(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय गीत – समा गया तुम में)
कविता क्या है? एक यक्ष प्रश्न जिसके उत्तर उत्तरदाताओं की संख्या से भी अधिक होते हैं। कविता क्यों है?, कविता कैसे हो? आदि प्रश्नों के साथ भी यही स्थिति है। किसी प्रकाशक से काव्य संग्रह छापने बात कीजिए उत्तर मिलेगा ‘कविता बिकती नहीं’। पाठक कविता पढ़ते नहीं हैं, पढ़ लें तो समझते नहीं हैं, जो समझते हैं वे सराहते नहीं हैं। विचित्र किंतु सत्य यह कि इसके बाद भी कविता ही सर्वाधिक लिखी जाती है। देश और दुनिया की किसी भी भाषा में कविता लिखने और कविता की किताबें छपानेवाले सर्वाधिक हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि तथाकथित प्रकाशकों के घर का चूल्हा कविता ही जलाती है।
दुनिया में लोगों की केवल दो जातियाँ हैं। पहली वह जिसका समय नहीं कटता, दूसरी वह जिसको समय नहीं मिलता। मजेदार बात यह है की कविता का वायरस दोनों को कोरोना-वायरस की तरह पड़कता-जकड़ता है और फिर कभी नहीं छोड़ता।
दरवाजे पर खड़े होकर ‘जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला’ की टेर लगानेवाले की तरह कहें तो ‘जो कविता लिखे उसका भी भला, जो कविता न लिखे उसका भी भला’। कविता है ऐसी बला कि जो कविता पढ़े उसका भी भला, जो कविता न पढ़े उसका भी भला’, ‘जो कविता समझे उसका भी भला, जो कविता न समझे उसका भी भला’।
कविता अबला भी है, सबला भी है और तबला भी है। अबला होकर कविता आँसू बहाती है, सबला होकर सामाजिक क्रांति को जनम देती है और तबला होकर अपनी बात डंके पर चोट की तरह कहती है।
‘कहते हैं जो गरजते हैं वे बरसते नहीं’, कविता इस बात को झुठलाती और नकारती है, वह गरजती भी, बरसती भी है और तरसती-तरसाती भी है।
कविता के सभी लक्षण और गुण कामिनी में भी होते हैं। शायद इसीलिए कि दोनों समान लिंगी हैं। कविता और कामिनी के तेवर किसी के सम्हालते नहीं सम्हलते।
मीतू मिश्रा की कविता भी ऐसी ही है। सदियों से सड़ती-गलती सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं पर पूरी निर्ममता के साथ शब्दाघात करते हुए मीतू चलभाष और अंतर्जाल के इस समय में शब्दों का अपव्यय किए बिना ‘कम लिखे से अधिक समझना’ की भुलाई जा चुकी प्रथा को कविताई में जिंदा रखती है। मीतू की कविताओं के मूल में स्त्री विमर्श है किंतु यह स्त्री विमर्श तथा कथित प्रगति शीलों के अश्लील और दिग्भ्रमित स्त्री विमर्श की तरह न होकर शिक्षा, तर्क और स्वावलंबन पर आधारित सार्थक स्त्री विमर्श है। कुरुक्षेत्र में कृष्ण के शंखनाद की तरह मीतू इस संग्रह के शाब्दिक शिलालेख पर लिखती है-
‘निकल पड़ी है वो सतरंगी ख्वाबों में
भरती रंग…. स्वयं सिद्धा बनने की ओर।’
मीतू यहीं नहीं रुकती, वह समय और समाज को फिर चेताती है-
‘चल पड़ी है वो औरत अकेली
छीनने अपने हिस्से का आसमान।’
लोकोक्ति है ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता’ लेकिन मीतू की यह ‘अकेली औरत’ हिचकती-झिझकती नहीं। यह तेवर इन कविताओं को जिजीविषाजयी बनाता है। अकेली औरत किसी से कुछ अपेक्षा न करे इसलिए कवयित्री उसे झकझोरकर कहती है-
‘हे स्त्री! मौन हो जाओ
नही है कोई जो महसूस कर सके
तुम्हारी अव्यक्त पीड़ा..
लगा सके मरहम, पोंछे आँसू
कभी विद्रोही, कभी चरित्रहीन
कहकर चल देंगे समाज के जागरूक लोग
धीरे धीरे तुम्हें सुलगता छोड़कर।’
समाज के जिन जागरूक लोगों (लुगाइयों समेत) की मनोवृत्ति का संकेत यहाँ है, वे हर देश-काल में रहे हैं। सीता हों या द्रौपदी, राधा हों या मीरां इन जागरूक लोगों ने पूरी एकाग्रता और पुरुषार्थ के साथ उन्हें कठघरे में खड़ा किया, बावजूद इस सच के कि वे कन्या पूजन भी करते रहे और त्रिदेवियों की उपासना भी। दोहरे चेहरे, दोहरे आचरण और दोहरे मूल्यों के पक्षधरों को मीतू बताती है-
‘कण कण में ही नारी है
नारी है तो नर जीवन है
बिन नारी क्या सृष्टि है?’
यह भी कहती है-
‘नारी
ढूँढ ही लेती है
निराशाओं के बीच
एक आशा की डोर
थामे टिमटिमाती लौ आस की
बीता देती है जीवन के अनमोल पल
एक धुँधले सुकून की तलाश में
एक पल जीती ..फिर टूटती अगले ही पल’
इन कविताओं की ‘नारी’ अंत में इन तथाकथित ‘लोगों’ की अक्षमता और असमर्थता को आईना दिखाते हुए ‘साम्राज्य के आधे भाग की जगह केवल पाँच गाँव’ की चाह करती है-
‘मध्यमवर्ग की कोमल स्त्री
जिंदगी की जमापूंजी से
खर्च करना चाहती है
कुछ वक्त अपने लिए अपने ही संग’
इतिहास पाने को दुहराता है, पाँच गाँव चाहने पर ‘सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा’ की गर्वोक्ति करने वाले सत्ताधीशों और उन्हें पोषित करनेवाले नेत्रहीनों को समय ने कुरुक्षेत्र में सबक सिखाया। वर्तमान समाज के ये ‘लोग’ भी यही आचरण कर रहे हैं। ये आँखवाले आँखें होते हुए भी नहीं देख पाते कि-
‘एक चेहरा
ढोता बोझ
कई किरदारों का’
वे महसूस नहीं कर पाते कि-
‘नारी सबको उजियारा दे
खुद अँधियारे में रोती है।’
यह समाज जानकार भी नहीं जानना चाहता कि-
‘अपने ही हाथों
जला लेती हैं
अपना आशियाना
घर फूँक तमाशा देखती हैं
प्रपंच और दुनियादारी में
उलझी किस्सा फरेब
बेचारी औरतें’
इस समाज की आँखें खोलने का एक ही उपाय है कि औरत ‘बेचारी’ न होकर ‘दुधारी’ बने और बता दे-
‘कोमल देह इरादे दृढ़ हैं
हालातों से नही डरे
तोड़ पुराने बंधन देखो
नव समाज की नींव गढ़े।’
औरत के सामने एक ही राह है। उसे समझना और समझाना होगा कि वह खिलौना नहीं खिलाड़ी है, बेचारी नहीं चिंगारी है। मीतू की काव्य नायिका समय की आँखों में आँखें डालकर कहती है-
‘जीत पाओगे नहीं
पौरुष जताकर यूँ कभी
हार जाऊंगी स्वयं ही
प्रीत करके देखलो!
दंभ सारे तोड़कर
निश्छल प्रणय स्वीकार लो,
मैं तुम्हारी परिणीता
अनुगामिनी बन जाऊंगी!’
समाज इन कविताओं के मर्म को धर्म की तरह ग्रहण कर सके तो ही शर्म से बच सकेगा। ये कविताएँ वाग्विलास नहीं हैं। इनमें कसक है, दर्द है, पीड़ा है, आँसू हैं लेकिन बेचारगी नहीं है, असहायता नहीं है, निरीहता नहीं है, यदि है तो संकल्प है, समर्पण है, प्रतिबद्धता है। ये कविताएँ तथाकथित स्त्री विमर्श से भिन्न होकर सार्थक दिशा तलाशती हैं। स्त्री पुरुष को एक दूसरे के पूरक और सहयोगी की तरह बनाना चाहती हैं। तरुण कवयित्री मीतू का प्रौढ़ चिंतन उसे कवियों की भीड़ में ‘आम’ से ‘खास’ बनाता है। उसकी कविता निर्जीव के संजीव होने की परिणति हेतु किया गया सार्थक प्रयास है। इस संग्रह को बहुतों के द्वारा पढ़, समझा और सराहा जाना चाहिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 22
विश्वविभूति महात्मा गांधी — लेखक – डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- विश्वविभूति महात्मा गांधी
विधा- जीवनी
लेखक- डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’
मूर्ति से बाहर के महात्मा गांधी☆ श्री संजय भारद्वाज
महात्मा गांधी का व्यक्तित्व वैश्विक रहा है। अल्बर्ट आइंस्टाइन का कथन ‘आनेवाली पीढ़ियाँ आश्चर्य करेंगी कि हाड़-माँस का चलता-फिरता ऐसा कोई आदमी इस धरती पर हुआ था’ गांधीजी के व्यक्तित्व के चुंबकीय प्रभाव को दर्शाता है। यही कारण है कि लंबे समय से विश्व के चिंतकों, राजनेताओं तथा आंदोलनकारियों को गांधीजी की बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न आयाम आकर्षित करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि महात्मा गांधी के प्रति चिर आकर्षण और भारतीय मानस में बसी श्रद्धा ने डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ को उन पर पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।
डॉ. गुप्त द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विश्वविभूति महात्मा गांधी’ राष्ट्रपिता पर लिखी गई एक और पुस्तक मात्र कतई नहीं है। 248 पृष्ठों की यह पुस्तक एक लघु शोध ग्रंथ की तरह पाठकों के सामने आती है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर उनके जीवन के अंतरंग और अनछुए पहलुओं को लेखक ने पाठकों के सामने रखा है। विषय पर कलम चलाते समय लेखक ने विश्वविभूति के जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों को ज्यों का त्यों ईमानदारी से वर्णित किया है। यह साफ़गोई पुस्तक को लीक से अलग करती है।
