डॉ भावना शुक्ल
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज पुनर्पाठ में प्रस्तुत हैं श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता के अंश…।)
(वरिष्ठ साहित्यकार, लघु कथा के क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित करने वाले, लघुकथा के अतिरिक्त कहानियां, बाल साहित्य, लेख, आलोचना तथा अनुवाद के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले, संपादन के क्षेत्र में सिद्धहस्त, जनगाथा, लघुकथा वार्ता ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से संपादन करने वाले, अनेक सम्मानों से सम्मानित, बलराम अग्रवाल जी सौम्य और सहज व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री बलराम जी से लघुकथा के सन्दर्भ में जानने की जिज्ञासा रही इसी सन्दर्भ में श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश…)
भावना शुक्ल : आपके मन में लघुकथा लिखने के अंकुर कैसे फूटे? क्या घर का वातावरण साहित्यिक था?
बलराम अग्रवाल : नही; घर का वातावरण साहित्यिक नहीं था, धार्मिक था। परिवार के पास सिर्फ मकान अपना था। उसके अलावा न अपनी कोई दुकान थी, न खेत, न चौपाया, न नौकरी। पूँजी भी नहीं थी। रोजाना कमाना और खाना। इस हालत ने गरीबी को जैसे स्थायी-भाव बना दिया था। उसके चलते घर में अखबार मँगाने को जरूरत की चीज नहीं, बड़े लोगों का शौक माना जाता था। नौवीं कक्षा में मेरे आने तक मिट्टी के तेल की डिबिया ही घर में उजाला करती रही। बिजली के बल्ब ने 1967 में हमारा घर देखा। ऐसा नहीं था कि अखबार पढ़ने की फुरसत किसी को न रही हो। सुबह-शाम दो-दो, तीन-तीन घंटे रामचरितमानस और गीता का पाठ करने का समय भी पिताजी निकाला ही करते थे। बाबा को आल्हा, स्वांग आदि की किताबें पढ़ने का शौक था। किस्सा तोता मैना, किस्सा सरवर नीर, किस्सा… किस्सा… लोकगाथाओं की कितनी ही किताबें उनके खजाने में थीं, जो 1965-66 में उनके निधन के बाद चोरी-चोरी मैंने ही पढ़ीं। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर से छ्पी किताबों को ही पढ़ने लायक मानते थे। छोटे चाचा जी पढ़ने के लिए पुरानी पत्रिकाएँ अपने किसी न किसी दोस्त के यहाँ से रद्दी के भाव तुलवा लाते थे। वे उन्हें पढ़ते भी थे और अच्छी रचनाओं/वाक्यों को अपनी डायरी में नोट भी करते थे। उनकी बदौलत ही मुझे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सरिता, मुक्ता, नवनीत, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के बहुत-से अंकों को पढ़ने का सौभाग्य बचपन में मिला।
लघुकथा को अंकुरित करने का श्रेय 1972 के दौर में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कात्यायनी’ को जाता है। उसमें छपी लघु आकारीय कथाओं को पढ़कर मैं पहली बार ‘लघुकथा’ शब्द से परिचित हुआ। उन लघु आकारीय कथाओं ने मुझमें रोमांच का संचार किया और यह विश्वास जगाया कि भविष्य में कहानी या कविता की बजाय मैं लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हूँ। ‘कात्यायनी’ के ही जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ छपी।
भावना शुक्ल : लघुकथा लिखने का मानदंड क्या है?
बलराम अग्रवाल : अनेक विद्वानों ने लघुकथा लिखने के अनेक मानदंड स्थापित किये हैं। उदाहरण के लिए, कुछेक ने लघुकथा की शब्द-सीमा निर्धारित कर दी है तो कुछेक ने आकार सीमा। हमने मानदंड निर्धारित करने में विश्वास नहीं किया; बल्कि लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख डालने और कुछ भी छाप देने वालों के लिए कुछ अनुशासन सुझाने की जरूरत अवश्य महसूस की। ‘मानदंड’ शब्द से जिद की गंध आती है, तानाशाही रवैये का भास होता है; ‘अनुशासन’ समय के अनुरूप बदले जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हमने अनुशासित रहते हुए, लघुकथा लेखन को कड़े शास्त्रीय नियमों से मुक्त रखने की पैरवी की है।
भावना शुक्ल : आपकी दृष्टि में लघुकथा की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?
