श्री जय प्रकाश पाण्डेय
वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।
कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।
खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।
आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. हंसा दीप जी का खुद से खुद का साक्षात्कार का अंतिम भाग। अब तक आप पढ़ चुके हैं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार- साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी, श्री संतराम पांडेय जी और श्री कैलाश मंडलेकर जी के आत्मसाक्षात्कार।
डॉ. हंसा दीप जी के इस आत्मसाक्षात्कार के लिए श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी के विशेष सहयोग के लिए हार्दिक आभार।
– जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)
☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #4-2 – बदलीं सरहदें, बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास ….. डॉ. हंसा दीप ☆
डॉ. हंसा दीप
संक्षिप्त परिचय
जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)
प्रकाशन
- उपन्यास – “बंदमुट्ठी”, “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
- कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।
- संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।
- पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
- भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
- कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
- कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
- सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।
सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।
न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।
संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada
दूरभाष – 001 647 213 1817
☆ भाग -2 – बदलीं सरहदें, बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास …. डॉ हंसा दीप ☆
आत्मसाक्षात्कार का प्रथम भाग >> भाग -1 – किताबें पढ़ने और समझने का जुनून, न पढ़ पाने का बहाना कभी नहीं बनीं…. डॉ. हंसा दीप
वाह मित्र, दो युग का खाका तो तुमने खींच दिया अब मैं उत्साहित हूँ तीसरे युग के बारे में सुनने के लिए।
जरूर सुनो, लंबी कहानी है।
कोई बात नहीं।
यह तीसरा युग आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से युक्त था। विश्व के बहुचर्चित महानगर न्यूयॉर्क की अट्टालिकाओं ने मेरे छोटे से हिन्दीमय व्यक्तित्व को आत्मसात तो किया पर लिखना छूटने लगा। भीड़ में खुद की पहचान बनाना फिर से अ, आ से शुरू करने जैसा था। बच्चे प्रगति कर रहे थे पर स्वयं की दशा विचित्र थी। धार महाविद्यालय की आत्मीय यादें न्यूयॉर्क जैसे महानगर को बहुत छोटा कर देती थीं। बहनों की, भाइयों की, अपने धार के खास मित्रों की यादों में घुलना अच्छा नहीं लगता था। हर फोन के साथ यह कहना कि “सब ठीक है” और उत्तर पाना – “यहाँ भी सब ठीक है” लंबी दूरी के रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाता रहा। बच्चियाँ भी बड़ी हो रही थीं। परदेश में उनकी शादी के सपने देखना भी खौफ़नाक लगता था।
ये बात तो है। तो क्या बहुत तनाव थे?
तनाव नहीं कहूँगी, पर हाँ चिंताएँ थीं।
तो फिर क्या किया तुमने?
बस कुछ सालों के लिए विराम लिया खुद से और उस जीवन से, जो पीछे छोड़ आयी थी। एक ही फोकस था, बच्चों का ध्यान रखना। तब लिखने में ठहराव आया।जब कथानक सोच में कुलबुलाते तो कागज पर लिखकर रख देती। कई अन्य नौकरियों के प्रस्ताव आते पर एक निश्चय बना रहा कि यदि मुझे काम करना है तो हिन्दी ही पढ़ाऊँगी, कोई दूसरी नौकरी नहीं करूँगी। इस प्रण से रास्ते सीमित हो गए पर बंद नहीं हुए। स्वयंसेवी के रूप में न्यूयॉर्क के फ्लशिंग में हिन्दू सेंटर में हिन्दी पढ़ाना शुरू हुआ तो कई लोग जानने लगे। हिन्दी पढ़ाते हुए मैं हिन्दी वाली दीदी कही जाने लगी। सदा मन में यह गर्व था कि भारत से दूर रहकर भी हिन्दी पढ़ाकर मैं मातृभूमि से जुड़ी हूँ। न्यूयॉर्क के क्वीन्स कॉलेज से कई अंग्रेज़ी के डिप्लोमा कोर्स भी किए।
ओहो, तो ये था न्यूयॉर्क शहर का पड़ाव? लेकिन फिर कैनेडा आना कैसे हुआ?
अगला पड़ाव टोरंटो, कैनेडा था जब धर्म जी ने नौकरी छोड़कर यहीं बसने का फैसला लिया। पाँच साल से जो आशा थी धार महाविद्यालय में फिर से जाकर सहायक प्राध्यापक की नौकरी जारी रखने की, अब वह भी खत्म हो गयी थी।
अच्छा अमेरिका से कैनेडा, विदेश में भी एक देश से दूसरे देश में!