वस्तुतः लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था भर नहीं अपितु जीवन शैली होता है। इसकी सार्वभौमिकता लेखन पर भी लागू होती है। प्रस्तुत पुस्तक इस सार्वभौमिकता का उत्तम उदाहरण है। सामान्यतः अपनी विचारधारा के आग्रह में अनेक बार लेखक यह भूल जाता है कि शब्दों का एक छोर लेखक के पास है तो दूसरा पाठक के हाथ है। बाँचे जाने के बाद ही स्थूल रूप से शब्द की यात्रा संपन्न होती है। डॉ. गुप्त ने घटनाओं का वर्णन किया है पर विश्लेषण पाठक की नीर-क्षीर विवेक बुद्धि पर छोड़ दिया है। पुस्तक को इस रूप में भी विशिष्ट माना जाएगा कि शैली और प्रवाह इतने सहज हैं कि वर्णित प्रसंग हर वर्ग के पाठक को बाँधे रखते हैं। अधिक महत्वपूर्ण है कि सभी 40 अध्याय एक चिंतन बिंदु देते हैं। यह चिंतन असंदिग्ध रूप से पाठक की चेतना को झकझोरता है।
गांधी के जीवन पर चर्चा करते हुए लेखक ने उन रसायनों की ओर संकेत किया है जिनके चलते गांंधी ने जीवन को प्रयोगशाला माना। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ और रस्किन की पुस्तक ‘ अन टू दिस लास्ट’ का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ‘न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित’अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कोई नहीं।’ तेरहवीं शती का यूरोपिअन रेनेसाँ मनुष्य की इसी श्रेष्ठता का तत्कालीन संस्करण था। रेनेसाँ का शब्दिक अर्थ है-‘अपना राज या स्वराज’। यहाँ स्वराज का अर्थ शासन व्यवस्था पर नहीं अपितु मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है। ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की सनातन भारतीय अवधारणा कोे रस्किन ने ‘समाज के अंतिम आदमी तक पहुँचना’ निरूपित किया। ‘अंत्योदय’ या ‘ अन टू दिस लास्ट’ का विस्तार कर गांधीजी ने इसका नामकरण ‘सर्वोदय’ किया। उनके सर्वोदय का उद्देश्य था-सर्व का उदय, अधिक से अधिक का नहीं और मात्र आख़िरी व्यक्ति का भी नहीं।
सर्वोदय की अवधारणा को स्वतंत्र भारत के साथ जोड़ते हुए ‘हरिजन’ पत्रिका में उन्होंने लिखा,‘ भारत की ऐसी तस्वीर मेरे मन में है जो प्रगति के रास्ते पर अपनी प्रतिभा के अनुकूल दिशा पकड़कर लगातार आगे बढ़े। भारत की तस्वीर बिलकुल ऐसी नहीं है कि वह पश्चिमी देशों की मरणासन्न सभ्यता के तीसरे दर्ज़े की नकल जान पड़े। अगर मेरा सपना पूरा होता है तो भारत के सात लाख गाँवों में से हर गाँव में एक जीवंत गणतंत्र होगा। एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी अनपढ़ नहीं होगा, जहाँ कोई भी काम के अभाव में खाली हाथ नहीं बैठेगा, जहाँ सबके पास रोज़ की सेहतमंद रोटी, हवादार मकान और तन ढकने के लिए ज़रूरतभर कपड़ा होगा।’
रमेश गुप्त ने गांधी दर्शन के सूक्ष्म तंतुओं को छुआ है। भारतीय समाज को गांधीजी की वास्तविक देन का एक उल्लेख कुछ यों है,‘ गांधीजी धर्मांधता, धन-शक्ति और बाज़ारवाद को समाप्त करना चाहते थे। कहा जाता था कि गांधीजी ने तीन ‘ध’ समाप्त किए- धर्म, धंधा और धन। इनके बदले तीन ‘झ’ दिए- झंडा, झाड़ू और झोली।’
आत्मविश्लेषण और सत्य का स्वीकार गांधीजी के निजी जीवन की विशेषता रही। इस विशेषता ने गांधी को मानव से महामानव बनाया। यों भी कोई महामानव के रूप में कोख में नहीं आता। इसके लिए रत्नाकर से वाल्मीकि होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में अपने जीवन की अधिकांश गलतियाँ स्वीकार की हैं। जॉन एस. होइलैंड से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,‘ पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेकहीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ़ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। इस तरह अहिंसा की शिक्षा देनेवाली वे मेरी पहली गुरु बनीं।’ आरंभिक समय में कस्तूरबा पर शासन करने की इच्छा रखनेवाले गांधी जीवन के उत्तरार्द्ध में उनसे कैसे डरने लगे थे, इसका भी वर्णन लेखक ने एक मनोरंजक प्रसंग में किया है।
जैसाकि संदर्भ आ चुका है, गांधीजी गीता को जीवन के तत्वज्ञान को समझने के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते थे। गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोकों ‘ध्यायतो विषयान्यंसः संगस्तेषूपजायते/संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते/क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः/स्मृतिभ्रंशाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशत्प्रणश्यति’ में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा। श्लोकों का भावार्थ है कि विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उपजती है, आसक्ति से कामना होती है और कामना से क्रोध उपजता है, क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति भ्रांत हो जाती है, स्मृति भ्रांत हो जाने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया, वह मृतक तुल्य है।
डॉ. गुप्त लिखते हैं कि इस भावार्थ ने मोहनदास के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन ला दिया। उनकी यात्रा मृत्यु से जीवन की ओर मुड़ गई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की खर्चीली जीवनशैली से प्रभावित व्यक्तित्व मितव्ययी बन गया। वह अपने कपड़े खुद धोने लगा। अपने बाल मशीन से खुद काटने लगा। माँसाहार की ओर आकृष्ट होनेवाले ने शाकाहार क्लब बनाया। वकालत में जिन मुकदमों को लड़ते रहने से मोटी रकम मिल सकती थी, उनमें भी दोनों पक्षों के बीच सुलह करवाई। पत्नी को भोग की वस्तुभर माननेवाले ने दाई बनकर अपनी पत्नी का प्रसव भी खुद कराया। असंयमित जीवन जीनेवाला मोहनदास मन, वचन, काया से इंद्रियों पर संयम कर पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन जीने लगा। चर्चिल के शब्दों में वह ‘नंगा फकीर’ हो गया।
लेखक ने गांधीजी के जीवन के ‘ग्रे शेडस्’ पर कलम चलाते समय भाषाई संयम, संतुलन और मानुषी सजगता को बनाए रखा है। इतिहास साक्षी है कि गांधीजी जैसा राजनीतिक चक्रवर्ती अपने घर की देहरी पर परास्त हो गया। अन्यान्य कारणों से बच्चों को उच्च शिक्षा ना दिला पाना, बड़े बेटे हरिलाल का पिता से विद्रोह कर धर्म परिवर्तन कर लेना, शराबी होकर दर-दर भटकना और गुमनाम मौत मरना, राष्ट्रपिता की पिता के रूप में असफलता को रेखांकित करता है।
विरोधाभास देखिए कि अपने घर का असफल स्रष्टा सार्वजनिक जीवन में उन ऊँचाइयों पर पहुँचा कि युगस्रष्टा कहलाया। इंग्लैंड में बैरिस्टरी, द. अफ्रीका की यात्रा में हुआ अपमान, भारत में वकालत में मिली असफलता, पुनः अफ्रीका यात्रा, वहाँ सशक्त राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने जैसे प्रसंगों की पुस्तक में समुचित चर्चा की गई है। दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन को आरंभ में उन्होंने ‘पैसिव रेजिस्टेंस’ (निष्क्रिय प्रतिरोध) कहा। यही रेजिस्टेंस आगे चलकर सक्रिय होता गया और सदाग्रह, शुभाग्रह से होता हुआ सत्याग्रह के महामंत्र के रूप में सामने आया।
सत्याग्रह की इस शक्ति ने उनके शत्रुओं को भी बिना युद्ध के अपनी हार मानने के लिए विवश कर दिया। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें जेल में डालने का आदेश देनेवाले जन. स्मट्स को गांधीजी ने अपने हाथों से चप्पलों की एक जोड़ी बनाकर भेंट की। वर्षों बाद गांधीजी के 70 वें जन्मदिन पर मित्रता के प्रतीक रूप में वही जोड़ी उन्हें लौटाते हुए जन. स्मट्स ने लिखा, ‘बहुत-सी गर्मियों में ये चप्पलें मैंने पहनी, हालांकि मैं महसूस करता हूँ कि मैं ऐसे महापुरुषों के जूतों में खड़े होने के योग्य भी नहीं हूँ।’
गांधी दर्शन की सबसे बड़ी शक्ति मनुष्य को इकाई के रूप में पहचानना और हर इकाई को परिष्कृत कर परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना है। लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र वह अवस्था नहीं है जिसमें लोग भीड़ की तरह व्यवहार करें।’ उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलन करनेवाला हर व्यक्ति गांधी हो। यही कारण था कि गांधी बनने की पाठशाला साबरमती आश्रम में एकादश व्रत- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता निवारण, शरीर श्रम, सर्वधर्म समभाव और स्वदेशी अनिवार्य थे।
सत्य को किसीका डर नहीं होता। हज़ारों की भीड़ में भी वह सीना चौड़ा करके चलता है। सत्य के पुजारी की अंतिम यात्रा में बेटे देवदास के आग्रह पर उनका सीना उघड़ा ही रखा गया। सत्य के सिपाही के सीने पर लगी गोलियों के निशान बता रहे थे कि गांधी की हत्या हो गई है किंतु शवयात्रा में सहभागी लाखों गांधी साक्षी दे रहे थे कि गांधी अमर है।