बलराम अग्रवाल : लघुकथा मानव-मूल्यों के संरक्षण, संवर्द्धन है, न ही गणित जैसा निर्धारित सूत्रपरक विषय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की सांवेदनिक स्थितियों से है, जो पल-पल बदलती रह सकती हैं, बदलती रहती हैं। किसी लघुकथा के रूप, स्वरूप, आकार, प्रकृति और प्रभाव के बारे में जो जो आकलन, जो निर्धारण होता है, जरूरी नहीं कि वही निर्धारण दूसरी लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों खरा उतर जाए। इसलिए इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, हो भी नहीं सकती। अपने समय के सरोकारों से जुड़े विषय और प्रस्तुति वैभिन्न्य ही लघुकथा के सौंदर्य और साहित्य में इसकी उपयोगिता को तय करते हैं। इसलिए जाहिर है कि परिभाषाएँ भी तदनुरूप बदल जाती हैं।
भावना शुक्ल : लघुकथा ‘गागर में सागर’ को चरितार्थ करती है; आपका दृष्टिकोण क्या है ?
बलराम अग्रवाल : भावना जी, ‘गागर में सागर’ जैसी बहुत-सी पूर्व-प्रचलित धारणाएँ और मुहावरे रोमांचित ही अधिक करते हैं; सोचने, तर्क करने का मौका वे नहीं देते। ‘गागर में सागर’ समा जाए यानी बहुत कम जगह में कथाकार बहुत बड़ी बात कह जाए, इस अच्छी कारीगरी के लिए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए; लेकिन सागर के जल की उपयोगिता कितनी है, कभी सोचा है? लगभग शून्य। गागर में भरे सागर के जल से न किसी की प्यास बुझ सकती है, न घाव ही धुल सकता है और न अन्य कोई कार्य सध सकता है। ‘लघुकथा’ ठहरा हुआ खारा पानी तो कतई नहीं है। वह अक्षय स्रोत से निकला मीठे जल का झरना है; नदी के रूप में जिसका विस्तार सागर पर्यंत है। इसलिए समकालीन लघुकथा के संदर्भ में, ‘गागर में सागर’ के औचित्य पर, हमारे विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए। छठी, सातवीं, आठवीं कक्षा के निबंधों में रटा दी गयी उपमाओं से मुक्त होकर हमें नयी उपमाएँ तलाश करनी चाहिए।
भावना शुक्ल : आपके दृष्टिकोण से लघुकथा और कहानी में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं; और क्यों?
बलराम अग्रवाल : ‘श्रेष्ठ’ मानने, ‘श्रेष्ठ’ बनाने और तय करने की स्पर्द्धा मनुष्य समाज की सबसे घटिया और घातक वृत्ति है। प्रकृति में अनगिनत किस्म के पेड़ झूमते हैं, अनेक किस्म के फूल खिलते हैं, अनेक किस्म के पंछी उड़ते-चहचहाते हैं। सबका अपना स्वतंत्र सौंदर्य है। वे जैसे भी हैं, स्वतंत्र हैं। सबके अपने-अपने रूप, रस, गंध हैं। सब के सब परस्पर श्रेष्ठ होने की स्पर्द्धा से सर्वथा मुक्त हैं। लघुकथा और कहानी भी कथा-साहित्य की दो स्वतंत्र विधाएँ हैं जिनका अपना-अपना स्वतंत्र सौंदर्य है, अपनी-अपनी स्वतंत्र श्रेष्ठता है। नवांकुरों की जिज्ञासाएँ अल्प शिक्षितों जैसी हो सकती हैं। इन्हें स्पर्द्धा में खड़ा करने की आदत से कम से कम प्रबुद्ध साहित्यिकों को तो अवश्य ही बाज आना चाहिए।
भावना शुक्ल : आप हिंदी में लघुकथा का प्रारंभ कब से मानते हैं और आपकी दृष्टि में पहला लघुकथाकार कौन हैं ?
बलराम अग्रवाल : हिंदी में लघुकथा लेखन कब से शुरू हुआ, यह अभी भी शोध का ही विषय अधिक है। मेरे पिछले लेखों और वक्तव्यों में, सन् 1876 से 1880 के बीच प्रकाशित पुस्तिका ‘परिहासिनी’ के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम का उल्लेख पहले लघुकथाकार के तौर पर हुआ है। इधर, कुछ और भी रचनाएँ देखने में आयी हैं। मसलन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ से एक ऐसी कथा-रचना उद्धृत की है, जो अपने समय की अभिजात्य क्रूरता को पूरी शिद्दत से पेश करती है। यह रचना लघुकथा के प्रचलित मानदंडों पर लगभग खरी उतरती है। मैं समझता हूँ कि जब तक आगामी शोधों में स्थिति स्पष्ट न हो जाए, तब तक इस रचना को भी हिंदी लघुकथा की शुरुआती लघुकथाओं में गिनने की पैरवी की जा सकती है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ की अधिकांश रचनाओं के स्वामी, संपादक और लेखक जुगुल किशोर शुक्ल जी ही थे—अगर यह सिद्ध हो जाता है तो, पहला हिन्दी लघुकथाकार भी उन्हें ही माना जा सकता है।
भावना शुक्ल : आप लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं?