हाँ, मित्र। सुनना अच्छा लगता है लेकिन है बहुत कठिन।
फिर से नये देश में, सेटल होना तो कठिन होगा ही। बताती रहो। तुम्हारी कहानी बड़ी रोचक होती जा रही है।
कहानी नहीं, सच्चाई है। एक बार फिर नया शहर था, नया देश था, नए लोग थे और कटे हुए पौधे को नयी जमीन की तलाश थी। भाषा को जीविका बनाने के ध्येय के साथ एक अनुवाद कंपनी खोली , दीपट्रांसइंक.।कंपनी के अध्यक्ष के रूप में अनुवाद का नया काम शुरू किया। कई प्रसिद्ध हॉलीवुड फिल्मों के हिन्दी में अनुवाद किए। इस नए काम से भाषा तो प्रखर हुई ही साथ ही साथ अनुवाद की चुनौतियाँ और इसके महत्व को भी विस्तार से समझा। यह यूनिकोड फांट्स के पहले का समय था जब हिन्दी के लिए तकनीकी समस्याओं से जूझना पड़ रहा था।
अच्छा, यूनिवर्सिटी में हिन्दी शिक्षण की शुरुआत यहाँ कैनेडा में हुई।
हाँ, बस यही समय था जब हिन्दीशिक्षण के लिए रास्तों की खोज जारी थी। तीन-चार सालों की अनवरत कोशिशों के बाद यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर बन कर हिन्दी कक्षाएँ शुरू करना मील का पत्थर था। यॉर्क यूनिवर्सिटी की कक्षा में खड़े होकर भारत के महाविद्यालय की अपनी कक्षा का आभास होना ज़ाहिर-सा था। यहाँ की कक्षा में छात्रों के चेहरे बता रहे थे कि उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। ये भारत की बी.ए., एम.ए. की कक्षाएँ नहीं थीं। अपनी स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर की हिन्दी को बिगिनर्स के स्तर पर लाना था। समय की मांग ने अपने अहिन्दी भाषी छात्रों की सुविधा के लिए कोर्स पैक बनाने के लिए मजबूर किया जिनके द्वारा हिन्दी को अंग्रेज़ी में समझाया जा सके। बिगिनर्स और इंटरमीडिएट कोर्स के लिए लगातार दो साल मेहनत करके पुस्तकें एवं ऑडियो सीडी तैयार कीं।
यहाँ तक आते-आते तो तुम विदेशी कक्षाओं के माहौल में आत्मविश्वास से भरपूर हो गयी होगी?
हाँ, दो साल की समयावधि में एक ही बात पर ध्यान दिया कि हिन्दी को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का सरल से सरल तरीका क्या है।
हम्म, मेहनत तो की तुमने।
हाँ, और फल भी मिला। इन अथक प्रयासों से हिन्दी पढ़ाने का आत्मविश्वास चरम पर था। उसके बाद तो गति और भी तेज़ हो गयी जब यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो से प्रस्ताव आया। यहाँ मेरे मसीहा थे डॉ. चलवा कनगनायकम, यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के सेंट जार्ज कैम्पस के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष। वे उन दिनों साउथ एशियन स्टडीज़ के चेयर थे। उन्होंने मेरे कोर्सपैक की बहुत तारीफ़ की एवं मेरी कक्षाओं में एक ऑडीटर की तरह बैठकर हिन्दी सीखी। उनसे एक दिन परिहास करते हुए मैंने कहा – “सर आप कक्षा में होते हैं तो मेरी रोज ही परीक्षा हो जाती है।” उनका जवाब था – “ऐसी परीक्षाओं से ही इंसान सफल होता है।”
गजब का अनुभव रहा होगा ये कि लैंग्वेजस्टडीज विभाग के अध्यक्ष तुम्हारी कक्षा में बैठकर हिन्दी सीखे।
हाँ, पूरा ध्यान तब अपनी हिन्दी कक्षाओं पर ही था।
तो फिर लेखन की ओर ध्यान कब दिया?
समय मानों उड़ रहा था। 2007 तक थोड़ी राहत मिली तब सोचा इतनी कहानियाँ लिखी हुई हैं। अखबारों व पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी हैं तो क्यों न उन्हें एक संकलन के रूप में लाया जाए। बस उन्हीं दिनों गर्मी की छुट्टियों में अपनी कहानियों का पहला संकलन “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन की योजना बन गयी। सुना था कि विदेश में रहने वाले लेखकों को पुस्तक छपवाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं परन्तु मेरे साथ उल्टा हुआ। मेरठ के डायनामिक पब्लिकेशन के श्री सत्येन्द्र रस्तोगी ने न केवल पुस्तक प्रकाशित की बल्कि रॉयल्टी भी दी। यह सब संयोग था या भाग्य पर मेरे लिए बहुत संतोषजनक था। हर नयी यात्रा में जो पीछे छूटता था उसका दु:ख कम सालने लगा इस उम्मीद में कि कुछ नया मेरा इंतज़ार कर रहा है। जमी-जमायी जड़ें कटती रहीं तो कुछ समय के बाद उन्हें और भी नयी उर्वरक मिट्टी मिलती रही फलने-फूलने के लिए। “चश्मे अपने-अपने” के प्रकाशन से मेरी उड़ान में कुछ पंख और लगे।
पहला कहानी संग्रह आने के बाद लिखना फिर से शुरू हुआ?