गांधी की अमरता ने ही उन्हें ‘महात्मा’ की पदवी दी और विश्वविभूति बनाया। विश्वविभूति गांधी को मानवेतर मान लेना, मानव के रूप में उनकी मानव सेवा को कम आँकना होगा। इस सत्य को अपनी भूमिका में अधोरेखित करते हुए लेखक ने राष्ट्रपिता की पौत्री सुमित्रा कुलकर्णी के कथन को उद्धृत किया है। बकौल सुमित्रा कुलकर्णी, “जिस क्षण हम गांधी को महज मूर्ति मान लेते हैं, उसी क्षण हम उन्हें पत्थर का बनाकर भूल जाते हैं। जब हम उन्हें सिर्फ मानव मानेंगे तो उन्हें पत्थर की मूर्ति में सिमटकर नहीं रहना पड़ेगा।” प्रस्तुत पुस्तक गांधी को पत्थर की मूर्ति से बाहर लाकर मनुष्य के रूप में देखने-पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
शिक्षा – एम.एम., एम.एड.(स्वर्ण पदक), पीएच.डी.( मनोविज्ञान )
संप्रति –
पूर्व व्याख्याता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
मनोवैज्ञानिक सलाहकार,
साहित्य एवं समाज सेवी, देहदानी
अनुवादक, समीक्षक, सम्पादक
अनेक मंचों की संरक्षक, निदेशक, मार्गदर्शक
प्रकाशन / प्रसारण –
12 पुस्तकें प्रकाशित, जिनमें चार ई-ऑडियो बुक अमेज़न पर उपलब्ध(मेरी अपनी ही आवाज़ में )
अनेकों साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित, देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में (सविशेष हरिगंधा, राष्ट्र वीणा-गुजरात, सदीनामा, गर्भनाल, सेतु, ऑस्ट्रियांचल, नारी अस्मिता, व्यंग्यलोक में लेख-आलेख, समीक्षा आदि अनवरत प्रकाशित।
दैनिक पत्र हरियाणा प्रदीप के स्थायी स्तम्भ में देश भक्ति भाव जागरण संदेश मुक्तक रूप में, सतत कई वर्षों से प्रकाशित। *अनेकों प्रतिष्ठित संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित।
साझा संकलनों में रचनाएँ, प्रकाशित।
चार साझा संकलन जिन्हें गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान प्राप्त, लघु योगदान अपना भी।
नाटक गुजरात राज्य, प्रथम पुरस्कार प्राप्त, दूर दर्शन पर गुजराती अनुवाद के साथ प्रसारित।
सम्मान और पद –
राय व्योम फ़ाउण्डेशन दिल्ली द्वारा “ लाइफ़ टाइम एचीवमेंट अवार्ड, 2024”
”संस्थापक अवार्ड “अंतर्राष्ट्रीय महिला काव्य मंच द्वारा।
विदेश में मकाम की प्रथम इकाई का शुभारम्भ, सैन डिएगो, कैलीफॉर्निया, अमेरिका में, मेरे द्वारा किया गया। आज विश्व के 42 देशों में 83 इकाइयाँ सक्रियता से कार्यरत हैं। प्रतिदिन विस्तार हो रहा है। हिन्दी भाषा के प्रचार -प्रसार एवं विस्तार हेतु कृत संकल्प।
साहित्य सेवा के लिए मकाम की विदेश संरक्षक पद पर पदासीन।
संत साहित्य अकादमी और दधीचि देहदान समिति की कार्यकारिणी सदस्य।
साहित्य सेवा द्वारा देश की सेवा हेतु कृत संकल्प।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित पुस्तक “जलनाद” पर चर्चा।
☆ “जलनाद” – लेखक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चा – डॉ दुर्गा सिन्हा ‘उदार’ ☆
(विश्व वाणी संस्थान, जबलपुर ने श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव को उनके नाटक जलनाद पर राष्ट्रीय अलंकरण से सम्मानित किया गया है।)
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – जलनाद (नाटक)
लेखक – विवेक रंजन श्रीवास्तव
समीक्षा – डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार ‘
☆ अध्यात्म और यथार्थ का संगम है जलनाद का अंतर्नाद ☆ चर्चा – डॉ दुर्गा सिन्हा ‘उदार’ ☆
सागर की उत्ताल तरंगों से सुशोभित आकर्षक आवरण मुखपृष्ठ अंतर्मन के कोलाहल का आस्वाद करा रहा है। बहुत ही खूबसूरत रंग संयोजन है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, पाठकों को आकर्षित करने में। पढ़ने का मन सभी का हुआ होगा। जो भी देखेगा ज़रूर पढ़ेगा। बहुत-बहुत बधाई। शीर्षक भी स्वतः उद्घोष कर रहा है कि ‘तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि मैं ही बनूँगा। ’सारे वाद-विवाद, संवाद और नाद, आज इसी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। “जलनाद” इसी स्वर से न जाने कितने मधुर संगीत उपजे हैं। जल जीवन का पर्याय। जल अमृत है। जल की आवाज़ मधुर व जीवनदायिनी है। सभ्यता-संस्कृति का विकास भी जल के किनारे ही हुआ। जल धारा जीवन का संकेत करती है। ऊपर से शांत अंदर कितना कोलाहल समेटे हुए है, यह तो अन्तर्मन में झांक कर ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। सागर के उस शोर को किसने सुना, किसने जानना चाहा। आवरण पृष्ट अपनी ओर आकर्षित कर यही संकेत कर रहा है कि मेरी अहमियत को जानो -पहचानो, समझो और स्वीकारो। वर्तमान की स्थिति तो और भी संकट भरी है। जलसंकट का संकेत जीवन को आगाह कर रहा है। सचेत कर रहा है। आज हम सभी को इस स्वर को सुनने की आवश्यकता है। प्रकृति के इस अनमोल ख़ज़ाने को अपने लिए ही सुरक्षित व संरक्षित करने की ज़रूरत है। गंगा प्रदूषित, पूजा कैसे करें ? नल है, पर पानी रहित, शो की वस्तु, कब तक सँभालें ?किस राज्य ने कितना पानी दिया और क्यों नहीं दे रहा ?सरकार और सत्ता ख़तरे में। कारण केवल जल। जल है तो जीवन है। जल बिना जीवन ही ख़तरे में आ गया है।
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
बारह खण्डों में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व सभ्यता विकास से प्रारम्भ होती जल की ध्वनि, संकट की घड़ी का संकेत करती अपनी अहमियत दर्शाती, अपनी कोलाहल पूर्ण ध्वनि से आगाह कर रही है। शिकायत के साथ संरक्षण, संवर्धन और संचयन के लिए गुहार भी लगा रही है।
सागर मंथन की घटना और प्राप्त होने वाले रत्नों के साथ विष का उल्लेख, विषाक्त होता परिवेश, समाज और इंसान, सभी का बहुत सटीक चित्रण। प्रारम्भिक जल गीत भी जल का संदेश बखूबी स्पष्ट कर रहा है। जल का होना न होना, कम या अधिक होना, सभी कुछ प्रभाव डालता है। अभाव या कमी, जीवन संकट उत्पन्न करता है तो जल की अधिकता विनाश का कारण बनती है। अति वृष्टि -अल्प वृष्टि दोनों ही नुक़सानदेह है। प्रकृति के प्रतिकूल सारे कार्य प्रत्यक्षतःउपयोगी भले ही हों किन्तु जल देवता को नाख़ुश कर मानव जाति का भला हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता। बॉंध बना कर प्रवाह रोकना, नहर निकाल दिशा में परिवर्तन, जल से विद्युत उत्पादन, अंधाधुंध जल दोहन, मानव, विकास के नाम पर और स्वार्थ हित न जाने कितने तरीक़े अपनाता रहा और अपना नुक़सान भी करता रहा, जो आने वाले दिनों में भयंकर परिणाम लाने की आगाही कर रहे हैं। पीने का शुद्ध जल बोतल में बंद हो कर विषैला हो रहा है और जन मानस के लिए उपलब्धता में भी कमी आई है।
जल स्तर दिनों दिन तेज़ी से गिरता जा रहा है। जल की शुद्धता जीवन के लिए ख़तरा बन गई है।
वर्तमान समय जल संरक्षण की माँग कर रहा है। इस दिशा में प्रत्येक व्यक्ति, समाज, राज्य और राष्ट्र को ध्यान देने की ज़रूरत है। इसी समस्या को ले कर विवेक जी ने नाटक के माध्यम से एक महत्वपूर्ण प्रश्न को सब के सामने रखने व समाधान की दिशा बताने का प्रयास किया है। कोई भी साहित्य दृश्य-श्राव्य और पठनीय तीनों ही माद्दा रखता हो तो समाज में उसकी क़ीमत बढ़ जाती है। वह स्वतः संग्रहणीय बन जाता है। केवल पढ़ कर मन पर जितना असर पड़ता है उससे कई गुना ज़्यादा नाटक के माध्यम से मंच पर देख व सुन कर पड़ता है। शब्द, वाक्य, परिस्थितियाँ, वस्तुस्थिति का जीता जागता उदाहरण प्रस्तुत करती हैं, यही कारण है कि नाटकों का प्रभाव तेज़ी से मन पर पड़ता है और दीर्घकालिक रहता है।
अध्यात्म से जोड़ते हुए, रामचरितमानस में तुलसी दास जी द्वारा पंचतत्त्वों से रचित मानव शरीर में जल का महत्व बताते हुए, महाभारत काल की घटनाओं का समावेश, साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं का समुचित उल्लेख कर सभी अंकों का चित्रांकन विलक्षण है। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संगम है यह नाटक। रिफ़्रैक्शन, परावर्तन, इंद्रधनुष के रंग, रंगों के चित्रण हेतु नृत्यात्मक प्रस्तुति की परिकल्पना सभी कुछ विवेक जी की विवेकशीलता का परिचय दे रहे हैं। जीवन के प्रारम्भ का अद्भुत दृश्य। कामायनी का प्रसंग, कथन को सार्थकता प्रदान कर रहा है। वर्तमान को वर्षों पूर्व के गहरे अतीत से जोड़ना अपने आप में एक विलक्षण दृष्टि का परिचायक है।
समुद्र मंथन की पौराणिक गाथा। कपोल कल्पना को वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक आधार दे कर बड़ी ही कुशलता से प्रस्तुत किया है ताकि हर कोई इसे सहजता से स्वीकार कर ले। देवता-दानव, मोहिनी और विष्णु, मानव के बाहर नहीं भीतर ही हैं। बहुत ख़ूब !