बलराम अग्रवाल : किसी भी रचना-विधा का भविष्य उसके वर्तमान स्वरूप में निहित होता है। लघुकथा के वर्तमान सर्जक अपने समय की अच्छी-बुरी अनुभूतियों को शब्द देने के प्रति जितने सजग, साहसी, निष्कपट, निष्पक्ष, ईमानदार होंगे, उतना ही लघुकथा का भविष्य सुन्दर, सुरक्षित और समाजोपयोगी सिद्ध होगा।
भावना शुक्ल : लघुकथा के प्रारंभिक दौर के 5 और वर्तमान दौर के 5 उन लघुकथाकारों के नाम दीजिए जो आपकी पसंद के हो ?
बलराम अग्रवाल : यह एक मुश्किल सवाल है। सीधे तौर पर नामों को गिनाया जा सकना मुझ जैसे डरपोक के लिए सम्भव नहीं है। हिन्दी में प्रारम्भिक दौर की जो सक्षम लघुकथाएँ हैं, उनमें भारतेंदु की रचनाएँ चुटकुलों आदि के बीच से और प्रेमचंद तथा प्रसाद की रचनाएँ उनकी कहानियों के बीच से छाँट ली गयी हैं। 1916 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ भी अपनी अन्त:प्रकृति में छोटे आकार की कहानी ही है। उसके लघु आकार से असन्तुष्ट होकर बाद में बख्शी जी ने उसे 4-5 पृष्ठों तक फैलाया और ‘झलमला’ नाम से ही कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया। उसी दौर के कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि जिन अन्य कथाकारों के लघुकथा संग्रह सामने आते हैं, उनमें स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष की आग ‘न’ के बराबर है, लगभग नहीं ही है। किसी रचना में कोई सन्दर्भ अगर है भी, तो वह संस्मराणात्मक रेखाचित्र जैसा है, जिसे ‘लघुकथा’ के नाम पर घसीटा भर जा रहा है। कम से कम मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि स्वाधीनता संघर्ष के उन सघन दिनों में भी, जब पूरा देश ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगा रहा था, हमारे लघुकथाकारों ने जुझारुता और संघर्ष से भरी लघुकथाएँ क्यों नहीं दीं। वे ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ ही क्यों बघारते-सिखाते रहे?… और मेरी समझ में इसके दो कारण आते हैं—पहला, सामान्य जीवन में गांधी जी की बुद्ध-आधारित अहिंसा का प्रभाव; और दूसरा, दार्शनिक भावभूमि पर खड़ी खलील जिब्रान की लघुकथाओं का प्रभाव।
लेकिन, ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ के कथ्यों की अधिकता के बावजूद सामाजिकता के एक सिरे पर विष्णु प्रभाकर अपनी जगह बनाते हैं। वे परम्परागत और प्रगतिशील सोच को साथ लेकर चलते हैं। 1947-48 में लेखन में उतरे हरिशंकर परसाई अपने समकालीनों में सबसे अलग ठहरते हैं। उनमें संघर्ष के बीज भी नजर आते हैं और हथियार भी।
अपने समकालीन लघुकथाकारों के बारे में, मेरा मानना है कि हमारी पीढ़ी के कुछ गम्भीर कथाकारों ने लघुकथा को एक सार्थक साहित्यिक दिशा देने की ईमानदार कोशिश की है। लेकिन, उन्होंने अभी कच्चा फर्श ही तैयार किया है, टाइल्स बिछाकर इसे खूबसूरती और मजबूती देने के लिए आगामी पीढ़ी को सामने आना है। लघुकथा में, हमारी पीढ़ी के अनेक लोग गुणात्मक लेखन की बजाय संख्यात्मक लेखन पर जोर देते रहे हैं। लघुकथा संग्रहों और संपादित संकलनों/पत्रिकाओं का, समझ लीजिए कि भूसे का, ढेर लगाते रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाये कि भूसे के ढेर से सुई तलाश करने का शौकीन पाठक गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश काम्बोज को पढ़ता है। साहित्य के पाठक को सुई के लिए भूसे का ढेर नहीं, सुई का ही पैकेट चाहिए। भूसे का ढेर पाठक को परोसने की लेखकीय वृत्ति ने लघुकथा की विधापरक स्वीकार्यता को ठेस पहुँचायी है, उसे दशकों पीछे ठेला है। जिस कच्चे फर्श को तैयार करने की बात मैं पहले कह चुका हूँ, उसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाजारवादी सोच में फँसे नयी पीढ़ी के भी अनेक लेखक ‘संख्यात्मक’ वृद्धि के उनके फार्मूले का अनुसरण कर विधा का अहित कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में… और शायद अनेक प्रबुद्धों की दृष्टि में भी, वास्तविकता यह है कि लघुकथा का विधिवत् अवतरण इन हवाबाजों की वजह से अभी भी प्रतिक्षित है।
भावना शुक्ल : खलील जिब्रान के व्यक्तित्व से आप काफी प्रभावित हैं, क्यों ?