नियमित लिखना तो नहीं पर हाँ कथानक एक जगह लिख लिए जाते थे। विस्तार नहीं मिलता था, न ही पत्रिका में भेजने का कोई विचार आता। यदा-कदा रचनाएँ अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ सौरभ, चेतना, साहित्यकुंज आदि में प्रकाशित होती रहीं। उन दिनों मेरी हिन्दी कक्षाएँ चर्चा में थीं। विश्वविद्यालय की प्रचार पुस्तिकाओं में मेरी हिन्दी कक्षा के फोटो थे। सेंट जार्जकैम्पस, मिसीसागाकैम्पस, स्कारबोरोकैम्पस हर जगह हिन्दी कक्षाएँ शुरू हुईं और मेरा काम चौगुना हो गया। हर कैम्पस में कोर्स थे और मैं शहर के सब-वे और बस से सफ़र करते हुए एक कैंपस से दूसरे में जाती थी। यह लिखते हुए बेहद गर्व महसूस होता है कि हर एक सत्र में मैंने हिन्दी के चार-चार कोर्स पढ़ाए।
वाह हंसा, तब तो समय मिलने का सवाल ही नहीं।
बिल्कुल नहीं, घर आते-आते बहुत थक जाती थी। 2008 में छोटी बेटी की शादी की और जल्दी ही नानी बनने की खुशी एक नयी उमंग लेकर आयी।
तो फिर पहला उपन्यास कब और कैसे आया?
बहुत बाद में। बड़ी बेटी की शादी हो गयी। उसके सात साल बाद वर्ष 2017 तक मेरे पास समय ही समय था। अब तक यहाँ की शैक्षणिक प्रणाली से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी। सोच को नए आयाम मिल चुके थे।तब मैंने2005 में अधलिखे उपन्यास “बंद मुट्ठी” के कागजों को टटोला। नब्बे पेज लिखे हुए थे, यानी लगभग आधा काम हो चुका था। मैंने इसे पूरा करने व टोरंटो जैसे महानगर को हिन्दी दुनिया से परिचित करवाने की मन में ठान ली। यहाँ की शिक्षा प्रणाली और छात्रों की जिंदगी पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त सामग्री थी दिमाग़ में। गर्मी की छुट्टियों में इस कथानक को एक दिशा मिली। एक बार लिखना शुरू किया तो पेज दर पेज बढ़ते गए। उपन्यास पूर्ण होने पर कई समस्याएँ थीं सामने लेकिन समाधान भी तुरंत मिले।
तो इसके बाद तुम्हारा सक्रिय लेखन शुरू हुआ।
हाँ,बस इसी समय लेखन को विस्तार देते हुए “बंद मुट्ठी” उपन्यास ने मेरी मुट्ठी को भी पूरी तरह खोल दिया। मैं अपनी कहानियों की विस्तृत दुनिया में कदम-दर-कदम बढ़ते हुए कई जानी-मानी पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर पुन: पाठकों में जगह बनाने की कोशिश करने लगी।
वाह मित्र, मेरे इतने प्रश्नों के जवाब देकर मुझे जो तुष्टि दी है वह विस्मृत नहीं होगी। अब कैसा लगता है तुम्हें?
जीवन के इस पड़ाव तक किसी से कोई शिकायत नहीं है। अगर कोई शिकायत है भी तो वह है अपनी पहचान से, कोई देश अपना नहीं कहता। दुनिया की नज़रों में विदेशी हैं, अपने देश वालों की नज़रों में विदेशी हैं और यहाँ विदेशियों की नज़रों में भी विदेशी ही हैं। हालांकि किसी के विदेशी कहने से कुछ नहीं बदला है। नियम-कानून बदले, सरकारें बदलीं, सब कुछ बदला, मगर मेरे लिए कुछ नहीं बदला। न स्वाद बदला, न मिजाज़। बदलीं सरहदें, बदले देश, नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास जो आज भी वक्त-बेवक्त यादों के झोंकों से उसे हवा देकर आग में तब्दील कर देता है। वह तपिश कागज़ पर शब्दों के संजाल उकेरती है। इस लंबे जीवन के बदलते रास्तों पर पड़ाव तो कई थे लेकिन कारवाँ चलता रहा।
आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)
संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765