विवेक जी ने हर विषय पर अपनी पूरी पकड़ को सिद्ध कर दिया है। रोचक व ज्ञानवर्धक और संप्रेषण की सारी व्यवस्था, विस्तार से बचा कर बहुत आसान बना दिया है नाटक को, मंच पर प्रस्तुत करने के लिए। न तो अतीत के आस्था और विश्वास को मिटने दिया है न ही कपोल कल्पना कह कर नकारने का अवकाश दिया है, वरन् वैज्ञानिकता के आधार पर सिद्ध कर स्वीकार्य बना दिया है ताकि सब यथावत् अस्तित्व में रहे। श्लाघनीय प्रयास। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत संयोग। कालिया नाग को नाथने का दृश्य जल प्रदूषण की विभीषिका का संकेत है। सँभलने की आवश्यकता है।
वाह ! नर्मदा व सोन नदी की पौराणिक गाथा को बड़ी ही वैज्ञानिकता से चित्रित किया है। वर्णन इतना प्रभावशाली है कि मंच पर दृश्य उभर कर सामने उपस्थित से जान पड़ते हैं। उद्गम अमरकंटक के बीहड़ों में। आज तो वहाँ भी वह नीरव प्राकृतिक सुन्दरता नहीं रह गई है। मनुष्य ने कृत्रिमता इतनी लाद दी है कि कुछ भी प्राकृतिक शेष नहीं रह गया है। कंकरीट के जंगल वहाँ भी उगने लगे हैं। वहाँ की नीरव शांति और मधुर ध्वनि, जल का मीठा राग, कानों में रस नहीं घोलते। यही विकास है शायद, कि सब अब बनावटी हो जाए और आत्मीयता समाप्त हो जाए।
वरुण देवता के विश्राम में विघ्न
असमय, कुसमय का विधान और न मानने से होने वाले नुक़सान का बड़ा ही तर्कसंगत वर्णन। रोचक घटना द्वारा महत्वपूर्ण संदेश।
मंचन आसान नही। विवेक जी की परिकल्पना भले ही आसान है।
हालाँकि पौराणिक घटनाओं को परस्पर जोड़ने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक आधार अपने आप में विवेक जी की अद्भुत प्रतिभा की ओर इंगित करता है। “महाभारत का युद्ध जल के अपव्यय के तहत ही हुआ। “
न इस तरह की अनोखी रचना होती न उपहास होता, न ही दुर्योधन अपमान का बदला लेता। बहुत ख़ूब !आज कृत्रिम झरने दिखावे के लिए जल का दुरूपयोग करते हैं और पानी बोतलों में बंद हो कर बिकने पर मजबूर है। संकट युद्ध की विभीषिका का आगाह कर रहा है।
कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीनतम परम्परा का निर्वाह, आक्रांताओं ने भी बदलने का साहस नहीं किया। जल की सामाजिक महत्ता को ही प्रतिपादित करते हैं ये कुम्भ के मेले।
धार्मिक पर्यटन, राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान और अनवरत चल रहे कुम्भ मेलों की प्रासंगिकता एवं अनिवार्यता पर प्रकाश डाला है कि कैसे ये मानसिक व शारीरिक शुचिता के लिए ज़रूरी हैं। यहाँ प्रवचन, दीक्षा ग्रहण आयोजन आदि सम्पन्न होते हैं। आध्यात्मिक उन्नयन के आधार हैं ये सभी मेले और आध्यात्मिक टूरिज़्म के आयोजन।
कालिदास के मेघदूत का उल्लेख, जल का मानवी करण, विलक्षण है। भारतीय परिकल्पना, ” कि कण-कण में भगवान है। ”जड़ भी चेतन है। पशु-पक्षी, नदियां, पत्थर भी पूजे जाते हैं। मेघों के द्वारा संदेसा भेजना मेघों को संदेश वाहक बनाना, मेघों को सजीव समझना है। यही विशेषता है भारत की। विवेक जी ने चुनिंदे प्रसंगों के माध्यम से जल की महत्ता को शास्त्रीय नृत्य-संगीत द्वारा रोचक बना कर प्रस्तुत करने व संदेश देने का विलक्षण प्रयास किया है।
मांडू का जहाज़ महल, वाटर हार्वेस्टिंग, पानी की बचत संरक्षण व संवर्धन के उपायों का ऐतिहासिक प्रबंधन की ओर संकेत करता है। पानी का अभाव न था फिर भी दुरुपयोग न था। व्यर्थ पानी बर्बाद नहीं करते थे। क्या पूर्वज भविष्य द्रष्टा थे ? शायद हाँ। तभी तो पुराने महलों व पुरानी इमारतों में घर में ये सारी व्यवस्थाएँ उपलब्ध थीं।
आज हम जानते-बूझते, देखते और महसूस करते हुए भी समझ नहीं पा रहे हैं। कल कितना भयंकर होने वाला है अभी से पता चल रहा है। बोतलों में बंद मंहगा पानी आगाह कर रहा है लेकिन हम फिर भी नहीं देखना चाहते।
मांडू गई तो हूँ लेकिन तब जल संकट ऐसा न था कि महल को इस दृष्टि से भी देखने का प्रयास किया जाता। आज हर किसी को इस नज़रिए से देखना और अमल में लाने का विचार करना ज़रूरी बन गया है।
इतिहास, भूगोल, समाज शास्त्र अध्यात्म और विज्ञान का अनूठा संगम है “ जलनाद “ विवेक जी की परिकल्पना अद्भुत है और प्रस्तुति का स्वरूप अद्वितीय – अप्रतिम।
नदी की मनोव्यथा
नदी चीख कर कहती है मेरी दुर्दशा के ज़िम्मेदार मानव तुम ही हो और अब तुम ही मेरा उद्धार करोगे। नदियों ने हमें जल दिया, जीवन दिया, सभ्यता दी, संस्कृति दी, प्राण भरे, अब हमारी बारी है समझने की। अपने उत्तरदायित्व को समझें और निर्वाह करें। नदी स्वयं अपनी व्यथा – कथा, क्षति, असमर्थता का प्रलाप कर रही है और अपनी सुरक्षा के लिए गुहार लगा रही है, चेतावनी देते हुए।
‘सौ साल पहले हमें जल से प्यार था। ’ जी हाँ हम खेल भी यही खेलते थे और गीत भी यही गाते थे। ”गोल-गोल रानी इत्ता-इत्ता पानी “ और “ मछली जल की रानी है। ” शायद यह भविष्य का संकेत था कि जब जल कम रह जाएगा या सिर से ऊपर हो जाएगा तो जीवन नहीं बच पाएगा।
गंगा जल और आब-ए-ज़मज़म और बपतिस्मा की ख़ासियत भी विवेक जी ने बखूबी याद रखा है। सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी का गहराई से अध्ययन कर, नाटक को सशक्त बनाने के लिए आवश्यकतानुसार बखूबी उपयोग किया है विवेक जी ने। जल मानव जीवन की औषधि है। प्राणी जगत के जीवन का आधार है तो हर धर्म में इसकी अहमियत और पवित्रता की चर्चा समान रूप से होनी ही है। धार्मिक आधार पर मौलवियों -पंडितों, गुरुजनों के माध्यम से सारगर्भित जानकारी देते हुए जल संचयन की ताकीद करता “ जलनाद “ नाटक, सराहनीय।
जल तरंग, जल वाद्य यंत्र जिसमें निर्धारित आकार के बर्तनों में निश्चित मात्रा में जल भर कर मधुर ध्वनि प्राप्त की जाती है।
जल तरंग मात्र एक विशिष्ट वाद्य यंत्र नहीं, पंचतत्त्वों का संगम है।
जिसमें जल तो है ही, कटोरी – भूमि, जल का तापमान अग्नि, वातावरण यानि आकाश और वायु। पाँचों तत्त्व मिल कर निर्मित है। ऋग्वेद की ऋचाओं द्वारा व उनके भावार्थ को गीत के माध्यम से प्रस्तुत कर नाटक को एक महान ग्रंथ के रूप में ला खड़ा किया है, विवेक जी ने। इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
वस्तुतः यह महज़ एक नाटक नहीं विलक्षण ग्रंथ है, पठनीय, संग्रहणीय और मंचनीय।
हे जल के देवता !
यही ख़ासियत है भारत की कि, जल भी देवता है। जिससे हमें जीवन मिले वह देवतुल्य हो जाता है। ऋग्वेद की ऋचाओं का लक्ष्यभेदी हिन्दी रूपांतरण भी प्रभावशाली।
विवेक जी के ज्ञान-विज्ञान और अध्यात्म के मिश्रण को नमन जल रसायन की विस्तृत समीक्षा, व्याख्या एवं स्वरूप का आद्योपांत रोचक वर्णन सराहनीय। भाषा-शैली, सुरुचि पूर्ण एवं कथ्यानुरूप। विवेक जी की इस विलक्षण कृति की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। कम से कम मैंने तो यही अनुभव किया है।
स्त्री-पुरुष स्वर में सूत्रधार की भूमिका नाटक में जान डाल रही है। बहुत ही सलीके से सभी परिस्थितियों को उजागर करते हुए नाटक के प्रति जिज्ञासा, उत्सुकता जगाती जानकारी दर्शक को बांधे रखने में पूर्णतः समर्थ है। एक अलग ही अनोखापन है। विवेक जी की परिकल्पना को बारम्बार बधाई।
मुझे यह नाटक ख़ास पसंद क्यों आया या मैं विशेष रूप से इधर आकर्षित क्यों हुई, कारण यह है कि मैंने भी एक नाटक संग्रह ( “कौन सीखे-कौन सिखाए “) प्रकाशित किया है, जिसमें चुने हुए नाटक, राज्य स्तर पर पुरस्कृत एवं दूरदर्शन व आकाशवाणी से प्रसारित हैं। मैंने भी संसाधन संरक्षण, आपदा प्रबंधन, साम्प्रदायिकता के कुप्रभाव से ख़ुद को परे रखने एवं साक्षरता के महत्व से लगते नाटकों की रचना की, जिनकी मंचीय प्रस्तुति पाठकों व दर्शकों को बहुत पसंद आयी। खूब सराहना मिली। विवेक जी का यह नाटक अद्भुत है। सत्य-तथ्य, गल्प और पैराणिकता की वैज्ञानिक आधारशिला से समृद्ध, भारतीय सभ्यता-संस्कृति, आस्था व विश्वास को ठोस बनाती यह कृति न केवल पठनीय है वरन् मैं तो कहती हूँ कि संग्रहणीय है। सभी बुद्धिजीवियों की लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए। साथ ही इसका जितना अधिक से अधिक मंचन किया जा सके उतना श्रेयस्कर है।
विवेक जी से अनुमति ले कर, यदि उनकी स्वीकृति होगी तो मैं भी जिन मंचों से कुछ थोड़ा नाता रखती हूँ उन्हें आपकी पुस्तक लेने और मंचन करने के लिए अनुरोध करूँगी। औपचारिकताएं आप परस्पर पूरी करिएगा। मैं केवल मंचों तक जानकारी उपलब्ध कराना चाहती हूँ। बहुत सी अच्छाइयाँ अनजाने ही हमसे दूर रहती हैं। पास लाने का प्रयास मात्र होगा। ज़रूरी है। संदेशात्मक नाटक। अवश्य अनेकों बार इस नाटक का मंचन हुआ ही होगा। न जाने कितने लोग लाभान्वित भी हुए होगे।
विवेक जी के सूक्ष्म अवलोकन, समसामयिक समस्या के प्रति चिंतित होना, बखूबी अभिव्यक्त हो रहा है। शब्द चयन, संवाद, भाषा-शैली एवं सम्प्रेषण कला का, परिचय मिल रहा है। प्रस्तुति रोचक और प्रभावशाली है। नाटक मंचन की पूरी-पूरी व्यवस्था भी कर रखी है विवेक जी ने, कि कोई दिक़्क़त न हो। सूक्ष्मतम जानकारी पूरे विस्तार से दिया है, जो अपने आप में विलक्षण है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम” (काव्य संग्रह) – कवयित्री : सुश्री पल्लवी गर्ग☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम (काव्य संग्रह )
कवयित्री : पल्लवी गर्ग
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य 225, पृष्ठ ; 132 (पेपरबैक)
☆ “काव्यगंध से महकतीं कवितायें – पल्लवी गर्ग की मुस्कुराते हो तुम” – कमलेश भारतीय ☆
मेरे लिए पल्लवी गर्ग की कविताओं से गुजरना यूं तो फेसबुक और पाठक मंच पर अक्सर होता है लेकिन कविताओं को एकसाथ पढ़ने का सुख कुछ और ही होता है। पल्लवी ने बड़े चाव से अपना ताज़ा प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम’ भेजा तो वादा किया कि सिर्फ पढ़ूंगा ही नहीं, अपने मन पर इसकी छाप भी लिखूंगा। कुछ दिन इसके पन्ने पलटता रहा, पढ़ता रहा, एक दो यात्राओं में यह मेरे साथ ही चलता रहा। शीर्षक इतना लम्बा कि कमलेश्वर की कहानी का शीर्षक याद आ गया- उस दिन वह मुझे ब्रीच केंडी पर मिली थी’ जैसा ! इसलिए प्रकाशक ने भी मुस्कुराते हो तुम बोल्ड कर दिया, जैसे यही शीर्षक हो !
प्रसिद्ध लेखक व ‘अन्विति’ के संपादक राजेंद्र दानी की भूमिका से यह विश्वास हो गया कवितायें पढ़कर कि कविताओं में ‘काव्यगंध’ है और मुझे भी ऐसी ही महक आई कविताओं को पढ़ते पढ़ते ! खुशी इसलिए भी हुई कि बहुत लम्बे समय बाद ताज़गी भरी छोटी छोटी कवितायें पढ़ने को मिलीं, सार्थक भी और स़देशवाहक भी। आपको बानगी दिखाता हूं :
परत दर परत
मन को उधेड़ना तब
सामने रफ़ूगर अच्छा हो तब
(रफ़ूगर)
……
प्रेम वह कमाल है
जिसमें दूरियां पाटी न जा सकें
नजदीकियां आंकीं न जा सकें !