बलराम अग्रवाल : खलील जिब्रान को जब पहली बार पढ़ा, तो लगा—यह आदमी उपदेश नहीं दे रहा, चिंगारी लगा रहा है, मशाल तैयार कर रहा है। कहानियों के अलावा, उन्होंने अधिकतर कथात्मक गद्य कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी में अनुवाद के बाद गद्यकथा बनकर सामने आई हैं, लेकिन उनमें भाषा प्रवाह और सम्प्रेषण काव्य का ही है। खलील जिब्रान के कथ्य, शिल्प और शैली सब की सब प्रभावित करती हैं। उनके कथ्यों में मौलिकता, प्रगतिशीलता और मुक्ति की आकांक्षा है। वे मनुष्य की उन वृत्तियों पर चोट करते हैं जो उसे ‘दास’ और ‘निरीह’ बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं। वे सामन्ती और पूँजीवादी मानसिकता को ही बेनकाब नहीं करते, बौद्धिकता और दार्शनिकता के मुखौटों को भी नोंचते हैं। उनकी खूबी यह है कि वे ‘विचार’ को दार्शनिक मुद्रा में शुष्क ढंग से पेश करने की बजाय, संवाद के रूप में कथात्मक सौंदर्य प्रदान करने की पहल करते हैं, शुष्कता को रसदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए, उनकी यह रचना देखिए—
वह मुझसे बोले–“किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आजादी का सपना देख रहा हो।”
“अगर किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।” मैंने कहा।
भावना शुक्ल : आपने फिल्म में भी संवाद लिखे हैं। ‘कोख’ फिल्म के बाद किसी और फिल्म में भी संवाद लिखे हैं ?
बलराम अग्रवाल : वह मित्रता का आग्रह था। स्वयं उस ओर जाने की कभी कोशिश नहीं की।
भावना शुक्ल : आज के नवयुवा लघुकथाकारों को कोई सुझाव दीजिये जिससे उनका लेखन और पुष्ट हो सके ?
बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह कि वे अपने लेखन की विधा और दिशा निश्चित करें। दूसरे, सम्बन्धित विषय का पहले अध्ययन करें, उस पर मनन करे; जो भी लिखना है, उसके बाद लिखें।
भावना शुक्ला : चलते-चलते, एक लघुकथा की ख्वाहिश पूरी कीजिये जिससे आपकी बेहतरीन लघुकथा से हम सब लाभान्वित हो सकें ………
बलराम अग्रवाल : लघुकथा में अपनी बात को मैं प्रतीक, बिम्ब और कभी-कभी रूपक का प्रयोग करते हुए कहने का पक्षधर हूँ। ऐसी ही लघुकथाओं में से एक… ‘समन्दर:एक प्रेमकथा’ यहाँ पेश है :
समन्दर:एक प्रेमकथा
“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”
दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही—एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।
“लम्बे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”
यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।
बच्ची ने पूछा—“फिर?”
“फिर क्या! बीच में समन्दर होता था—गहरा और काला…!”
“समन्दर!”
“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”
“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”
“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”
“ओ…ऽ… आप भी?”
“…और तेरे दादा भी।”
“फिर?”
“फिर, इधर से मैं समन्दर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समन्दर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”
“सारा समन्दर!! कैसे?”
“कैसे क्या…ऽ… जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”
“मतलब क्या हुआ इसका?”
“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।
सम्पर्क : श्री बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 / मो 8826499115
© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक… प्राची
प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120, नोएडा (यू.पी )- 201307
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