लगता था। जबकि अर्थ समझ में नहीं आता था। इस तरह कविता से लगाव बचपन से ही था। कुछ शब्दों के साथ तुकबंदी और खिलवाड़ चलता रहता था,पर हमने पहली कविता कक्षा दस में घर के आंगन में चारपाई पर बैठ कर लिखी थी। जिसमें प्रकृति चित्रण किया था।

“था चांदनी रात का प्रथम पहर

मैं बैठा था अपने प्रांगण में।”

और इस तरह फिर कविताओं का सिलसिला चल पड़ा। स्कूल की पत्रिका में, अखबार आदि में। हमारे कॉलेज में आशु कविता प्रतियोगिता होती थी उसमें हमारी रचना हमेशा प्रथम  आती थी।

और हाँ, किसने सबसे ज्यादा प्रोत्साहित किया। इसमें अलग-अलग आयु में अलग अलग लोग थे। बचपन में पिता से बहुत प्रोत्साहन मिला। स्कूल कॉलेज में शिक्षकों से और विवाह उपरांत मेरे पति मेरी रचनाओं की आलोचना करते थे। इस तरह लेखन का सिलसिला चल पड़ा।

 

३. पुस्तक प्रकाशन एवं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन 

जी,अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। लगभग 31 पत्रिकाओं में और 13 समाचार पत्रों में लेख, कविता, जीवनी, निबंध आदि छप चुके हैं।

 

४. साहित्य की विधाएँ जिनमें आप अपनी कलम चला रही हैं:

जी, अब तक कविता, कहानी, निबंध, संस्मरण, लेख, जीवनी, बाल उपन्यास आदि पर लेखनी चलाई है और सतत् चल रही है।

 

५. अपने नाम के साथ ‘भारतीय’ उपनाम कब से और क्यों  ?

जी, यह प्रश्न बहुत लोग करते हैं।

मैंने अपने नाम के साथ भारतीय यही कोई पाँचसाल पहले लगाना शुरू किया है। इसका मुख्य कारण तो यह है कि मैं भारत की रहने वाली हूँ इसलिए मैं भारतीय हूँ। हम सबकी एक ही जाति होना चाहिए और वह जाति है ‘भारतीय’। मुझे अपने आपको भारतीय कहने पर बहुत गर्व होता है इसलिए मैंने अपने नाम साथ  भारतीय लगाना प्रारंभ किया। मेरी अधिकतर रचनाएं समाज व देश को समर्पित है।

 

६. पाठ्य पुस्तकों में आपकी किन रचनाओं को स्थान मिला ?

जी हाँ, मेरी पुस्तक “शिशु गीत”असम के पाँच स्कूलों में चल रही है और मेरी एक कविता जिसका शीर्षक है “प्रयत्न” अमरावती विश्व विद्यालय के (बी. कॉम) प्रथम वर्ष में तीन वर्षों से पढ़ाई जा रही है। पुस्तक का नाम “गुँजन” है।

 

७. क्या आपकी कोई पुस्तक अनुवादित होकर भी प्रकाशित हुई है ?

जी हाँ, मेरे बाल उपन्यास “जादूगरनी हलकारा” का असमिया भाषा में अनुवाद हुआ है और दो पुस्तकों पर अनुवाद का कार्य चल रहा है।

 

८.  साहित्य सेवा के लिए आपको अब तक कितने सम्मान मिल चुके हैं ?

जी, हमने गिने नहीं हैं लेकिन हाँ, साहित्य के क्षेत्र में देश-विदेश में अब तक लगभग लगभग पच्चीस सम्मान मिल चुके हैं।

 

९. आप किन-किन संस्थाओं से जुड़ी हुई है ?

जी, मैं  “इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल न्यास”, “शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास”, विवेकानंद केंद्र कन्या कुमारी से , एकल विद्यालय, मारवाणी सम्मेलन समिति, लॉयंस क्लब, हार्ट केयर सोसायटी, महिला आयोग तथा अहिंसा यात्रा आदि संगठनों से जुड़ी हूँ।

 

१०. एक लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशन का महत्व  

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। एक लेखक को पहचान उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही मिलती है। पाठक पुस्तक पढ़ने के बाद ही लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व से रूबरू होता है क्योंकि लेखक का लेखन उसके व्यक्तित्व का आइना होता है। पुस्तकों के माध्यम से लेखक युग युग तक रोशनी फैलाता रहता है।

आज भी जब हम पचास-साठ साल पुराने लेखकों को पढ़ते हैं, तो लेखक का व्यक्तित्व हमारे समाने सजीव हो उठता है। हम उनकी पुस्तकों से लाभांवित होते हैं। वे सब अपनी  पुस्तकों के माध्यम से अमर हैं। इसलिए पुस्तकों को प्रकाशित करवाना अति आवश्यक है।

 

११.  यदि आपको मौंका मिले तो आप साहित्यिक क्षेत्र में क्या बदलाव लाना चाहेंगी ?

जी, जहाँ तक साहित्य में बदलाव की बात है तो “जिसमें हित नहीं, वो साहित्य ही नहीं”। पर आज साहित्य मंच की वस्तु बन कर रह गया है। गुप्त जी तो बहुत पहले ही लिख गए हैं।

केवल मनोरंजन न कवि का

कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

साहित्य कोई हंसी मजाक की वस्तु नहीं है, कोई खिलवाड़ नहीं है। साहित्य समाज का यथार्थ होने के साथ-साथ सुधार भी है।

साहित्यकार के कंधों पर समाज निर्माण की जिम्मेदारी होती है।

हम जैसा परोसेंगे, समाज वैसा ही लेगा इसलिए साहित्यकार को बहुत सोच समझकर अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए।

 

१२. महिला के किस रूप को आप सर्वश्रेष्ठ मानती हैं और क्यों?

जी, यह प्रश्न तो बिल्कुल इसी तरह का है कि भगवान के किस रूप को आप श्रेष्ठ मानते हैं। महिला हर रूप में श्रेष्ठ है। छोटी सी कन्या के रूप में वह आशीर्वाद देती है। बहन के रूप में भाई की रक्षा के लिए तैयार रहती है। बेटी के रूप में पूरे परिवार की रक्षा करती है। पत्नी के रूप पूरे परिवार में खुशियों के दीप जलाती है और एक माँ के रूप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। अब आप ही निश्चित कर लीजिए कि महिला का कौन सा रूप सर्व श्रेष्ठ है?

 

१३. आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी ?

जी, मेरी सफलता का श्रेय मेरे परिवार के साथ-साथ मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेरी कर्मठता को जाता है।

 

१४. नए लेखकों को क्या सुझाव देंगी आप ?

नए लेखकों से मैं यही कहना चाहती हूँ कि इस प्रक्रिया से सतत् जुड़े रहें। लेखन एक तपस्या है। खूब लिखें,अच्छा लिखें और कभी भी इससे संतुष्ट न हो। अच्छे लेखन की भूख कभी भी तृप्त न हो। अपने लेखन से परिवार, समाज, देश व विश्व का कल्याण करें।

 

संपर्क :

निशा नंदिनी भारतीय
पति श्री एल.पी गुप्ता
आर.के.विला, बाँसबाड़ी, हिजीगुड़ी, गली- ज्ञानपीठ स्कूल
तिनसुकिया – 786192 असम
मोबाइल- 9435533394, 9954367780
ई-मेल आईडी : [email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print