(प्रेम)
…….
रुचता है मुझे हिमालय पर जाना
उसकी उत्ताल भुजाओं में
शिशु सा समा जाना !
(यात्रा)
…….
हाथ तो पकड़ लिया उसने
काश जान जाता
हाथ पकड़ने और थामने का अंतर !
(अंतर)
…….
धूप का एक टुकड़ा
तुम्हरी यादों की तरह
नजदीक आया
हटाने की कोशिश भी की
पर वह ढीठ भी तुम सा !
(धूप का टुकड़ा)
……
वक्त के बेहिसाब घाव दिखते हैं
तुम्हारी आंखों में
किसी दिन उन पर
प्रेम का मरहम लगायेंगे !
(वक्त के घाव)
……
पल्लवी गर्ग लिखती हैं कि मन के कोने तो बरसों से हर बात पी जाने के अभ्यस्त हो चुके होते हैं, यकायक उनमें एक कांप उठती है ! शून्य, चीत्कार, दर्द, मुस्कुराहट और अश्रु सब उफन पड़ते हैं! पल्लवी की कविताओं में ये सब मिल जायेंगे जगह जगह ! बस, दबे पांव आई पल्लवी की कवितायें उसकी पहली ही कविता नीलकुरिंजी की तरह ! कोई शोर नहीं, कोई प्रचार नहीं लेकिन ये कवितायें पाठकों के मन में खिल जायेंगीं, ऐसा मेरा विश्वास है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 21
वह हँसती बहुत है — कवयित्री – सुश्री स्वरांगी साने समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- वह हँसती बहुत है
विधा- कविता
कवयित्री- सुश्री स्वरांगी साने
स्त्रीत्व का वामन अवतार- ‘वह हँसती बहुत है।’☆ श्री संजय भारद्वाज
कविता और संवेदना का चोली-दामन का साथ है। अनुभूति कविता का प्राणतत्व है। जैसा अनुभव करेंगे, वैसा जियेंगे। जैसा जियेंगे वैसी ढलेगी, बहेगी कविता। यह अखंड जीना किसी को कवि या कवयित्री बना देता है। कवयित्री स्वरांगी साने इस जीने को स्त्री जीवन के अमर पक्ष अर्थात पीहर तक ले जाती हैं। यहीं से उनकी कविता में सदाहरी बेल पनपने लगती है-
कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है..*
‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन के विविध आयामों को अभिव्यक्त करती हैं। प्रेम, जीवन का डीएनए है। यही प्रेम प्राय: दोराहे पर ला खड़ा करता है। एक राह मिलन के बाद की टूटन और दूसरी ना मिल पाने की कसक अथवा बिछुड़न। दूसरी राह शाश्वत है। ये शाश्वत की कविताएँ हैं। इस शाश्वत की बानगी ‘मेडिकल टर्म्स’ में देखिए-
धुंधला दिख रहा है/ सब कह रहे हैं मोतियाबिंद हो गया है/ पर वह जानती है/ ठहर गए हैं सालों साल के आँसू /आँखों में आकर..*
आह और वाह को एक साथ जन्म देती शाश्वत की यह अभिव्यक्ति जितनी कोमल है, उतनी ही प्रखर भी। यह शाश्वत ‘धोखा’, ‘ऐसे करना प्रेम’, ‘मीरा के लिए’, ‘ललक’, ‘पार हो जाती’, ‘तुमने कहा था’, ‘चाहत’, ‘रसोई’, ‘यात्रा’, ‘जो बना रहा’ जैसी अन्यान्य कविताओं के माध्यम से इस संग्रह में यत्र, तत्र, सर्वत्र दिखाई देता है। शाश्वत प्रेम की एक हृदयस्पर्शी बानगी ‘फेसबुक’ कविता से,
फेसबुक पर तुम्हारे नाम के पास/ ले जाती हूँ कर्सर/ लगता है/ तुम्हें छू कर लौटी हूँ…*
बिछुड़न का कारण और निवारण, गहरे से निकलता है, पाठक को गहरे तक भिगो देता है,
उसकी संजीवनी बूटी हो तुम/ जो नहीं हो उसके पास… *
प्रेम कोमल अनुभूति है पर प्रेम चीर देता है। प्रेम टीस देता है, व्याकुलता और विकलता देता है लेकिन यही प्रेम संबल और बल भी देता है। खंडित होकर अखंड होने का संकल्प और ऊर्जा भी देता है। कवयित्री प्रेम की मखमली अभिव्यक्ति से आगे बढ़ती हैं और सांसारिक यथार्थ को निरखती, परखती और उससे लोहा लेती हैं,
मैंने बंद कर दिया है तुमसे अपना वार्तालाप/ अब शुरू हुआ है मेरा खुद से संवाद..*
समय के थपेड़े व्यक्ति पर पाषाण कठोरता का आवरण चढ़ा देते हैं,
बाहर से वह कठोर दिखती है/ इतनी कि लोग उसे अहिल्या कहते हैं..*
पत्थर के भीतर भी स्त्री बची रहती है पर स्त्री की देह उसे डरने के लिए विवश भी करती है,
कछुआ नहीं लड़की है वह/ और तभी वह समझ गई यह भी कि/ सुरक्षित नहीं है वह/ फिर सिमट गई अपनी खोल में..*
खोल या आवरण को तोड़कर बाहर लाती है शिक्षा। शिक्षा अर्थात पढ़ना। पढ़ना अर्थात केवल साक्षर होना नहीं। पढ़ना अर्थात देखना, पढ़ना अर्थात गुनना, पढ़ना अर्थात समझना। पढ़ना अर्थात विचार करना, पढ़ना अर्थात विचार को अभिव्यक्त करना। समाज स्त्रीत्व की खोल से बाहर आती स्त्री को देखकर, उसके चिंतन को समझ कर चिंतित होने लगता है,
खतरा तो तब मंडराता है/ पढ़ने लगती है/ औरत कोई किताब..*
औरत पढ़ने लगती है किताब। औरत लिखने लगती है किताब। स्त्री जीवन का अनंत विस्तार सिमटकर उसकी कलम की स्याही में उतर आता है,
किसी तरह चुरा लेनी है/ मेहंदी की गंध और उसका रंग भी/ तो बेटियां निकल सकती हैं/ इस तिलिस्म से बाहर/ सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई..*
………
इतिहास कहता है/ वह वैशाली की नगरवधू थी/ इतिहास में नहीं कहा कि/ वह एक स्त्री थी..*
‘सौरमंडल’, ‘हँसी’, ‘नर्तकी’ और ऐसी अनेक कविताओं में स्त्री के ब्रह्मांड का मंथन है। ‘प्याज़’ नामक कविता इसका क्लासिक उदाहरण है।
बहुत सारा प्याज़/ काटने बैठ जाती थी माँ/ कहती थी मसाला भूनना है/ तब समझ नहीं पाती थी/ इतना अच्छा क्या है प्याज़ काटने में/ आज पूछती है बेटी/ क्या हुआ?/ और वह कह देती है/ कुछ नहीं/ प्याज़ काट रही हूँ..*
अपनी जिंदगी अपनी तरह से नहीं जी पाने की निराशा अपनी तरह से मरने की आज़ादी का शंख फूँकती है।
उसे मरने का कॉपीराइट चाहिए..*
‘वह हँसती बहुत है’ संग्रह की कविताएँ स्त्रीत्व का वामन अवतार हैं। इस संग्रह की कविताएँ स्त्री जीवन की विराटता को अल्प शब्दों में जीने का सामर्थ्य रखती हैं, यथा-
एक कदम में लांघा माँ का घर/ दूसरे में पहुँच गई ससुराल/ विराट होने की ज़रूरत ही नहीं रही/और उसने नाप ली दुनिया..*
इस संग्रह की रचनाएँ स्त्री जीवन की विसंगत स्थितियों का वर्णन अवश्य करती हैं पर अपना स्त्रीत्व नहीं छोड़तीं। यह स्त्रीत्व है जिजीविषा का, सपने देखने का, सपना टूटने पर फिर सपना देखने का। सदाहरी विस्तार पाती है, और शब्द फूटते हैं,
खुली आँखों से सपना देखती/ सपने को टूटता देखती/ खुद को अकेला देखती/ फिर भी वह सपना देखती..*
कवयित्री के सपने फलीभूत हों, कवयित्री निरंतर लिखती रहें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 20
मंगल पथ — कवि – स्व. प्रकाश दीक्षित समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ
पुस्तक का नाम- मंगल पथ
विधा- कविता
कवि- स्व. प्रकाश दीक्षित
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
मंगल पथ- स्वयंप्रकाशित कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
माना जाता है कि लेखन जब तक काग़ज़ पर नहीं उतरता, गर्भस्थ शिशु की तरह लेखक की व्यक्तिगत अनुभूति होता है। काग़ज़ पर आने के बाद वह परिवार की परिधि में नाना प्रकार के लोगों से नानाविध संवाद साधता है। प्रकाशन की प्रक्रिया लेखन को प्रकाश में लाती है और रचना समष्टिगत होकर विस्तार पाती है। इसे विडंबना या दैव प्रबलता ही मानना पड़ेगा कि अपनी रचनाओं से स्वयंप्रकाशित प्रकाश दीक्षित जी की रचनाएँ उनके देवलोक गमन के उपरांत ही पुस्तक के रूप में आ पाई हैं।
उपरोक्त कथन में कहीं निराशा का भाव अंतर्निहित नहीं है। अनेक सुप्रसिद्ध रचनाकार जिन्हें सदा पढ़ा जाता रहा है, अपने जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सके, परंतु शरीर चले जाने के बाद भी उनके सृजन ने उन्हें सृष्टि पर बनाए रखा। सृष्टि पर मिले शरीर का जाना अर्थात आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना। हमारी सनातन संस्कृति में ब्रह्म का एक रूप शब्द भी है। अतः सारस्वत दिवंगत शब्द का चोला ओढ़कर सदैव हमारे सम्मुख रहते हैं। एतदर्थ प्रस्तुत संग्रह पढ़ते समय अनेक बार ये अनुभूति होती है कि साक्षात कवि द्वारा इसका पाठ किया जा रहा हो। काया मौन हुई तो शब्द मुखर हो उठे। यह सुखद है कि पार्थिव रूप से अनुपस्थित होते हुए भी दीक्षित जी इस संग्रह के हर पृष्ठ पर सूक्ष्म रूप से उपस्थित हैं।
इस संग्रह को ॐ छंदावली, वचनामृत एवं गुरु-गोविंद तथा वेदों पर आधारित रचनाओं के तीन भागों में बाँटा गया है। सृष्टि में सर्वत्र ॐ का नाद है। जीवन की सारी गाथा ॐ के तीन अक्षरों- ‘अ’ से आविर्भाव, ‘उ’ से ऊर्जा तथा ‘म’ से मौन में समाहित है। यही कारण है कि ‘अ’ को ब्रह्मा, ‘उ’ को विष्णु तथा ‘म’ को महेश का द्योतक माना गया है। सारांश में ॐ ईश्वर का पर्यायवाची है। इस शब्दब्रह्म को मान्यता प्रदान करते हुए छांग्योपनिषद कहता है, ‘ॐ इत्येत अक्षरः।’ अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है। ॐ की अक्षरा महिमा का प्रगल्भ गान कवि ने ॐ छंदावली के अंतर्गत किया है। पूरे खण्ड में कवि का इस विषय में गहन अध्ययन स्पष्ट प्रतिपादित होता है। कुछ पंक्तियॉं दृष्टव्य हैं-
अकार से विराट विश्व अग्नि आदि अर्थ होत,
उकार में हिरण्यगर्भ वायु तेज आ रहे।।
मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि,
नाम सब ब्रह्म के हैं, ओऽम में समा रहे।
संस्कृत साहित्य, ज्ञान की अविरल धारा है। इसे सामूहिक दृष्टिहीनता ही कहेंगे कि निहित स्वार्थों और कथित आधुनिकता के हवाई गुणगान के चलते हमने संस्कृत साहित्य की घोर उपेक्षा की। उपेक्षा के इस स्वप्रेरित कुठाराघात ने आधुनिक पीढ़ी को अनेक मामलों में दिशाहीनता की स्थिति में ला छोड़ा है। ‘वचनामृत’ इस दिशाहीनता को सार्थक दिशा दिखाने का प्रयास है। इस खण्ड में संस्कृत के विभिन्न मंत्रों का पद्यानुवाद है। विशेषता यह है कि छंद रचते समय कवि ने व्याकरण और सर्जना का समन्वय भली-भाँति साधने का यत्न किया है। श्लोकों का चुनाव मनुष्य जीवन को समाजोपयोगी बनाने को दृष्टिगत रख कर किया गया है। विद्वता और नम्रता का अंतर्संबंध देखिए-
विद्या और मेघ संवर्द्धनकारी हों जो कर्म।
हे विद्वानो! करो क्रिया वह, यह जीवन का मर्म।।
जो भी चाहें शिक्षा-विद्या करो प्रीतियुत दान।
विद्या ग्रहण करो तुम उनसे जो कि अधिक विद्वान।।
तीसरा खण्ड गुरु-गोविंद व वेदों पर केंद्रित रखा गया है। वेद हमारे आद्यगुरु हैं। हमारी संस्कृति ने गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है। “गुरु गोबिंद दोउ खड़े’ हम सबको कंठस्थ है। पूरे खण्ड में ईश्वर, गुरु व वेदों के प्रति मानवंदना अक्षर-अक्षर में प्रतिध्वनित होती है। इस मानवंदना को श्रद्धा के साथ ज्ञान की पृष्ठभूमि मिली है। यथा-
वेदों में वारिधि लहराता, जीवन की समरसता का,
वेदों का हर मंत्र, गा रहा, गीत मनुज की समता का,
बल वैभव लख विपुल किसी का द्वेष दाह से नहीं जलें।
जीवन पथ पर नित्य निरंतर वेदों के अनुसार चलें।।
उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत संग्रह कवि के देहावसान के बाद उनके बेटी-जमाता के अथक प्रयास से प्रकाशित हुआ है। बेटियों को कम आँकनेवाले समाज के एक अंश की मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए यह एक उदाहरण है।
आशा की जानी चाहिए कि “मंगलपथ’ की मांगलिक रचनाएँ पाठकों के हर वर्ग हेतु कल्याणकारी सिद्ध होंगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “अम्बर परियां ” (उपन्यास) – उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली ☆ समीक्षा – श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : अम्बर परियां (उपन्यास)
उपन्यासकार – श्री बलजिंदर नसराली
अनुवाद : श्री सुभाष नीरव
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली।
मूल्य : 350 रुपये (पेपरबैक)
☆ “विवाह जैसी परंपरा पर सवाल उठाता बलजिंदर नसराली का उपन्यास अम्बर परियां” – कमलेश भारतीय ☆
एक दिन मित्र डाॅ विनोद शाही का फोन आया कि पंजाबी लेखक बलजिंदर नसराली आपको अपना उपन्यास भेजेंगे, आप इसे पढ़कर कुछ लिखना! मज़ेदार बात यह है कि इस वर्ष की शुरुआत डाॅ विनोद शाही के उपन्यास से हुई, फिर कुछ ऐसा मूड बना कि ब्रह्म दत्त शर्मा का लम्बा उपन्यास भी पढ़ डाला और मनोज शर्मा का कविता संग्रह भी यानी यह वर्ष मेरे पढ़ने का वर्ष ज्यादा रहा और लिखने का कम! अरे! मैं तो पाठक बन गया! खैर, बलजिंदर नसराली का उपन्यास आ गया और मेज़ पर पड़ा रहा, फिर एक दिन मेज़ साफ करने की आपाधापी में इधर उधर रखा गया। बलजिंदर का फोन आया कि इसे पढ़कर कुछ न कुछ लिख दीजिये तो जिन खोजा तिन पाइया और उपन्यास ढूंढकर पढ़ना शुरू!
अम्बर परियां बड़ा सादा सा, स्पष्ट सा नाम है कि नायक अम्बर और उसकी ख्वाबों की, ख्यालों की प्रेमिकाओं की कहानी! वह भी उस अम्बर की, जो पहले से विवाहित है, दो प्यारे प्यारे बच्चे भी हैं उसके और उसे अपनी पत्नी किरणजीत कौर से प्यार नहीं, तो नफरत भी नहीं लेकिन जब वह काॅलेज में अपनी खूबसूरत सहयोगी संगीत की प्राध्यापिका अवनीत को देखता है तो वह उसे परी से कम नहीं लगती। इसके बावजूद वह बड़े सधे तरीके से कदम बढ़ाता है जबकि अवनीत की मंगनी हो चुकी होने के बावजूद उसके साथ वह वहीं पहुंच जाती है, जहां अम्बर पेपर पढ़ने के लिए जाता है और दो रात वे इकट्ठे एक ही कमरे में बिताते हैं! परी को इतने पास पाकर सुखद अहसास में भर जाता है अम्बर। जैसे परी आकाश से धरती पर उतर आई हो। अवनीत संगीत की प्राध्यापिका है और मंगेतर से ज्यादा संगीत में स्टार बनना चाहती है और यही होता है। वह संगीत में स्टार बन जाती है, मंगेतर और अम्बर कहीं पीछे छूट जाते हैं! अम्बर खुद टीवी स्टार के साथ साथ अपने छात्रों का स्टार प्राध्यापक है।
फिर अम्बर को जम्मू विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में नयी जाॅब मिल जाती है और वहां जोया उसके दिल को धीरे धीरे छू जाती है। वह भी किसी परी से कम नहीं। किरणजीत कौर को अम्बर पीएचडी तक पढ़ा कर प्राध्यापिका लगवा देता है और जोया के साथ विवाह करवाना चाहता है। हालांकि किरणजीत यह सोचती है कि जैसे अवनीत के साथ सब चक्कर के बावजूद अम्बर घर ही तो लौट आता था। लेकिन अम्बर किरणजीत पर दबाव बनाता है तलाक देने के लिए और बच्चों का वास्ता देती किरणजीत आखिर मान जाती है लेकिन जोया के बदलते व्यवहार से अम्बर अकेले ही रहना पसंद करता है, वह किरणजीत से तलाक लिये बिना ही आगे बढ़ जाता है!
जो सिर्फ नावल रीडिंग करेंगे, उनके लिए तो उपन्यास इतना ही है लेकिन जो गहरे जायेंगे, वे जानेंगे समझेंगे कि अम्बर उस परिवार से आया जिसका ताया अरजन अविवाहित है, जैसा कि पंजाब के पुराने समय में ज़मीन को आगे बंटने से बचाने के लिए किया जाता था या हो जाता था। ताया रंग का काला है और अम्बर कुछ सांवला सा, ताये व मां के काले अंधेरे में पैदा हुआ बच्चा, जिसे गांव भर में यह सहना पड़ता है ‘ओ अरजन दा’ और वह इससे चिढ़कर सीधे लड़ने दौड़ता है, अम्बर पढ़ाई में अच्छा है और ताया भी चाहता है कि अम्बर पढ़ लिख जाये ताकि आठ खेत बंटे तो चार खेत वाले की शादी कैसे होगी? अम्बर स्कूल में भाषण देने आये निहंग सिंह से किताबों से प्रेम करना सीख जाता है और अपनी सहपाठी चरनी से भी प्रेम करने लगता है और रजिस्ट्री से अपना प्रेम निवेदन भेजता है तब अध्यापिका समझाती है कि इतने गहरे पढ़ने वाला लड़का साधारण सी चरनी पर क्यों मर मिटना चाहता है ?
उपन्यास की शुरुआत भी पुराने स्कूल में प्राध्यापक बन चुके अम्बर के भाषण व यादों से होती है। अम्बर कैसे अपने घर के माहौल से परेशान था बचपन से ही क्योंकि पिता इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि अम्बर उनका बेटा है और मां बाप की कहा सुनी हो जाती, मा़ं कपड़े लत्ते लेकर अपने मायके लेकर चल देती अम्बर को! अम्बर सोचता कि वह अपनी शादी के बाद ऐसा माहौल नहीं रहने देगा लेकिन परियों के आने के बाद वह अम्बर नहीं रह पाता! डगमगाते, उलझन में रहते, अंतर्द्वंद में पहले अवनीत निकट आती है, फिर जोया! ये परियां विवाह परंपरा पर सवाल बन जाती हैं कि क्या शादीशुदा अम्बर को ऐसा करना चाहिए था या किसी भी अवनीत को, जोया को शादीशुदा अम्बर के प्यार में पड़ना चाहिए था ? क्या ये लिव इन की ओर उठते कदम हैं या परियों को पाकर अम्बर की तरह सब कुछ समझते हुए भी बेबस हो जाने की विवशता ? क्या अम्बर सही है? यह सवाल पाठक के लिए छोड़ा गया है! शिक्षा व्यवस्था पर भी यह उपन्यास सवाल उठाता चलता है लगातार!
वैसे इस उपन्यास को देहरादून की एक संस्था द्वारा एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया जायेगा और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होने से पहले पंजाबी में इसके अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, इसका अंग्रेज़ी संस्करण भी आने वाला है। उपन्यास मूलत: पंजाबी में लिखा गया है और अनुवाद हमारे मित्र सुभाष नीरव ने किया है लेकिन कुछ शब्दों को जानबूझकर कर पंजाबी से ज्यों के त्यों रख दिये जाने से वे खटकते हैं। अगले संस्करण में इन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए उल्था की जगह अनुवाद शब्द आना चाहिए जबकि उल्था ही बार बार लिखा गया। यह थोड़ी जल्दबाजी दिखती है। पर बहुत प्यारा अनुवाद किया है। बधाई दोनों को! अंग्रेज़ी में भी पढ़ेंगे भाई।
भाषा बहुत प्रवाहमयी है। अपनी ओर खींचती लिए चलती है और अम्बर व परियां जैसे हमारे आसपास ही विचरते दिखाई देते हैं! भाषाओं का, जम्मू, डोगरी, पंजाबी सबका स्वाद आता है लगातार! कितने उदाहरण हैं जो अम्बर को श्रेष्ठ प्राध्यापक साबित करते हैं और छात्रों का प्रिय प्राध्यापक भी! वह अपनी इमेज के प्रति सचेत होते होते भी जोया की ओर कदम बढ़ा लेता है पर वह पत्नी किरणजीत को धोखा देने का अहसास भी कमाल है। चिनाव और पहाड़ियों का खूबसूरत चित्रण भी मोह लेता है। बलजिंदर को बहुत बहुत बधाई!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
मनमंथन : बोलती-बतियाती कहानियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
भावनाओं का इंद्रियों के माध्यम से प्रकटीकरण, जीव में प्राण होने या उसके निष्प्राण होने को परिभाषित करता है। सुनने-सुनाने की वृत्ति सजीव सृष्टि का अनिवार्य गुणधर्म है। वैचारिक अभिव्यंजना की इस तृष्णा ने कहानी को जन्म दिया। विशेषता है कि कहानी ऐसी विधा के रूप में जानी जाती है जो कभी एकांगी नहीं होती। सुनाने वाले (या लेखक) की कामना और सुनने वाले (या पाठक) की जिज्ञासा, दोनों तत्वों का इस विधा में तालमेल होता है। इसके चलते कहानी का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है।
सनातन संस्कृति में वेदों के बाद पुराणों का लेखन दर्शाता है कि गूढ़ ज्ञान को सरल कथाओं के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचाया जा सकता है। उपनिषदों की रूपक कथाओं से लेकर बौद्धवाद की जातक कथाएँ इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। कालांतर में घटित / अघटित कई किंवदतियाँ लोककथाओं के वेश में मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं सामाजिक जागृति का माध्यम बनीं।
‘मनमंथन’ कहानी संग्रह का अधिकांश भाग चुनिंदा भारतीय लोककथाओं का आधुनिक संस्करण है। कथाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि कुछ कथाएँ उसका उसका अपना सृजन है, शेष माँ से सुनी कहानियों का पुनर्लेखन है। लोककथाओं को बालसाहित्य के रूप में प्रकाशित करने का चलन भी है। इस संदर्भ में कहानीकार और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लीक का अनुसरण नहीं किया। यों भी अनुभवजनित लोककथाएँ मनुष्य वेश के पथिक के लिए हर सोपान पर दिशादर्शक प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं।
संग्रह में समाविष्ट चौदह कहानियों में ‘आत्मसात’ सर्वाधिक प्रभावित करती है। ये ईमानदारी की धरती पर लिखी कथा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को निर्वाण के चार महाद्वार मानकर समान आदर दिया गया है। संस्कृति की इस उदात्त भावना को समझे बिना ही बाद के समाज ने काम को वासना पूर्ति की परिधि तक सीमित कर दिया। ‘आत्मसात’ इस परिधि का विस्तार करती है। वासना के बेस कैम्प से उपासना के शिखर की यात्रा का मानचित्र तैयार करती है। कथा पूरी सादगी से बिना मुखौटे लगाये, बिना मुलम्मा चढ़ाए चलती है, अत: कहीं अविश्वसनीय नहीं लगती। बुजुर्ग साधु-साध्वी के मन में आजीवन पाले ब्रह्यचर्य के खण्डित होने पर कोई ग्लानिबोध न जगना, परस्पर दोषारोपण न करना, कथा को तार्किक सम्बल प्रदान करता है। कथा प्रत्यक्ष में कोई उपदेश नहीं करती पर परोक्ष में अतंर्निहित संदेश पाठक के मन पर अंकित हो जाता है।
इसके विरुद्ध ‘कुत्ते की पूँछ’ नामक कहानी है जो मात्र किस्सागोई है, किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश नहीं देती। ‘बच्चा किसका’, रात भर अंडा पकाया फिर भी कच्चा रह गया, ‘झूठ के हाथ-पैर नहीं’, इसी श्रेणी की हल्के-फुल्के ढंग से कही गई कथाएँ हैं। ‘दुविधा,’ ‘एक वरदान,’ ‘चने की एक दाल’ विशुद्ध लोक कथाएँ हैं जिनमें विभिन्न मानवीय गुण और काल-पात्र-परिस्थिति के अनुरूप धारण किये जाने वाले धर्म की सूक्ष्म अवधारणा अंतर्निहित है। ‘कल्पना से परे’ और ‘कानाफूसी’ सीधे-सीधे अपना संदेश लेकर आती हैं। ‘नास्तिक के मुख से’ नामक लोककथा लोक में आस्था का बीज रोपने की भूमिका लेकर चलती है। ‘प्रतीक्षा’ में कहानीकार सेना के परिवेश का चित्रण करने में सफल रहा है। ‘गलतफहमी’अतिरंजित लगती है। ‘मरणोपरांत’ एक सैनिक के भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
संग्रह की विभिन्न कथाओं में समाहित विचारसूत्र चिंतन के लिए पर्याप्त संभावनाओं को अवसर प्रदान करते हैं। कुछ विचारसूत्र उल्लेखनीय हैं। यथा-आँसू पीयूष भी है और हलाहल भी…/ आँसू अंदर रहकर तूफान मचाता है पर बाहर निकलकर मरहम का काम करता है…/ गलतफहमी गांधारी है जिसकी कोख से सौ कौरव पैदा होकर महाभारत रचाएँगे और बाद में बिलखती हुई विधवाओं का रुदन और क्रंदन छोड़ जायेंगे…/ साधन एक अवसर पर साधना में सहयोग देता है तो वही साधन किसी दूसरे समय में व्यवधान उत्पन्न करने लगता है।…
लोकसाहित्य की विशेषता है कि उसके संकेत और प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं। फलत: कथ्य तुरंत पाठक तक पहुँचता है। बानगी है- प्यार में दरार आ गई, प्रेम की डोर में गाँठ पड़ गई। बाहर से पता नहीं चलता था परंतु अंदर से खीरे जैसी तीन फाँक ! …
‘मनमंथन’ में मुहावरों और लोकोक्तियों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। कहानियों में प्रयुक्त बिहार की आंचलिक बोली अंचल की माटी की सौंध पाठक तक पहुँचाती है। संग्रह की कथाओं में कम चरित्रों के माध्यम से कथ्य को रखा गया है। अनावश्यक प्रसंग भी ठूँसे नहीं गए हैं। ये इन कहानियों का शक्तिस्थान है।
सेना की पृष्ठभूमि की कहानियाँ अधिक प्रभावी हैं क्योंकि कथाकार के जीवन के 32 वर्ष सेना में बीते हैं। कथाकार से भविष्य में सैनिक परिवेश पर अधिक कहानियों की अपेक्षा की जानी चाहिए। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ पाठक से बोलती हैं, बतियाती हैं। यह कथाकार आशा जगाता है। उससे लम्बी दौड़ की उम्मीद की जा सकती है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 17
हंसा चल घर आपने — कहानीकार-रजनी पाथरे समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- हंसा चल घर आपने
विधा- कहानी
कहानीकार-रजनी पाथरे
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
प्रभावी और संवेद्य कहानियाँ☆ श्री संजय भारद्वाज
कहानी सुनना-सुनाना अभिव्यक्ति का अनादिकाल से चला आ रहा सुबोध रूप है। यही कारण है कि प्रकृति के हर चराचर की अपनी एक कहानी है। औपचारिक शिक्षा के बिना भी श्रवण और संभाषण मात्र से रसास्वाद के अनुकूल होने के कारण कहानी की लोकप्रियता सार्वकालिक रही है।
लोकप्रिय कहानीकार रजनी पाथरे के प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘हंसा चल घर आपने’ की कहानियाँ कुछ मामलों में अपवादात्मक हैं। इस अपवाद का मूल संभवतः उस विस्थापन में छिपा है जिसे काश्मीरी पंडितों ने झेला है। अन्यान्य कारणों से विस्थापन झेलनेवाले अनेक समुदायों की कहानियाँ इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ हैं। इन समुदायों के विस्थापन में एक समानता यह रही कि इन्हें अपने देश की मिट्टी से दूर जाकर नए देश में आशियाना बसाना पड़ा। काश्मीरी पंडित ऐसे दुर्भाग्यशाली भारतीय नागरिक हैं जो पिछले लगभग तीन दशकों से अपने ही वतन में बेवतन होने का दंश भोग रहे हैं। पिछले वर्षों में स्थितियाँ कुछ बदली अवश्य हैं तथापि अभी लम्बी दूरी तय होना बाकी है।
यही कारण है कि काश्मीरी पंडित परिवार की कहानीकार का सामुदायिक अपवाद उनकी कहानियों में भी बहुतायत से, प्रत्यक्ष या परोक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस पृष्ठभूमि की कहानियों में लेखिका की आँख में बसा काश्मीर ज्यों की त्यों कागज़ पर उतर आता है। घाटी के तत्कालीन हालात और क़त्लेआम के बीच घर छोड़ने की विवशता के बावजूद जेहलम, शंकराचार्य की पहाड़ी, दुर्गानाग का मंदिर, खिचड़ी अमावस्या, यक्ष की गाथा, अखरोट के पेड़, चिनार की टहनियाँ, बबा; गोबरा जैसे संबोधन, शीरी चाय, हांगुल, गुरन, कानुल साग, कहवा, चश्माशाही का पानी, काश्मीरी चिनान आदि को उनकी क़लम की स्याही निरंतर याद करती रहती है। विशेषकर ‘माइग्रेन्ट’, ‘मरु- मरीचिका’, ‘देवनार’, ‘पोस्ट डेटेड चेक’, ‘हंसा चल घर आपने’, ‘काला समंदर’ जैसी कहानियों की ये पृष्ठभूमि उन्हें प्रभावी और संवेद्य बनाती है।
स्त्री को प्रकृति का प्रतीक कहा गया है। स्त्री वंश की बेल जिस मिट्टी में जन्मती है और फिर जहाँ रोपी जाती है, उन दोनों ही घरों को हरा-भरा रखने का प्रयास करती है। यही कारण है कि रजनी पाथरे ने केवल अपने मायके की पृष्ठभूमि पर कहानियों नहीं लिखी हैं। ससुराल याने महाराष्ट्र की भाषा और संस्कृति भी उतनी ही मुखरता और अंतरंगता से उनकी कहानियों में स्थान पाती हैं।’ आजी का गाँव’, ‘जनाबाई’, ‘कमली’ जैसी कहानियाँ इसका सशक्त उदाहरण हैं।
स्त्री का मन बेहद जटिल होता है। उसकी थाह लेना लगभग असंभव माना जाता है। लेखिका की दृष्टि और अनुभव ‘कुँवारा गीत’, ‘नाम’ और ‘ज़र्द गुलाब’ के माध्यम से इन परतों को यथासंभव खोलते हैं। इस भाव की कहानियों की विशेषता है कि इनमें स्त्री को देवी या भोग्या में न बाँटकर मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्त्री स्वतंत्रता या नारी विमर्श का नारा दिए बिना कहानीकार जटिल बातों को सरलता से प्रस्तुत करने का यत्न करती हैं। ‘नाम’ में यह जटिलता व्यापक रूप से उभरती है। ‘कुँवारा गीत’ यह संप्रेषित करने में सफल रहती है कि स्त्री को केवल शारीरिक नहीं अपितु मानसिक ‘ऑरगेज़म’ की भी आवश्यकता होती है।
स्त्री को केवल देह और उसकी देह को अपनी प्रॉपर्टी मानने की अधिकांश पुरुषों की मानसिकता को ‘परतें’ और ‘राजहंस’ कहानियाँ पूरी तल्ख़ी से सामने रखती हैं। ‘परतें’ में एक स्त्री के साथ विभाजन के दौरान हुआ बलात्कार अफगानिस्तान की नाजू के माध्यम से वैश्विक हो जाता है। युद्ध किसीका, किसीके भी विरुद्ध हो, उसका शिकार सदैव स्त्री ही होती है। ‘राजहंस’ रिश्तों की संश्लिष्टता की थोड़ी कही, खूब अनकही दास्तान है जो पाठक को भीतर तक मथकर रख देती है।
संग्रह की कहानियों में विषयों की विविधता है। सांप्रदायिकता की आड़ में आतंकवाद के शिकार अपने अपने पात्रों में लेखिका ने समुदाय भेद नहीं किया है। इन कहानियों को पढ़ते समय घाटी का सांप्रदायिक सौहार्द पूरी आत्मीयता से उभरकर आता है। स्त्री पात्रों के मन की परतें खोलने की प्रक्रिया में जहाँ कहीं तन का संदर्भ आया है, लेखिका की भाषा और बिंब शालीन रहे हैं। ‘बात का बतंगड़’ करने की वृत्ति के दिनों में ‘बतंगड़ से बात बनाने’ का यह अनुकरणीय उदाहरण है।
वातावरण निर्मिति की सहजता संग्रह की सभी कहानियों को स्तरीय बनाती है। कथानक का शिल्पगत कसाव और क्रमिक विकास कथ्य को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। कहानियों में कौशल, त्वरा और वेग अनायास आए हैं। कथोपकथन समुचित उत्सुकता बनाए रखता है। अवांतर प्रसंग न होने से कहानी अपना प्रभाव बनाए रखती है। कहानियों के पात्र सजीव हैं। इन पात्रों का चित्रण प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में हुआ है। पात्रों का अंतर्द्वंद्व कहानीकार और पाठक के बीच संवाद का सेतु बनाता है। देश काल का चित्रण कहानीकार की मूल संवेदना और भाव क्षेत्र से पढ़नेवाले का तादात्म्य स्थापित कराने में सफल है।
लेखन का अघोषित नियम है कि लिखनेवाला जब भी कलम उठाए, अमृतपान कराने के लिए ही उठाए। रजनी पाथरे के भीतर मनुष्योचित संवेदनाओं का यह अमृत प्रस्तुत कहानी संग्रह में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘काला समंदर’ के अंत में हत्यारों के लिए भी ‘या देवी सर्वभूतेषु क्षमारूपेण संस्थिता’ का मंत्र मानो सारी कहानियों का सार है। विश्वास है कि पाठक इस अमृत के आस्वाद से स्वयं को तृप्त करेंगे। शुभं भवतु ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 18
मैं कविता नहीं करता — कवि – डॉ. सत्येंद्र सिंह समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मैं कविता नहीं करता
विधा- कविता
कवि- डॉ. सत्येंद्र सिंह
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
‘कॉमन मैन’ की कविताएँ☆ श्री संजय भारद्वाज
संवेदना कविता का प्राणतत्व है। स्वाभाविक है कि कवि संवेदनशील होता है। कवि भौतिकता की अपेक्षा वैचारिकता में जीवन व्यतीत करता है। उसके चिंतन का आधार मनुष्य के चोले में बीत रहे जीवन की सार्थकता है। प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘मैं कविता नहीं करता’ में कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह मनुष्य के रूप में जीवन की पड़ताल करते हुए दिखाई देते हैं।
मैं कविता नहीं करता
अपने आपको देखता हूँ…,
कब मुझे प्रभावित किया-
अहंकार ने, क्रोध ने, लालच ने
और मैं कब गिरा, कब खड़ा हुआ..।
मनुष्यता की भावनाओं में कृतज्ञता प्रमुख है। जिनसे जीवन पाया, जिनके चलते पोषण मिला,जिनसे जीवन का अर्थ मिला, जिन्होंने जीवन को सही मार्ग दिखाया, जिनके कारण जीवन जी सके, उन सब के प्रति आजीवन कृतज्ञ रहना मनुष्यता है। ‘दीप की चाहत’ कविता में यह कृतज्ञता कुछ यूँ शब्द पाती है-
मैं दीप जलाना चाहता हूँ,
उस खेत के कोने में-
जहाँ एक पूरे परिवार ने,
अपने परिश्रम से हमें
अनाज, फल, सब्जी देकर
ज़िंदा बनाए रखा।
कृतज्ञता के साथ सामासिकता और समता भी मानवता के तत्व हैं। कवि की यह आकांक्षा देखिए-
न प्रतिभा दमन हो,
न हो श्रम शोषण,
अखंड विकास ही
केवल साध्य हो।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज, समूह से बनता है। इस सत्य से परिचित होते हुए भी स्वयं को श्रेष्ठ समझने की यह नादानी भी देखिए-
मुझसे कोई श्रेष्ठ नहीं,
मुझसे कोई ज्येष्ठ नहीं,
जो हूँ, मैं ही हूँ, बस
और कोई नहीं..!
नादानी की पराकाष्ठा है कि मनुष्य आत्मकेंद्रित संसार बनाने के मंसूबे बांधना नहीं छोड़ता। इस संदर्भ में कवि की स्पष्टोक्ति देखिए-
हाँ,‘मैं’ का संसार बन सकता है,
अहंकार का संसार बन सकता है,
पर वह होगा नितांत आभासी,
जब तक मेरे साथ तू न होगा.
तब तक संसार नहीं होगा।
कवि अदृश्य ईश्वर को दृश्यमान बनता देखता है और लिखता है-
कहते रहे लोग,
सुनते रहे हम,
रचयिता अदृश्य है
और देखते भी रहे
रचयिता को
दृश्यमान बना रहे हैं लोग।
दृश्यमान की संभावना को अपरिमित करते हुए कवि फिर प्रश्न करता है-
तुम कण-कण में हो-
आप्त वचन है,
फिर एक ही प्रस्तर में क्यों?
यह कोई साधारण प्रश्न नहीं है। कण-कण में ईश्वर को देखने के लिए दृष्टि के पार जाना होता है। पार के बाद अपार होता है और अपार में अपरंपार का दर्शन होता है।
मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान-सेवासंघ में सेवाएँ दे चुका व्यक्तित्व स्वाभाविक है कि अपने भीतर एक आध्यात्मिक, दार्शनिक उमड़-घुमड़ अनुभव करे। इस आध्यात्मिकता और दर्शनिकता का सराहनीय पक्ष यह है कि कोई मुलम्मा चढ़ाए बिना, अलंकार और रस की चाशनी में डुबोए बिना, कवि जो देखता है, कवि जो सोचता है, वही लिखता है।
यद्यपि कवि ने संग्रह को ’मैं कविता नहीं करता’ शीर्षक दिया है तथापि अनेक स्थानों पर भीतर का कवित्व गागर में सागर-सा प्रकट हुआ है।
निरालंब होने हेतु
ढूँढ़ता हूँ अवलंब..!
मानवता के इतिहास के उपलब्ध न होने की दस्तावेज़ी बात कविता में थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त होती है। कुछ पंक्तियों में लघुता से प्रभुता की यात्रा पूर्ण होती है।
इतिहास के लिए
कुछ करना होता है,
…जैसे युद्ध।
बिना युद्ध वालों का ज़िक्र
कहीं मिला तो
युद्ध के कारण ही।
…इसीलिए
मनुष्यता का
कोई इतिहास नहीं है।
बुज़ुर्ग रचनाकार के पास जीवन का विपुल अनुभव है। यह अनुभव आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन के रूप में कविता में स्थान पाता है। कुछ बानगियाँ देखिए-
जिस विगत की उपेक्षा की,
वर्तमान बदलने की इच्छा की,
तो आगत भयावह बन गया,
जो स्वयं नहीं किया कभी,
औरों के लिए उद्देश्य बन गया।
…
अस्तित्व जिस रूप में है,
स्वीकार करो, उपभोग करो,
अपना जीवन सार्थक करो।
…
अतीत में ही बने रहना,
आदमी का वृद्धत्व है,
कहते गए विद्वान जग में,
आज में जाग बुुद्धत्व है।
यह सूचनाक्रांति का युग है। हर क्षण चारों ओर से मत-मतांतर उँड़ेले जा रहे हैं। अनुभव-संपन्न और प्रबुद्ध होने पर भी दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है-
मैं सोचता रहता हूँ कि
मैं, मैं हूँ या एक विचार,
जिसका स्थायित्व नहीं
अस्तित्व नहीं,
पता नहीं कब बन जाती है
विचारों की दुनिया,..मेरी दुनिया,
जहाँ विचार ही होते हैं
पर मैं कहीं नहीं होता।
पूरे संग्रह में आम नागरिक का प्रतिनिधि बनकर उभरा है कवि। आम नागरिक, जिसकी बड़ी आकांक्षाएँ नहीं हैं। आम नागरिक, जो बोलता कम है, लेकिन समझता सब है। आम नागरिक, जिसके लिए उसका राष्ट्र और राष्ट्र के प्रति प्रेम अहम बिंदु हैं (संदर्भ-भारत माता, 26 जनवरी, देशप्रेम व अन्य कविताएँ)। आम नागरिक जिसे रामराज्य चाहिए, माता जानकी का निर्वासन नहीं (संदर्भ- ओ अयोध्या वालो!)। आम नागरिक जो जानता है कि राजनीति कैसे सब्ज़बाग दिखाती है। जनता को उपदेश पिलाना और पालन के नाम पर स्वयं, शून्य रहना अब सामान्य बात हो चली है। (संदर्भ- कर्तव्य की वेदी पर)। कवि ने जो भोगा है, जो अनुभव किया है, किसी नामोल्लेख के बिना पद्य में अनेक स्थानों पर उसे संस्मरण-सा लिखा है (संदर्भ-कंधे और कुछ अन्य कविताएँ)।
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का ‘कॉमन मैन’ भारत के आम आदमी का प्रतिरूप है। एक वाक्य में कहूँ तो- ‘कॉमन मैन’ की कविताएँ हैं, ‘मैं कविता नहीं करता।’
इस आम आदमी का कहना कि मैं कविता नहीं करता, एक रूप में सही है। उनके शब्द सहज हैं, सरल हैं। इनमें भाव हैं, ये अनुभव से उपजे हैं। ये प्राकृतिक रूप से उमगे हैं, इन्हें कविता में लिखने का प्रयास नहीं किया गया है।
तथापि इन रचनाओं के शब्द इतने व्यापक और मुखर हैं कि व्यक्तिगत होते हुए भी इनका भावजगत, इनकी ईमानदारी, इन्हें समष्टिगत कर देती है। तब कहना पड़ता है कि ’यह आदमी करता है कविता।’
कामना है कि कवि डॉ. सत्येंद्र सिंह के इस संग्रह को पाठकों का समुचित समर्थन मिले।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